परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
13/2/1949
कृपा-पत्र आपका मिला। पढ़कर अत्यन्त आनन्द हुआ। ऐसा पत्र मैंने तो आज तक न कभी देखा है, न सुना है। आपको, ईश्वर ने कृपा करके मिला दिया है, इसलिये ऐसे पत्रों के भी दर्शन हो जाते हैं। मैंने अगले पत्र में लिखा था कि एक गरीब आदमी, गरीबी के सिवाय और क्या दे सकता है, परन्तु श्री बाबूजी, इस गरीबी पर तो सचराचर विश्व की सभी सम्पति न्योछावर हैं। आपने लिखा है कि गरीबी की दशा के लिये लोग तरसते चले गये हैं, परन्तु मेरी समझ से गरीबी तो इस मिशन के लोगों पर किसी न किसी दिन आक्रमण करती चलेगी। क्योंकि भाई, आपने लिखा है कि-एक आदमी है, जो किसी समय धनी था। अपनी पूँजी दूसरों को दे सकता था। जैसे-जैसे वह देता गया, गरीबी बढ़ती गई और उसका देना भी कम होता गया। अन्त में उसके पास कुछ न रहा और वह कुछ न दे सका, यानी वह गरीब हो गया। इसी प्रकार आप के कथनानुसार जब धनी लोग, अपनी पूँजी ‘मालिक’ को देते (अर्पण करते) जायें या परम् कृपालु मालिक स्वयं ही छीनता जाये, तो अन्त में जब सब कुछ दे दिया जायेगा या सब कुछ छिन जायेगा, तो आप ही गरीब हो जायेंगे और उसके पास कुछ नहीं रह जायेगा। यदि आप कृपा कर के हम धनियों के धन को छीनते जाइये तो ताऊजी का कहना है कि ऐसे धन का छीनना शास्त्र के विरुद्ध नहीं होगा, वरन् ऐसे दुखियों का उपकार होगा, जो वृथा के झूठे झंझटों में पड़े हुए स्वयं ही अपने को घोर दु:ख के सागर में डुबकियाँ लगवाते हैं। वास्तव में जहाँ पर देना-लेना, सब ही समाप्त हो जाता है, वहीं सच्चा सुख है। पूज्य बाबूजी, आपने यह पत्र ही नहीं लिखा है, वरन् इसके बहाने बहुत ही सुन्दर और प्रभावोत्पादक उपदेश इस दीन को दिया है। सचमुच कितना सुन्दर उपदेश है कि यदि सामान से बेखबर हो जावे, तो भी सामान है, गरीबी कहाँ रही? बस सार यही रहा कि अपना सर्वस्व उसी ईश्वर के हाथों बेच डालें।
भाई, किसी समय यह विचार अवश्य था कि ‘वह’ अमानतदार बहुत दूर है, कि जिसके हाथ सामान बेचा जाये। परन्तु, अब तो उस अमानतदार की कृपा से ‘वह’ स्वयं इतना निकट ही नहीं, किन्तु रोम-रोम में, नस-नस में भिद सा गया है। वह न कभी दूर था, न दूर है और न रहेगा। हाँ, जब तक अपनी आँख खुद अपनी आँख को नहीं देख सकती वाला भ्रम था, तब तक ही वह दूर था। परम् स्नेही श्री बाबूजी, पूज्य मास्टर साहब व ताऊजी के समझाने से आप का पत्र कुछ-कुछ समझ तो आ गया है, परन्तु वह हृदय में ही है। उसका उत्तर लिखना बहुत कठिन है। आप लिखते हैं कि मैंने जो अपनी गरीबी का ज़िक्र किया था, वह हालत आपकी है। इसके आगे यही Personality और इससे आगे की अवतारों की है। क्षमा करियेगा, मैंने यहाँ पूज्य मास्टर साहब के घर में एक डिक्टेट सुना था, अब आपकी छिपाने की कोशिश बिल्कुल बेकार है। आप इस दीन पर ऐसे ही खुश हो जाइये, क्योंकि पत्र का उत्तर लिखने में असमर्थ हूँ। आपके आशीर्वाद से ऐसा होने की प्रार्थना अवश्य करुँगी, परन्तु भईया, कल आपका पत्र पढ़कर, ऐसा होने के लिये जब ‘मालिक’ से प्रार्थना करने लगी, तो न जाने क्या हो गया कि उसको याद करके ही मस्त सी हो गई और कुछ भी न माँग सकी। क्या बताऊँ यह तबीयत तो मेरे पास से ऊब कर न जाने कहाँ चली गई है। आपके आशीर्वाद तथा कृपा से तथा पूज्य मास्टर साहब की मेहनत से करीब दो-ढाई महीने से सोते-जागते, चौबीसों घंटे, ऐसा लगता है, मानों Sitting लेकर उठी हूँ। जब से शाहजहाँपुर गई हूँ, तब से आज तक एक मिनट भी Sitting से खाली नहीं गया है। कोशिश करके, मन को ध्यान से हटाकर, आज आपका पत्र समझ कर, ‘मालिक’ की कृपा से कुछ टूटे-फूटे शब्दों में लिखा है। भईया, अब तो ‘मालिक’ ने मुझे मोल ले लिया है। आपने ही तो मुझे बेच दिया। अब तो अपने पन का भाव ही नहीं रहता है। न जाने कैसे अब यह दशा खुद ही आकर और स्थिर होती जा रही है, कि उससे भिन्न न आप ही और न कोई चीज़ दिखाई देती है। स्वयं अपने द्वार भी उसी को काम करते देखती हूँ। जो कुछ भी लिखा है, ईश्वर जाने। जैसी उसकी मर्जी हुई उसने लिखा दिया। यह तो अब कुछ-कुछ ‘मालिक’ की मशीन हो गई है। जब जिधर चाहता है, घुमा देता है। शायद एक पत्र आपको और डाल चुकी हूँ। याद नहीं पड़ता कि उसमें क्या लिखा है। खैर, जो भी लिखा हो। मैं गवाँरिन, वैराग्य, लय-अवस्था और ईश्वर-दर्शन को क्या समझूँ। हाँ, आप के कृपा-पत्र से थोड़ी सी झलक हृदय में अवश्य मिल गई है। जब से आप के पास से आई हूँ, दशा कुछ और अच्छी हो गई है। क्या है, यह आप जानें। जब आपका मन चाहे, तब ही यह चीजे दीजियेगा। बस यह समझ लीजियेगा, अब कस्तूरी तो आपका पल्ला छोड़ने की नहीं। श्री बाबूजी, नौकर तो मैं आपकी हो ही चुकी हूँ। क्योंकि तनख्वाह दो महीने पहले से ही थोड़ी-थोड़ी लेनी शुरु जो कर दी है। अब कभी-कभी यह शक हो जाता है कि मैं उससे प्रेम भी करती हूँ या नहीं? जीवन में बहुत सरलता सी आ गई है। इति:-
आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी