Sant Kasturi
1 2 3 4 5 6 7 8 9
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-1
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
5/3/1948
आज पूज्य पिताजी के कहने से आप को पत्र लिखने का साहस कर सकी हूँ। कृपा कर स्वीकार हो। मेरी शारीरिक हालत काफ़ी अच्छी है। अपनी कृपा बस आप इस दीन-हीन, साधन-विहीना कस्तूरी की मानसिक उन्नति पर बराबर ध्यान रखियेगा। आप का बताया हुआ ध्यान कुछ कर लेती हूँ। पूज्य मास्टर साहब भी दूसरे दिन, और कभी-कभी तो रोज़ sitting दे कर परम् सुख तथा शान्ति प्रदान कर जाते हैं। अपनी आजकल की diary लिख रही हूँ। कृपया इसमें जो गलती हो, उसे सुधार लीजियेगा। वैसे तो मैं गलतियों से भरी हूँ, परन्तु आपके सामने पहुँचने से ही ये गलतियाँ मेरा फायदा करेंगी।

आजकल सबेरे उठने पर स्वामी विवेकानन्द जी को प्रणाम करती हूँ, फिर आपको प्रणाम कर के जैसे पूज्य मास्टर साहब ने बताया है, वैसे अपने विकारों को अपने से अलग करती हूँ। प्राण प्यारे ईश्वर को सब में रमा हुआ जान कर, आपका बताया हुआ अभ्यास करती हूँ। फिर दिन भर जहाँ तक बन पड़ता है, उस परम् प्यारे ईश्वर को याद करती हूँ। आप को कर्ता समझ कर, मैं कुछ नहीं करती हूँ, सब बाबूजी करते हैं, कर्म करती हूँ और ईश्वर के अत्यन्त पावन ॐ नाम का मन में जाप करती हुई उसी में रमने की कोशिश करती हूँ। कृपया आप ऐसी कृपा करें कि मैं उसमें बिल्कुल रम जाऊँ। आजकल sitting लेते समय या और ध्यान करने पर ॐ ऐसा परम् पवित्र नाम जोर-जोर से सुनाई पड़ता है। कभी-कभी दो-दो दिन सपने के समान बीत जाते हैं। कुछ मालुम नहीं पड़ता है कि क्या किया है, और क्या करना है? परन्तु, बाबूजी, मैं अपने परम् कृपालु ईश्वर को एक क्षण के लिए भी न भूलूं, एक पल भी बिना उसकी याद आये न जावे, अपने को बिल्कुल भूल कर मैं सदा सब जगह उसे ही देखूं, आप इस गरीबनी कस्तूरी को ऐसा ही आशीर्वाद दीजिये। आपने पूज्य पिता जी को, भिखारी कैसा होना चाहिये लिखा है, उसके बारे में आप आशीर्वाद दें और ईश्वर कृपा करके मुझे अपना वैसा ही भिखारी बनावे। अपनापन भी दिन में कभी-कभी आ जाता है। और कोई समाचार नहीं है। मुझमें विकारों की कोई गिनती नहीं है कि कितने हैं, परन्तु ईश्वर की कृपा से तथा आपके आशीर्वाद तथा सहायता से सब जल जायें।

आपकी
पुत्री–कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-2
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
7/12/1948
कृपा-पत्र आपका कल आया। आपने जो मेरे लिए बतलाया है, वह थोड़ा करना शुरू कर चुकी हूँ। आगे जो दशा मैंने आपसे बतलाई थी कि तीन या चार-चार दिन यह ध्यान नहीं रहता है कि क्या किया है, क्या कर रही हूँ और क्या करना है। वह दशा आपके आशीर्वाद से तथा ईश्वर की कृपा से स्थाई सी हो गई है। कभी-कभी दो एक दिन को मुझे क्रोध का दौरा सा होता है, शायद मन और शरीर की कमजोरी से, परन्तु कुछ भी करने से पहले ‘मालिक’ ने कृपा करके मुझे दिया है, ‘मालिक’ जाने वह ही सब कर रहा है, ऐसा भाव मन में उठने लगता है, और बाद में यह पता भी नहीं रहता कि कैसे और क्या हो गया है।

करीब दस दिन से चलते-फिरते, आँख बंद करने और बात करते समय, आँखों के सामने बार-बार प्रकाश आ जाता है। कभी कम और कभी ज्यादा। यह भी मेरे प्राण-प्यारे, मेरे जीवन धन ईश्वर की कृपा होगी। पूज्य बाबूजी मेरे जीवन का मुख्य ध्येय प्यारे ‘मालिक’’ की प्रसन्नता प्राप्त करना तथा ‘उन्हें’ प्राप्त करना ही रहे। आप मुझ पर ऐसी कृपा करें और यही आशीर्वाद दें। सदा सर्वत्र, सब में अपने ईश्वर का ही दर्शन करती हुई और जन्म-जन्मान्तरों से दृढ़ हुए अपने पन से मुक्त हुआ जीवन बिताऊँ। आगे ‘मालिक’ की जैसी इच्छा। आप अपनी कृपा मुझ पर बनाये रहें, पूज्य पिताजी का आशीर्वाद सदा सिर पर रहे। बस, तब यह झिंझिरी मेरी जीवन नैया भी पार हो जाएगी। पूज्य मास्टर साहब भी सत्संग देते ही हैं। वे जब आवेंगे, तब फिर प्राप्त होगा। इति

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-4
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
18/7/1948
पत्र आपका आया- आपने लिखा कि तुमको यह अन्दाज़ हो गया होगा कि यह रास्ता ठीक है, परन्तु मुझे तो यह दूढ़ विश्वास है कि यह रास्ता सरल तथा शीघ्र उन्नति का है। यह विश्वास तथा श्रद्धा करवाई है सब पिताजी तथा मास्टर साहब की Sitting ने। पूज्य पिताजी ने जहाँ से जो बात अच्छी मालूम हुई, वह तुरन्त ही सब को बतलाई तथा उसकी तारीफ़ करके उसमें श्रद्धा उत्पन्न की है। वे अपने कल्याण के साथ हम सब के कल्याण की फ़िक्र तथा कोशिश करते हैं। वैसे करता तो सब मालिक है, उसी की प्रेरणा से सब होता है। वह कृपा कर देगा तो इस अहम् ता तथा ममता में फंसी हुई कस्तूरी का भी कल्याण तथा उद्धार हो जावेगा। यह साधन मेरे लिये तो बहुत ही अच्छा है, क्योंकि न इसमें बहुत परिश्रम है, न इसमें बहुत बुद्धि की ही आवश्यकता है, जो मुझमें बिल्कुल ही नहीं है। अब प्रकाश दिखना फिर कम हो गया है, परन्तु आनन्द काफ़ी है।

केसर आपको प्रणाम कहती है और कहती है कि आपके बतलाये अनुसार अभ्यास कर रही हूँ, परन्तु अभी हालत पहले ही जैसी है, कोई फ़र्क नहीं है।

आपकी दीन-हीन सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-6
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
28/8/1948
आपको बहुत दिनों से पत्र नहीं डाल सकी, कृपया क्षमा कीजियेगा। बहुत दिनों से अपनी दशा को ठीक समझ नहीं सकी थी और न कुछ अब समझ में आता हैं। पहले कुछ दिन प्यारे सर्वेश्वर प्रभु को दिन भर में एक-दो घन्टे तक भूल सी जाती थी, परन्तु फिर याद आने पर बहुत अधिक बेचैनी होती थी। फिर किसी काम में तबियत नहीं लगती थी। पूज्य बाबूजी, मैं अपने ईश्वर से संसार में सबसे अधिक प्रेम करना चाहती हूँ और कोशिश भी यही करती आ रही हूँ। मुझे त्रिभुवन में कुछ नहीं चाहिए, बस केवल अपने आराध्य देव जगदीश्वर में ही सदा सर्वदा रमण करने की मेरी प्रबल इच्छा है और इसीलिये तमाम कोशिश है और यह इच्छा भी कि जिस प्रभु को अर्पण हो चुकी हूँ, उसी को अर्पित रहूँ। फिर दिन भर ‘उसी’ की याद करने से अब वह दशा जाती रही है, परन्तु जब से वह दशा गई है, तब से करीब दस-बारह रोज़ से हृदय में बहुत भारीपन लगता था और Sitting लेने पर भी तबियत कम लगती थी। परन्तु कल से तो मेरे प्यारे ईश्वर ने जैसी दशा कृपा करके मुझ सी अधम और सर्व-साधन रहित को दी है, इससे मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप के बताये हुए साधन से और मालिक की कृपा से मैं अपने अत्यन्त ही प्यारे ईश्वर को प्राप्त कर सकूंगी।

कल तो हृदय में भारीपन बहुत अधिक था, परन्तु आनन्द इतना अधिक था कि बिल्कुल मस्त सी घूमती रही। अब आज करीब तीन बजे से तो इतना प्रेम लगता है कि पैर भारी होते हैं। चलने तथा लेटने में भी एकदम बैठकर बिल्कुल बेकाबू सा मालूम होता है। पूज्य बाबूजी, यह सब मालिक की कृपा ही है। बस आपसे मेरी यही प्रार्थना है कि मैं ऐसे ही आनन्द में सराबोर रहूँ। मालिक को कभी-कभी इस भिखारिन की भी सुधि दिलाने की कृपा करियेगा। पूज्य पिताजी आनन्द में मस्त होकर प्रभु में ही रमते हैं और उस सर्वशक्तिमान प्रभु से उनकी भी याद दिलाते रहने की कृपा करियेगा और सब ठीक है। केसर कहती है, कि Sitting तो लेते हैं, परन्तु दशा बदली हुई नहीं मालूम पड़ती है।

अपना आशीर्वाद सदा मेरे मस्तक पर रखे रहियेगा। पूज्य मास्टर साहब ने कल sitting दी थी। इतिः-

आपकी दीन-हीन, सर्व साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-7
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
10/9/1948
पत्र मेरा आपको मिला होगा। आपने उसका उत्तर पूज्य मास्टर साहब को दिया था, सो उन्होंने बताया था। आप मेरे पत्र का उत्तर देने की चिन्ता न किया करें, बस अपनी पवित्र कृपा दृष्टि से मेरा उद्धार ही करने की कृपा करें।

मैंने आपको जो हालत लिखी थी कि परम् कृपालु ईश्वर ने अपने प्रति मुझसी अधम को भी प्रेम दिया, वह हालत फिर इतनी बढ़ी, प्यारे ईश्वर ने इतना प्रेम दिया था कि कभी-कभी तो बस लेटकर लोटती भी थी, परन्तु फिर अपने को काबू में करना पड़ता था। परन्तु अब तीन-चार दिन से तो हृदय बिल्कुल खाली मालूम पड़ता है। अब भी पूज्य मास्टर साहब जब Sitting देते हैं, उसके एक-दो दिन तक फिर बहुत प्रेम मालूम पड़ता है। रोम-रोम प्राण प्यारे ईश्वर के प्रेम में खड़ा हो जाता है। लेकिन वह बात जो पहले थी, वह नहीं है। अब तो बिल्कुल भूली सी रहती हूँ। हृदय बिल्कुल खाली सा लगता है। मेरे पूज्य बाबूजी, मुझ से तो कोई साधना नहीं हो पाती। मेरा मन तो कितना मलिन है, यह तो आप तथा मास्टर साहब जानते ही हैं। केवल कोशिश अवश्य करती हूँ और मालिक से तथा आपसे यही विनती है कि एक पल भर को उस करुणा-सिन्धु प्रभु का विस्मरण न हो। मैं उन्हें कभी न भूलूं। पूज्य बाबूजी, मैं तो दरिद्रिनी हूँ और मेरा ईश्वर ही मेरे लिये पारस मणि है। फिर मुझे किसी की कामना न हो यह विनती प्रभु से मेरी है।

आपके आशीर्वाद से जो कुछ थोड़ी सी साधना इस शरीर से हो जाती है, उसमें दिन दूनी, रात चौगुनी मेरी उन्नति हो। केसर, माता जी वगैरह सब लोग आपके बतलाये अनुसार ध्यान करती हैं। इतिः-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-9
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
22/9/1948
पत्र आपका मिला। आप का आशीर्वाद पाकर मुझे बहुत प्रसत्रता हुई। आपने भारीपन के बारे में पूछा, वह आपने जो दूसरी वजह लिखी थी, शायद उसी से था। श्री कृष्ण-जन्माष्टमी को अपने में ईश्वर के प्रति दिन भर इतना प्रेम भरा हुआ लगता था कि शरीर में बार-बार रोमांच होता था और कभी-कभी मालूम पड़ता था कि कोई शक्ति बारम्बार हृदय में भर रही है। बस, उसी दिन से तीन दिन भारीपन रहा, उस के बाद बिल्कुल दूर हो गया। फिर तो हृदय बिल्कुल खाली हो गया था। बहुत हल्कापन मैंने दूसरे पत्र में इसी भारीपन के विषय में लिखा होगा, क्योंकि जब से यह साधना कुछ शुरु की है। हाँ, जब ज़रा सी देर को भी प्रभु की याद नहीं आती, तब बेचैनी बहुत होती है। सो आपने लिखा है कि अच्छी चीज़ है। पूज्य श्री बाबूजी, मैं प्रतिज्ञा करती हूँ कि किसी भी हालत में कदम जो ईश्वर को प्राप्त करने के लिए उठ चुके हैं, अब पीछे देखने का नाम भी न लेंगें। सदा ‘प्यारे’ की याद में मस्त ‘उसी’ के पास बढ़ती ही जाऊँगी। मालिक से प्रार्थना करुँगी, ‘उसके’ आगे गिडगिडाऊँगी और पीछे नहीं हटूँगी, परन्तु बाबूजी आप के आशीर्वाद की और अपने प्रभु की कृपा की मैं सदा भिखारिनी हूँ।

अब मेरी जो हालत है, वह लिख रही हूँ। ता. १४ को मैं लखनऊ गई थी, डाक्टर को दिखाने। उस दिन मेरे मालिक ने जो हालत मुझे दी और जो अब है, वह बहुत ही अच्छी मालूम पड़ती है। उस दिन सुबेरे छ: बजे की बस से गई थी, परन्तु ऐसी बेहोशी की हालत रही कि न तो दिन भर यह मालूम पड़ता था कि किसी सवारी में बैठी हूँ न यह मालूम पड़ता था कि चल रही हूँ, न आँखों से ही कुछ दीखता था। अजीब हालत थी। शरीर बिल्कुल फूल की तरह हल्का था और उसी दिन से बिल्कुल हल्की हालत अब तक है, परन्तु वैसी बेहोशी नहीं है। पूज्य बाबूजी, आपने जब से मुझे लिखा था, तब से ही पूज्य पिताजी के लिये अपने मालिक से उनकी आत्मिक उन्नति के लिए प्रार्थना करती हूँ। पूज्य श्री पण्डित रामेश्वर प्रसाद मिश्र जी के चरणों में मुझ महा अधम कस्तूरी का सादर प्रणाम। इतिः-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-11
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
17/10/1948
आशा है आप आराम से पहुँच गये होंगे। आपके यहाँ आने से हम सब लोगों का बहुत लाभ हो गया तथा शान्ति भी बहुत मिली। मैं आपको लिख चुकी हूँगी कि मेरी दशा कुछ भूली सी रहती है और जब से पूज्य मास्टर साहब ने दूसरी Sitting दी थी, तब से शान्ति भी हृदय में बहुत रही। करीब पाँच महीने से तो ईश्वर की कृपा से शायद एक क्षण को भी मेरा मन अशान्त नहीं हुआ। परन्तु अब की से आप न जाने कौन सी चीज़ हृदय में भर गये हैं, कि उसको मैं बतला नहीं सकती हूँ। केवल इतना कह सकती हूँ कि आज कल की दशा शायद एक मुर्दे की तरह है। ‘ॐ’ को आपने हृदय की धड़कन में सुनने को जो कहा था, वह कभी उंगलियों में और कभी पीठ में भी होता मालूम पड़ता है। आप के यहाँ जिस दिन मैं अन्तिम बार गई थी, उस दिन से मुझे अपनी दशा बहुत ही अच्छी मालूम पड़ती है, परन्तु क्या अच्छी है, यह नहीं मालूम और उसी दिन, रात को पूज्य ताऊजी आपके साथ दावत में चले गये थे, इसलिये उन्हें आने में देर हो गई और मैं थोड़ी देर ध्यान में बैठ गई, तो न जाने कहाँ से आवाज़ आई कि ‘इतनी मेहनत मत करो’।

पूज्य श्री बाबूजी, मैंने जो उपरोक्त हालतें लिखी हैं, वे सब केवल मेरे मालिक की अहेतु की कृपा और आपके आशीर्वाद और कृपा से ही हैं। मुझको आप जानते ही हैं कि कितनी अधम हूँ। बस प्रार्थना उस जगदीश्वर से और आप से यही है, यही थी, और यही रहेगी कि तव कृपा से जल्दी से जल्दी मेरी परम् आत्मोन्नति हो। प्यारे ईश्वर में मेरा अनन्य और निष्काम प्रेम हो। थोड़े दिन हुए, मास्टर साहब ने सिटिंग दी थी, उसके दो-तीन दिन तक केसर को दिन भर नींद सी आती रहती थी और आजकल अपने आप भी ध्यान करने से बायाँ हाथ कुछ सुन्न सा हो जाता है। पूज्यश्री बाबूजी मैं तो बस प्यारे ‘मालिक’’ की याद में बेचैन रहूँ और जल्दी से जल्दी मैं उसे प्राप्त करूँ इसलिये, जो कुछ भी बन पड़ेगा करुँगी।

केवल ईश्वर के प्रेम और आपके आशीर्वाद की भिखारनी,
आपकी पुत्री-कस्तूरी "
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-13
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
28/10/1948
मेरा एक पत्र आपको मिला होगा। मैंने उस पत्र में जो दशा लिखी थी, उसकी जगह करीब नौ-दस दिन से जो दशा अब मेरे प्रभु ने मुझे प्रदान की है, वह मेरी बहुत ही प्रिय वस्तु है। मेरे बाबूजी, कैसे लिखूँ, लिखा नहीं जाता कि जो रोना मुझे कभी-कभी आता था, जो बेचैनी मुझे कभी-कभी होती थी और जिसकी भीख सदा ही उस अपने प्रिय ‘दाता’ से नित्य-प्रति माँगा करती थी, वही बेचैनी वही रुलाई, नौ-दस दिनों से मेरी हर समय की संगिनी हो गई है। इस रोने में कितना आनन्द आता है। कि जी ही नहीं भरता, परन्तु जब काबू करके कुछ काम करने लगती हूँ, तो भीतर सिसकियाँ उठती हैं। अब यह दशा है कि जब रोना बन्द हो जाता है, तो बेचैनी बहुत होने लगती है। परन्तु श्री बाबूजी, कल से दोनों दशायें कम हो गई हैं और हृदय में बहुत हल्कापन तथा शान्ति भी बहुत मालूम पड़ती है। वैसे तो जो दशा ‘मालिक’ देगा, वह सिर माथे मंजूर है, परन्तु जितना आनन्द उन दो दशाओ में है, उतना मुझे शान्ति में भी नहीं आता है। इसलिये मैं तो उस सर्वव्यापी जगदीश्वर के आगे सधे हृदय से उसकी याद में रोने और बेचैन होने की ही भिखारिनी हूँ। आप से भी यही विनती है, जब कभी इस दीन के लिये प्यारे ईश्वर से प्रार्थना करें, तो इसके लिये यह दो चीज़ ही मुख्यतः माँगे। मेरी प्रार्थना तो सच्चे हृदय से पूज्य पिताजी के लिये भी यही है कि ‘मालिक’ उन्हें जल्दी से जल्दी ये ही दोनों रत्न दें। इन दोनों रत्नों को अपने हृदय में छिपा कर रख लूँगी। यह दशा मैं ने ७-८ दिन हुए ‘भक्त प्रहलाद’ नामक नाटक जब से देखा था, तभी से अधिक बढ़ गई है। प्रभु के प्रति उनके अनन्य प्रेम की याद करके अब भी हृदय भर आता है। माता जी के लिये जो आपने बतलाया था, वे अभ्यास करती हैं, और उन्हें शब्द सुनाई भी काफ़ी देने लगा है।

जो दशायें उपरोक्त लिखी हैं, वे केवल प्रभु की अहेतु की कृपा और आपके आशीर्वाद और पूज्य मास्टर साहब की मेहनत का ही कुछ फल है। मेरे हृदय को तो आप जानते ही हैं कि कैसा है। पूज्य श्री बाबूजी, मेरी यह एक प्रबल इच्छा है कि मैं और मेरे की जगह केवल एक मात्र ईश्वर ही रह जाये और सब नष्ट हो जाये। आप आशीर्वाद दें तो, यह भी बहुत जल्दी हो जाये।

आपका कृपा-पत्र अभी मिला। आपका आशीर्वाद सदा मेरे सिर पर है। अब कोई शक्ति ऐसी नहीं है जो मुझे एक क्षण को भी ईश्वर की याद से अलग कर सके। पूज्य बाबूजी, मुझमें प्रेम तो बिल्कुल ही नहीं है, क्योंकि मैंने सुना है कि सच्चे प्रेम में मैं और मेरा का सदा के लिये विनाश हो जाता है। और सदा सर्वत्र एकमात्र प्यारा ईश्वर ही रह जाता है। देखें, वह परम् पिता जगदीश्वर शायद कभी इस भिखारिनी को भी अपना प्रेम प्रदान करे। मैं डायरी में दोनों बातें नोट कर लूँगी।

आपकी दीन-हीन, केवल ईश्वर के ही सच्चे प्रेम की भिखारिनी,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-15
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
11/11/1948
मेरा एक पत्र आपको मिला होगा। ताऊजी से मालूम हुआ कि कोई लिखने वाला नहीं होने के कारण आप उत्तर न दे सके। तारीख एक से दशा में कुछ बढ़ती मालूम हुई है, इसलिये अब लिख रही हूँ। उस दिन रात को करीब आठ बजे ऐसा मालूम हुआ कि कहीं से Sitting आ रही है। उस दिन की तरह आज तक मुझे कभी भी Sitting नहीं मिली। मैंने अगले पत्र में शायद शिथिलता के बारे में लिखा था, परन्तु उस दिन तो ऐसा लगा, जैसे भीतर से किसी ने मन तथा इन्द्रियों को बिल्कुल बेकार ही कर दिया है। Sitting के बाद बड़ी कमजोरी मालूम होने लगी। फिर दस या साढ़े दस बजे सो गई, तो स्वप्न देखा कि – ‘आप तथा पूज्य मास्टर साहब बैठे हुए हैं’। मैं भी बैठी हूँ। मेरे हाथ में दाने निकले हुए हैं, तो आपने कहा कि – ‘कस्तूरी लाओ तुम्हारे दानें अच्छे कर दें’। और सच ही, ‘आप’के’ पावन करों के लगाते ही सारे दाने ठीक हो गये। ऐसे ही बहुत सत्संग होता रहा। फिर आपने कहा- ‘कस्तूरी, आओ, तुम्हें Sitting दूँ। बस मैं बैठ गई।’ आपने स्वप्न में न जानें कितनी देर Silting दी। जब आँख खुली तो, सब में जैसे कि कभी-कभी कुछ मिनट को रात में मुर्दे की सी हालत मालूम पड़ती थी। उस दिन करीब दो घन्टे तक न तो शरीर का कोई अंग हिल सकता था। बस, ऐसा मालूम पड़ता था कि बिल्कुल शरीर में प्राण ही नहीं है और तो ५-६ दिन तक दिन में लेटे या रात में ध्यान देने पर मुर्दे की तरह मालूम पड़ती थी। परम् स्नेही ‘श्री बाबूजी’, अब देखती हूँ कि प्यारे ईश्वर के बिना अब रहा नहीं जाता। अब तो किसी तरह जल्दी से जल्दी कृपा करके उस जगदीश्वर से मुझे मिला दीजिये। यह हृदय अब ‘उसके’ लिये बहुत बेचैन हो रहा है। हाय! बाबूजी, क्या मालिक तक इस दीन की खबर अभी तक नहीं पहूँची? यदि नहीं, तो आप ही कृपा करके जल्दी से इस भिखारिन को उस तक पहुँचा दें। श्री बाबूजी, अब उस जगदीश्वर के बिना मुझसे नहीं रहा जायेगा। सच कहती हूँ ‘मालिक’ तक इस दीन की सूचना दे दीजियेगा। यह हृदय उसको पाने को तड़प उठा है। ऐ ‘मालिक’ मेरा कोई अस्तित्व न रह जावे। मैं तुझमें विलीन हो जाऊँ केवल तू ही तू रह जाय। बस, तू मेरा अतिशय प्यारा हो जा। इतना प्यारा हो जा कि मैं-तू एक हो जायें। श्री बाबूजी, जैसे एक छोटा अनजान बालक शाम को सिवा अपनी माँ के और किसी के पास रहना नहीं चाहता, उसी प्रकार कस्तूरी भी इस संसार रुपी ‘शाम’ में बिना ईश्वर रुपी माँ के नहीं रह सकती। इस हृदय को चीर कर यदि वह देख ले तो शायद वह इतनी देर न लगाये। ऐ मेरे स्वामी, तू ही मेरी प्यारी माँ, पालक पिता तथा आत्म-शिक्षक गुरु है। तू अब देर न कर। पूज्य ‘श्री बाबूजी’ अब की हृदय के उद्वेग को न रोक सकने के कारण जो लिख गई हूँ, उसे क्षमा करियेगा।

मैं तो यही कहूँगी कि मुझमें सच्ची लगन नहीं है, प्रेम नहीं है। नहीं तो आपने लिखा था कि सच्ची लगन वाले के लिये ईश्वर अत्यन्त समीप हैं। आप कृपा करके मुझ भिखारिन की भी ऐसी ही सच्ची लगन उत्पन्न कर दें, जिससे ‘मालिक’ शीघ्र ही कृपा करें। क्या करूँ भीतर ऐसी ही अग्नि धधकती रहती है और कभी-कभी वह उभर आती है। इसलिये अब की अपने को रोक न सकी। वैसे तो दशा यह है कि जब भी Sitting लू या न लू, ज़रा याद आ जाने पर ही मन ऐसा लग जाता है, जैसे हाथ या पैर, एक ही दशा में ज़रा देर तक रखने में सो जाते हैं। वैसे ही यह दिमाग भी सो जाता है। और जैसे पहले ध्यान करती थी कि- ‘जो सब में रमा हुआ है, उस ईश्वर की मैं याद कर रही हूँ’। परन्तु अब तो ऐसा मालूम पड़ता है कि न मैं हूँ, न ईश्वर ही है, परन्तु याद में मैं मस्त हूँ। तबियत में रमाव अधिक है। कभी-कभी दिन में खाना खाते समय या कोई काम करती होती हूँ, तो अपने आप ही सब काम बन्द हो जाता है और उस जगदीश्वर की याद में मस्त सी हो जाती हूँ। कुछ तो कसौटी की पत्ती न मिलने के कारण और कुछ हूक उठने के कारण पेट की नसों पर जोर पड़ने से वह भी खराब है और सब तबियत अच्छी है। इति:।

