Sant Kasturi
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अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-3
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
15/7/1948
पत्र मिला, दिल को खुशी हुई। तुमको यह अन्दाज़ हो गया होगा, कि जिस रास्ते पर तुम हो, ठीक है। ईश्वर का कोई रूप नहीं, इसलिये सर्वव्यापी कहा गया है। अगर उसका कोई रूप होता, तो उसका क्याम एक ही जगह होता। अपनी निगाह को वसी (व्यापक) बनाना चाहिये। तंग दायरा तंग नज़री से होता है। हममें ऐसे लोग मौजूद हैं, कि जो ठोस पूजा को उमर भर नहीं छोड़ते। हालांकि चाहिये यह कि जो ठोस अवस्था ज़्यादा लिये हुए हैं, उनको ठोस पूजा में डालकर, धीरे-धीरे उससे निकाल कर, सूक्ष्म की तरफ ले जाना चाहिए। मगर चूँकि हम स्वयं ठोस हैं, इसलिए अगर ठोसता की तरफ डाल भी दिया जाये, तो फिर उससे निकलने को जी नहीं चाहता, और सही रास्ता मालूम होने पर भी दिल उससे हटता ही नहीं। अगर मैं यह बात प्रत्येक मनुष्य से कह दूँ, तो वह यही समझेंगे कि मूर्ति-पूजन के खिलाफ़ हूँ। मगर मेरी यह मन्शा नहीं है। यह उन लोगों के लिये है, जिनका ख़याल सिर्फ़ ठोसता पर काम कर सकता है। मगर हमेशा उसी चीज को लिये बैठे रहने का नतीजा यह होगा कि वही ठोस असरात उसके दिल में पैदा हो कर दिल सख्त कर देंगे, जिसको हटाने में बहुत देर लगेगी।

मूर्ति-पूजन मैंने भी की है। मगर बहुत थोड़े दिनों। मगर मुझको तस्सली न हुई और उस चीज को बेकार समझकर छोड़ दिया। अगर हम किसी से यह कहें, उस मनुष्य से, जो इस रास्ते पर जा चुका हो और वह इसको न माने, तो क्या कहा जा सकता है, कि उसको सही रास्ते पर विश्वास है। बहादुरों की पूजा हिंदुस्तान में सदा से चली आ रही है, जिसका नतीजा यह हुआ कि लोग बस उसी की पूजा के हो रहें है और मूर्तियाँ स्थापित हो गई अगर मैं मूर्ती-पूजन करता होता और सही रास्ता मुझको, जो इससे कहीं अच्छा है, मिल जाता और सिखाने वाला मुझसे इसको छोड़ने के लिए कहता तो शायद ये क्या, मैं अपने आप को भी छोड़ने के लिए तैयार हो जाता।

इस मार्ग में बुराइयाँ छूटती हैं और फिर अच्छाइयों के तरफ भी रगबत नहीं रहती, तब कर्म-बन्धन से छुटकारा होता है। चौबे जी को मैंने डर की वजह से यह बात नहीं लिखी, तुम्हे लिख रहा हूँ, इसलिये कि मुमकिन है, ईश्वर की यही मर्ज़ी हो कि तुम आला तरक्की करो। रौशनी जो तुम्हे कभी-कभी नज़र आ जाती है, यह आत्मा की झलक है और उन्नति का चिन्ह। मगर उन्नति के लिये यह आवश्यक नहीं कि हर शख्स को यह चीज नज़र आवे। अपने-अपने संस्कार व प्रकृति पर है। मैं समझता हूँ कि तुम यही पसन्द करोगी कि हम उस ईश्वर से प्रेम करें, जिस पर ज़मीनी क्या, बल्कि ख्याली आवरण भी चढ़ा हुआ नहीं है। बाकी हालतें जो तुमने लिखी हैं, वह बहुत अच्छी हैं। इनके बारे में मैं थोड़े दिनों बाद लिखूंगा।

मैं तुम्हारी माता जी से कहता हूँ और चलते समय मैंने उनसे कहा था कि चौबे जी को संभाल लेना, उनके हाथ में ही है। स्त्री पहले स्वयं करे। उसके बाद पति को उस अच्छी बात को करने में सहायता दे और बेटी! यह वक्त अब बार-बार न आयेगा। इसको मुमकिन है कि कुछ लोग समझते भी हों।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-5
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
24/7/1948
पत्र मिला, हाल मालूम हुआ। प्रकाश के बारे में मैं पहले लिख चुका हूँ कि किसी को दिखलाई पड़ता है, और किसी को नहीं, और इससे तरक्की में कोई हर्ज़ नहीं पड़ता। फिर लिखता हूँ कि मार्ग मिल जाने पर, बस उसी पर चलना चाहिये और उसी के उसूलों पर आरुढ़ रहना चाहिये। तुम्हारे पिता जी तुम सब लोगों की उन्नति चाहते हैं, इसमें संशय नहीं। तुम्हें भी ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिये कि वह भी इस मार्ग में अच्छी उन्नति करें और वह बाधाएँ छूट जायें जो उन्नति में बाधक हैं।

देखो किसी कवि ने कितना सुन्दर कहा है -

‘एक हि साधे सब सधै, सब साधे सब जाये।’

इस पर तुम सब को अमल करना चाहिए, यह बड़ी अच्छी बात है। दुनिया के नियम कुछ ऐसे हो रहे हैं कि अपने मतलब की गरज़ से जाने कितनी पूजाएँ ईज़ाद कर लीं। एक से अनेक में तबियत फिरने लगी। विचार की बहुत सी धाराएँ पैदा हो गई, और फिर वह अपने देवता के इर्द-गिर्द फिरने लगीं। हालत ऐसी हो गई, जैसे फव्वारे में पानी हजारों धारें बन कर निकलता है। एकाग्रता जाती रही। असल से दूर होते गये। अब समझाने से भी नहीं मानते, ऐसी हालत बन गई। इलाज सबका बस यही है कि सिर्फ़ ईश्वर प्राप्ति ही अपना उद्देश्य रहे। हजारों वर्ष हम दुनिया में रहे और लाखों वर्ष और दुनियाँ में रहना चाहते हैं। हम वह तरीका क्यों न ग्रहण करें कि जहाँ से आये हैं, वहीं समा जायें और उन आगामी लाखों वर्षों को बचा लें।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-8
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
14/9/1948
पत्र मिला। जवाब शीघ्र इसलिये न दे सका कि कोई लिखनेवाला मौजूद न था। बहुत से खत पड़े हुए हैं। अब सब का जवाब दे रहा हूँ।

तुम्हारी आत्मिक-दशा जान कर चित प्रसन्न हुआ। ईश्वर तुम्हे अपने उद्देश्य में सफल करे। बेचैनी ईश्वर की याद के लिये पैदा होना बड़ा अच्छा है। मैं इसका वर्षों शिकार रहा हूँ यही एक चीज है जो धुर तक पंहुचा देती है और हमारे लिये यही शान्ति है। भक्त की तारीफ यही है कि वह ‘मालिक’ की याद में बेचैन रहे। लोग शान्ति दूढ़ते हैं, जंगल में जाते हैं, मगर इस अनमोल रत्न पर कोई बिरला ही आकर्षित होता है। तुम आइन्दा खत में लिखना कि अब भारीपन किस कदर है। इस भारीपन की दो वजह हुआ करती हैं। एक वजह तो यह होती है कि जो लोग मूर्ति-पूजन करते हैं, उनके दिल में जो ठोसता पैदा हो जाती है, उसको जब यह चीज़ दूर करती है, तो यह बात महसूस होने लगती है। दूसरी वज़ह यह होती है कि आत्मिक-बल हृदय में प्रेम द्वारा ज़्यादा समा गया हो और वह हज़्म न हुआ हो। पहली वज़ह जब होती है, तो दिल में सख्ती ज्यादा मालूम होती है। दूसरी वज़ह कमतर होती है। अब तुम लिखना कि इस की वज़ह जो तुम्हारे समझ में आवे। सम्भव है कि यह बात कम हो गई हो। मैं चाहता हूँ, यह चीज स्वयं ही दूर हो जावे, ताकि तकलीफ न हो।

ता. २७.८.४८ को श्री कृष्ण जन्माष्टमी का दिन था। मेरे लिये आज्ञा यह है कि इस दिन जो लोग जहाँ-जहाँ व्रत रखते हैं, उनको आत्मिक लाभ पहुँचाऊँ इस लिये, उस रोज़ में घण्टों यही काम करता रहा। आज्ञा यह भी हुई थी कि दूसरे दिन भी व्रत रखूं, यानी दो दिन व्रत के लिये हुक्म था। मगर शरीर निर्बल होने के कारण आज्ञा मिली कि एक रोज मैं व्रत रखू और दूसरे रोज़ एक गुरुभाई, जो आत्मिक उत्रति के उच्च शिखर पर है, जिनका नाम पण्डित रामेश्वर प्रसाद मिश्र है, व्रत रखें । यह बात दो-तीन वर्ष से चली आ रही है। तुमने अपने पिता जी की आत्मिक उन्नति के लिये, जैसा कि मैंने किसी पत्र में लिखा था, प्रार्थना की होगी।

मैं तुम्हारे पिछले पत्र का उत्तर लिख चुका था। आज १६ सितम्बर को दूसरा पत्र मिला। उसमें तुमने एक बात लिखी है, वह मेरी समझ में नहीं आई, कि क्या मतलब था। वह यह है कि ‘जो पहले हालत थी, अब नहीं है’। पहले वह कौन सी हालत थी कि जिसके अब न होने से चित्त में ग्लानि है। कदम आगे ही बढ़ना चाहिये और ईश्वर से इसी की प्रार्थना करनी चाहिये। 'वह’ सब कुछ कर सकता है। केसर और तुम्हारी माता जी पूजा करती हैं, यह सुन कर खुशी हुई।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-10
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
26/9/1948
पत्र मिला-तबियत प्रसन्न हुई। तुमने जब अपने भारीपन का हाल लिखा था, मैंने ईश्वर से तुम्हारे लिये प्रार्थना की। ईश्वर-विषय में मैं और तुम दोनों ही भिखारी हैं। उसकी जो मर्ज़ी होती है वही होकर रहता है। वह जिसको अपनी ओर खींच लेवे, वही कामयाब है। एक फ़ारसी कवि ने कहा है:- जिसका मतलब यह है कि- ‘बिना तेरी मर्ज़ी के तेरे दर्शन नहीं होते’। अब दर्शन किसको कहते हैं वह वाकई हालत क्या है, और आम जनता इसको क्या समझ रही है? अगर मैं इसकी व्याख्या करूँ तो बहुत कुछ हो सकती है मगर वाक़ई में मैं इसकी व्याख्या उस रोज करूँगा, जब ईश्वर तुममें वह हालत पैदा कर दे। मैं उस प्रतिज्ञा से बहुत खुश हुआ। तुमको ईश्वर करे, इसमे सफलता प्राप्त हो। ईश्वर करें तुम अपने घर को उजाला करो। यही नहीं, ईश्वर वह समय लावे कि तुमसे दु:खी लोग फायदा उठावें। अगर तुम दिल से प्रार्थना चौबे जी के लिये कर दोगी, तो खाली नहीं जा सकती। ईश्वर तुमको अहंकार से बचावे। चौबे जी अब अच्छे हैं, मगर तुम्हारी माता कुछ ऐसी भंभेर में पड़ी हैं, कि उस सर्व-शक्तिमान ईश्वर की तरफ उनका झुकाव सही मानों में नहीं होता। हमें तो उससे प्रेम करना है, जिसका रंग व रुप कुछ नहीं। यह चीज़ जो तुम कर रही हो, और हम सब लोग कर रहे हैं पर उसी का झुकाव और विश्वास पूरी तौर पर हो सकता है जिसको कि ईश्वर अब इस चोला छोड़ने के बाद दुनिया में लाना नहीं चाहता।

अपनी माता जी से नमस्ते कह देना व पूज्य चौबे जी से भी। अपनी बहनों से भी मेरा आशीर्वाद कह देना।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-12
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
23/10/1948
पत्र मिला-खुशी हुई। ईश्वर का धन्यवाद है कि तुम्हारा रुझान उसकी तरफ हो रहा है। ईश्वर तुमको खूब रुहानी तरक्की देवे । तुमने जो कैफ़ियत शान्ति की लिखी है, अच्छी है, मगर, इस शान्ति में अगर बेकरारी न हो तो ऐसा है, जैसे अच्छे भोजन में नमक न डाले। कैफ़ियत अपनी लिखती रहा करो। मुर्दे की सी दशा, जो तुमने लिखी है, इसका जवाब मैं बहुत दिनों बाद दूँगा, अगर याद रही। इस पर अभी ज़्यादा लिखना मुनासिब नहीं समझता। एक खत में किसी हालत के बारे में पहले भी यही लफ़्ज़ लिख चुका हूँ, कि फिर जबाब दूँगा। अगर इनको किसी डायरी में नोट कर लो, तो मुमकिन है कि मुझे याद दिलाने पर याद आ जावे। केसर की मुझको याद अक्सर आ जाती है। उसके भजन मुझे बहुत पसन्द आये थे, इस वजह से मुझे और भी याद आ जाती है। तन्दुरुस्ती तुम, जहाँ तक हो सके अपनी बनाने की कोशिश करो, यह बात बहुत आवश्यक है। माता जी से मेरा प्रणाम कहना।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-14
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
2/11/1948
पत्र मिला खुशी हुई। ईश्वर तक पहुँचते-पहुँचते जाने कितनी दशायें परिवर्तित होती रहती हैं। ये हालतें प्रत्येक अभ्यासी पर गुजरती हैं। लगन अगर अच्छी है, तो अक्सर दशाएँ Feel होती हैं। तुम्हारे खत मैं रखता जाता हूँ। हर दशा पर एक-एक कर के प्रकाश डाला जा सकता है, मगर मैं उस वक्त इन दशाओं को लिखना चाहता हूँ, जब कि ये दशायें बहुत कुछ पार हो कर ऊँची उठ जाएँ। ईश्वर से कुछ दूर नहीं, वह सब कुछ कर सकता है। हमारी भूल यह है कि उसको अपने पास होते हुए भी अनुभव नहीं करते। अपनी माता जी से मेरा प्रणाम कहना।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-18
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
19/11/1948
तुम्हारे दोनों पत्र मिले, पढ़ कर खुशी हुई। यह ईश्वर की कृपा है कि तुम्हारा रुझान उस तरफ बढ़ता जाता है। तुमने जो कुछ भी लिखा है, उससे यह मालूम होता है कि तुम्हारी लय-अवस्था बढ़ रही है, मगर अभी स्थाई रुप में नही हुई है। हो जावेगी, अगर ईश्वर ने कृपा की और तुमने अपनी मेहनत जारी रखी। उस काम के लिये तन्दुरुस्ती की भी जरुरत है, लिहाज़ा इसकी भी फ़िक्र रखनी चाहिये। तन्दुरुस्त मैं भी नहीं हूँ। हर वक्त के दर्द ने मुझको कमज़ोर कर दिया है, मगर यह हालत मेरी बहुत कुछ सीखने के बाद हुई थी। ईश्वर कमज़ोर की आवाज़ ज्यादा सुनता है, मगर उसके सुनने से पेश्तर हमको उपाय और अभ्यास करना पड़ता है, ताकि हम इस क़ाबिल बन जावें कि हमारी आवाज़ ‘मालिक’ तक पहुँचा सके और इसके लिये तंदुरुस्ती की आवश्यकता है

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-20
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
10/12/1948
पत्र मिला-पढ़कर खुशी हुई। तुम्हारी हालत उन्नति पर है ‘मालिक’ का धन्यवाद है। कोशिश से सब कुछ हो जाता है, और मैं समझता हूँ, ईश्वर से मिलना आसान है। सिर्फ उस तरफ दिल का रुझान करने की ज़रूरत है और यह बात मैं हर एक से कहता हूँ। लय-अवस्था तुम्हारी बढ़ रही है। ईश्वर ने कृपा की और तुम्हारी कोशिश जारी रही तो स्थायी रुप में भी हो जावेगी, इसमें उन्नति का कोई ओर-छोर नहीं। सिर्फ लय-अवस्था ही स्थाई रुप में आ जाना काफी नहीं है। इसके आगे भी बहुत कुछ है और फिर उसका भी ओर-छोर नहीं। अगर मनुष्य सबसे ऊँची दशा में आ जावे और वह ऐसी दशा हो कि जब से दुनिया पैदा हुई, तब से और किसी को यह बात नसीब न हुई हो, तो भी उसके बाद बहुत कुछ जानने को रह जावेगा। न मालूम इस ज़माने में मनुष्य अपने आप को पूर्ण कैसे समझ लेता है। पूर्णता सिर्फ ईश्वर में है। इन लोगों की मिसाल ऐसी होती है, जैसे किसी शख्स को एक हल्दी की गाँठ मिल जावे और वह अपने आप को पंसारी समझ बैठे। ‘नेति-नेति’ वेदों ने कहा है। एक बात ज़रुर ध्यान में रखना चाहिये कि किसी शख्स से ऐसे शब्द न कहे जायें, जो अगर वैसे ही हो जाय तो उससे उसको तकलीफ पहूँचे।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-24
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
16/1/1949
मुझे हर्ष है कि ऐसे अच्छे पत्र आध्यात्मिक उन्नति के मिले जाते हैं। ईश्वर को धन्यवाद है। मुझे कोई नहीं पूछता और न मेरी कोई खबर लेता है। और पूछे भी कौन, जब कि मेरे पास ज़ाहिरा कोई दौलत मालूम नहीं होती। लोग आते तो अवश्य हैं और मुझसे सीखते भी हैं, परन्तु बहुत कम। एक-आध इस गरीब को पत्र द्वारा पूछ लेते हैं। मेरे पास अब सिवाय गरीबपन के और कुछ नहीं है, जिससे लोग मेरी तरफ आकर्षित हों। तोशा (सफर का सामान) तो मैंने रखा ही नहीं, क्योंकि अब सफर करना ही नहीं हैं। अब अगर किसी से मैं यह कहूँ कि तुम सफर करो अपने वतन का तो क्या वह यह कहने का हकदार नहीं है कि ऐसे सफर से तो दर गुज़रा की मंजिल होते ही या उस पर पहुँचते ही अपना तोशा भी रख दूँ। सामान जब सब खो दिया, तो अपने पास रह ही क्या गया? क्या सफर का यही नतीजा है? फिर बात-चीत और सत्संग से लोग जब यह जानने लगते हैं, तो अक्सर उनकी तबियत हटने लगती है। इसकी मिसाल एक शाहजहाँपुर में मौजूद है।

तो प्यारी बेटी! अब मेरे पास क्या है जो मैं तुम सबको दूँ? अगर खोई हुई चीज़ फिर से हाँसिल करने की कोशिश करूँ, तो वह भी नहीं होता। इसलिए, क्योंकि मैंने उससे इस सफ़र की कीमत अदा की है। अब रह क्या गया मेरे पास? बस कुछ नहीं, और उसको लेने के लिये इक्का-दुक्का तैयार कठिनता से होते हैं। तो क्या तुम्हें यह चीज़ भली मालूम होती है? प्रेम और मोहब्बत, जिसको तुम चाहती हो, मेरे पास अब वह भी न रही, जो तुमको दे डालूं। हाँ, यह हो सकता है कि हम तुम दोनों हाथ पसार कर ईश्वर के सामने इसको देने की प्रार्थना करें। उसमें डर यह भी है कि कहीं 'उसने' (ईश्वर) यह कह दिया कि जिसने मुझे अपना सब कुछ दे डाला, तो अगर उसे प्रेम दिया जाये, तो क्या वह गरीब रख सकेगा। मुमकिन है कि ईश्वर अपना प्रेम तुमको दे देवे और भाई, अपने लिये तो मुझे शक है कि जाने वह देगा या नहीं। इस लिये कि मेरी कलई उस पर खुल चुकी है। तुमने अपनी जो कुछ भी हालत लिखी है, डर है कि मेरी तरह कहीं धोखे से इस सफर की कीमत अदा न कर दो और एक गरीब बेनवा (बेसरो-सामान) की तरह न बन जाओ।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-26
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
9/2/1949
पत्र तुम्हारा २४.१.४९ का लिखा हुआ मिला। अब उत्सव के पश्चात् उसका उत्तर दे रहा हूँ। तुमने जो मेरे खत का जवाब दिया है कि एक गरीब आदमी, अपनी गरीबी दे सकता है। यह उसका जवाब था, जिसको मैंने यह लिखा है कि मैं बहुत गरीब हूँ।

गरीबी की हालत वह है, जिसको लोग तरसते चले गये हैं, और सम्भव है इसका मज़ा बहुत से ऋषियों ने भी न चखा हो। अगर हम मालदार नहीं हैं तो इसके माने यह है कि हम गरीब हैं। मालदार आदमी के पास सब कुछ होता है, गरीब आदमी के पास कुछ नहीं होता है, अर्थात् जो गरीब है, उसके पास कुछ नहीं है। अब जिसके पास कुछ नहीं है, उसके पास क्या चीज़ हो सकती है, जो दूसरों को दे? अब यदि दे, तो उस चीज का नाम ‘कुछ नहीं’ रख लिया जाये तो यह एक ऐसी चीज़ बन जाती है जो कि देने के काबिल नहीं रहती। एक आदमी है, जो किसी समय धनी था, अपनी पूँजी दूसरों को दे सकता था। जब गरीबी बढ़ती गई, उसका देना कम होता गया। जब कुछ न रहा, तो कुछ न दे सका। अब उससे माँग कर देखो तो भला उसके पास क्या है, जो देगा? अगर मुझको ऐसा ही समझ लिया जावे, तो मेरे पास देने को कुछ नहीं रहता। हाँ, इसके अन्दर एक बात ज़रूर है कि ‘कुछ नहीं’ की तह में यानी जिसको ‘कुछ नहीं’ कहा है, कोई चीज़ ज़रूर है, जो की दी जा सकती है। इसके आगे कुछ भी नहीं रहता। वहाँ पर देना और लेना सब समाप्त हो जाता है। अब इस हालत में पहुँचने के लिये तरीका बिल्कुल साफ है कि मालदार आदमी के पास जो कुछ सामान हो, उसको छीनता चले। आखिर में जब उसके पास ‘कुछ न’ रह जायेगा, तो वह गरीबी की हालत पर आ जायेगा । तो तुम चौबे जी साहब से पूछ कर लिखना कि किसी का माल व असबाब छीनना शास्त्र के विरुद्ध तो न होगा? अगर इसका जवाब वह यह दें कि सामान रहते हुए, उससे बेखबर हो जावे तो यह सवाल पैदा होता है कि किसी न किसी शक्ल में सामान तो उसके पास रहा ही, फिर सामान रहते हुए गरीबी कैसे आ सकती है और अगर बेखबर भी हो गया, तो समय पर ज़रुरत उसको सचेत कर देगी। अब क्या होना चाहिये? बस यही तरकीब हो सकती है कि सामान को ऐसी जगह रखवा देवे कि ज़रुरत पड़ने पर उसकी खबर हो जावे, तो ख्याल पैदा होता है कि यह चीज़ दूसरे के पास धरोहर रखी हुई है। यह शुरु का तरीका है, और आगे बढ़ने पर इस सामान को, जो बतौर धरोहर दूसरे के पास रखा हुआ है, ‘उसका’ ही समझ लें और अपना कोई अधिकार उस पर बाकी न रखे, तब यह बात पैदा हो सकती है कि सब कुछ होते हुए अपने पास कुछ न महसूस हो। अब मान लो कि हमारे पास जो अन्दरुनी ताकतें व सिद्धियाँ हैं, यानी जो ताकतें हमको ईश्वर से मिली हैं, उसको अगर हम सब ईश्वर की समझ लेवें और उसको इन पर काबू और अख्तियार दे देवें, या दूसरे शब्दों में इनको ‘उसके’ हाथ बेच डालें, तो हम हर चीज़ से खाली हो जाते हैं। अब यह चीज़ पैदा होती है ऐसे अमानतदार को ढूँढ़े कैसे, कि यह चीज़ उसके हवाले कर सकें? वह तो इतनी दूर है, जैसा कि ख्याल है, कि वहाँ तक पहुँचना कठिन है और अगर वह सबसे नज़दीक भी है तो उसका यह हाल है कि जैसे अपनी आँख खुद अपनी आँख को नहीं देख सकती है। तो भला ऐसे अमानतदार को कैसे पावें? जवाब इसका यही है कि हम अगर सिर से पैर तक आँख बन जावें तो कम से कम हमको कहने को ज़रुर रह जायेगा कि हम अब कुल आँख ही आँख हो गये। अब ज़रुरत सिर्फ इस बात की रह जायेगी कि हम उसको तलाश करें। जब हम कुल आँख ही आँख बन गये, तो इसके माने यह हुए कि देखने की ताकत हमारे कुल बदन में है। अब देखना क्या रहा, जब हम कुल आँख ही आँख रह गये और अब हमारे पास सिवाय इस चीज़ के कुछ न रह गया। अब यह बात भी जाती रही कि आँख को आँख नहीं देख सकती, इसलिये कि वह ताकत जो उसके देखने की तरफ हमको मायल कर रही थी, उसका अब खात्मा हो गया और इसलिये कि उन ताकतों की जगह पर जो अनेक रुप में हैं, अब आँख ही रह गई है। अब तो बेटी! यह हो गया है, कि हर तरफ वह चीज़ है, जिससे कि रोशनी निकलती है। जो आँख - आँख को देखना चाहती थी, वह अब सिर से पैर तक एक हो गई है। उसको देखने की अब अपने आप को ज़रुरत भी नहीं रही।

इस कुल इबारत का मजमून यह है कि जैसे आँख ही आँख अपने में दिखलाई देती थी, तो वह चीज़ें जाती रहीं, जिससे आँख को आँख देख सकती थी। इसी तरह से अगर हम बजाय आँख के ईश्वर ही ईश्वर को भास करने लगें तो फिर हमको अमानतदार की तलाश नहीं रह जाती। इसलिये कि फिर वह कुल चीज़ असली रुप में हो जाती है, जिसको हम अमानतदार के हवाले करना चाहते थे। अब गरीबी आई, मगर हमको मालदारी और गरीबी, दोनों का खात्मा करना है। जो तब ही हो सकता है, कि बजाय कुल आँख सिर से पैर तक बनने में वही असली आँख जो ईश्वर है बन जावें ऐसा स्वाभाविक है कि इसका भी पता न रहे, तब मालदारी और गरीबी दोनों गायब होती है। पिछली चिट्ठी में जो मैंने अपनी गरीबी का जिक्र किया था, वह हालत बन्दे की है और इसके आगे बड़ी Personality और इससे आगे अवतारों की है। इस पत्र का उत्तर अगर बेटी! तुम लिखो तो मेरा दिल बड़ा खुश हो और लिखो ही क्या, ऐसा ही होने की प्रार्थना करो। ईश्वर से कुछ दूर नहीं, वह सब कुछ कर सकता है। तुम जब शाहजहाँपुर में थीं, तो तुमने मुझसे कहा था कि बाबूजी मुझे नौकर रख लो। मैं इन प्रेम भरे शब्दों से खुश हुआ बेटी! केवल तन्दुरुस्ती का इन्तज़ार है और इसी की वजह से धीरे-धीरे का मजमून है, वरना रुहानियत असल रुप में पैदा हो जाना एक क्षण-मात्र का काम है। इस नौकरी की तनख्वाह तुमने छ: सिटिग रोज़ माँगी हैं। ईश्वर ने चाहा तो तुम्हारी वह हालत पैदा होगी कि हर समय सिटिंग ही सिटिंग रहेगी। फिर क्या होगा, जिसका मैं नौकर हूँ, उसकी ही नौकरी तुम कर लेना।

केसर ने मुझे पत्र तुम्हारे पत्र के साथ भेजा है। उसका जवाब यह है कि वह तो हमारी लड़की या बहन है और उससे ऐसा नाता भी है। मैं तो कुल दुनिया को चाहता हूँ कि मुझ से अच्छा बने और मेरी प्रार्थना भी यही है, कि इसके बदले में मुझे जितनी सज़ायें भी मिलें, मुझे सब बर्दाश्त है। इस पत्र में मैंने वैराग्य और लय-अवस्था दिखलाई है और यह भी दिखलाया है कि ईश्वर-दर्शन क्या है। ईश्वर-दर्शन की हालत और उसका आनन्द ऐसा समझ लो जैसे संग(पत्थर) बे-नमक और आखिर पर यही कैफ़ियत हो जाती है। इसके लिये जन्म-जन्मान्तर लोग मेहनत करते हैं और इसके एवज़ में जो मिलता है, उसको अगर शुरु में दिया जावे तो लोग भागने के लिये तैयार हो जायें और ईश्वर की तरफ कोई न रागिब हो।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-34
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
8/5/1949
पत्र मिला, पढ़कर खुशी हुई। मैं तुम्हारे साथ में बहन का बर्ताव रखना चाहता हूँ, इसलिये कि हम सब 'लाला जी' की औलाद हैं और उन्हीं के सेवक। मगर बेटी की निगाह से मैं देखता चला आया हूँ, इसलिये दिल में बेटी का ही भाव बनता है, मगर ज़ाहिरा मैं बहन का ही भाव रखूँगा। अन्दर अगर यह भाव बहन का बन जाये, तो अच्छा है। तुम्हारी अन्य सभी बहनों से तो बहन का भाव रहता है, मगर तुमसे यह भाव नहीं बनता। तुम किसी वक्त मुमकिन है, किसी ऋषि की लड़की हो, और मोक्ष तो तुम्हारी एक बार हो चुकी है। चाभी खत्म होने के बाद फिर वापिस आना पड़ा है। अब यह नहीं कह सकता कि कितने जन्म तक आना पड़ा। अब Liberation की बारी है, अगर ईश्वर दे दे। कुछ ख्याल ऐसा भी होता है कि ऋषि पंतजली के वक्त में तुम मौजूद थी और तुम उनको जानती थीं, और उनके वाक्य सिर्फ सुने सुनाये दिल में तैरा करते थे। उस जन्म के बाद तुमने योगाभ्यास भी किया था, मगर उसको पूरा न कर सकी और उसी में मोक्ष पा गई। मुमकिन है, इस रिश्ते की वजह से तुम पर निगाह पुत्री की पड़ती है। इस भेद को मैं इस पत्र में खोलना नहीं चाहता इस लिये कि लोग इस पत्र को पढ़ें तो न मालूम मेरे बारे में क्या ख्याल करें। अगर इसके जानने की ज्यादा curiosity हो तो मास्टर साहब से पूछ लेना। मगर चौबे जी से डर लगता है। मौजूदा जन्म से पेश्तर तुम एक किसान की भोलीभाली लड़की थीं और चौदह साल की उम्र में तुम्हारी मृत्यु हुई। Innocent बहुत थीं। यह बात मैं खत के जवाब से बाहर लिख गया।

एक बात मैं तुम्हें लिखे देता हूँ और यह स्वामी विवेकानन्दजी ने भी कही है कि सिखाने वाले से जितने भी मनुष्य सीखते हैं, वे ख्वाह उम्र में बड़े हों या छोटे, सब उसकी रुहानी औलाद होते हैं। मगर कहीं इससे यह न समझ जाना कि मैं सिखाने वाला हूँ। सिखाने वाला कोई और है, जो हम सब को सिखाता है। केसर की हालत ईश्वर की कृपा से अच्छी है और उसकी चौबेजी ने सिफारिश भी की है। मगर उससे कह देना कि अभी दिल्ली दूर है, कोशिश किये जाये।

अभ्यासी को सन्तुष्ट कभी नहीं होना चाहिये और ‘मालिक’ की याद जितनी कर सके, करे। हमारा धर्म यही है कि हमें सन्तोष उसकी याद का न आने पावे। अब यह ‘मालिक’ की देन है और उसके हाथ में है कि कब सन्तुष्ट कर दे। जो नियम कि तुमने Quote किया है, वह Beginners के लिये है, कि ऐसी हालत पैदा करें। वास्तव में प्रार्थना वही है कि जैसी तुम करती हो, शून्य-दशा पैदा हो जाये। मेरा पहले वाला खत देख लेना, जिसकी नकल मास्टर साहब के पास है। सम्भव है कि चौबे जी के पास भी हो। जब अभ्यासी का सम्बन्ध ऊपर की दुनियाँ से जुड़ जाता है और वहाँ रहन होने लगती है, तो उसको यही प्रतीत होता हे कि यह मेरा घर है। मेरी भी किसी समय ऐसी हालत रही है। तुमने यह जो लिखा है कि- ‘मैं कभी-कभी रसोई घर भी भूल जाती हूँ और भौचक्की सी रह जाती हूँ’, चौबे जी की ज़बान में तो इसका जवाब यह है कि तुम्हें भूख ही नहीं लगती, स्वास्थ्य न ठीक होने की वजह से। मेरा जवाब यह है कि भूल की अवस्था पैदा हो रही है। मगर इसकी इतनी ज्यादती इस हालत में हो जाना कुछ-कुछ कमज़ोर दिमाग की भी वजह है। भौंचक्की सी रहजाना, यह एक आध्यात्मिक हालत है, जिसकी अभी शुरुआत है, पूर्णरुप में अभी नहीं आई है। मैं यह बताना नहीं चाहता कि पूर्ण रुप में आ जाने के क्या Symptoms हैं, इसलिये कि यह ख्याल तुम हालत आने से पहले ही कहीं बाँध न बैठो। Godly Science के खुलने कि शुरुआत उसी वक्त होती है, when a man begins to wonder.

Swami Vivekanand (८.१५. सांय):- This condition is rarely found. All Abhyasis approach, but do not stay. It is bestowed, no doubt. Daughter ! Excellent letter it is. See the approach. You will not be getting such a Master. I am sorry. Nobody comes to Him for this sort of training. All are over whelmed. Such a Master will not appear in future, Masterly command he has got. People are still sleeping in deep slumber inspite of my repeated warnings. Avail daughter, tThis opportunity. May God bless you. You do not know the condition of your father and mother. They too are unaware of it. What He (Ramchandra) has achieved at Lakhimpur, others require a thousands of years. See his efficacious training; salvation is sure for your mother because she has brought forth such a good master. Stones cannot breed such a good master. It is she only and her kinsman.

लालाजी साहब तुम्हारी माताजी की इस वक्त तारीफ़ कर रहे हैं कि वास्तव में ख़्याल पुत्र का जमाने वाला हो तो ऐसा ही हो, जैसे तुम्हारी माँ, तब फायदा है। मास्टर साहब से कह देना कि मैंने इन खतों की नकलें नहीं रखी हैं। अगर रखना चाहें तो चौबे जी से करा लें।

मैं अपनी रौध में लिख गया, फिर मेरे दिल में खेद पैदा हुआ कि मैंने तुमको किसान की बेटी बतला दिया। सही बात राम जाने। मेरी समझ में आया सो ना मालूम मैं क्यों लिख गया। अगर बुरा मालूम हो, तो क्षमा करना। और इस खत की नकल किसी को न करने देना, बल्कि फाड़ देना।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-36
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
15/5/1949
पत्र मिला, पढ़कर खुशी हुई। ईश्वर तुमको रोज़-व-रोज़ रुहानी तरक्की दे। मैं यह चाहता हूँ कि तुम अपनी जीवनी लिखना शुरु कर दो और जब से तुमने ब्रह्म-ज्ञान सीखना शुरु की है, उस तारीख तक आने पर अपनी रुहानी हालतें लिखती चलो। मेरे पास तुम्हारे सब खत मौजूद हैं, जो मैं भेज दूँगा। उनमें जो हालतें लिखी हैं, वह सब लिखती जाना। शुरु के हाल तुम्हारी माता जी को सब मालूम होंगे, उनसे सब पूछ लेना और अपने spiritual Development के लिये जो तरीके तुमने किये हैं, वह सब लिखते जाना।

अपनी माता जी से प्रणाम कहना।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-39
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
2/6/1949
पत्र मिला, कुछ कामों में मैं ऐसा व्यस्त रहा कि मुझे पत्रोत्तर भेजने का मौका न मिला। फैलाव जो तुम्हें मालूम होता है, वह दिल के बीच के मुकाम की कैफ़ियत है। इससे यह समझना चाहिये कि तुमने उस हिस्से से अपना सम्बन्ध जोड़ लिया है, जिसके बाद ही ठोस हालत शुरु होती है। यानी उसकी सूक्ष्म कैफ़ियत में तुम्हारी पहुँच है, उसमें तुम फैल रही हो। सम्भव है बहुत जल्द ही इससे ऊँचे जाने की खुशखबरी मिले।

अपने आपको बच्चा समझ कर जो मुझसे खेलती हो, यह ईश्वरीय ख्याल कायम रखने का एक तरीका है। ख्याल एक ही होना चाहिये, रुप बदलने में कोई हर्ज नहीं और ऐसा करने से दिमाग को आराम भी मिल जाता है।

मैं पहले पत्र का उत्तर लिख चुका था कि तुम्हारा दूसरा पत्र भी आ गया। अब उसका भी उत्तर लिख रहा हूँ। इस खत ने मुझको यह उम्मीद दिला दी कि अब उस हालत के करीब हो, जहाँ कि लय-अवस्था की सूक्ष्म गति शुरु होती है। मगर यह सब हृदय-चक्र की हालतें है; अभी कुछ सैर इसकी और बाकी है। इसके बाद दूसरी इससे बेहतर हालत की खुशखबरी मिलेगी। यह हालत पहले ही चक्र की है; अभी बहुत से चक्रों का crossing बाकी है। और इसके बाद ईश्वर जाने क्या-क्या हालतें हैं, फिर भी छोर नहीं। तुमने जो यह लिखा है कि यह याद नहीं रहतीं कि ‘मालिक’ की याद थी या नहीं थी, इस चीज़ का पैदा हो जाना इस बात की दलील है कि उसकी याद आंतरिक पहुँच चुकी है, मगर यह कार्य ईश्वर का है। हमारा काम यही है कि जिस तरह हो सके, उसकी याद रखें। हमारे यहाँ अभ्यासी को यदि थोड़ी सी भी लगन लग जाती है, तो अनजाने उसकी याद कायम ही रहती है। जब हम अपना ख्याल उसमें कायम कर देते हैं, तो तेज़ मालूम लगती है। भौंचक्के होने का जवाब मैं पिछले खत में दे चुका हूँ।

