प्रिय बेटी कस्तूरी, आशीर्वाद।
शाहजहाँपुर
9/2/1949
पत्र तुम्हारा २४.१.४९ का लिखा हुआ मिला। अब उत्सव के पश्चात् उसका उत्तर दे रहा हूँ। तुमने जो मेरे खत का जवाब दिया है कि एक गरीब आदमी, अपनी गरीबी दे सकता है। यह उसका जवाब था, जिसको मैंने यह लिखा है कि मैं बहुत गरीब हूँ।
गरीबी की हालत वह है, जिसको लोग तरसते चले गये हैं, और सम्भव है इसका मज़ा बहुत से ऋषियों ने भी न चखा हो। अगर हम मालदार नहीं हैं तो इसके माने यह है कि हम गरीब हैं। मालदार आदमी के पास सब कुछ होता है, गरीब आदमी के पास कुछ नहीं होता है, अर्थात् जो गरीब है, उसके पास कुछ नहीं है। अब जिसके पास कुछ नहीं है, उसके पास क्या चीज़ हो सकती है, जो दूसरों को दे? अब यदि दे, तो उस चीज का नाम ‘कुछ नहीं’ रख लिया जाये तो यह एक ऐसी चीज़ बन जाती है जो कि देने के काबिल नहीं रहती। एक आदमी है, जो किसी समय धनी था, अपनी पूँजी दूसरों को दे सकता था। जब गरीबी बढ़ती गई, उसका देना कम होता गया। जब कुछ न रहा, तो कुछ न दे सका। अब उससे माँग कर देखो तो भला उसके पास क्या है, जो देगा? अगर मुझको ऐसा ही समझ लिया जावे, तो मेरे पास देने को कुछ नहीं रहता। हाँ, इसके अन्दर एक बात ज़रूर है कि ‘कुछ नहीं’ की तह में यानी जिसको ‘कुछ नहीं’ कहा है, कोई चीज़ ज़रूर है, जो की दी जा सकती है। इसके आगे कुछ भी नहीं रहता। वहाँ पर देना और लेना सब समाप्त हो जाता है। अब इस हालत में पहुँचने के लिये तरीका बिल्कुल साफ है कि मालदार आदमी के पास जो कुछ सामान हो, उसको छीनता चले। आखिर में जब उसके पास ‘कुछ न’ रह जायेगा, तो वह गरीबी की हालत पर आ जायेगा । तो तुम चौबे जी साहब से पूछ कर लिखना कि किसी का माल व असबाब छीनना शास्त्र के विरुद्ध तो न होगा? अगर इसका जवाब वह यह दें कि सामान रहते हुए, उससे बेखबर हो जावे तो यह सवाल पैदा होता है कि किसी न किसी शक्ल में सामान तो उसके पास रहा ही, फिर सामान रहते हुए गरीबी कैसे आ सकती है और अगर बेखबर भी हो गया, तो समय पर ज़रुरत उसको सचेत कर देगी। अब क्या होना चाहिये? बस यही तरकीब हो सकती है कि सामान को ऐसी जगह रखवा देवे कि ज़रुरत पड़ने पर उसकी खबर हो जावे, तो ख्याल पैदा होता है कि यह चीज़ दूसरे के पास धरोहर रखी हुई है। यह शुरु का तरीका है, और आगे बढ़ने पर इस सामान को, जो बतौर धरोहर दूसरे के पास रखा हुआ है, ‘उसका’ ही समझ लें और अपना कोई अधिकार उस पर बाकी न रखे, तब यह बात पैदा हो सकती है कि सब कुछ होते हुए अपने पास कुछ न महसूस हो। अब मान लो कि हमारे पास जो अन्दरुनी ताकतें व सिद्धियाँ हैं, यानी जो ताकतें हमको ईश्वर से मिली हैं, उसको अगर हम सब ईश्वर की समझ लेवें और उसको इन पर काबू और अख्तियार दे देवें, या दूसरे शब्दों में इनको ‘उसके’ हाथ बेच डालें, तो हम हर चीज़ से खाली हो जाते हैं। अब यह चीज़ पैदा होती है ऐसे अमानतदार को ढूँढ़े कैसे, कि यह चीज़ उसके हवाले कर सकें? वह तो इतनी दूर है, जैसा कि ख्याल है, कि वहाँ तक पहुँचना कठिन है और अगर वह सबसे नज़दीक भी है तो उसका यह हाल है कि जैसे अपनी आँख खुद अपनी आँख को नहीं देख सकती है। तो भला ऐसे अमानतदार को कैसे पावें? जवाब इसका यही है कि हम अगर सिर से पैर तक आँख बन जावें तो