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी ।
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-16
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
11/11/1948
कृपा-पत्र आपका पूज्य मास्टर साहब द्वारा प्राप्त हुआ। आशीर्वाद पाकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई। पूज्य मास्टर साहब से मालूम हुआ कि आपकी तबियत खराब हो गई थी, आशा है, अब बिल्कुल ठीक होगी। पूज्य बाबूजी, अब अपनी हालत के विषय में क्या लिखूँ? बस अब तो केवल एक ही इच्छा होती है और मन में भीतर ही भीतर इसके लिए बहुत तड़पन होती है कि कैसे जल्दी से जल्दी अपने सर्वस्व प्यारे ईश्वर को प्राप्त करूँ ध्यान तो एक तरफ रहा, वह तो अब कभी हृदय पर टिकता ही नहीं। बस केवल एक ही लगन है, कि बस, आज नहीं तो कल और कल नहीं तो परसों उस जगदीश्वर में ही रम जाऊँ। हाय! बाबूजी, वह तो घट-घट वासी है। ‘उसके’ इतना पास होते हुए भी अब तक ‘उसे’ पा न सकी। हृदय में दिन भर और रात में जैसे ही आँख खुलती है, बस ऐसी ही अग्नि धधकती रहती है। रात में आँख खुलते ही बस यही वाक्य हृदय में उठता है कि हाय, किसी प्रकार जल्दी-जल्दी अपने जीवन-धन प्यारे ईश्वर को प्राप्त करूँ। आपके आशीर्वाद से मैं और मेरापन शायद ही कभी आ पाता हो। आजकल तो केवल ईश्वर को प्राप्त करने की ही एक मात्र रट लगी है। बेचैनी बहुत बढ़ जाती है, तो एकदम यह उत्साह आता है कि वह दीनों पर कृपा करने वाला ईश्वर मुझे अवश्य और बहुत जल्दी मिलेगा। स्नेही श्री बाबूजी, अबकी से जीवन ‘उसके’ प्रति हार गई हूँ। चाहे जैसे भी हो, ‘उसे’ अवश्य प्राप्त करुँगी। मेरे रोम-रोम में मेरा प्यारा ही समाया हुआ है। वह सर्वव्यापी है तो सर्व में उसको ही निहारूँगी। एकमात्र ‘उसी’ से प्रेम करुँगी। अब आप ऐसा आशीर्वाद दें और प्यारे ‘मालिक’ से मुझ भिखारिन के लिये एकमात्र यही भिक्षा माँग दें कि जन्म-जन्मान्तरों से मन जीतता चला आता है, अब की से इस मन का इसके परिवार के साथ विनाश हो जावे। पूज्य श्री बाबूजी, बहुत बार से यह देखती ही चली आ रही हूँ कि जिस हालत की आप मेरे लिये इच्छा करते हैं, ‘आप’के’ पत्र आने के पहले ही ‘मालिक’ की कृपा से मुझे वैसी ही वह दशा प्राप्त हो जाती है। केसर व माताजी आपको प्रणाम कहती हैं और कहती हैं – ‘हम पर भी आप कृपा करें’ अब की निश्चय ही मैं तो ‘मालिक’ की कृपा से जल्दी ही उसे पाऊँगी। वह कितनी शुभ घड़ी होगी, जब मैं अपने ईश्वर को पाकर मस्त हो जाऊँगी। भिखारिन को तो भिक्षा में केवल एकमात्र अपना स्वामी ही चाहिये। मज़ा यह है कि हृदय में इतनी बेचैनी रहती है, परन्तु आँसू एक भी नहीं आता है। जो कुछ भी हालत है, सब मेरे ‘मालिक’ की अहेतु की कृपा तथा आपके आशीर्वाद का ही कुछ फल है। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-17
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
16/11/1948
मेरा पत्र मिला होगा। उस पत्र में मैंने जो दशा लिखी थी, अब उसके बिल्कुल विपरीत हो गई है। मैंने आपको बेचैनी के बारे में लिखा था, परन्तु अब तो वह बहुत ही कम रह गई है। जबसे मैंने आपको वह पत्र लिखा था, उसके दूसरे दिन से ऐसी दशा हो गई हैं कि जब sitting लेती हूँ और वैसे भी दिन-भर में कई बार ऐसा मालूम पड़ता है कि मैं बिल्कुल ईश्वर-मय हो गई हूँ और बड़ा फैलाव सा दीखता है। ऐसा मालूम पड़ता है कि मेरे में ही नहीं, बल्कि सब जगह एक मात्र ईश्वर ही ईश्वर है। शान्ति तथा हल्कापन भी बहुत है। परम् स्नेही श्री बाबूजी, मुझे ठीक दशा तो नहीं मालूम है। पूज्य मास्टर साहब ही जानते हैं जानें। बस मेरी तो उस परम् कृपालु मालिक से केवल एक यही विनती है और आपसे भी कर-जोड़ कर यही प्रार्थना है कि अब किसी तरह पीछे न हटूं, आगे ही बढ़ती जाऊँ। वैसे मुझे आजकल की दशा भी अच्छी लगती है। परन्तु बेचैनी इससे अधिक अच्छी लगती है। खैर ‘मालिक’ की जैसी भी इच्छा हो, भिखारिनी को सदा ही सिर माथे है। मेरी तो अपने मालिक से केवल यही हार्दिक प्रार्थना है और कृपया आप भी मुझ प्रत्येक साधन-विहीन के लिये यही प्रार्थना करें कि प्रतिक्षण, प्रतिपल मैं उसके निकट होती जाऊँ। पूज्य श्री बाबूजी, मुझे तो कभी बेचैनी की याद करके बेचैनी होने लगती है। अम्मा कहती हैं कि ‘शब्द’ अब बहुत कम सुनाई देता है। मन भी बहका-बहका सा रहता है। ‘शब्द’ बहुत ध्यान देने पर सुनाई देता है। आपको प्रणाम कहती हैं।
आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-19
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
26/11/1948
कृपा-पत्र आपका मिला। आशीर्वाद प्राप्त हुआ। ‘मालिक’ ने कृपा करके अब जो दशा प्रदान की है, वह लिख रही हूँ। अब तो दिन भर बिल्कुल भूली सी रहती हूँ। कभी-कभी तो आँखे अपने आप ही बन्द होने लगती हैं और फिर ऐसा लगता है मानो बेहोश सी हो गई हूँ। भीतर ही भीतर मन तथा इन्द्रियों में बड़ी शिथिलता मालूम होती है और कभी-कभी तो भीतर की थकान के कारण लेटे रहना पड़ता है। कभी-कभी बड़ा उत्साह और आनन्द आने लगता है, परन्तु कुछ ही क्षणों के लिये। बेचैनी तो जाती रही, परन्तु कुछ कसक भीतर रह गई है। परम् स्नेही श्री बाबूजी, चौबीसों घंटे केवल एक ही बात मन में समाई रहती है कि न मैं हूँ न मेरा कुछ है, बस जो कुछ देखती हूँ सुनती हूँ। एकमात्र ईश्वर ही है और क्या लिखूँ? अधिकतर तो यह होता है कि मैं भी ईश्वर ही हूँ। उदासीनता अधिक मात्रा में बढ़ रही है। पूज्य बाबूजी, जीवन तो सच-मुच वही है कि जिसमें डार में, पात में पशु-पक्षी, मनुष्य तथा वस्त्र के धागे-धागे में एकमात्र ‘ईश्वर’ ही का दर्शन हो, परन्तु अब तो बार-बार अपनी जगह भी ‘ईश्वर’ ही मालूम पड़ता है। स्वप्न के समान दिन बीत रहे हैं। यदि आपके आशीर्वाद और प्रभु की कृपा से सदा के लिये ऐसा ही हो जाता, होगा निश्चय ही। आज ऐसा मालूम पड़ता है कि बार-बार ज़बरदस्ती जागकर आपको पत्र लिख रही हूँ। यदि आपकी और पूज्य मास्टर साहब की ऐसी ही कृपा और मेहनत बनी रही तो निश्चय ही और जल्दी ही अपने एकमात्र ध्येय ईश्वर तक पहुँच जाऊँगी। आज कल तन्दुरुस्ती भी काफी ठीक है। बीच-बीच में कुछ गड़बड़ हो जाती है, फिर ठीक हो जाती हूँ। तन्दुरुस्ती का ध्यान भी अब बहुत अधिक रखने की कोशिश करती हूँ। आपने लिखा है कि ईश्वर कमज़ोर की आवाज़ अधिक सुनता है, परन्तु बाबूजी, आपको छोड़ कर मेरी समझ में कमज़ोर मनुष्य तो धीरे से पुकार सकेगा और तन्दुरुस्त की पुकार भी ज़ोर की होगी खैर मैं तो अब ‘उसके’ अर्पण हो चुकी हूँ - देर सबेर कभी तो वह अवश्य सुनेगा और मेरा विश्वास है कि वह जल्दी ही सुनेगा, क्योंकि जब आपकी तथा पूज्य मास्टर साहब की आवाज़ भी मेरे साथ मिल जावेगी, तो बहुत ज़ोर की आवाज़ होगी, फिर तो ‘मालिक’ को जल्दी सुनना ही पड़ेगा। ऐसा आशीर्वाद आप दें कि यह लय-अवस्था स्थाई हो जावे। आप यदि इच्छा भर कर देंगे तो फिर निश्चय ही यह स्थाई हो जावेगी। इस भिखारिनी का ऐसा ही अनुभव है। किसी प्रकार इस दीन की आवाज़ ‘ईश्वर’ तक शीघ्र ही पहुँचाने की कृपा करिये।

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीनी,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-21
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
13/12/1948
कृपा-पत्र आपका मिला। पढ़कर अत्यन्त प्रसन्नता हुई। मेरा एक पत्र आपको मिला होगा। तब से दशा में कोई अधिक परिवर्तन तो नहीं हुआ, हाँ, कभी-कभी मस्तक पर बीच में शान्ति निकलती मालूम पड़ती है। Sitting लेने पर कभी-कभी जब दृष्टी वहाँ ठहर जाती है, तो ऐसा मालूम पड़ता है कि गोल चक्र सा है और उसमें कुछ स्पन्दन सा मालूम पड़ता है। वैसे अधिकतर तो जिन्दा पन तो जा रहा है, उसकी जगह मुर्दापन अधिक बढ़ रहा है। परन्तु पूज्य श्री बाबूजी, यह देखती हूँ कि चैन की जगह बेचैनी भी अन्दर ही अन्दर बढ़ रही है। केवल अपने प्रभु से मिलने की उत्कण्ठा में मुझे कुछ अच्छा नहीं लगता है। यह आप या पूज्य मास्टर साहब जानें, कि क्या अवस्था बढ़ रही है। मुझे तो केवल इतना मालूम है कि ‘आप’का’ सहारा पाकर भी यदि उस सर्व शक्तिमान ईश्वर को न पाया तो मुझे धिक्कार है। यदि इस चीज़ में उन्नति का कोई ओर छोर नहीं है तो, ‘आप’के’ आशीर्वाद से और अपने ईश्वर की कृपा से जहाँ तक हो सकेगा, उस ईश्वर को पाने की इच्छा और उसकी याद का भी ओर-छोर नहीं रहने दूँगी। आपने लिखा कि सिर्फ ईश्वर ही पूर्ण है और सब अपूर्ण हैं, तो मैं पूर्ण को प्राप्त करके पूर्ण ही न हो जाऊँ, अपूर्ण क्यों रहूँ? आपके कथनानुसार बस आज से कभी भी किसी के लिये बुरी बात अब यह दीन कस्तूरी नहीं कह सकती, चाहे जो भी हो जाये। पूज्य श्री बाबू जी, आप कितने स्नेही तथा कृपालु हो कि मानसिक उन्नति के साथ शरीर की उन्नति के लिये भी कितने परिश्रम से झाऊ की लकड़ी मंगा कर यहाँ भेजी हैं। आपका परम् उपकार है, धन्यवाद है। केसर का भी पत्र भेज रही हूँ। इति:-

आपकी दीन-हीन सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-22
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
24/12/1948
मेरा पत्र आपको मिला होगा। कृपा-पत्र आपका स्वयं लिखा हुआ, जो पूज्य पिताजी के लिये आया था, सुनकर बड़ी प्रसत्रता हुई। ताऊजी तो बिल्कुल मस्त ही हो गये थे, होना भी चाहिये। उनकी आत्मोन्नति मालूम होकर और भी प्रसन्नता हुई। मेरी आपसे यही विनती है कि ताऊ जी और माताजी की दिन दुनी, रात चौगुनी परम् आत्मोन्नति हो। प्रतिक्षण, प्रतिपल वे ‘मालिक’ के निकट ही होते जायें। सोते, जगते सदा सर्वदा वे प्रभु की याद ही में मस्त रहें। ऐसी ही आप कृपा करें। क्योंकि ताऊ जी ने ही पूज्य मास्टर साहब से मेरी अनिच्छा होते हुए भी पहली Sitting दिलाई थी, फिर उन्होंने ही आपका दर्शन कराया था। उनके इस ऋण से उऋण होने को तो नहीं, परन्तु उन्हें ईश्वर का प्यारा बनाने की ही आप से सदा सर्वदा इस दीन की प्रार्थना है।

मैंने जैसी दशा पहले लिखी थी, अब वह बात बिल्कुल नहीं मालूम पड़ती। हाँ, जब कोई, जैसे पूज्य ताऊजी और मास्टर साहब में ईश्वर के प्रेम की बातें होने लगती हैं तो प्रेम तो बिल्कुल नहीं मालूम पड़ता, परन्तु रुलाई बहुत आती है और रोकने से भी नहीं रुकती। अब तो हर समय बहुत सरलता और हल्कापन मालूम पड़ता है। ऐसा मालूम पड़ता है कि हृदय का सारा बोझ उतर गया। कभी-कभी जब कोई आ जाता है, या मैं ही कहीं जाती हूँ तो बात करके या बीच में मन की तरफ देखती हूँ तो ऐसा मालूम पड़ता है, मानों वह कहीं लगा हुआ है। माथे में गुदगुदी कुछ अधिक मालूम पड़ती है। जैसे दिमाग सो जाता था, वैसे ही बैठे-बैठे माथे और नाभि में शून्यता मालूम पड़ती है। और कभी-कभी नाभि में कुछ धड़कन सी भी मालूम पड़ती है। वैसे अधिकतर तो शरीर ही नहीं मालूम पड़ता है। बीच में दो दिन दिमाग में कुछ बेकार के विचार आ जाते थे, परन्तु मन देखने पर शान्त ही मालूम पड़ता था। अब हालत बहुत अच्छी सी ही है। माथे से शान्ति अब भी निकलती मालूम होती है। न जाने क्यों ८-१० दिन से जो बात होने को होती है, वह पहले से ही अपने आप ही मन में आने लगती है। असली हालत तो बस यही है कि जिन्दा से मुर्दा हो रही हूँ। पूज्य श्री बाबूजी मालिक से भिखारिन के लिये उसका प्रेम माँगना न भूलिएगा, क्योंकि इसमें प्रेम की बहुत कमी है। माता जी तथा केसर का आपको प्रणाम।

आपकी दीन-हीन, सर्व साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-23
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
10/1/1949
मेरा एक पत्र आपको मिला होगा। अब जो दशा है, वह लिख रही हूँ। कई दिनों से मन बिल्कुल डूबा सा रहता है। चाहे कुछ पढूं, बात करूँ या कुछ काम भी करने पर ऐसा ही मालूम पड़ता है, मानों अभी पूजा करके उठी हूँ। रात में जब भी सोकर उठती हूँ, तो ऐसा ही मालूम पड़ता है कि अभी पूजा ही कर रही थी। किसी भी बात का या काम का मन पर कोई असर नहीं मालूम पड़ता है। दिमाग में चाहे कोई विचार आ भी जावे, परन्तु मन फिर भी मस्त ही रहता है। जरा सी Sitting लेना आरम्भ करते ही शरीर बिल्कुल निश्चेष्ट सा होने लगता है। जो कुछ भी दिन भर में इस शरीर मन व बुद्धि से कर्म बन पड़ते हैं, बस ऐसा ही भाव रहता है कि सब ‘मालिक’ कर रहा है और उसी की प्रेरणा से सब हो रहा है। स्वप्न में भी कभी ऐसा दिखाई देता है, मानों ‘आप’ Sitting दे रहे हैं। खैर, जो कुछ भी दशा है ‘आप’ जानें, आप का काम जानें, मुझे क्या करना। मैं तो ‘मालिक’ को अर्पण हो चुकी हूँ। मुझे तो केवल एकमात्र उसे ही प्राप्त करना है। आप तो इस दीन पर कृपा करके प्रेम से इसे सराबोर कर दें।

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-25
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
24/1/1949
आपके आशीर्वाद से भरा हुआ कृपा-पत्र मिला। पढ़कर अत्यन्त प्रसन्नता हुई। कल पूज्य श्री मास्टर साहब और ताऊ जी से उसका मतलब समझकर, थोड़ी देर तक तो मेरी दशा बिल्कुल अचेत सी हो गई थी। पूज्य श्री बाबूजी, आप बहुत गरीब हैं। एक गरीब सिवाय गरीबपन के और दे ही क्या सकता है। इसलिये ऐ गरीब देवता इस दीन को तो बस अपनी गरीबी ही दे दें। मैं अमीर बन कर क्या करुँगी, और फिर इस निर्बल शरीर में उस अमीरी को स्थाई रखने के लिये बल बुद्धि एवं युक्ति भी तो नहीं है। रही सफ़र की बात, सो भाई, सफ़र करते-करते तो मैं बहुत थक गई हूँ, अब तो इस ऐसे सफ़र से तो छुट्टी मिले, ऐसी ही कृपा करिये।
श्री बाबूजी मैं तो सच्ची शपथ से कहती हूँ, कि इस चीज़ को लेने के लिये तो अपना सर्वस्व ही न्योछावर कर चुकी हूँ। अब यह चीज़ अच्छी हो, न अच्छी हो, इससे इस दीन को कोई मतलब नहीं है। बस इसे तो लेना ही है। यह हठ ऐसी वैसी तो है नहीं। तीन हठ तो संसार में प्रसिद्ध है – बाल-हठ, त्रिया-हठ, राज-हठ और इसमें तो तीन के अतिरिक्त चार हठ मौजूद हैं। बाल-हठ, त्रिया-हठ, राज-हठ और रोगी-हठ। पूज्य श्री बाबूजी, सच तो यह है कि मुझे तो यह भी नहीं मालूम कि ‘मालिक’ से क्या माँगू। हाँ, अब तो केवल ‘उसको’ ही अर्पण हो चुकी हूँ। रोम-रोम उसी जगदीश्वर का हो चुका है। मेरी तो, मैं स्वयं भी नहीं रह गई हूँ, इसलिये जो ‘मालिक’ की मर्ज़ी है, वह दे या न दे। जिसकी चीज़ है, वह चाहे गरीबी दे या दरिद्रता दे, सब कुछ सिर माथे मंजूर है। जिसकी चीज़ है, वह स्वयं फ़िक्र करेगा - अब तो निर्द्धन्द हूँ। जब वह प्रेम देगा, तो प्रेम में मस्त हूँ। गरीबी देगा तो उस गरीबी में ही मस्त हूँ। भाई, अब तो वतन भी ‘वही’ है, सफर भी ‘वही’ है, सामान भी ‘वही’ है और मैं भी ‘वही’ हूँ। आजकल की दशा अभी तो कुछ वैसी है, जैसी लिख चुकी हूँ। अब तो शीघ्र ही बसन्त पंचमी पर हम सब आयेंगे।

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-27
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
13/2/1949
कृपा-पत्र आपका मिला। पढ़कर अत्यन्त आनन्द हुआ। ऐसा पत्र मैंने तो आज तक न कभी देखा है, न सुना है। आपको, ईश्वर ने कृपा करके मिला दिया है, इसलिये ऐसे पत्रों के भी दर्शन हो जाते हैं। मैंने अगले पत्र में लिखा था कि एक गरीब आदमी, गरीबी के सिवाय और क्या दे सकता है, परन्तु श्री बाबूजी, इस गरीबी पर तो सचराचर विश्व की सभी सम्पति न्योछावर हैं। आपने लिखा है कि गरीबी की दशा के लिये लोग तरसते चले गये हैं, परन्तु मेरी समझ से गरीबी तो इस मिशन के लोगों पर किसी न किसी दिन आक्रमण करती चलेगी। क्योंकि भाई, आपने लिखा है कि-एक आदमी है, जो किसी समय धनी था। अपनी पूँजी दूसरों को दे सकता था। जैसे-जैसे वह देता गया, गरीबी बढ़ती गई और उसका देना भी कम होता गया। अन्त में उसके पास कुछ न रहा और वह कुछ न दे सका, यानी वह गरीब हो गया। इसी प्रकार आप के कथनानुसार जब धनी लोग, अपनी पूँजी ‘मालिक’ को देते (अर्पण करते) जायें या परम् कृपालु मालिक स्वयं ही छीनता जाये, तो अन्त में जब सब कुछ दे दिया जायेगा या सब कुछ छिन जायेगा, तो आप ही गरीब हो जायेंगे और उसके पास कुछ नहीं रह जायेगा। यदि आप कृपा कर के हम धनियों के धन को छीनते जाइये तो ताऊजी का कहना है कि ऐसे धन का छीनना शास्त्र के विरुद्ध नहीं होगा, वरन् ऐसे दुखियों का उपकार होगा, जो वृथा के झूठे झंझटों में पड़े हुए स्वयं ही अपने को घोर दु:ख के सागर में डुबकियाँ लगवाते हैं। वास्तव में जहाँ पर देना-लेना, सब ही समाप्त हो जाता है, वहीं सच्चा सुख है। पूज्य बाबूजी, आपने यह पत्र ही नहीं लिखा है, वरन् इसके बहाने बहुत ही सुन्दर और प्रभावोत्पादक उपदेश इस दीन को दिया है। सचमुच कितना सुन्दर उपदेश है कि यदि सामान से बेखबर हो जावे, तो भी सामान है, गरीबी कहाँ रही? बस सार यही रहा कि अपना सर्वस्व उसी ईश्वर के हाथों बेच डालें।