नींद के बारे में जो तुमने लिखा है, उससे यह मतलब निकल रहा है कि तुम सुषुप्ति की हालत में तेज़ जाती हो और आँख खुलने पर यह मालूम होता है कि किसी नये देश से आयी हो। इसका मतलब यह है कि यह अन्दाज़ होने लगता है कि तुम सुषुप्ति में जाती हो। वैसे दूसरे आम लोगों को जो गाढ़ निद्रा में जाते हैं, जागने पर यह एहसास नहीं होता कि हम कहीं से आये हैं। इस चीज में लय हो जाना (मगर इसमें कोशिश नहीं की जाती) और फिर उसमें बका (जिन्दगी) की हालत पैदा हो जाना तुरीय का अंदाज है। मगर इसमें अभी बहुत देर है। माता जी को Sitting देने का तरीका मास्टर साहब बतला देंगे।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-47
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
27/7/1949
पत्र मिला, हाल मालूम हुआ। हमारे यहाँ कोई नहीं रुकता, अगर विश्वास ठीक हो तो ऐसे Station ज़रुर आते रहते हैं, जहाँ पर ठहराव कुछ हो जाता है। अगर ज्यादा दिनों तक ठहराव रहे तो तरक्की में उतने दिनों कमी रहती है और अगर कम रहे तो कोई हर्ज़ नहीं होता। यह ठहराव भी बड़ा मुबारक है। इससे आगे बढ़ने की ताकत पैदा हो जाती है। एक कारण रुकाव का और हो जाता है। वह यह है कि ज्यादा खा जाने से, हज़्म नहीं होने की वज़ह से यह बात पैदा होती है। महात्माओ ने इसको भी मुबारक कहा है। कहा तो यहाँ तक है कि अक्सर अभ्यसियों की बरसों यह कैफ़ियत रही है और इसको कब्ज़ (spiritual constipation) कहा है, मगर यह हमारे गुरु महाराज की बरकत है कि इस प्रकार का कब्ज़ जो रुकावट डाले, पैदा नहीं होता। तुम्हारी हालत कब्ज़ की न थी और न होगी, यदि ईश्वर ने चाहा। बल्कि एक Stage पार करने के बाद और उसके आगे आने वाली Stage के बीच की हालत थी। यह बीच की जगहें हर अभ्यासी को पड़ती हैं। मैंने अपनी आत्मिक बल की एड़ उससे तुम्हें निकालने को नहीं लगाई। तुम अपनी ताकत से स्वयं निकल आई, और मैं चाहता भी यही था। अगर अब तक उस हालत से न निकलतीं तो जरुर मैं अपनी will exercise करता। सबसे अच्छा चलना तो उसी को कहते हैं कि अपनी मेहनत से आगे बढे। तुम्हे अपने चित्त में गलानी नहीं करनी चाहिये, इसलिये कि अगर यह हालत न होती तो तुम उससे निकलने की कोशिश नहीं करती। अब चूकि इससे निकलने के लिये अपने हाथ-पैर चलाये हैं, इसलिये आगे बढ़ने की और ताकत आ गई। जिस्म में तुमने रेंगन लिखी है, वह चीज़ ज़िस्म में गुदगुदी पैदा करती है, या सिर्फ़ उसका कोई action सा पैदा होता है। दूसरी बात यह है कि यह चीज़ बढ़ रही है या उतनी ही है, और किसी वक्त मालूम होती है या नहीं?

माता जी से मेरा प्रणाम कहना, तथा बच्चों से दुआ।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-51
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
25/8/1949
जब आदमी उजेले की तरफ देखता है, आँख का रेटिना (Retina) glaze करने पर expand हो जाता है। नतीजा यह होता है कि उस उजेले में भी अंधेरा प्रतीत होता है। यह कैफ़ियत अधिकतर त्रिकुटी के मुकाम पर पहुँचने से होती है। वहाँ पर उजेला बहुत है, इसलिये अंधेरा प्रतीत होता है। यह बात मैं आगे के लिये लिखा चुका। तुमने जो लिखा है कि लखीमपुर परदेश मालूम होता था और घर वाले सब ऐसे मालूम होते थे, जिन्हें मैं जानती ही नहीं थी। ऊपर लिखे हुए नियम के अनुसार जब अभ्यासी ‘रुह’ में लय होना शुरू हो जाता है, यानी उसकी जड़ ‘उसमे’ गड़ जाती है तो अपनायत केवल अपनी रुह से होने लगती है। अपनायत के contrary जो outward vision है, वह dull हो जाती है। अपनी असली ताकत ही में निगाह जम कर रह जाती है। जो चीज़ सामने अधिकतर रहती है, पहले वह dull मालूम होती है। उसके बाद कुल दुनिया ऐसी ही मालूम होने लगती है। उसके बाद हालत और बदलती है, जिसका इस समय खोलना मैं मुनासिब नहीं समझता। खाली रहना अच्छा है और इसके यह माने होते हैं कि हमारे बहुत कुछ आवरण उतर चुके हैं। दिल पर निगाह अधिक अभ्यास हो जाने पर ठहरा नहीं करती इसलिये कि हमने दिल का बिन्दु किसी Plane of Region में जाने के लिये बनाया था, इसलिये जरुरी नहीं रहता कि दिल ही पर हम बार-बार जबरदस्ती निगाह को कायम करें। शुरु में ध्यान दिल पर किया, फिर वह जिस Plane में स्वयं चला जाये वहीं पर रखें। माथे और सिर के पीछे के हिस्से में, जो तुमने लिखा है, मालूम होता है, कुछ खुल गया। माथे में तो असर ज़रूर है, मगर पीछे के भाग में अभी झंकार है और अभ्यासियों को हमारे यहाँ अक्सर मालूम होती है। इसलिये कि मैं ऐसी सादा तवज्जह (sitting) देता हूँ, जिसका असर जहाँ पर भी यह चीज़ है, जल्द पड़ता है। तुम यह भी लिखना कि जब तुम पहूँची, तब घर का वायुमण्डल क्या कुछ बदला हुआ पाया? यदि पाया तो किस कदर। इति:-

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-61
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
10/9/1949
तुम्हारे कई पत्र आये, मगर जवाब न दे सका। अब कुछ थोड़ा सा संक्षेप में लिख रहा हूँ। तुम्हारी जो कुछ भी हालत है, यह जहाँ तक मेरा ख्याल है, हृदय चक्र की सैर (To the extent of Pind Desh) पूरी हो चुकी है, और आत्मा-चक्र की सैर अब दर पेश है। मैंने ‘जहाँ तक’ का लफ्ज़ इसलिये इस्तेमाल किया है कि मेरे सिर में इस समय भारीपन है, इसलिये अनुभव शायद ठीक न हो सका हो। यकीन है कि ठीक होगा।

‘मालिक’ का बन्दे की याद में संलग्न होने के माने यह है कि बन्दे की ज़ज्बे की आग ‘मालिक’ तक पहुँच चुकी है और उसको यह खबर हो गई है कि कोई बन्दा मेरी याद करता है, या दूसरे मानों में तुम्हारी आवाज़ ‘मालिक’ के कानों तक पहुँच चुकी है। जब आवाज़ किसी शख्स की किसी को पुकारने की आती है, तो जिसको कि पुकारते हैं, वह मुखातिब हो जाता है और मुखातिब होने के बाद यदि उस शख्स को यह प्रतीत हो जाता है कि यह प्रेम और ज़ज्बे से मुझे पुकारा गया है, तो उसमें भी पुकारने वाले की मोहब्बत पैदा हो जाती है। कबीर साहब ने लिखा है कि-

‘मेरा राम मुझे भजे जब, तब पाऊँ विश्राम।’

यह हालत बहुत काबिले तारीफ़ है और बुजुर्गों ने इसके माने यह निकाले हैं कि ऐसी हालत में ईश्वर प्रेमी होता है और बन्दा प्रीतम। भक्ति मार्ग में इसको बहुत अच्छा कहा है और हम भक्ति भाव से चलते हैं, और यदि इसकी कहीं Philosophy हम बयान करें, तो फिर यह चीज़ ज्ञान-मार्ग में आ जाती है। इसलिये मैं इसको बयान नहीं करता और इसकी Philosophy जहाँ तक मेरा ख्याल है, किसी बुजुर्ग ने बयान भी नहीं की, क्योंकि यह बात Etiquette और अदब के खिलाफ़ मालूम होती है। तुम जब उस Point पर आ जाओ जिसको मैंने आयन्दा छपने वाली किताब में Central Region कहा है, तो समझा दूँगा।

तुमने यह जो लिखा है कि ‘मेरी यह हालत कि जो पूजा आरम्भ करने से पहले थी’। इसकी कुछ-कुछ रमक तो आ जाती है, मगर पूरी तौर से आ जाने का इन्तजार है और जैसा मैं चाहता हूँ, वह अभी दूर है। यह बिल्कुल ईश्वरीय हालत है। इसके परिपक्व हो जाने पर इन्सान सन्त और ठीक आ जाने पर परम् सन्त कहलाता है। यह एक कैफ़ियत मुर्दा की सी होती है। इंसान ज़िन्दगी में ही मुक्ति का तमाशा देखता है और इसमें परिपक्व हो जाने पर जीवन-मुक्ति की दशा आ जाती है और बीज दग्ध हो जाता है। यहाँ पर इन्सान को इन्सान कह सकते हैं, इससे पहले इन्सान बसूरत हैवान है।

तुमने Hospital में जो Scene देखा था और उसे देख कर घर पर जो भीष्म पितामह की मिसाल सामने आकर ख्याल गूंजे थे, यह हिम्मत दिलाने वाले थे। इनसे कोई रुहानियत का सम्बन्ध नहीं है, और तुमने जो यह लिखा कि बाद को कमज़ोरी मालूम हुई, उसकी वज़ह यह मालूम पड़ती है कि चूँकि तुम कमज़ोर हो, जोश आने पर खून की गर्मी बढ़ी और जोश समाप्त हो जाने पर यह फिर Normal Condition पर आ गया। लिहाज़ा जो ताकत किसी जोश में खर्च हुई, ज़िस्म में कम हो गई, इसलिये कमज़ोरी मालूम हुई। जैसे जब दिल कमज़ोर होता है और इसको कोई Stimulant दिया जाता है, तो ताकत मालूम होती है और जब इसका असर खत्म हो जाता है, तो जितनी ताकत दवा ने बढ़ाई थी, वह तो जाती ही रहती है और अपनी भी कुदरती ताकत उसमें खर्च हो जाती है, इसलिये कमज़ोरी मालूम होती है। इसलिये कि दिल ने अब ज्यादा काम किया तो कमज़ोर होने की वज़ह से उसे थकान भी लाज़िमी है, जिसको कमज़ोरी कहते हैं।

अब रहा, जो तुमने अपनी बुआ के बारे में अफसोस ज़ाहिर किया है, वह तकाजाय वर्शारयत है। सबसे छोटे बच्चे पर तर्स ज़रूर मालूम होता है, मगर ईश्वर ‘मालिक’ है, उसके सब काम मसलेहत्त् के ही होते हैं। इसकी दो ही सूरतें थीं। या मैं पहले जाता या वह। मेरे पहले जाने में यह मुमकिन था कि उनकी आहट या आवाज़ मेरे कानों तक न पहुँचती और उनका काम इतना अच्छा न बनता। जो बन जरुर जाता, इसलिये की ‘लाला’ जी ने एक मर्तबा मुझ से फ़रमाया है, जिसका यह मतलब है कि उसने खूब झाड़ फटकार तुम पर की और तकलीफ़ दी, जिसकी वज़ह से तुम्हारी सहनशीलता की आदत पड़ गई, जो आध्यात्मिक उन्नति के लिये ज़रुरी है, इसलिये वह आज़ाद जायेगी। आज़ाद करना तो बुजुर्गों के बाँये हाथ का काम है, कर ही देते हैं और यह उन्होंने किया भी। ‘नाम मेरा और गाँव तेरा’।

केसर, बिट्टी को दुआ। माता जी को प्रणाम।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र "
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-62
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
9/10/1949
मैं पिछले पत्रों के जवाब दे चुका हूँ, जो इसी खत के साथ है। जो खत मास्टर साहब कल अपने-साथ लाये हैं, उसका जवाब दे रहा हूँ।

तुमने अपनी आत्मिक-दशा जो कुछ भी लिखी है, अच्छी है। हमारी कोशिश यही होनी चाहिये कि जिस तरह से हो सके ‘मालिक’ की याद करें। यद्यपि यह जरूर होता है कि एक वक्त वह भी ज़रूर आता है कि ‘मालिक’ की याद भूलने लगती है। मगर हमको इस पर नहीं रहना चाहिये। जब किसी तरह से याद न हो सके तो उसके रुप बदल-बदल कर याद करना चाहिये और जब किसी रुप में याद न हो सके तो Suppose कर ले कि हम उसकी याद में हैं। इसके बाद जब किसी को हालत शुरु होगी, तो आगे बतला दूँगा।

माता जी को प्रणाम तथा सब बच्चों को आशीर्वाद।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-66
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
11/11/1949
अब तुम ईश्वर की कृपा से अच्छी होगी। मैंने एक दिन तुम्हारा काम देखा, कचहरी में था। तबियत खुश हुई। ख्वाह वह Automatic हो, ख्वाह वह खुद कर रही हो, तरीका ठीक था। यह हिन्दुस्तान की शुद्धता के बारे में था। अच्छा हो जाने पर अपना हाल लिखना। अब की बार पहुँचने पर ईश्वर को अगर मंजूर हुआ तो तुम्हारे अनुभव करने की शक्ति भी खोल दूँगा, और वह Point तुम्हें भी बतला दूँगा, जिसके खुलने से अनुभव शक्ति में वृद्धि होती है, मगर यह शक्ति बहुत कुछ उसके बाद practice पर भी, depend करती है, अर्थात अगर कोई Faculty खुल जावे और उससे काम न लिया जावे तो उसमें अधिक वृद्धि नहीं होती। तुम्हें जो ईश्वर ने पिण्ड-देश और ब्रह्माण्ड-देश की विलायत दी है, उसके माने ये हैं कि ‘पिण्ड-देश की विलायत के अर्थ mastery over individuality यानी पिण्ड पर निपुण होना और ब्रह्माण्ड-देश की विलायत के अर्थ यह है कि Mastery overcosmic power यानी ब्रह्माण्ड-देश पर निपुण होना’। किसी वक्त अगर कुछ मेरी समझ में आ गया और ऊपर से इशारा मिल गया तो फिर लिखूँगा। अलावा इसके मैंने यह भी किया है कि तुम्हारी हर Nerve को और जिस्म के हर हिस्से को spiritual force से भर दिया है। इसको हज़्म करने के लिये वर्षों चाहिये। ईश्वर की मर्ज़ी अगर शामिल हाल है, तो मैं कोशिश करूँगा कि साल-दो-साल में यह हज़म हो जाये। हालांकि यह वक्त बहुत थोड़ा है। मुझको चूंकि तुमसे काम लेना था, इसलिये मैंने ऐसा किया और तुमने मुझे मजबूर भी कर दिया था। एक नुस्खा इसके हज़्म करने का लिखता हूँ, जो इसमें मदद देगा। वह क्या है? मालिक की याद। वैसे तो भाई एक उमर गुज़र जाती है और यह चीज़ हज़्म नहीं हो पाती है और हज़्म न होने से कोई हानि भी नहीं हैं, मगर मुमकिन है, मेरी तबियत किसी वक्त और भरने को चली आवे तो गुंजाइश मिले। अच्छी तन्दुरुस्ती और लोगों को सिखाना भी हाज़में में मदद देता है। तुम्हारी बहनें और माता जी तो पूजा के लिये तुम्हारे पास बैठती ही होंगी और स्त्रियाँ अगर आ जावें तो बड़ा अच्छा है। तुम्हें जो सिखाने में अड़चन मालूम पड़े, मास्टर साहब से पूछ लेना। ईश्वर ने तुमको सब कुछ दिया है, यह माना, मगर जैसे ‘वह’ Unlimited है, वैसे ही अपनी तरक्की की भी Limit नहीं। मैं तो भाई, अपने लिये डंके की चोट पर कहने के लिये तैयार हूँ कि ‘मैंने यही जाना, कि कुछ नहीं जाना।’ और भाई, हमारे यहाँ हमारे गुरु महाराज के तो सिखाये हुओं का यह हाल है कि – ‘जिसको मिल गई गाँठ हल्दी की, उसने जाना कि हूँ मैं पंसारी’। यह आध्यात्मिक विद्या का समुन्द्र इतना लम्बा चौड़ा है कि इन्सान ज़िन्दगी में भी तैरे और ज़िन्दगी के बाद भी, मगर छोर कभी भी नहीं मिलता। मैं यह मुनासिब समझता हूँ कि शुक्रिया का प्रसाद तुम वहीं चढ़ा दो। इस खत की नकल केसर से करवा कर यहाँ भेज देना।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-69
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
16/11/1949
तुम्हारा पत्र मिला और केसर का भी खत मिला। मैं स्पष्ट रुप से उत्तर देना चाहता था, परन्तु इस समय रात का एक बज गया है, इसलिये थोड़ा और जरुरी ही लिख रहा हूँ। बेचैनी मुबारक हो। तुम जो कुछ काम कर रही हो, ठीक कर रही हो और इतना करो कि दिमाग न थके। तुम इलाहाबाद जाना चाहती हो। इसको चौबेजी की राय पर छोड़ दो। इलाहाबाद मेरे जाने का इरादा है और ईश्वर ने कृपा की तो पहुँच जाऊँगा, मगर मेरे वहाँ होने से सिवाय इसके कि तुम्हें यह ख्याल रहे कि मैं वहाँ पहुँच गया और कोई फ़ायदा समझाने बुझाने का नहीं हो सकता। इसलिये कि वहाँ मेरे सामने तुम सब का निकलना मुनासिब न होगा। क्योंकि और रिश्तेदार मौजूद होंगें - पर्दे का लिहाज ज़रुर रखना चाहिये। केसर ने जो हाल लिखा है, उससे यह मालूम होता है कि अब उन्हें शौक बढ़ रहा है। इससे पेश्तर चौबेजी ने भी कहा और मास्टर साहब ने भी, मगर मेरी राय इसके खिलाफ ही रही। मगर अभी और शौक बढ़ने का इन्तज़ार है। अभी वह इस सूरत में नहीं आई कि इसके शौक पर एतबार कर लिया जावे। और मुझे तो किसी की सेवा करने में कभी आर नहीं होना चाहिये। और न है। मुझे तो जिधर तुम सब लोग घुमा दो, घूम जाता हूँ। मैं अपना अगर हूँ तो अपने काबू की बात करूँ। भाई अब समय ज़्यादा हो गया है, खत बन्द करता हूँ फिर कभी लिखूंगा। इसी में केसर के खत का भी जवाब है।

तुम्हारा शुभचिंतक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-73
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
5/12/1949
तुम्हारे दो पत्र मिले। एक इलाहाबाद जाने से पहले और एक कल तीसरी दिसम्बर को। इलाहाबाद में मेरी खूब तबियत लगी रही। तुम्हारी बहन शकुन्तला बेचारी मेरी वजह से इलाहाबाद आई। अपने दिल के दौरे की कुछ परवाह न की और वहाँ भी उसको कई दौरे हुए। मुझे यह देख कर बड़ा तरस आया और मुझे यह देख कर बड़ा दुख भी हुआ कि ऐसी लड़की की याद, बावजूद कितनी मर्तबा चौबे जी के कहने पर भी मुझे न आती थी। जाने से पहले बड़ी कोशिश से दो-चार दफे उसका ख्याल आया। एक रोज़ उसका दिल बहुत ज़्यादा धड़क रहा था और मुझे देख कर बड़ी तकलीफ़ हुई। बस, उसकी सिफारिशों पर ख्याल करते हुए और उसकी हालत पर तरस खाते हुए मैं उसकी आत्मिक उन्नति के लिये ख्याल करता रहा। ईश्वर ने मेरी सुन ली। उसके पिण्ड के मुकामात (चक्र) मय सैर के पूरे हो गये और उसका वास ब्रह्माण्ड-मण्डल में है। उसके कुल ज़िस्म में ईश्वरीय-प्रकाश छा गया और अनहद खुल गया अर्थात् हर रोम-रोम से अजपा जाप शुरु हो गया। चूंकि वह कमज़ोर थी और दिल की बीमारी, इस लिये इस काम को इस तरीके पर किया कि बात वही हो जाय, मगर दिल पर ज़ोर न पड़े। चलते वक्त उसने मुझसे फिर कह दिया कि मेरी याद रखना। मैंने उससे कह दिया कि अपनी बहन कस्तूरी को लिखो कि वह अब तुम्हारी याद रखे। इतना खत मैं लिख चुका था कि तुम्हारा एक पत्र आज और मिला।

याद से जहाँ तक हो सके गाफ़ील नहीं होना चाहिये। जितनी याद हल्की पड़ती जावे, उतना ही हल्का रूप, उसकी याद करने के लिये लेना चाहिये। और फिर आखिर में जो कुछ हो जावे, यह ‘मालिक’ की मर्ज़ी। तुमने यह जो लिखा कि - ‘कल शाम को तो मेरे अन्दर न मालूम क्या हो रहा था। ऐसा लगता है कि भीतर जैसे आँख सी खुल गई है’। इसका मतलब मेरी समझ में नहीं आया। आँखें खुलने से क्या जिस्म के अन्दरुनी organs मालूम होने लगे या प्रकाश, या कोई और बात महसूस हुई - लिखना।

अब पिछले खत का जवाब देता हूँ। ईश्वर की याद में पूजा कराने से दूसरे में जागृति बहुत पैदा होती है। इसलिये इन्सान सोते हुए अपने आप को जाग्रत हालत में महसूस करता है। मगर तुमने अपनी हालत तो लिखी ही नहीं कि तुम्हें नींद कैसी आती है। सोते हुए जागने का एहसास होता है या गहरी नींद में सोती हो। मैं तो भाई खूब गहरी नींद सोता हूँ, मगर फ़कीर के लिये गहरी नींद में सोना वर्जित है। मुझे शायद चौबीसो घंटे नींद न आवे, अगर ऊपर से सुलाने के लिये धार न बहे। यह तकलीफ़ मेरी वजह से मेरे गुरु महाराज को उठानी पड़ती है। न मालूम यह क्यों मेरे साथ रियायत है, यह ‘वह’ जानें।

पण्डित महादेव प्रसाद के यहाँ जब तुम गई थीं और वहाँ तुमको भारीपन महसूस हुआ। यह उनके ठोस विचार और ठोस पूजा का असर है। ठोस पूजायें जो आम तौर से हो रही हैं, इसका फल यह होता है कि आदमी जन्म-जन्मांतर के लिये ईश्वर प्राप्ति के लायक नहीं रहता। यह बात जिससे कहूँ, वह लड़ बैठे। ज़ब किसी को Liberation प्राप्त करना होगा, सिवाय इस तरीके, राजयोग जो हम सब कर रहे हैं, कोई हो ही नहीं सकता। यह स्वामी विवेकानन्द ने भी कहीं पर कहा है। सिवाय इस योग के कोई योग ही नहीं जो धुर तक पहुँचा सके। हठ योग सिर्फ़ आज्ञा चक्र तक पहुँचा सकता है। यह चक्र दोनों भौंहों के बीच में है। इसके आगे राजयोग की ही ताकत है।

तुम्हारे खत का जवाब कुछ अंग्रेजी में भी दिया है, जो स्वामी जी का Dictate है। अगर समझ में न आवे तो मास्टर साहब से समझ लेना, और किसी को बतलाने की जरुरत नहीं। किसी शख्स की जान की हिफ़ाज़त करने का तरीका यह है कि उसके चारों तरफ़ एक ख्याली circle अपनी will से यह ख्याल करते हुए बना लेवे कि यह चीज़ उसकी रक्षा करेगी और किसी-किसी वक्त ख्याल रखे। हर वक्त ख्याल रखने की जरुरत नहीं। यह वह कुण्डली (circle) है, जिसको लक्ष्मण जी ने सीता के चारों ओर बनाई थी, जब मारीच हिरण के रुप में जंगल में आया था और रामचन्द्र जी उसके शिकार को चल दिये थे और बाद में लक्ष्मण जी को भी जाना पड़ा। आज स्वामी सुखदेवा नन्द के मुमुक्ष आश्रम में जलसा है। यह ३-४ दिन रहेगा। उसके लिये Public ने पन्द्रह हजार रुपये चन्दा दिया है। महात्मा लोग Lectures देगें। सिर्फ दो घंटे के लिये एक साहब के कहने से मैं भी आज जा रहा हूँ। काम इतना करो कि दिमाग थक न जावे।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-77
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
1/1/1950
तुम्हारा पत्र १५ दिसम्बर का लिखा हुआ मिला। बड़े दिन में मैं गाँव चला गया था और इससे पहले जवाब देने का समय नहीं मिला। इसलिये ज़वाब में देर हुई। तुमने जो यह लिखा है कि किसी वक्त तबियत उदास हो जाती है। मैं समझता हूँ कि कोई फ़िक्र पैदा नहीं होती होगी, बल्कि यह एक हालत है जो ईश्वर की कृपा से तुममें मौजूद है। इसके जरा तेज हो जाने पर तुमको उदासी feel होती है। इस हालत को उदासीनता की हालत कहते हैं। तबियत अभ्यासी की ऐसी बन जावे कि जो काम करे वह इस तरह का हो जैसे परवाना जाने के बाद दिल में फिर उसका ख्याल भी नहीं लाता अर्थात् परवाना कर आने के बाद फिर परवाने का ख्याल भी नहीं लाता। हर काम दुनियादारी का इसी तरह से होता रहे कि उसके करने के बाद ख्याल का weight उस पर कम रहे। इसको उदासीनता की हालत कहते हैं। इस जमाने में एक उदासी फिरका भी है। मगर उसका अब नाम ही नाम रह गया है। यह हालत उनमें से शायद ही किसी में हो। तुमने लिखा है कि -’एक मन सब काम कर रहा है यह एहसास ठीक है। जब गिलास में पानी भर कर ज़ोर से फेंका जाता है, तो उसका एक मुँह फेंकने वाले की तरफ़ हो जाता है और दूसरा मुँह दूसरी तरफ़, चीज़ एक ही है। जिसका मुँह मालिक की तरफ़ है वह ‘मालिक’ की याद करता है और जिसका मुंह दुनिया की तरफ़ है, उसको दुनियादारी की याद रहती है। मैंने यह बात बहुत संक्षेप में लिख दी, उसकी Philoshpy बयान नहीं की। मन में जब जागृति पैदा होती है, तब उसका रुझान ईश्वर की तरफ़ हो जाता है और जरुरत भर दुनियाँ की तरफ़ रहता है। सर्दी का एहसास कम होने के मतलब यह है कि रुझान ऊपर की तरफ़ बहुत तेज होने की वजह से इसका एहसास कम हो गया। मगर मुझे तो बहुत सर्दी लगती है और इस वजह से देर करके उठता हूँ और कुछ काम भी नहीं कर पाता।

एक बात से मुझको बड़ी तकलीफ़ होती है और मेरा कुछ बस नहीं चलता। वह यह है कि तुम्हारे पिताजी की जब आर्थिक तकलीफ़ की तरफ जब ध्यान जाता है, तो बहुत फ़िक्र पैदा हो जाती है। मैंने ईश्वर से प्रार्थना भी की मगर नहीं मालूम वह क्यों नहीं सुनते। या तो यह हो सकता है कि यह हमारे मतलब की बात नहीं है, या कोई और वजह हो। यह ज़रुर देखा गया है कि जब ईश्वर के मतलब की बात होती है, तो ख्याल आते ही ‘वह’ कर देते हैं। प्रार्थना की नौबत ही नहीं आती। इस तकलीफ़ को दूर करने की तुम ही दुआ करो। मुमकिन है ‘वह’ तुम्हारे ही कहने से कुछ कर देवे। मुझे तो, मैं सच कहता हूँ, कुछ शर्म सी मालूम होती है कि इतना छोटा सा काम मुझ से नहीं होता।

तुम्हारी माता जी को प्रणाम।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-80
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
12/1/1950
तुम्हारा खत २९.१२.४९ को लिखा हुआ आया। उसमें जो तुमने लिखा है कि ‘अपने शरीर का एहसास भी करीब-करीब खत्म हो गया है’। यह बड़ी अच्छी हालत है। इसको लय अवस्था कहते हैं। फ़ारसी में इसको फ़ना कहते हैं। अभी यह चल रही है, इसके बाद और अच्छी हालत आवेगी, ईश्वर ने चाहा। जब आवेगी। तो बता दूँगा। पहले से बताना नहीं चाहता। सोते वक्त और लोगों को चाहिये कि एकदम से न जगायें। एकदम से जगाने से ख्याल जो लगा हुआ है, एकदम से हटता है, इसलिये उसको shock होता है और तकलीफ़ भी हो जाती है। किसी अभ्यासी को एकदम से नहीं जगाना चाहिये। मेरा तो यह हाल है कि जगने की हालत में अगर कोई चारपाई हिला दे, तो मुझे तकलीफ़ हो जाती हैं।

तुम्हारा एक खत ८.१.५० का लिखा हुआ आया। उसमें यह लिखा हुआ है कि ‘एक दिन जब Working कर रही थी तो India में ॐ शब्द सा दिखलाई दिया’। यह एहसास बिलकुल ठीक है। यह ऐसा समय है कि मुद्दतों ऐसे वक्त का आना दुर्लभ है। ईश्वर की शक्ति अपने खालिस रुप में किसी बड़ी Personality के द्वारा उतरी हुई है। इसका सबूत यह है कि किसी जगह पर बैठकर देखें और यह ख्याल करें कि मैं उस Personality से आध्यात्मिक लाभ उठा रहा हूँ, जिसमें खालिस रुप में ईश्वर की शक्ति उतरी हुई है, तो उसको फ़ौरन फ़ायदा पहुँचेगा। इस ॐ की शक्ति के साथ मुमकिन है, इससे पहले कोई महात्मा न आया हो। हाँ, मेरे गुरु महाराज इसमें Exception है, इसलिये कि उनमें ऐसी शक्ति पैदा करने की ताकत है, फिर ऐसे गुरु की ताकत का क्या ठिकाना। यह शक्ति जब उतरेगी तो संहार भी होगा और उससे चिपटे हुओं को फ़ायदा भी Unlimited होगा। महाभारत में इस शक्ति का ज़हूर इतने पूर्ण रुप में न था। था ज़रुर, इस तरीके पर कि ‘उसको’ Destruction और Construction का पूरा अख्तयार था और उस वक्त उस शक्ति में से फुहार निकाल कर काम कर रही थी। इस वजह से संग्राम पूरी शक्ति से नहीं हो रहा था। उस वक्त इतनी ही ज़रुरत थी और इस वक्त उससे ज्यादा जरुरत है मामला World Destruction का पेश है। वक्त कितना ही लग जाये। मगर साथ- साथ में Construction भी है। महा प्रलय के वक्त भी कोई शक्ति कुल Universe के खत्म करने के लिये काम करेगी। उस वक्त Construction work खत्म हो जायेगा। तुलसीदास ने जो यह लिखा है कि एक दिन सब को मरना है, इसलिए पढ़ना बेकार है। उनसे यह कहना चाहिये कि जितने दिन सबको जीना है, उतने वक्त के लिये पढ़ना ज़रुरी है। इस ख्याल को उनके तुम्हीं साफ कर दो। जैसा ख्याल बाँधोगी, वैसा ही दूसरे में असर होगा।

एक बात तुम्हें और बतलाता हूँ - भगवान् कृष्ण का अवतार महामाया के स्थान से था और यह बात हमारे गुरु महाराज ने कहीं पर कही है। यह स्थान वह है, जहाँ पर माया एक घुमाव की शक्ल में बहुत ज़ोरदार होती है। उसमें वह ताकत होती है, कि चाहे सो कर गुज़रे, इसलिये श्री कृष्ण जी महाराज में इन्तहा ताकत थी। इस ताकत की बराबरी कोई नहीं कर सकता, इसलिये कि बिल्कुल परिपक्व हालत से श्री कृष्ण जी का अवतार हुआ था। इससे ऊँचा एक रुहानी मुकाम है और वह भक्तों को नसीब होता है और वहाँ पर गिने चुने लोग पहुँचते हैं। मगर उसकी complete हालत हज़ारों वर्ष बाद किसी एक को नसीब होती है। श्री कृष्ण जी को महामाया के स्थान पर पूरा कमाल हासिल था और उनका कदम इस रुहानी स्थान पर था, जिसका मैंने ज़िक्र किया था। अब शक्ल इसके खिलाफ़ है। वह बड़ी हस्ती है, जिससे कि ईश्वर काम ले रहा है। उसको ‘उस’ हालत पर ईश्वर ने कमाल दिया है। श्री कृष्ण जी महाराज को समयानुसार महामाया के स्थान पर कमाल हासिल था और अब मौजूदा हस्ती को उस पर कमाल हासिल है।

गाँधी जी की मृत्यु के बाद अरविन्द घोष से पूछा गया था कि गाँधी जी तो चल बसे, अब कहीं हिन्दुस्तान में Light मौजूद है? उन्होंने जवाब दिया था ‘There is still light in Northern India’. इससे ज़ाहिर होता है कि कोई Personality ज़रुर काम कर रही है। अरविन्द घोष एक अच्छे महात्मा कहे जाते हैं और कुल जग उनको मानता है। उनकी पहुँच ब्रह्माण्ड मण्डल तक थी और उनका कदम इस वक्त तक इससे आगे जा भी नहीं रहा था। मगर चूँकि मेहनत अच्छी की थी, इसलिये उनमें बिजली ज्यादा है। अगर कहीं हमारे यहाँ लोग मेहनत कर जायें, अर्थात् अपने आप ऊपर बढ़े, मुझ से मेहनत कम लें, तो मैं समझता हूँ, हमारी संस्था में बहुत से अरविन्द घोष थोड़े ही दिनों में नज़र आने लगें। अपने आप रगड़ करने से ताकत अपने वश में रहती है। यह स्थान बहुत ऊँचा है। श्री कृष्ण भगवान ने अर्जुन को अपना विराट रुप इसी जगह से दिखलाया था। मगर हमारे यहाँ इन मुकामत की कदर ही नहीं रही और यह बहुत सस्ती चीज़ हो गई। इस बड़ी नियामत (Blessing) की बेकदरी की जिम्मेदारी हमारे ऊपर है कि एक तो हमारी जल्दी की आदत है, दूसरे यह ख्याल कि जल्दी से जल्दी लोग आगे बढ़े। तीसरे यह कि वह ज्यादा मेहनत और Sacrifice नहीं करते हैं। मैं चाहता हूँ कि अपनी ज़िन्दगी में कुछ थोड़ा बहुत जहाँ तक हो सके बढ़ा जाऊँ कम से कम लोग इतने तो अवश्य हो जावें कि इस दुनिया में उनकी पैदाइश रुक जावे और अगर यह भी न हो सके तो आगामी जन्म में तो तरक्की कर सकें। एक चीज़ मुझे ज़रुर प्रिय है और उसका इन्तज़ार करता हूँ कि जब ईश्वर पर Faith अच्छा हो जाता है, तो मेरी तबियत उसकी तरक्की के लिये जल्दी रुजू होती है, और नहीं मालूम मैं किस चीज़ के इन्तज़ार में रहता हूँ - यह मुझे अब भी पता नहीं है। यह बात अगर पैदा हो जाती है, तब तो भाई, जब मुझे कोई रोकता है, तब रुक पाता हूँ। तुम्हीं लिखना अगर तुम्हें मालूम हो, ताकि मुझे भी मालूम हो जाये। मुझे एक मीनियाँ यह भी रहता है कि कोई शख्स ऐसा मिल जाये कि मैं अपनी हालत से जो कुछ भी मुझे मेरे गुरु की कृपा से मिली है, उससे मैं उसे Sitting दे देता। चाहता मैं अब भी हूँ, और कोई इस हद तक आ गया तो मैं चूक नहीं सकता, मगर अब इसकी ख्वाहिश जाती रही, इसलिये कि मुझे एक मौका ज़रुर मिल गया। किस वक्त? जब कि प्रकाश की माँ परलोक सिधारने की तैयारी कर रही थीं। वह भी सिर्फ पाँच या छ: सेकण्ड का। मैंने उनको ईश्वरी Region से Sitting दी थी। इससे ऊपर के हिस्से में तवज्जह देने का ख्याल ही न आया। मृत्यु के बाद ख्याल आया, तो एक बार, पर उसके लिये आज्ञा ही नहीं मिली। न मालूम क्यों मेरी तबियत चाही, जो मैंने यह सब तुमको लिख दिया। हालांकि तुम्हारे खत के जवाब से इसका कोई ताल्लुक नहीं।

Swami Viveka Nandji Maharaj - Dictate - १४.०१.५०

You are totally correct in writing that Lord krishna was bestowed with the Power of destruction, but he was not given the construction power. Atmosphere had grown poisonous during the days of Mahabharata. The responsibility of this was on the kauravs and other people. They were the main Cause, so they were annihilated. More over the power they had gained was mis-utilized and that ought to be finished. Lord Krishna did all that and finished the Power. Intensity of the force of Lord Krishna was Located to the point of India. There was no necessity of going abroad or swimming above it. Now there is the different question.

A thorough overhauling of the bones. You will not find so many people in the world, as you see today. Intensity of force was for India alone and that was the power required at that time. What else do you want to clarify? As to me jumping in toto at the spiritual point is far above than the power of Lord Krishna bestowed at that time. It is far above but it does not mean that the Power Lord Krishna had in body and mind, you have got it. He had force of arms and body.

Lord Krishna will give dictation -

ज़माने की खूबी ने वह चीज़ झलका दी, जो मुझमें मौजूद थी और उस चीज़ को दबा दिया, जिसकी अब ज़रुरत है। मैं उसी चीज़ के मातहत हूँ, जिसका नतीजा मेरा अवतार है।

Can anybody call Lord Krishna, as you call? Is there any one who has such powers? who can call greater Personalities including Lord Krishna? The reply is pregnant in the Short sentences of Lord Krishna given above. Do you want any Thing more for kasturi you have correctly written in your book that the atmosphere at the present is not so poisonous as during the days of mahabharata. There the person residing in India having great powers made the atmosphere above then coarse and bad. Here all the people of the world are contributing some thing black to there Surroundings and they are not so powerful as were here during those day.

अवतार की कल उतनी ही उमेठी जाती है, जितनी ज़रुरत होती है। उससे आगे वह काम नहीं कर सकता। Power कितनी ही हो, इससे मतलब नहीं, मगर काम का दायरा वही रहेगा।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-83
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
1/2/1950
मैं लखीमपुर से चलकर यहाँ कुशल पूर्वक आ गया। ईश्वर की अपार दया है कि ‘उसने’ तुमको पार-ब्रह्म मण्डल की सैर पूरी तौर से करवा कर अब उससे आगे बढ़ा दिया। यह सिर्फ ईश्वर की ही कृपा है और ‘उसी’ का काम ! मेरी एक आदत है कि मैं जिस मुकाम या मण्डल से आगे बढ़ाता जाता हूँ, वह कह देता हूँ। इस कहने से किसी को ईश्वर न करे अहंकार हो जाये। और तुममें तो ईश्वर की कृपा से यह बात कभी पैदा न होगी। तुम अपनी हालत पर गौर करती रहा करो और इसलिये मैं बताता चलता हूँ। इससे तुम्हें एक से दूसरे का फ़र्क मालूम होगा और आगे चलकर यह फ़र्क बहुत मुश्किल से समझ में आयेगा। मेरी तबियत आज ही से यह चाह रही है कि मैं इस मण्डल की भी सैर शुरु करा दूँ। इसलिये कि वह पाँच Circles मेरी निगाह के सामने हैं और ग्यारह उसके बाद। मैं चाहता हूँ कि अपनी ज़िन्दगी में ही ऊँची से ऊँची तरक्की दूसरों की अपनी आँखों से देख लूँ। यह सही है कि ईश्वर की कृपा से इन सोलहों Circles का पार करा देना बहुत ज्यादा वक्त का काम नहीं है। अगर ‘वह’ कृपा करे तो एक सेकण्ड भी काफ़ी हो सकता है और इसका तजुर्बा भी है और इसी से हिम्मत भी होती है। प्रकाश की माता जी ने इन सोलहों Circles को पार करके दम तोड़ी थी। उस समय यह ग्यारह Circles निगाह में न थे, मगर खालिस हालत पर पहुँचाने के लिये इन सब को ईश्वर ने पार करा ही दिया। उसे कोटिशः धन्यवाद है।

मेरी हालत बिटिया! लोगों को मालूम नहीं और मुमकिन है कि आगे भी न मालूम हो पावे। गुण में कुछ नहीं रहा – रुहानियत या आध्यात्मिकता भी अगर सही पूछती हो तो अब नहीं हैं यह चीज़ भी बहुत भारी है। अब तुम्हीं बताओ किस बात पर मैं गर्व करूँ? जिसके पास कुछ हो, उसे गर्व भी हो।

Dictate by Swami Viveka Nand ji:-

A very beautiful sentence, who will understand it? This is absolute base.

बिटिया ! आज मैंने अपनी सारी हालत तुमको लिख दी। अगर लोगों को यह मालूम हो जाये, तो मेरे पास कोई फटके भी नहीं। आध्यात्मिक विद्या की तलाश में फिर वह भला ऐसे शख्स के पास जावे जिसमें यह न हो। Dictate by Swami Viveka Nand ji:-
This is too philosophical to tell you the truth, even Vedic Rishis.
That is too much. No body can have Conception of it. Here we are Powerless.
मुमकिन है लोग मेरे पास इसी वजह से न आते हों।
Dictate by Swami Viveka Nand ji:-
‘See this time. Leaving valuable aside and Searching for stones. See the mentality of the general folk. When egoism dies out, this is the result.’
मैंने तुम्हें वैसे ही लिखा दिया। तुम अपने काम में लगी रहो। ईश्वर सब कुछ कर सकता है और सब ‘उसके’ हाथ में है।

इस खत की नकल मास्टर साहब को करके देना, ताकि फाइल में लगी रहे। मैंने इस खत की नकल नहीं रखी, इसलिये वहाँ इसकी ज़रुरत है।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-87
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
3/2/1950
पत्र तुम्हारा मिला। यह बड़ी अच्छी बात है कि तुम्हारे ध्यान में सिर्फ ‘मालिक’ ही है। अभ्यासी को सिर्फ ‘मालिक’ से ही गरज होना चाहिए। इसी से सब कुछ हो जाता है। मेरी कुछ आदत ऐसी हो गई है कि हर शख्स की तरक्की मैं बताता चलता हूँ। ऐसा शायद किसी सिखाने वाले ने नहीं किया। कहीं-कहीं पर Hint हमारे गुरु महाराज दे जाते थे। अब यह मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि मैं यह गलती कर रहा हूँ या ठीक है। मैं चीज़ ही क्या हूँ? बड़े-बड़े उच्च महात्माओं ने यह नहीं किया है। मेरे सोचने से यह समझ में आता नहीं। अब मैं यह बात किसी से पूछूँगा, चौबे जी से भी और मास्टर साहब से भी। देखो उनकी राय क्या पड़ती है, और तुम्हारे समझ में अगर आ जाये, तो तुम भी लिखना, ताकि मैं सही बात करने लगूं।

पाँच circles या ग्यारह circles या इसके बाद भी और जो कुछ भी है या जो कुछ भी मेरी समझ में आता जाता है, मैं दूसरों को ज़बानी या तहरीरी (लिखित रुप में) बताता जाता हूँ, ताकि मेरे बाद दूसरे लोगों को इससे आगे मालूम करने का मौका मिले और मुझे जो मालूम हो जाये वह अपने सीने में छिपाकर तो न जाऊँ और भाई, एक बात यह भी है कि लोग जितना सीखते जाते हैं, उसको कहीं काफ़ी न समझ बैठे। अभी तक तो भाई, जहाँ तक मेरी निगाह पहुँचती है, यही हुआ है कि जरा सी हालत कहीं पैदा हो गई और कुछ शान्ति निखर आई, वह अपने आप को पूर्ण समझने लगे और बिल्कुल ऐसा ही हुआ है- ‘जिसको मिल गई गाँठ हल्दी की, वह यह समझा कि हूँ मैं पंसारी’। मेरा तजुरबा यह है इस वक्त कि मैंने यही जाना कि कुछ नहीं जाना। और मुझको उसका पूर्ण छोर न मिला। पूर्ण होना किसको कहते हैं? कुछ बातें मैं मास्टर साहब के खत में लिख रहा हूँ, वह अपने जानने के लिये उनसे पढ़वा कर सुन लेना। इसलिये कि तुम भी ट्रेनिंग का काम कर रही हो और करोगी।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-88
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
5/2/1950
पत्र तुम्हारा मिला, जो २७ फरवरी का लिखा हुआ था। उदासीनता की हालत रहना अच्छा है। हर काम करने से पहले और छोड़ने के बाद ख्याल न रहने के माने यह है कि आगामी संस्कार बनना बन्द हो चुके हैं। तुमने लिखा है कि उदासी की हालत में फैलाव मालूम होता है, यह तुम्हारा Self Expansion है, जो तुम्हारी दृष्टि से महसूस होता है। यह हालत अभी और बढ़ेगी। अभी लय अवस्था पूर्ण रुप में पैदा नहीं हुई है। इसके पैदा होने का इन्तज़ार है - उसके Symptoms मैं पहले से बताना नहीं चाहता, इसलिये कि तुम उसका, हालत पैदा होने से पहले ख्याल न बाँध दो। यह हालत जब well developed हो जाती है, और लय अवस्था अपने पूर्ण रुप में आकर अपनी अवस्था को भी उसमें लय कर देती है, उस वक्त भोग की शक्ल बदल जाती है। इसमें देर नहीं मालूम हो रही है। ईश्वर जल्द देगा। उसका नतीजा भी तुम्हें बता दूँ, मगर उससे अफसोस नहीं होना चाहिये। जो बात मैं कहना चाहता हूँ, वह तुम्हारे लिये है। इसलिये कि जिस तर्ज और तरीके से तुम इस हालत पर आ रही हो, उसका नतीजा यह होता दिखाई देता है कि पिछले संस्कार खत्म होने के लिये ‘मुझे’ भी भोगना पड़ेगा, अर्थात् कुछ तुम भोगोगी, कुछ मैं। अब यह डर है कि मैं अपने संस्कार भी भोगूं और तुम्हारे भी भोगूं, गोया Double Working हो गया, ऐसा नहीं है। मेरे संस्कार, मेरी एवज़ में, मेरे गुरु महराज ने भोगे हैं। भक्ति के लिहाज़ से इसका शुक्रिया कहाँ तक अदा किया जावे । मगर Law of Nature के लिहाज़ से ‘वह’ ऐसा करने से मजबूर थे। इसी तरह मैं भी मजबूर हूँगा। अब अपनी कैफ़ियत सुनो कि जब तुम अपने संस्कार से खाली हो गई तो, जिन्दगी कायम रखने के लिये दूसरों के संस्कार तुमको भोगने पड़ेगें। जब तक कि कोई खास Personality अपनी ऐसी हालत पैदा नहीं कर लेती कि उसके सिखाने वाले को भोगना न पड़े। सिखाने वाला बिना ताल्लुक लोगों के संस्कार भोगता है। इस जमाने में गुरु बनना बहुत आसान है जहाँ किसी के कीर्तन की लय अच्छी मालूम हुई, दूसरे ने उसको गुरु कर लिया और वह भी खुश हो गये कि – वाह ! चेला मिल गया। किसी ने अपनी इज्ज़त बढ़ाने के लिये, ईश्वर का ज्ञान सिखाने के बहाने चेला बनाना शुरु कर दिया और किसी ने अपना गोल बढ़ाने के लिये ईश्वर के नाम पर भीख माँगना शुरु कर दिया। क्या रफ्तार ज़माने की हो रही है। गुरुआई इतनी मुश्किल चीज़ है, कि ईश्वर ही जानता है। और भाई, मैं इसलिये गुरु नहीं बन सकता कि उस मुसीबत को कौन भोगेगा, जबकि बिरादराना तौर पर तालीम देने में इन दिक्कतों का सामना हो रहा है। मेरा ख्याल यह है कि गुरु बन कर अगर चेला को भवसागर पार न उतार सका तो कम से कम उसकी तरक्की का रास्ता न खोल दिया, तो ऐसे गुरु के लिये इतनी बड़ी सजा मिलती है कि मुमकिन है कि वह एक हज़ार जन्म तक कम से कम अन्धेरे में पड़ा रहे। यह बात स्वामियों को सुनाने वाली है, जो ईश्वर के जीवों को इतना धोखा दे रहे हैं। जिसका नतीजा यह हो रहा है कि वह (यानी चेले) सैकड़ों वर्ष ईश्वर की बादशाहत के किनारे नहीं पहुँचते। मैं सबसे ज्यादा दोष उन गुरुओं को देता हूँ, जिन्होंने चेलों का परलोक बिगाड़ दिया।

मैं इस इबारत का मतलब नहीं समझ सका कि – ‘अपनेपन का एहसास अब शायद ‘मालिक’ के प्रति भी खत्म सा है’। इसको अगले पत्र में Explain कर देना। तुमने जो यह लिखा है कि – ‘वह मेरी याद में मस्त रहता है’। इसके बारे में कबीर साहब ने लिखा है कि – ‘मेरा राम मुझे भजे जब, तब पाऊँ विश्राम’। तुम्हें मालूम है कि जाति-पाति किसकी नहीं होती? - सन्यासी की। वह वर्ण-व्यवस्था से परे हो जाते हैं और यह एक हालत है, जिसको वैराग्य का Essence कहना चाहिये यह चीज़ जब परिपक्व हो जावे, तब सन्यास लेने का इन्सान अधिकारी होता हैं। मगर आजकल बिना मेहनत किये हुए आसानी से सन्यासी हो जाते हैं। कहो - इस ज़माने में सन्यास कितना आसान हो गया है। यह क्यों? बाबा जी को अपने चेलों की तादाद बढ़ानी थी।

तुमने जो मास्टर साहब और चौबे जी की सिफारिश की है, तो हमें खेद है कि तुमने हमारी सिफ़ारिश क्यों नहीं की। तुम कहोगी कि आपकी सिफ़ारिश मैं किस से करती। इसका जवाब यह है कि जिससे तुमने इन दोनों की सिफ़ारिश की। कितनी अचम्भे की बात है कि जिस शख्स में रुहानियत न रही हो, उसकी उन्नति की सिफारिश न की जावे और जिनमें रुहानियत हो, उनकी सिफारिश की जावे। पण्डित रामेश्वर प्रसाद का यह कहना है कि जिनकी तुम सिफारिश करती हो, उसके लिये तुम खुद क्यों नहीं करती। तुमने जो अपनी हालत पिछले पत्र में लिखी थी, वह बहुत अच्छी थी। पण्डित जी उसके लिये तुम्हें बधाई देते हैं। तुमने यह जो शिकायत की है कि – ‘मैं उसकी याद, जितनी चाहिये, उतनी नहीं कर पाती’। मुझे भी यह शिकायत हमेशा रही है। जब मुझे अपनी शिकायत दूर करने का कोई नुस्खा न मिला तो तुम्हें क्या बताऊँ।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-93
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
27/2/1950
तुम्हारा खत आया था, कई हफ्ते हुए, हाल मालूम हुआ। मैंने जो जुमले जवाब देने लायक थे, उनमें सुर्ख निशान भी बनाये थे और वह खत मैंने कहीं रख दिया है, अब मिलता नहीं है। इसका मुझे अफसोस है और यहाँ communal disturbance कि वजह से कोई लिखने वाला भी नहीं मिला जवाब में देर होती रही और बहुत दिन गुज़रने की वजह से मुझे याद भी नहीं रहा कि क्या लिखा था। अभी अजीजम नारायण ने तुम्हारे दो पत्र और दिये। उनको पढ़कर तुम्हारी हालत का अन्दाजा लगा लिया। हालत तो ईश्वर की कृपा से अच्छी है। मगर बिटिया, सच अगर पूछती हो तो अभी उर्द में सफ़ेदी आई है, इसका कहीं ओर-छोर नहीं। मैं समझता हूँ कि जब से दुनिया पैदा हुई, उस वक्त से अगर कोई शख्स ब्रह्म - विद्या में बढ़ता चले और दुनिया खत्म होने से कुछ पहले तक उसका छोर नहीं मिलेगा। मुझे ताज्जुब है कि लोग अपने आपको पूर्ण समझ बैठते हैं। उर्द की सफेदी से मेरा मतलब यह है कि अब उसकी अपार दया से असलियत का छींटा लगा है और यही छींटा develop करेगा। यह हालत उदासीनता के कमाल की है। उदासीनता के कमाल पर जो कैफ़ियत शुरु होती है, वह अब है। इसके इन्तहा के पहुँचने का इन्तज़ार है। वह भी ईश्वर ने चाहा, तो जल्दी पैदा होगी। पूजा करना तुम्हारे लिये लाज़मी नहीं, चाहो करो, चाहो न करो। मैं तो यही चाहता हूँ कि मेरी जिन्दगी में मेरे सामने कुछ लोग बन जाते (मगर ज्यादा तादाद इस तरफ़ हिम्मत नहीं करती) तो इस बहार को मैं स्वयं देख लेता। मगर यह सब ईश्वर के हाथ में है। जो ‘वह’ चाहेगा, वही होगा। अपना इसमें बस नहीं है। मैं चाहता हूँ कि अपनी जिन्दगी में जितनी तरक्की मैं दे सकता हूँ, दे जाऊँ मगर मैंने तुमको इसका मोहताज नहीं रखा। हालांकि जो मेरी जगह पर हो (कौन होगा, कहा नहीं जा सकता) उसकी इज़्ज़त सब पर वाजिब होगी। तुम्हारी मोहताज़ी यों खत्म है कि मैं होऊँ या न होऊँ तुम्हारी Stages directly तय होती रहेगी, क्योंकि मैंने अपना पीछा छुड़ाकर ईश्वर से बराह रास्त तुम्हारा सम्बन्ध कर दिया है। तुम्हारे काम में उसको मंजूर है तो कोई रुकावट नहीं। हमारे पूज्य चौबेजी को गायबाना तवज़्ज़ोह दिया करो, मगर खास तौर पर उनकी सफाई का लिहाज़ रखो। वह जरा सी देर में अपने आप को खराब कर लेते हैं और मुझे बहुत मेहनत करनी पड़ती है।

तुमने जो लिखा है कि हर समय एक ईश्वरीय धारा बहती रहती है। यह बिल्कुल ठीक है और यह इस बात का सबूत है कि तुम्हारा Direct सम्बन्ध ईश्वर से हो गया है।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-98
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
1/5/1950
पत्र मिला, पढ़ कर खुशी हुई और यह अचम्भा भी हुआ कि तुम्हें यह बेकार का ख्याल (Baseless) कैसे हुआ, कि मैं तुमसे नाराज़ हूँ। इस ख्याल को कभी मत बाँधो। इसमें हानि है। मैं अपनी सुनाता हूँ। यदि मैं ख्याल बाँधू कि गुरु महाराज मुझसे नाराज़ हैं, तो हमारे लाला जी की आँखें हमारे ऊपर फौरन बदल जायेंगी। जिस degree तक मैं उनकी नाराज़गी का ख्याल बाँधूगा, उतनी degree तक ‘वह’ मुझ से नाराज हो जावेंगें। अगर मान लो कि मुझसे कोई गलती हो जावे और मैं उस गलती को दिल से महसूस करूँ तो तुरन्त लालाजी उसकी सज़ा देने को तैयार हो जावें (और गलती हर एक से हो ही सकती है) ईश्वर कृपा करें। इसीलिये अगर मैं कहीं पर गलती कर भी जाऊँ, तो भी यह ख्याल नहीं होता कि मैं गलती कर रहा हूँ। जब कोई हालत पैदा होती हैं तो पहले उसका वहम् होता है, इसके बाद वह असली सूरत में दरसने लगती है। इस वहम् में यदि कोई सुनी सुनाई बात उस दशा में पड़ जाती है, तो उसका भी असली रूप मालूम होने लगता है। या पड़ी हुई बात यदि कहीं सामने आ जाती है, तो वह भी अपनी ही हालत मालूम होती है। मैंने मास्टर साहब को यह लिखा था कि इस हालत में जो तुमने लिखा है, कुछ वहम् भी शामिल है, अर्थात् इसमें असलियत तो है, मगर कुछ वहम् का असर भी है। इसमें तुमको ग्लानि नहीं होनी चाहिये। यह तो होता ही रहता है।

तुम रुकी हुई नहीं हो, चल रही हो। वहाँ पर जो ठहराव है, उसको रुका होना समझ लिया है। यह ज़रुर होता रहता है कि चाल कहीं पर मध्यम होती रहती है और कहीं पर तेज। तुम्हारी चाल मध्यम ज़रुर पड़ गई है। जब अभ्यासी एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना चाहता है, उस वक्त यह मध्यमपना ज़रुर पड़ जाता है। इसके यह माने नहीं समझ लेना चाहिये कि मैं रुक गया। और यह भी होता है कि जब किसी चक्र या मुकाम पर सूरत फैलती है, तो भी मध्यमपन महसूस होने लगता है। इसका पहिचानना जरा मुश्किल है। तुम्हारे बारे में मैंने कह दिया है कि तुम्हारा सम्बन्ध ईश्वर से Direct हो गया है। तुम्हारी तरक्की नहीं रुकी है। कोई तुम्हें बढ़ाये या न बढ़ाये, ईश्वर तुम्हें खुद आध्यात्मिक उन्नति देता रहेगा। और पूजा-पाठ तो अब तुमसे होने से रही। ‘मालिक’ को ‘मालिक’ समझना और ‘उसके’ हुक्म को Carry Out करना, यही तुम्हारे लिये पूजा है। Working तुम अच्छा कर रही हो, किये जाओ। तुम्हारी दशा, जो वर्तमान है, वह उससे कहीं तेज़ Working कर रही हो, जो उससे पहले थी। पूजा तो मैं भी नहीं करता हूँ और दूसरों को बताता हूँ। लोग जो सुने, वह यह कहेंगे कि दूसरों को तो उपदेश देते हैं और अपने को फ़ज़ीहत। भाई, सच तो यह है कि पूजा होती ही नहीं। इस हालत पर मैं कह सकता हूँ कि - ‘बिना भक्ति तारो, तब तारिबो तुम्हारो है’। और लोग तो शुरु से ही यह पढ़ कर कहने लगते हैं। मगर ऐसे लोगों की बातें या पद ईश्वर सुनता भी नहीं है। मैं समझता हूँ, मास्टर साहब के एहसास ने ‘उनको’ धोखा दिया। उनके एहसास ने उनको धोखा नहीं दिया, बल्कि जिसको उन्होंने काले धुएँ की तरह मैल समझा है, वह असलियत का रंग है, और ईश्वर से किसी हद तक सम्बन्ध हो जाने की दलील है। मास्टर साहब का एहसास ज़रुर काबिले तारीफ़ है और मैं इस बारीकबीनी पर खुश हुआ। मगर बेचारों को यह खबर न थी कि यह चीज़ क्या है। किसी वक्त ईश्वर को मंजूर है, मैं अनुभव करा के उनको असल कालिख और इस किस्म की तमीज़ करा दूँगा। यही रंग आखिर तक चला जाता है। मगर उसमें भी अनगिनत हालतें हैं। यह चीज़ बहुत अच्छी है और यह भी एक Direct सम्बन्ध होने की वज़ह है। मेरी जब यह दशा पैदा हुई थी तो मैंने अपने गुरु महाराज को इतिला दी थी, और ‘वह’ अवश्य बहुत खुश हुए होंगे।

‘Live long my daughter. Be complete in the run of your life; the condition is hard by under standable. It is He (Ram Chandra) who has tasted the nectar of real life and He is imparting you all. Be gracious on the tumbling block who are rolling on the dirty street.’...says Swami Vivekanand Ji

यह तो बड़ी अच्छी हालत है। इससे चित्त में ग्लानि पैदा नहीं होनी चाहिये। ईश्वर मुबारक करे और आगे और बढ़ाता ज़ाये। ...These are the words from Lalaji.