कम से कम हमको कहने को ज़रुर रह जायेगा कि हम अब कुल आँख ही आँख हो गये। अब ज़रुरत सिर्फ इस बात की रह जायेगी कि हम उसको तलाश करें। जब हम कुल आँख ही आँख बन गये, तो इसके माने यह हुए कि देखने की ताकत हमारे कुल बदन में है। अब देखना क्या रहा, जब हम कुल आँख ही आँख रह गये और अब हमारे पास सिवाय इस चीज़ के कुछ न रह गया। अब यह बात भी जाती रही कि आँख को आँख नहीं देख सकती, इसलिये कि वह ताकत जो उसके देखने की तरफ हमको मायल कर रही थी, उसका अब खात्मा हो गया और इसलिये कि उन ताकतों की जगह पर जो अनेक रुप में हैं, अब आँख ही रह गई है। अब तो बेटी! यह हो गया है, कि हर तरफ वह चीज़ है, जिससे कि रोशनी निकलती है। जो आँख - आँख को देखना चाहती थी, वह अब सिर से पैर तक एक हो गई है। उसको देखने की अब अपने आप को ज़रुरत भी नहीं रही।
इस कुल इबारत का मजमून यह है कि जैसे आँख ही आँख अपने में दिखलाई देती थी, तो वह चीज़ें जाती रहीं, जिससे आँख को आँख देख सकती थी। इसी तरह से अगर हम बजाय आँख के ईश्वर ही ईश्वर को भास करने लगें तो फिर हमको अमानतदार की तलाश नहीं रह जाती। इसलिये कि फिर वह कुल चीज़ असली रुप में हो जाती है, जिसको हम अमानतदार के हवाले करना चाहते थे। अब गरीबी आई, मगर हमको मालदारी और गरीबी, दोनों का खात्मा करना है। जो तब ही हो सकता है, कि बजाय कुल आँख सिर से पैर तक बनने में वही असली आँख जो ईश्वर है बन जावें ऐसा स्वाभाविक है कि इसका भी पता न रहे, तब मालदारी और गरीबी दोनों गायब होती है।
पिछली चिट्ठी में जो मैंने अपनी गरीबी का जिक्र किया था, वह हालत बन्दे की है और इसके आगे बड़ी Personality और इससे आगे अवतारों की है। इस पत्र का उत्तर अगर बेटी! तुम लिखो तो मेरा दिल बड़ा खुश हो और लिखो ही क्या, ऐसा ही होने की प्रार्थना करो। ईश्वर से कुछ दूर नहीं, वह सब कुछ कर सकता है। तुम जब शाहजहाँपुर में थीं, तो तुमने मुझसे कहा था कि बाबूजी मुझे नौकर रख लो। मैं इन प्रेम भरे शब्दों से खुश हुआ बेटी! केवल तन्दुरुस्ती का इन्तज़ार है और इसी की वजह से धीरे-धीरे का मजमून है, वरना रुहानियत असल रुप में पैदा हो जाना एक क्षण-मात्र का काम है। इस नौकरी की तनख्वाह तुमने छ: सिटिग रोज़ माँगी हैं। ईश्वर ने चाहा तो तुम्हारी वह हालत पैदा होगी कि हर समय सिटिंग ही सिटिंग रहेगी। फिर क्या होगा, जिसका मैं नौकर हूँ, उसकी ही नौकरी तुम कर लेना।
केसर ने मुझे पत्र तुम्हारे पत्र के साथ भेजा है। उसका जवाब यह है कि वह तो हमारी लड़की या बहन है और उससे ऐसा नाता भी है। मैं तो कुल दुनिया को चाहता हूँ कि मुझ से अच्छा बने और मेरी प्रार्थना भी यही है, कि इसके बदले में मुझे जितनी सज़ायें भी मिलें, मुझे सब बर्दाश्त है। इस पत्र में मैंने वैराग्य और लय-अवस्था दिखलाई है और यह भी दिखलाया है कि ईश्वर-दर्शन क्या है। ईश्वर-दर्शन की हालत और उसका आनन्द ऐसा समझ लो जैसे संग(पत्थर) बे-नमक और आखिर पर यही कैफ़ियत हो जाती है। इसके लिये जन्म-जन्मान्तर लोग मेहनत करते हैं और इसके एवज़ में जो मिलता है, उसको अगर शुरु में दिया जावे तो लोग भागने के लिये तैयार हो जायें और ईश्वर की तरफ कोई न रागिब हो।
तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र