अंग्रेज़ी के इबारत के मतलब यदि समझ में न आवे तो मास्टर साहब से समझ लेना। चौबे जी भी इसको समझा देंगे। मैंने विमला के खत का जवाब लिख दिया है। एक बात मैं यह चाहता हूँ कि तुम अपनी जीवनी थोड़ी-थोड़ी लिखती चलो। तुम्हारे माता और पिता तुम्हारे बचपन की बहुत सी बातें बता देगें और जब से अभ्यास शुरु किया है और खत तुमने मुझे भेजे हैं और मैंने उनका उत्तर दिया है, वह सब उसमें आ जाना चाहिये। तुम्हारे खत सब मेरे पास मौजूद हैं जब लिखो, तब मंगा लेना। मेरे खतों के जवाब तुम्हारे पास मौजूद होगें।

शकुन्तला बेचारी दिल के मर्ज में मुब्तला है, ज्यादा अभ्यास नहीं कर सकती। मुझे उस पर बड़ा तरस आता है। तुम्हारे ताऊ जी और माता जी ने उसकी बहुत सिफारिश की है। और उसने तुम्हें भी लिखा है कि उसकी याद मुझे दिला दिया करो। मुझे याद आई या न आई, यह और सवाल है। यदि तुम्हारी राय हो और माता जी हुक्म दें और ताऊ जी भी यह बात चाहें, तो उसको Higher Region में पहुँचा दिया जावे, मगर उसका पिण्ड-देश और ब्रह्माण्ड-देश खुद साफ़ करो। मगर इसके दिल पर अपनी Will का झटका न देना और इसको जल्दी से जल्दी साफ़ करो। मगर यह ज़रूर है कि शकुन्तला को Higher Region में जल्द पहुँचा देने से कुछ मजा नहीं आवेगा और वह शिकायत करेगी कि मैंने कुछ तरक्की नहीं की। अब यह तुम सब मिलकर सोच लो। जैसी तुम्हारी सबकी राय हो, वैसा लिखना। पत्रों के जवाब, मैं इसलिये नहीं दे पाता कि जब से नारायण गये हैं, कोई लिखने वाला किस्मत से मिलता है। तुम्हारे हरि भाई साहब को अपने ही से फुर्सत नहीं। तुम्हीं उनको साफ़ करो कि आगे चल निकलें। अब तुम अपना हाल लिखना।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-103
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
25/6/1950
तुम्हारे कई खत आये। जवाब इसलिये नहीं दे पाता हूँ कि कोई लिखने वाला नहीं मिलता तुम्हारी बीमारी सुनकर कुछ फिक्र ज़रूर हो जाती है, मगर इसमें अपना वश नहीं। ईश्वर की यह तारीफ़ है कि ‘जो है, सो है’। हमें भी उसी दशा की ओर जाना चाहिये, जो उसकी तारीफ है। अब जितना जा सके, यह उसकी देन है। हमारी अवस्था साम्य होनी चाहिये। तराजू के दोनों पलड़े बराबर रहने चाहिये। जब तौलने का समय आ जाये तो, नीचे-ऊँचे थोड़ी देर के लिये हो जाये, तथा फिर बराबर आ जावे। दया और रहम वहीं पर होना चाहिये, जहाँ पर इसकी ज़रूरत है। मैं राजा हरिश्चन्द्र से माफ़कत नहीं करता कि सब कुछ देकर भंगी के हाथ में अपने आप को बेच डाला। यह धर्म नहीं था, बल्कि एक प्रकार की Suicide थी और यह चीज़ जो कि उन्होंने की, असल में मनुष्यता के विरुद्ध थी। मेरी समझ से सिवाय नामवरी और तकलीफ उठाने के इससे कोई लाभ नहीं निकला। क्या हुआ कि तराजू का पलड़ा एक झुका ही रहा। मशीन की कल अगर ठीक Adjust नहीं है, तो वह मशीन ठीक हालत में नहीं कही जा सकती। अगर यह खराबी कहीं मशीन में हो जाये तो फिर इंजीनियर की जरूरत पड़ती है। असल उसूल को जानने वाले हमेशा कम रहे हैं, गो अच्छे ज़माने में कुछ तादाद ज्यादा रही। ईश्वर का मिलना तो भाई यही है कि हम में भी वही झलक पैदा हो जाये और बातें भी आ जायें, जो ‘उसमें’ हैं। देखने में भी जो सिन्धु और बिन्दु का फ़र्क क्यों न मालूम हो अब अपने खत के जवाब में यह समझ लो कि जिन बातों की ज़रूरत है, वह धीरे-धीरे आ रही हैं। पूजा तुम हर वक्त करती रहती हो, तुम्हें चाहे इसका पता हो या न हो। आगे यह चीज़ भी आ सकती है कि जाहिरा पूजा होती ही नहीं, बल्कि कोशिश करने से जी घबड़ाने लगता है और फिर यह ज़रूरी ही नहीं कि तमाम उम्र कोई पूजा करता ही रहे। जिस ध्येय के लिये पूजा की जाती है, उसकी प्राप्ति के बाद उसकी आवश्यकता नहीं रहती, मगर इस बात को instructor तय करता है। अपने आप तय नहीं कर लेना चाहिये। स्वामी विवेकानन्द जी ने भी लिखा है कि ईश्वर की पूजा दो तरह के इन्सान नहीं करते। एक तो inhuman brute और दूसरे जो अपने से काफ़ी उठ चुके हैं।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-105
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
7/7/1950
पत्र तुम्हारा मिला। तुम्हारे सब पत्र मेरे पास रखे हैं। मैं चाहता हूँ कि हर पत्र का उत्तर विस्तार पूर्वक लिखूँ। मगर मजबूरी यह है कि मुझे कोई लिखने वाला नहीं मिलता है और अपने आप जब लिखना चाहता हूँ तो विचार आना बन्द हो जाते हैं। पत्रों के उत्तर में इसलिये अब देर भी हो जाती है। नारायण से मुझको बड़ी मदद मिलती थी और हरि को फुर्सत कम रहती है। उसकी जब मर्ज़ी होगी तो यह भी हो जावेगा। इस पत्र का उत्तर अगर विस्तारपूर्वक दिया जावे तो कम से कम बीस-पच्चीस पन्ने हो जावेगें, इसलिये संक्षेप में लिख रहा हूँ।

मेरी तबियत अब अच्छी है। दो-तीन दिन तुमने अपनी Will Power Exercise की। मुझे इस कदर फ़ायदा हुआ कि कहा नहीं जा सकता। अपने आप को देखता था, मगर कोई बात समझ में नहीं आती थी। इतनी बात समझ में आती थी कि यह प्रार्थना का असर है। working हरगिज़ नहीं छोड़नी चाहिये। तुम्हारे लिये working करना और दूसरों को सिखाना, अब यही पूजा है। मैंने तुमको ब्रह्म मण्डल की mastery इसलिये दी है कि working तुम्हारे सुपुर्द हो और उसको ठीक तरीके से करो। यह जहाँ तक मेरा ख्याल पहुँचता है पहली ही Example है। मुमकिन है यह काम शायद ही किसी स्त्री जाति के सुपुर्द हुआ हो। तुम्हारी वर्तमान हालत renunciation in pure form (वैराग्य) है और लय-अवस्था भी अच्छी चल रही है। हमारी हालत यही होनी चाहिये, मगर इसकी नकल करने की ज़रूरत नहीं। तुममें ज़रूर उस हालत की शुरुआत ईश्वर की कृपा से, हो चुकी है, इसलिये लिखता हूँ। जब हम किसी को रंज में देखें, तो हमारी तबियत भी रंजीदा हो जानी चाहिये और जब हम किसी को खुशी में देखें तो हमारी तबियत भी खुश हो जानी चाहिये। मगर जब हम वहाँ से हटें तो न हमें रंज हो और न ही खुशी। मेरठ में आँसू निकल आने का भी यही कारण था।

माता जी को प्रणाम तथा बच्चों को दुआ।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-129
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
22/12/1950
तुम्हारा खत नारायण के हाथ पहुँचा। तुमने जो अपना तरीका काम के लिये लिखा है, वह बहुत अच्छा है। जब तुम काम करोगी, तरीके स्वयं ही समझ में आते रहेंगे। मतलब काम से है, तरीका कोई भी कर लिया जावे। और सब अच्छी तरह है।

दुआगो,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-142
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
14/3/1951
खत तुम्हारा मिला। तुमने जो उचाट वाली हालत के विषय में लिखा, वह वाकई में उचाट हालत नहीं है, बल्कि उसे Whole hearted attention कहना चाहिये और झुंझलाहट भी इसी कारण से होती है, कि जब कोई बात करता है, तो तबियत को उस हालत से हटना पड़ता है, जो नागवार होता है। यह जो ख्याल तुम्हें आते हैं, वह वाकई तुम्हारे ख्याल नहीं हैं, बल्कि वह तुम्हारे विराट् देश में फैलाव का सबूत है और यह जो आग लगना, हल्ला सुनना आदि है, यह वह वारदातें हैं, जो वाकई में सब तरफ हो रही हैं। जो हालत २ मार्च के खत में लिखी है, वह वास्तव में असल शान्ति का तलछट है। तुमने लिखा है कि – “बका की हालत खुल रही है”। बका की हालत को तुरिया की हालत कह सकते हैं, क्योंकि जब मैं बका की हालत और तुरिया की हालत पर गौर करता हूँ तो एक ही पाता हूँ।

भाई-बहनों को दुआ। अम्मा को प्रणाम।


तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-146
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
3/4/1951
खत तुम्हारे सब मिल गये। हाल मालूम हुआ। तुमने जो यह लिखा है कि “मुझमें प्रेम वगैरह बिल्कुल नहीं है” इसका उत्तर यही है कि ज्यों-ज्यों फ़नाइयत बढ़ती जावेगी, त्यों-त्यों यही बात मालूम पड़ती रहेगी। मैंने लिखा था कि तुम्हारी फ़नायेफ़ना की बका की कैफ़ियत खुल रही है, और भाई, बका में भी तो फ़ना होता है।

तुम्हारे भाई-बहनों को दुआ। अम्मा को प्रणाम।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-150
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
4/5/1951
ख़त तुम्हारा और केसर का आया। हाल मालूम हुआ। तुमने लिखा है कि – “जब कोई तारीफ़ करता है तो मुझे न तो शर्म का भाव मालूम होता है, और न कुछ समझ में ही आता है।” यह हालत अच्छी है। योगी की तारीफ यही है कि मान में खुश न हो और अपमान में नाखुश न हो। काम का Automatically होना, यह ईश्वरीय गुण है और ऐसी दशा में संस्कार नहीं बनते। जब यह भी अन्दाज़ खत्म हो जाये कि काम Automatically हो रहा है, तब असली हालत है। मैंने इसी दशा को “Efficacy of Raj Yoga” के Description में दिखलाया है। हमारे यहाँ अभ्यासी आगे ही बढ़ते चले जाते हैं, इसलिये कि जिस दशा पर ठहर जावें, तो उसके अर्थ यह हैं कि अब आगे बढ़ना बन्द है। दीनता और Innocence की हालत का महसूस न होना के मानी यह है कि यह चीज़े अपनी अच्छी खासी हालत में आ चुकी हैं और कदम अब इससे आगे है।

जब सिर से पैर तक अभ्यासी याद ही याद हो जाता है, तब याद कोशिश करने से क्षणमात्र के लिये है। एक बात तुमने यह लिखी है कि – “जब मैं किसी के यहाँ जाती हूँ तो जिनसे अपरिचित होती हूँ, वह भी अपने मालूम होते हैं”। इसका जवाब तुमने स्वयं दे दिया है। वह यह है कि अपना-पराया क्या होता है, यह कुछ भी मालूम नहीं रह गया है। तुमने लिखा है कि – “मुझे फैज़ इत्यादि की पहचान नहीं रह गई है।” इसकी वजह मुझे यह मालूम पड़ती है कि तुम हर समय फैज़ में डूबी रहती हो और डूबे हुए की आँख के सामने सिवाय पानी के और कुछ नहीं होता। जब कोई दूसरी चीज़ हो, तब differ कर सकती हो।

अम्मा को प्रणाम। भाई-बहनों को दुआ।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-154
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
4/6/1951
जब तुमने मुझे स्वप्न में देखा था, उस समय मुझे दिन और रात में दो बार दौरे तेज़ हो रहे थे। अब चौथे रोज़ दौरा कल पड़ा। ज़्यादा चिन्ता नहीं करनी चाहिये। यह चीज़ जायेगी यदि ईश्वर को मंजूर है। इसलिये कि ऐसी दशा में बहुत काम पूरी तरह से करना कठिन होगा। अब १५ मई के पत्र का उत्तर दे रहा हूँ। पहले मेरा ख्याल या इरादा ‘मालिक’ के प्रति बेहद मजबूत था और अब तो यह ख्याल या इरादा ही महसूस नहीं होता। अभ्यासी का लय अवस्था पर आ जाना, यह ईश्वरीय बरक़त है। जितना ज्यादा अपने को लय कर सकें, उतनी ही ज्यादा मंजिल पर पहुँचा हुआ समझना चाहिये। ख्याल की मजबूती उसी समय तक मालूम होती है, जब तक उसके फैलाव की सूरत पैदा न हो जाये। जितनी फैलाव की शक्ल पैदा होती जाती है, उतना ही अभ्यासी हल्का-फुल्का होता जाता है। ईश्वर इतना हल्का है कि उसमें कोई बोझ नहीं। ख्याल की जो मज़बूती या ज़ोर, शोर इसकी शुरुआत में ज़रूरत है। इसका वज़न आगे चलकर कम हो जाता है। यहाँ तक कि बिल्कुल नहीं रहता। यह बुनियाद है। “खालिस असलियत” पर पहुँचने की। सब कुछ होते हुए दिल्ली अभी दूर है। लाला जी ने एक बार अपनी दशा मुझसे इज़हार की थी। क्या कहना इस हालत का, जो उन्होंने बयान किया। ईश्वर यह चीज़ सब को दे। एक छोटी सी हालत मैं अपनी भी बयान किये देता हूँ, और वह इसलिये कि तुम्हें जब ईश्वर इस हालत के करीब लाने की कोशिश करे, तो परेशानी न हो। मैं इन शब्दों में अपनी हालत बयान करता हूँ – “मुझे जिस्म और जान तथा आध्यात्मिक उन्नति यह कुछ नहीं मालूम होती। आकाश तत्व जो सबसे हल्का कहा गया है, वह अपने से भारी मालूम होता है”।

२४ मई के खत में जो इज्ज़त और अदब के बारे में लिखा है, उसका जवाब देने की ज़रूरत नहीं है। जब तुम अपनी हालत में होती हो, उसमें एकता भासती है और उसमें इज्ज़त और अदब का ख्याल नहीं रहता, क्योंकि वहाँ पर सब एक हैं। वह एकताई अभी पूरी सीमा तक ही पहुँची और किसी के कहने सुनने का असर न होना, यह सहनशीलता है, जो बहुत अच्छी चीज़ है।

शेष शुभ।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-156
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
6/6/1951
तुम्हारा पत्र मिला। तुमने लिखा है कि ऐसी कृपा बनाये रखें कि जल्दी उन्नति हो। इसका उत्तर यह है कि मेरे पास जो कुछ भी गुरु महाराज की दी हुई वस्तु है, वह तुम्हारे ही घर भर में भरती चली जा रही है। तुमने जो अपना हाल लिखा है कि Control नहीं रहा। इसका मतलब समझ में नहीं आया। इसे फिर लिखो। बाकी अन्दरुनी कैफ़ियत तो समझ में आ गई और उसका असर यह होना चाहिए कि ‘गुमसुम’ की कैफ़ियत रहना चाहिये। अगर शुरु हो गई हो तो अभी और बढ़ेगी। प्राचीन महात्माओं ने तुरीय और तुरीयातीत तक लिखा है, अर्थात् तुरीया के बाद तुरीयातीत ही होती है। हमारे गुरु महाराज ने तीन प्रकर की तुरीय लिखी हैं। तुम्हारी दशा जो मैनें बका की लिखी है, उसको तुरीय ही कहते हैं। इसकी भी लय-अवस्था शुरु हो गई है, परन्तु बहुत खफ़ीफ है। शेष शुभ है।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-158
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
10/7/1951
खत तुम्हारा और केसर का आया। केसर जो बात चाहती है, उसके लिये वह कोशिश कर रही है, नतीजा - ईश्वर के हाथ में है। वह सब कुछ कर सकता है और भक्ति भाव भी यही है कि सब कुछ करते हुए, ईश्वर के ऊपर छोड़ देना चाहिए। हुआ ऐसा ही है कि “जो ईश्वर की तरफ़ दो कदम बढ़ा, ईश्वर उसके लिये चार कदम बढ़ा”। मैंने तुम्हारी हालत के बारे में कुछ पहले खत में लिखा था और आने वाली हालत का उसमें बहुत कुछ इशारा था। तुम्हारी हालत इस समय बहुत कुछ बेखबरी की है। रंज की वजह से हालत में इससे ऊपर अभी तक कदम नहीं रख पाया और हालत इसीलिये अभी अच्छी तरह खुली नहीं। अब रंज का असर बिल्कुल जाता रहेगा तो ईश्वर ने चाहा, फिर बढ़ने लगेगी। मुझे ऐसे समय पर आना ज़रूर चाहिये था, क्योंकि मेरा फ़र्ज भी है, मगर इलाज और बीमारी की हालत कुछ ऐसी थी कि मैं मजबूर था। मैं आऊँगा ज़रूर, मगर तारीख अभी मुकर्रर नहीं कर सकता।

माता जी को प्रणाम। तुम्हारे भाई-बहनों को दुआ।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-162
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
24/8/1951
तुमने जो २३.७.५१ को खत लिखा था, उसका जवाब मैंने ३०.७.५१ को दिया था, मगर डाकखाने की गलती से तुमको मिला नहीं। उसमें स्वामी जी का एक छोटा सा Dictate भी था। यह याद नहीं कि क्या क्या लिखा था। थोड़ा बहुत जो कुछ याद आता है फिर लिखे देता हूँ और कोई नई बात अगर याद आ गई तो लिख दूँगा। तुमने लिखा है कि “मेरी मौजूदा हालत अभ्यास से हल्की मालूम होती है”। यह सही है। अभ्यास कितना ही सूक्ष्म क्यों न बताया जाये फिर भी वह कर्म है। जिस्मानी मेहनत से कहीं भारी है। और खाली मेहनत, मेहनत से कहीं भारी है। अर्थात उसका जो नतीजा होता है, उससे वह चीज़ बहुत भारी है। तुमने जो मुर्दा की कैफ़ियत पहले लिखी थी, शुक्र है, ‘मालिक’ का, कि यह कैफ़ियत मैं अपनी ज़िन्दगी में पहली मर्तबा अपनी आँखों से देख रहा हूँ। कितनी ही कोशिश की जाये, जब तक ईश्वर मदद न करे, अपनी ताकत से प्राप्त नहीं होती। मगर भाई, हममें ईश्वर की मदद तलब ही कौन करता है। खुशामद करने वाले तो ईश्वर के बहुत मिलते हैं, मगर अपने आप को उसके हाथ बेच डालने वाले बहुत कम। हमारे circle में मोहताज़गी इस कदर बढ़ी हुई है कि हर शख्स माँगने के लिये प्याला सामने किये हुए है। अपने आपको इस हद तक कोई भी बनाने के लिये तैयार नहीं होता कि ‘मालिक’ को इतनी दया आ जाये कि माँगने की ज़रूरत ही न पड़े। तुमने देखा होगा कि भीख माँगने वाले लोग दर-दर फिरते हैं और पूरे दिन में कहीं उनका प्याला इतना भर पाता है कि मुश्किल से शाम तक पेट भर खा सकें। और एक वह है कि जो ‘मालिक’ की याद में एक बबूल के साये में बैठा हुआ है, उन्हें खाने को इतना मिलता है कि स्वयं खाते हैं और दूसरों को भी खिलाते हैं, तिस पर भी काफी बचा रहता है। यह तो भिखारी की शान है, और पहले वालों को भिखमंगा कहना चाहिये।

जब मुर्दा वाली हालत पैदा हो जाये, तब उसे आध्यात्मिक विद्या की शुरुआत कहना चाहिये, नहीं नहीं, बल्कि यह हालत होते हुए इसका ख्याल तक बाकी न रहे। यहाँ तक कि सोचने और गौर करने से भी यह हालत एहसास में न आवे, तब असल हालत है और आध्यात्मिक विद्या की शुरुआत। इसी के आगे कुछ Dictate पहले आया था, जिसके मतलब यह थे कि “जहाँ और सब लोग खत्म करते हैं, वहाँ से रामचन्द्र शुरुआत करता है”। और यह ठीक है। इसी हालत से बन्धन से छुटकारा मिलता है। मैंने अक्सर खतों में इसी हालत की इन्तजारी के लिये लिखा है।

अब जो खत तुमने २२.८.५१ को भेजा है, उसका जवाब लिखता हूँ। अब ईश्वर की कृपा से वह कैफ़ियत भी पैदा हो रही है कि मुर्दा वाली कैफ़ियत रहते हुए भी उसका एहसास न हो। मगर अभी पूरी हालत पर नहीं आई है। इसमें अभी कुछ वक्त लगेगा। ईश्वर उसको भी परिपक्व करेगा। तुमने लिखा है कि - "अब तो ‘मालिक’ की कृपा से यह हो गया है कि हर चीज़ में से रोशनी या ज़िन्दगी निकलती हुई मालूम पड़ती है और वह रोशनी भी कैसी, जिसमें अंधियारी या उजियाला कुछ महसूस नहीं होता”। जिस जगह पर कि तुम हो, वहाँ की कैफ़ियत बाहर भी मालूम होती है और मेरा भी अभ्यास की हालत में यही हाल था कि जो अन्दर मालूम होता था, वही बाहर जाहिर होता था।

माता जी को प्रणाम।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-164
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
30/8/1951
तुम्हारे सब पत्र मिल गये। तुम ईश्वर की कृपा से जिस हालत में हो, इस हालत में अभ्यास का होना बड़ा कठिन है। यह अभ्यास का फल है। ऐसी हालत में जो अभ्यास इससे सम्बन्ध रखता है, वह बिना जाने हुए खुद-ब-खुद होता रहता है। वैसे अगर Faith ठीक है तो हमारे यहाँ हर आदमी (अभ्यासी) बिना उसके जाने हुए भी ईश्वर की तरफ लगा रहता है, इसलिये कि मन का गोता ‘ब्रह्माण्ड-मण्डल की दशा’ में दे दिया जाता है और इस वज़ह से उसमें कुछ रंग वैसा ही आ जाता है और मैं तो ऐसा भी करता हूँ कि मन का रुख बहुत कुछ ऊपर को कर दिया करता हूँ। इससे इसकी ताकत रफ़्ता-रफ़्ता नीचे जाने, अर्थात् दुनिया की तरफ़ कम होने लगती है। जिसने लय-अवस्था प्राप्त कर ली और जिस हद तक प्राप्त कर ली तो Guidance खुद-ब-खुद होती रहती है। मैंने भी जब अभ्यास शुरु किया था और जो बात शुरु की थी और शुरु ही क्या, बल्कि खुद-ब-खुद हो गई थी, उस चीज़ ने मुझे जब तक धुर तक न पहुँचा दिया, कुछ न कुछ अपने उद्देश्य तक पहुँचने को बताती ही रही। या यों कहिये कि ईश्वर की कृपा से मैं उस पर आता ही गया। अब जो चीज़ मैंने प्रारम्भ की थी, यदि मैं वही चीज़ दूसरों को बताऊँ तो नहीं मालूम वह मेरे बारे में क्या ख्याल करने लगें और बताते हुए भी मुझे शर्म आती है और यदि बताने की नौबत आ जाती है, तो उस समय तक अभ्यासी उस काबिल रहता ही नहीं कि इसको पूर्ण तरह से कर सके। तुमने जो अपनी मुर्दा की तरह की कैफ़ियत लिखी है, वाक़ई यही एक कैफ़ियत है, जिस पर आने की हर शख्स को कोशिश करनी चाहिये। असल आध्यात्मिक विद्या यहाँ से आरम्भ होती है और यह अ, आ का पढ़ना यही से प्रारम्भ होता है। नहीं, बल्कि मुर्दा की सी कैफ़ियत किसी तरीके से ख्याल में न आवे, वहाँ से आध्यात्मिक विद्या का अ, आ प्रारम्भ होता है।

Dictate By Sri Vivekanandji Maharaj :-
"This is a very high thought daughter. People end their spirituality at this Stage, and HE (Ram Chandra) begins from here. The idea is Correct. Can you find such man? People will laugh at. This is end of all activities, but really it is the beginning of spirituality".

तुम्हारा यह कहना बिल्कुल सही है कि “अभ्यास से अपने आप को बहुत हल्का पाती हूँ”। अभ्यास को तो ऐसा समझना चाहिये, जैसे एक चीज़ जो किसी दूसरी चीज़ को working Order में लाती है, इससे ज्यादा इसका कोई ताल्लुक नहीं और जब कोई चीज़ Order में आ गई तो उसका Function ठीक होने लगेगा। हांसिल करना तो लय अवस्था है। सालोक्य, सामुज्य, सामीप्य और सारुप्य सब इसी की Stages हैं। मैं तो सब कुछ चाहता हूँ मगर इस वक्त इधर आने की मुझ को खुशखबरी नहीं मिलती। ईश्वर को धन्यवाद देता हूँ कि मैं यह हालत अपनी ज़िन्दगी में तुम्हारी देख रहा हूँ। इस हालत में आकर बंधन से छुटकारा मिलता है और चीज़ वाकई अपने काबू की नहीं, ईश्वर की देन है। तुमने लिखा है – “शरीर का ज़र्रा-ज़र्रा पिघल कर बहा जा रहा है” यह एहसास ठीक है। जब पानी बरसता है तो मिट्टी और धूल , जो दरख्तों पर होती है, वह सब धुल जाती है। मगर यह पानी ऐसा है कि ज़र्रा-ज़र्रा में मिटता जाता है और अपनी चमक लेने के लिए Unwanted चीज अलहदा हो जाती हैं।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-169
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
30/9/1951
खत तुम्हारे सब मिल गये। तुम्हारी उरुज (चढ़ाव) व नुजूल (नीचे गिरना) की हालत है। आदमी जितना ऊँचा जाता है, उतना ही नीचे की ओर देखता है। नुजूल में दीनता और नफ़ी (शून्य) की हालत है। तुम्हारे जो ख्यालात आते हैं, वह तुम्हारे नहीं हैं, बल्कि जो विचार उतर रहे हैं, यह उनकी झंकार है। अभी तुम्हारा दूसरा खत मिला। उसका जवाब फिर विस्तार पूर्वक दूँगा। तुम्हारी हालत इन्तहाई मक़सदा नुक्ते पर पहुँचने की उम्मीद दिला रही है।

अम्मा को प्रणाम। तुम्हारे भाई-बहनों को दुआ।
तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-170
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
1/11/1951
अब मैं पहले से अच्छा हूँ। तुम्हारे १७ सितम्बर के खत का जवाब दे रहा हूँ। तुमने लिखा है कि – “जीवन में मोक्ष का आनन्द प्राप्त हो रहा है”। यह कैफ़ियत तो बहुत ही अच्छी है। इस कैफ़ियत को आखिरी हद तक पहुँचा देने से, इस तरह कि उसका भास न हो, ‘जीवन-मोक्ष दशा’ कहलाती है। यह उसकी शुरुआत है। अब यह जहाँ तक बढ़ जावे। मगर मैं अपने ख्याल की क्या कहूँ कि मुझे किसी जगह पर तृप्ति नहीं होती। मान लिया कि अभ्यासी ‘जीवन-मोक्ष की पूर्ण दशा’ पर आ जावे, तो भी बहुत कुछ आगे मौजूद है। मुझे कुछ इशारात किसी समय हमारे पूज्य लालाजी ने दिये थे, इसको देख कर मेरे होश उड़ते थे। मगर अब न मालूम मुझे क्या हो गया है कि मुझे अपने ठिकाने का भी पता न रहा। सिर्फ लाला जी साहब से कभी-कभी इतनी रोशनी मिल जाती है कि मैं Swim कर रहा हूँ और यह खबर उस समय होती है, जब कि तुम्हारी बड़ी उम्दा-उम्दा हालतें जब मैं खतों में देखता हूँ, तो मुझे बड़ी खुशी होती है और अगर सच पूछो तो यह सब तुम्हारी ही मेहनत का नतीजा है। मैंने तुम पर मेहनत की ही नहीं। और लोगों पर जो मेहनत करता हूँ, तो उतना अच्छा नतीजा बरामद नहीं होता, तो मेरी काबिलयत तो यह है। अगर तुम कहो कि यह सब तुम्हारी काबिलयत का नतीजा है, तो उनमें यह सब बातें पैदा क्यों नहीं होती। अपनी मेहनत ही काम देती है। यह खुशी मुझे ज़रूर है कि ‘जीवन-मोक्ष दशा’ की हालत के तलछट ही ABCD ज़रूर है। तुमने लिखा है कि हल्केपन का भी एहसास नहीं रहा है। इसका जवाब ऊपर दे चुका हूँ। और यह लिखा है कि अपने होने का भी एहसास नहीं है और न अपने न होने का ही एहसास है। यह लय-अवस्था की बहुत उच्च हालत है। सब की उन्नति चाहना, यह ख्याल बहुत अच्छा है। यह एक किस्म की सेवा है। जो अभ्यासी जितना आगे बढ़ता है, यह चीज़ बढ़ती जाती है और मुझमें भी यही बात है। अपने फैलाव का महसूस होने के मानी यह होते हैं, कि विराट देश में हम विचरने लगे हैं। फैलाव की शुरुआत यहीं से होती है और जितना आगे पहुँचता जाता है, उतना ही यह फैलाव की कैफ़ियत भी बदलती है। और, खैर, मैं लिखे देता हूँ, यह समझ कर कि तुम इस दशा का ख्याल उस समय तक नहीं बाँधोगी, जब तक यह दशा खुद-व-खुद न आ जावे। जब तक अभ्यासी ईश्वरीय-दशा में रहता है, तब तक इस फैलाव की सूरत बदलती रहती है। उसके पार कर लेने के बाद फिर फैलाव महसूस नहीं होता उसकी शक्ल कुछ और ही हो जाती है, यहाँ तक बन्धन है। जिस ईश्वर को हम पुकार रहे हैं, वहाँ तक बन्धन मौजूद है। मोक्ष इससे पहले हो जाती है। यह इतनी बड़ी चीज़ नहीं है जितनी यह मालूम होती है। जिस ईश्वर की हम तमाम उम्र याद करते हैं, वही हमारे फंसाव का वायस हो जाता है। जिस समाज में यह बात कही जाये, मुमकिन वह मुझको नास्तिक समझने लगे, मगर मैं उससे एक क्षण भी अलहदा नहीं रहता, इसलिये नास्तिक कहना गलती होगी। अब इस फैलाव में भी अभी बहुत कमी है। उसमें एक चीज़ जिसको पहले से मैं नहीं लिखूँगा और पैदा होनी चाहिये।

अब मैं २६ अक्टूबर के खत का जवाब दे रहा हूँ। तुममें एकाग्रता मौजूद है और बिना जाने बूझे भी तुम्हारे ख्याल की लड़ी ‘मालिक’ की तरफ जुड़ी रहती है, इस लिये जब कोई ज़ोर से बोलता है तो उसकी आवाज़ से उसके तनाव में झटका लगता है, इसलिये तकलीफ़ हो जाती है। तुमने जो कुछ अपना अनुभव मारकाट और अकाल का देखा है, यह सब होने वाली बातें हैं। बिना इसके दुनिया का सुधार नहीं होगा। अभी तीन-चार दिन हुए मैंने तुमको अगले मुकाम पर खड़ा कर दिया है। बस, यह छोटी सी मदद तुम्हारी करता रहता हूँ। जब मैं देख लेता हूँ कि इस मुकाम में फैलाव हो चुका है और सूरत आगे को जाना चाहती है, मगर जा नहीं पाती, तो मैं कुछ धक्का दे देता हूँ।

माता जी को प्रणाम।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-173
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
18/11/1951
पत्र तुम्हारा मिला। तुमने जब अपनी हालत लिखी, तो मुझे अचम्भा हुआ कि तुम अपनी हालत लिख रही हो, या मेरी। सोचा तो मालूम हुआ कि मेरी गड़ी हुई हालत जो किसी वक्त में थी, अब तुममें उखड़ रही है। ‘मालिक’ का धन्यवाद है कि इसकी पुनरावृत्ति कहीं हो तो रही है। तुम्हारे रोम-रोम का हर मुकाम अब खुल रहा है। इस की मास्टरी हो जाना अवतारों में पाई जाती है। मगर सिर्फ यही बात अवतारों के लिये काफ़ी नहीं है। यह उसका एक छोटा सा अंग है। हर रोम-रोम पर प्रभुत्व कृष्ण जी महाराज को था, मगर अफ़सोस यह है कि हमारे रामचन्द्र जी महाराज भी अवतार थे मगर यह चीज़ उनमें न थी। अगर मैं कहीं इन दोनों अवतारों की तुलना करूँ, तो मैं समझता हूँ कि एक हजार कोस का फ़र्क पड़ेगा। रामचन्द्र जी महाराज में Thought के द्वारा Destruction करने की ताकत न थी और कृष्ण जी महाराज में यह चीज़ कूट-कूट कर भरी थी। एक बात मैं अजीब लिखता हूँ कि कृष्ण जी महाराज को अपने जिस्म का भान न था और रामचन्द्र जी महाराज की यह हालत न थी। हम लोग कृष्ण जी महाराज की पैरवी करते हैं, यही वजह है कि उसी निस्बत से हमारी लय-अवस्था आती है। मैंने पिछले खत में जीवन-मोक्ष दशा के बारे में कुछ लिखा था कि उसका तलछट तुममें कुछ आ चुका है। अब उससे और Advanced हो गया। ईश्वर ने चाहा तो उस हालत का मज़ा चखोगी। एक गाँठ मालूम होती है, उसके टूटने से यह हालत, ईश्वर ने चाहा, पैदा हो जावेगी और न जाने क्या बात है कि तुम्हारे लिये इस गाँठ को तोड़ने की अपनी ताकत से तबियत नहीं चाहती और कोई अगर होता तो मुमकिन था कि मैं यह कर बैठता। चाहता यह हूँ कि तुम अपने अभ्यास और ख्याल की ताकत से चलो और उससे यह टूट जाये। मदद मैं ज़रूर दूँगा। यह मेरा धर्म है।

माता जी को प्रणाम।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-181
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
15/1/1952
तुम्हारे दोनों खत मिल गये। यह सब हालतें, जो तुमने लिखी है, यह सब लय-अवस्था की बरकत है। जितनी अच्छी जिसकी लय-अवस्था है, उतनी ही ज़्यादा वह कामयाब है। यह चीज़ ज़्यादा मोहब्बत और बार-बार याद से पैदा हो जाती है। इसके लिये तरकीबें भी हैं, मगर उसको बताते हुए मुझे जरा अच्छा मालूम नहीं होता और बहुत अर्से में जिन दो-एक अभ्यासियों को बताई भी उसमें से सिर्फ एक शख्स थोड़ा बहुत कर रहा है। यह चीज़ ऐसी है कि बिना बताये हुए खुद-ब-खुद उसे आ जाना चाहिये। लालाजी ने यह चीज़ किसी को गालिबन नहीं बताई मगर उसके करने वाले निकले और हमारे यहाँ यह है कि इशारे से अगर बतला भी दिया जावे तो कोई उसको grasp नहीं करता। पिछले उत्सव में मैंने एक मज़मून लिखा था, जिसका सब मतलब यही था। मगर उसके सुनने के बाद अब साल खत्म हो रहा है, किसी को फिर याद भी न आई। सच तो यह है कि जबरदस्ती हम ठूंस-ठूंस कर रहे हैं, असली शौक इक्का-दुक्का को होगा। अब इससे जो कुछ फायदा जिसको हो। ‘लालाजी’ साहब ने भी मुझसे महासमाधि लेने से कुछ दिन पहले यही कहा था कि अब तक लोगों में लय-अवस्था भी पैदा न हुई और ज़िन्दगी का रास्ता बिना लय-अवस्था पैदा किये हुए, जिसको फ़नाइयत या मर मिटना भी कहते हैं, नहीं मिलता। अब तुम्हारे यहाँ पर यह चीज क्यों भर रही है? इसका कारण यही है, हमारे साथियों में ईश्वर की कृपा से सब से अच्छी लय-अवस्था तुममें मौजूद है। उसके बाद नम्बर केसर का है, बाकी एक शख्स में और रुपये में करीब एक आना या दो आने भर मौजूद है। मुमकिन है, हालाँकि इसमें शक है, कि छदाम या दमड़ी भर किसी एक और में हो। बाकी भाई, इस वक्त तक सब खाली हैं। अब ईश्वर आगे जिसे दे दे, वह ‘मालिक’ और मुख्तियार है। ब्रह्म विद्या की तालीम बहुत कम इसी वजह से रही है, कि इसके सीखने वाले ज़माने के लिहाज़ से बहुत कम रहे और अब कुछ आँखों पर पर्दा ऐसा पड़ गया है कि लोग इस किस्म की विद्या पर जो अपने यहाँ है, एतबार ही नहीं करते। तुम्हारे घर वालों को मुझ से मोहब्बत बहुत है, इससे भी फायदा अच्छा हो रहा है और जहाँ यह चीज़ है, वहाँ भी फ़ायदा ही है।

तुम्हारी हालत के बारे में मैं क्या लिखूँ? बस ईश्वर का शुक्र है। ऐसी हालतों के लिये हमारे ‘लालाजी’ कहा करते थे कि यह चीज़ अपनी ताकत से पैदा नहीं होती, बल्कि ईश्वर जिसे दे दे। यह तुम्हारी जो कुछ हालत है, इसको मैं ईश्वरी हालत कहता हूँ, मगर जिस हालत पर पहुँचना है, वह अभी बहुत दूर है। ईश्वर वह भी देगा। अव्वल तो इस हालत पर भी जब तक ईश्वर की खास मेहरबानी न हो, पहुँचना बहुत मुश्किल है और कोई अगर पहुँच भी गया, तो बस इसको वह काफ़ी समझ लेता है। वह असल कैफ़ियत, जो वाकई कैफ़ियत है, उसकी यहाँ पर शुरुआत भी नहीं हो पाती। दूसरी चीज़ एक यह भी हालत होती है कि अगर अभ्यासी जहाँ तक पहुँचने की हिम्मत भी करे और पहुँच जावे तो आगे अपनी हिम्मत से जाना मुश्किल क्या, बल्कि नामुमकिन सा है, इसलिये कि ऊपर की ताकत जो दुनिया की तरफ Focus किये हुए है, उसमें चढ़ाई मुश्किल पड़ जाती है। किसी गुरु को उस ताकत पर बहुत कुछ command हो गया हो, तब इसके आगे वह अभ्यासी को फेंक सकता है। हमारे यहाँ यह सब बरकत इस वजह से है कि हमारे ‘लालाजी’ ने इन्तहाई दखल और पहुँच उस या इस हद तक कर लिया था, अपनी ज़िन्दगी में ही जहाँ तक कि एक इन्सान का पहुँचना मुमकिन है और अब तो वह Unlimited हो रहे हैं। अब उनकी ताकत का ठिकाना ही क्या? तुम्हारे वैराग्य की जैसा कि पिछले खत से मालूम हुआ पूर्ण अवस्था है, मगर उसमें Firmness होना बाकी है, यह भी हो जावेगा। यह हालत वैराग्य से बहुत ऊंची है, जो तुमने लिखी है। मेरा जी अब उस हालत से ऊँचा पहुँचाने को चाहता है, मगर मैं उसको अभी तय नहीं कर सका। मुमकिन है, अगर तबियत ने तय कर लिया तो आज ही निकाल दूँगा। खैर, तुमको पता चल पायेगा।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-190
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
5/3/1952
खत तुम्हारा मिला। पढ़ कर बाग़-बाग़ हो गया। तुमने जो लिखा है – “उदासी की हालत गाढ़ी होती जाती है”। इसका मतलब मेरी समझ में नहीं आया। उदासीपन से मतलब Indifferent from the Worldly things से है, या महज़ सुस्ती से। यह हालत दृढ़ वैराग्य से पहुँचती है। तबियत में उचाटपन रहना अलामत (निशानी) इस बात की है कि घर की याद आती है। घर का मेरा मतलब तुम्हारी कोठी से नहीं है, बल्कि वतन से है, जहाँ से हम सब आये हैं। तुमने लिखा है कि यदि दिन भर छाती कूटा-करूँ, तब भी आराम नहीं मिलता। वाह! वाह! क्या हालत है। हजारों सल्तनतें इस प्रेम पर कुर्बान हैं। बस, इस हालत में डूब कर अगर तुम कहीं दूसरों को तवज्ज़ो दोगी तो मज़ा आ जायेगा। मैं इस हालत में केवल तीन दिन रहा। These are the Things for Living dead. मैं यह चाहता हूँ कि तुम अपनी हालत हर दूसरे या तीसरे दिन बराबर लिखती रहा करो। अगर हालत ज़ब्त से बाहर मालूम पड़े तो अपने पूजा के कमरे में कोच के करीब बैठ जाया करो। ख्याल मैं भी रखूँगा। यद्यपि हालत इतनी ज़ब्त से बाहर नहीं हो सकेगी, क्योंकि पूज्य समर्थ श्री ‘लालाजी’ साहब मुझसे तुम्हारी निगरानी का वायदा कर चुके हैं।

तुम्हारे भाई-बहनों को दुआ, अम्मा को प्रणाम।
तुम्हारा शुभचिन्तक, रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-197
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
22/3/1952
तुम्हारे सब खत मिल गये। लिखने वाला न मिलने की वजह से हिन्दी में न लिख सका। मामूली बातें तो मैं खुद लिख सकता हूँ, मगर जब ज़्यादा सोचकर लिखना पड़ता है, तो लिखना और सोचना दोनों काम साथ-साथ नहीं हो पाते। हालतें आध्यात्मिक बहुत सी ऐसी हैं, जो आती ही रहती हैं। जो attentive रहता है, और ‘मालिक’ के साथ-साथ जाता है, उसको वहाँ की रंगतें और घाटियाँ अच्छी तरह मालूम हो जाती हैं। आँखे फोड़कर चलने वाले तो बहुत मिलेंगे, हमारे यहाँ इनकी अच्छी तादाद है। पूजा की और बेगार टाली, फिर कुछ मतलब नहीं - यह मेरी नादानी है कि मैंने ऐसे लोगों को अक्सर बढ़ाया है और उससे कोई फायदा नहीं हुआ। बहुतेरों को अब तक समझ में नहीं आया कि क्या चीज़ वह पा गये, इसलिये अब इसमें मैंने बहुत कमी कर दी है। लोगों को शौक और दिलचस्पी पैदा नहीं होती, वरना उनको मज़ा आ गया होता।

तुमने आज के खत में एक बहुत हंसी की बात लिखी है, कि आनन्द की पूरी कैफ़ियत पोती होने की खुशी में ही दे दो। पोती मेरे ज़रूर हुई है, और ईश्वर का शुक्र है। उसकी बड़ी उम्र हो और खुश व खुर्रम रहे, मगर हमें तो इसका एहसास ही नहीं होता कि हमारे पोती हुई है, तो फिर खुशी का एहसास कहाँ से आवे? मगर हमें यह ताज्जुब ज़रूर है कि क्या मैं चीज़ देने को तैयार नहीं, जो तुमने यह लिखा है। मौजूदा हालत तुम्हारी जो कुछ भी है, वह उस आनन्द की कैफ़ियत से बहुत बेहतर है, कि जिसको तुम चाहती हो। पहले steam वाला उभार था और अब बिजली का उभार समझ लो। और यह उससे कई गुणा अच्छा है। तुम्हारे कहने को मुझे टालना नहीं आता, इसलिये बेअख्तियार तबियत चाहती है कि फिर उस हालत में लाकर खड़ा कर दूँ। मगर इसके मानी यह होंगे कि तुमको ऊंचे से नीचे गिरायें। खैर तबियत नहीं मानती, या तो मैं प्रार्थना से इसको control करूँगा या सिर्फ एक दिन के लिये ऐसी हालत पैदा करने के लिये प्रार्थना करूँगा। अभ्यासी को चाहिये कि हर कदम ऊपर को ही जाये। इस हालत में निगरानी इसलिये की जाती है कि कोई अवधूत न हो जावे और आगे की तरक्की रुक जाये और इसीलिये लालाजी ने तुम्हारी निगरानी की।

यह तो बिटिया असल आनन्द का तलछट था और मायावी बू इसमें शामिल थी। मेरी जब यह हालत गुजरी तो मुझसे बर्दास्त नहीं होती थी और एक साहब ने अपनी समझ से अच्छा ही किया, मगर मेरी मौजूदा समझ के मुताबिक उन्होंने गलती की और वह इसको properly handle न कर सके। तुम्हारी हालत तो लालाजी की कृपा से मैंने बहुत systematically ठीक की है। यह मुमकिन है कुछ जल्दी कर गया हूँ। अब चूंकि यह हालत मुझ पर गुज़र चुकी है और तुम भी इसका काफ़ी मज़ा ले चुकी हो, मगर मुझसे अगर कोई कहे कि तुम अपनी मौजूदा हालत पर रहना चाहते हो, जिसमें कोई आनन्द नहीं नज़र पड़ता और न गैर आनन्द नज़र पड़ता है। तो मैं कभी तुम्हारी आनन्दी कैफ़ियत कायम करने के लिये तैयार न हूँगा। मैं तो अपनी मौजूदा हालत में बहुत खुश हूँ जिसका धन्यवाद गुरु महाराज को कहाँ तक दिया जावे। मैं तुमको दूसरी Stage पर पहुँचाने वाला था, जिसको [B] समझ लो। अब मेरी समझ में नहीं आता, मैं क्या करूँ। तुम्हारा कहना टालने की भी तबियत नहीं चाहती। अब तुम जैसा लिखो, वैसा करूँ। मैं सख्त मुश्किल में पड़ गया। नीचे उतारना तरक्की करने वाले को धर्म भी इज़ाज़त नहीं देता और उतारने में झटका भी लग सकता है और बेचैनी भी बढ़ सकती है। मैं आज लालाजी साहब से दर्याफ्त करूँगा कि बिना उतारे हुए कोई शक्ल ऐसी पैदा हो सकती है, गो मेरी समझ से नहीं हो सकती। बिजली की ताकत तो तेज़ की जा सकती है, मगर Steam वाली कैफ़ियत बिना उतारे पैदा नहीं हो सकती। अगर तुम अपनी पिछली दशा को थोड़ी देर को झुका दो तो मौजूदा कैफ़ियत पर अगर गौर करो तो कहीं अच्छी पाओगी। जो आगे stage आती है, उसमें सफ़ाई और सादगी कहीं ज़्यादा होती है।

अभी तो बेशुमार पर्दे तोड़ने को बाकी हैं। उनको देखते हुए अभी Spirituality की शुरुआत ही है। हर मुकाम पर इतनी देर लगाने में हजारों वर्ष चाहिए और मैं अपनी ज़िन्दगी में तुमको ‘धुर’ तक पहुँचाना चाहता हूँ। तुमने जो रोने वाली दशा अपनी लिखी है, उसमें कबीर साहब ने बड़ा अच्छा दोहा लिखा है:-

“हंसी-खेल नहिं पाइयाँ, जिन पाया तिन रोय। हाँसे-खेले पिव मिले, तो कोन दुहागिन होय।।”


तुम्हारे भाई-बहनों को दुआ।

तुम्हारा शुभचिंतक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-205
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
6/4/1952
तुम्हारे खत मिल गये - पढ़कर खुशी हुई। तुम्हें sitting देने में बहुत दिन गाफ़िल रहा, मगर अब दिन में कई मर्तबा देखना पड़ता है। जितना ज़्यादा तुमसे गाफ़िल रहा, उतना ही ज्यादा ख्याल रखना पड़ता है, इसलिये और बराबर हो गया। अब तो चाहे कोई दिन छूट जावे, नहीं तो मुझे हर रोज Sitting देनी पड़ती है। कुछ मेरी तबियत यह भी चाहती है कि दो-तीन points के बाद फिर ज्यादा तुम्हें न ठहरायें। खैर, यह अभी तय नहीं किया है, यह हालत देख-देख कर तय किया जावेगा। एक बात मैं तुम्हें और बता दूँ ताकि तुम्हें वाकफियत होती चले और यह मालूम होता चले कि जब तुम किसी को Stages तय कराओ तो तुम्हें क्या करना चाहिए। मैं नातजुरबेकारी की वजह से कुछ गलती भी कर जाता हूँ। बात यह है कि मुझमें जो कुछ भी ताकत गुरु महाराज ने दी है, उसका अन्दाज़ा नहीं हो पाता। मैंने जब [B] point पर तुम्हें खींचा और फिर वहाँ तवज्जो दी तो मैं ज़्यादा दे गया। चुनान्चे point [B] की हालत में ज्यादा concentrated force पैदा हो गया। अब इसको फैलाया जावे, तब यह सैर हो। आज यह सुबह उठते वक्त ख्याल आया। सही तो हो ही जावेगा, इसलिये कि लालाजी साहब सब कुछ कर सकते हैं।

तुम्हारे भाई-बहनों को दुआ।

तुम्हारा शुभचिंतक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-207
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
11/4/1952
तुम्हारा खत आया-उसने काफ़ी ढाढ़स दिया। मुझे फिकर बस इतनी रहती है कि लोग ज़्यादा से ज़्यादा फ़ायदा उठावें। कभी यह भी ख्याल होता है कि जो कुछ थोड़ा बहुत मुझे मालूम है, यह सब सीने में रखकर कहीं ले न जाऊँ। कुछ कायरों का यह भी ख्याल है कि मैं जब चाहूँगा एक मिनट में सब कुछ कर दूंगा। ऐसा अगर गुरू महाराज की प्रार्थना की मदद से कर भी दिया जावे, तो उसका कुछ फायदा सिवाय इसके कि बहुत ऊंची पहुंच वाला संत हो जावे और कुछ दिखाई नहीं पड़ता। अगर पूरी ताकत लगा दी जावे तो ज़रूर उसका फायदा हो सकता है, मगर ऐसी दशा में मौत यकीनी है। जब तक रास्ता और घाटी-घाटी अपनी मेहनत करके नहीं देखता, तब तक हर हालत पर Command (प्रभुत्व) नहीं होता और किसी ख़ास हालत को दूसरे पर तारी करने के लिये हिम्मत पैदा नहीं होती। मुझमें कैफियत तारी करने की शक्ति गुरू महराज ने दी है। यह उनका काम था, मैंने उनकी मेहरबानी से अपना लिया, जिसका नतीजा उनकी कृपा से यह है कि मुझे हर कैफियत से वाकफियत है और इसीलिये दूसरों पर फौरन तारी हो सकती है। सच बात यह है कि इस विद्या को ग्रहण करने के लिये सच्चे जिज्ञासु नहीं मिलते। लोगों को अभी तक मज़ा आ गया होता अगर मेहनत और मोहब्बत से काम लेते। मिशन तो तरक्की करेगा ही, मगर अच्छा यह होता कि इस तरक्की को हम खुद देख लेते और लोगों में वह हालतें पैदा कर देते जो मुमकिन है आइन्दा इतनी जल्दी न हो सके।

तुम्हारे खत पढ़ने से तुम्हारी सब हालत मालूम हो गई। यह अंधेरे की हालत मुमकिन है पहले भी पैदा हुई हो, मगर मेरी जल्दी की वजह से तुम्हें भास न हुई हो। यह असल हालत की एक भद्दी तस्वीर है और पहले से यह चीज़ ज़्यादा सूक्ष्म है, इसमें अभी और तरक्की होगी। अभी असलियत बहुत दूर है। मुझ पर यह हालत गुज़र चुकी है, और मुझे याद है और खत लिखाते वक्त इस हालत का फिर भास होने लगा। जो एक चक्र पर हालत है, वही सूक्ष्म होते हुए हर चक्र पर मिलती है। यहाँ शायद षटचक्र कहे गये हैं। लय-अवस्था और लय की लय-अवस्था तुमको बड़े दरबार से पहले ही बख्शी जा चुकी है और बका भी। अब बका की हालत की लय-अवस्था हो रही है। ऐसी जाने कितनी बका और उनकी लय-अवस्था अभी और होंगी, उसका छोर नहीं और सच्चे जिज्ञासु को चैन तो उसी समय मिलता है, जब कोई हालत नहीं रहती। अगर मैं यह कहूँ कि सोलह Circles & Seven Rings (सर्किल और सात रिंग्स) पार करने के बाद चैन मिलता है और वह चैन ऐसा है कि किसी हालत में बेचैन होने ही नहीं देता तो पुराने आध्यात्मिकता के इतिहास मुबारक देंगें, क्योंकि यह इज़ाद हमारे लाला जी की है और आप ही ने ज़िन्दगी रखते हुए यह चीज़ मुमकिन कर दी। मैं तो यही चाहता हूँ कि सब लोग इनको Cross (पार) करें, मगर मेरे चाहने से क्या होता है। यह तो ईश्वर की देन है, वह जिसे चाहे दे दे।

तुम्हारे भाई-बहनों को दुआ।

शुभचितंक
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
बाबूजी के पत्र
पत्र-संख्या-208
प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
13/4/1952
पत्र-मिला, पढ़कर खुशी हुई। तुमने अपने कुल खत का जवाब खुद दे लिया है, वह यह है, “मेरी निगाह तो उस आफ़ताब में गड़कर विलीन हो गई है!” इसको तुमने सुषुप्ति कहा है। यह सुषुप्ति नहीं, बल्कि Forgetful State (भूल की दशा) है। हर मुकाम पर एक लय अवस्था होती और You gain Mastery over that region by absorbing in it. The Same is the Condition now, Sushupti is everywhere in the human approach but it gets thinner and thinner as we advance. At higher pitch it is named as Turia (तुमने उस मुकाम पर लय होकर उस स्थान पर प्रभुत्व प्राप्त कर लिया है। यही अवस्था अब है। सुषुप्ति की अवस्था मानव की पहुंच के भीतर है। जैसे-जैसे हम उन्नति करते जाते हैं वैसे ही वैसे वह सूक्ष्म से सूक्ष्म होती जाती है। इसकी उच्चतर अवस्था को ‘तुरिया’ कहते हैं।)

मैं जो High (ऊंची) चीज़ सोचता हूँ, उसको खुद लिख नहीं पाता हूँ। अम्मा को प्रणाम, छोटे भाई-बहनों को दुआ।

शुभचिन्तक
रामचन्द्र