भाई, किसी समय यह विचार अवश्य था कि ‘वह’ अमानतदार बहुत दूर है, कि जिसके हाथ सामान बेचा जाये। परन्तु, अब तो उस अमानतदार की कृपा से ‘वह’ स्वयं इतना निकट ही नहीं, किन्तु रोम-रोम में, नस-नस में भिद सा गया है। वह न कभी दूर था, न दूर है और न रहेगा। हाँ, जब तक अपनी आँख खुद अपनी आँख को नहीं देख सकती वाला भ्रम था, तब तक ही वह दूर था। परम् स्नेही श्री बाबूजी, पूज्य मास्टर साहब व ताऊजी के समझाने से आप का पत्र कुछ-कुछ समझ तो आ गया है, परन्तु वह हृदय में ही है। उसका उत्तर लिखना बहुत कठिन है। आप लिखते हैं कि मैंने जो अपनी गरीबी का ज़िक्र किया था, वह हालत आपकी है। इसके आगे यही Personality और इससे आगे की अवतारों की है। क्षमा करियेगा, मैंने यहाँ पूज्य मास्टर साहब के घर में एक डिक्टेट सुना था, अब आपकी छिपाने की कोशिश बिल्कुल बेकार है। आप इस दीन पर ऐसे ही खुश हो जाइये, क्योंकि पत्र का उत्तर लिखने में असमर्थ हूँ। आपके आशीर्वाद से ऐसा होने की प्रार्थना अवश्य करुँगी, परन्तु भईया, कल आपका पत्र पढ़कर, ऐसा होने के लिये जब ‘मालिक’ से प्रार्थना करने लगी, तो न जाने क्या हो गया कि उसको याद करके ही मस्त सी हो गई और कुछ भी न माँग सकी। क्या बताऊँ यह तबीयत तो मेरे पास से ऊब कर न जाने कहाँ चली गई है। आपके आशीर्वाद तथा कृपा से तथा पूज्य मास्टर साहब की मेहनत से करीब दो-ढाई महीने से सोते-जागते, चौबीसों घंटे, ऐसा लगता है, मानों Sitting लेकर उठी हूँ। जब से शाहजहाँपुर गई हूँ, तब से आज तक एक मिनट भी Sitting से खाली नहीं गया है। कोशिश करके, मन को ध्यान से हटाकर, आज आपका पत्र समझ कर, ‘मालिक’ की कृपा से कुछ टूटे-फूटे शब्दों में लिखा है। भईया, अब तो ‘मालिक’ ने मुझे मोल ले लिया है। आपने ही तो मुझे बेच दिया। अब तो अपने पन का भाव ही नहीं रहता है। न जाने कैसे अब यह दशा खुद ही आकर और स्थिर होती जा रही है, कि उससे भिन्न न आप ही और न कोई चीज़ दिखाई देती है। स्वयं अपने द्वार भी उसी को काम करते देखती हूँ। जो कुछ भी लिखा है, ईश्वर जाने। जैसी उसकी मर्जी हुई उसने लिखा दिया। यह तो अब कुछ-कुछ ‘मालिक’ की मशीन हो गई है। जब जिधर चाहता है, घुमा देता है। शायद एक पत्र आपको और डाल चुकी हूँ। याद नहीं पड़ता कि उसमें क्या लिखा है। खैर, जो भी लिखा हो। मैं गवाँरिन, वैराग्य, लय-अवस्था और ईश्वर-दर्शन को क्या समझूँ। हाँ, आप के कृपा-पत्र से थोड़ी सी झलक हृदय में अवश्य मिल गई है। जब से आप के पास से आई हूँ, दशा कुछ और अच्छी हो गई है। क्या है, यह आप जानें। जब आपका मन चाहे, तब ही यह चीजे दीजियेगा। बस यह समझ लीजियेगा, अब कस्तूरी तो आपका पल्ला छोड़ने की नहीं। श्री बाबूजी, नौकर तो मैं आपकी हो ही चुकी हूँ। क्योंकि तनख्वाह दो महीने पहले से ही थोड़ी-थोड़ी लेनी शुरु जो कर दी है। अब कभी-कभी यह शक हो जाता है कि मैं उससे प्रेम भी करती हूँ या नहीं? जीवन में बहुत सरलता सी आ गई है। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-28
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
23/2/1949
मेरा पत्र मिला होगा। यहाँ सब कुशल पूर्वक हैं। आशा है, आप भी सकुशल होंगे। जबसे मैंने पिछला वाला पत्र भेजा है, तभी से, शायद नौ-दस दिन से आत्मिक-दशा में एक बात और हो गई है, और सब दशा तो वैसी ही हैं। वह यह है कि तबियत बहुत अधिक हल्की और सरल हो गई है। जैसा कि पहले मैंने लिखा था कि हमेशा ऐसा ही लगता है, मानों Sitting ले रही हूँ, परन्तु अब Sitting लेते समय भी यह नहीं मालूम पड़ता कि Sitting ले रही हूँ। कुछ अजीब सरलता सी आ गई है। मुझे ठीक नहीं मालूम कि क्या दशा है और कैसी दशा है? पूज्य मास्टर साहब ने कहा कि अच्छी है, परन्तु मुझे अब अच्छी नहीं मालूम पड़ती है, परन्तु तबियत इससे हटना भी नहीं चाहती। अब तो भईया, उस सर्व शक्ति मान के हाथों बिक चुकी हूँ और उसने भी मुझे खरीद लिया है। अब जो उसकी इच्छा हो वह दे या न दे। आपकी आज्ञानुसार जीवनी लिखना प्रारम्भ कर दिया है और लेख भी थोड़ा लिख गया है। अम्मा ‘आप’ को आशीर्वाद कहती हैं। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-29
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
9/3/1949
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी को, लखीमपुर सादर प्रणाम । ९ मार्च १९४९ आशा है आप बहुत आराम से पहुँच गये होंगे। आपके शुभागमन से हम सब क्या, सारा लखीमपुर धन्य हो गया, कि जिनके आते ही वायुमण्डल में सुख-शान्ति और पवित्रता की धारायें बहने लगी। ऐसा भाई पाकर बहन होना सार्थक हो गया। पूज्य बाबूजी, आप इसकी कोई फ़िक्र न करें। ईश्वर की कृपा से आपकी चीज़ ‘सहज-मार्ग’ का इतना प्रचार होगा और शीघ्र होगा, जैसा कि आज तक किसी संस्था का न हुआ है, और न कभी होगा ही। अब ‘आप’ ऐसा आशीर्वाद दें कि आपकी यह बहन भी आपकी सेवा में तन-मन-धन, सब न्योछावर कर सके। दशा तो आप मेरी खूब जानते ही हैं। क्योंकि मेरी कलई तो ‘मालिक’ पर कुछ-कुछ क्या, पूरी खुल चुकी है। ‘तू’ ही मैं है, और मैं ही ‘तू’ है वाली दशा है। अब तक तो मैं ही जड़ मशीन की तरह थी और अब तो सब लोग ही मुझे ‘मालिक’ की मशीन की तरह काम करते दिखाई देते हैं। सच में तो कुछ ऐसी दशा हो गई है कि:-

दर-दीवार, दर्पण भये, जित देखूं तित ‘तोय’।
कांकर-पाथर-ठीकरी, भये आरसी मोय।।

बिल्कुल एक सी ही दशा है, न किसी काम में अधिक प्रसन्नता ही होती है और न कुछ दुख ही मालूम होता है। पहले सुना करती थी कि ईश्वर, अहेतु की कृपा वाला है, परन्तु अब तो स्वयं अपने पर आज़मा भी लिया है।

जब से ‘आप’ गये हैं, तब से Nothingness की दशा बहुत अधिक बढ़ गई है, परन्तु कल की पूज्य मास्टर साहब की Sitting के बाद से तो एक क्षण को भी इससे अलग नहीं होती। जाने कैसे सब काम मेरे द्वारा हो जाते हैं, क्योंकि मेरे तो कोई विचार ही नहीं आते। पूज्य श्री बाबूजी, यह सब आप का ही दिया हुआ है, मेरा कुछ नहीं है। सदा इस दीन पर ऐसी ही कृपा बनाये रखियेगा।

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-30
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
14/3/1949
पवित्र भईया दोज के लिये रोरी भेज रही हूँ। नेग पा चुकी हूँ, परन्तु दोज के दिन भाई का मस्तक सुना नहीं रखा जाता है, इसलिये ‘तिलक’ अवश्य लगा लीजियेगा। भाई क्या करूँ, भाई लोग इतने धनाढ्य हैं कि लालच हो आता है। और आप लोग इतने कृपालु भाई हैं कि शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते हैं, और फिर इतनी आनन्ददायक वस्तु प्रदान करते हैं, जिसका वर्णन इस जिह्वा से नहीं हो सकता। आत्मिक-दशा के विषय में पत्र लिख चुकी हूँ मिला होगा। केसर तथा बिट्टो प्रणाम कहती हैं तथा माता जी शुभ आशीर्वाद देती हैं।

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
बहिन-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-31
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
20/3/1949
पत्र आपका आया। पढ़कर प्रसन्नता हुई। स्वास्थ्य खराब होने के कारण शीघ्र उत्तर न दे सकी, क्षमा कीजियेगा। प्रार्थना, मिशन की उन्नति के लिये ‘आप’ की आज्ञानुसार करनी तो पहले से ही आरम्भ कर दी है। सेवा में यह तन-मन सब कुछ उपस्थित है, जब जैसी चाहियेगा, सेवा लीजियेगा। अपने स्वास्थ्य की काफी चिन्ता रखती हूँ, परन्तु पूर्व जन्म के संस्कारों से लाचार हूँ। इसलिये कुछ न कुछ तकलीफ हो जाती है, इसकी कोई चिन्ता नहीं। श्री बाबूजी, आप इसकी कोई अधिक चिन्ता न करें। ‘आप’ के जीवन में ही यह चीज़ खूब विस्तृत होगी, जिससे इस घोर संसार-सागर में डुबकियाँ लगाने वाले हम पापियों का उद्धार होगा।

मैं हूँ, सो 'तू’ है, ‘तू’ है सो मैं हूँ के मेरे लिखने के केवल इतने ही माने थे कि ईश्वर में और स्वयं मुझमें यह भेद नहीं मालूम पड़ता था कि सब काम मैंने किये हैं या ‘उसने’ यानी बिल्कुल एकता सी लगती थी। दोहे के माने यह थे कि हर चीज़ में हर मनुष्य में केवल एकमात्र ईश्वर ही ईश्वर दिखलाई पड़ता है। मैं हूँ सो ‘तू’ है, वाली दशा तो याद की कमी के कारण ‘आप’ को फिर दोबारा लिख गई थी। उस समय की असली दशा तो वही थी जो कि मैंने बाद में लिखी थी, यानी Nothingness, जो अब तक बनी हुई है।

पूज्य श्री बाबूजी, तब मैंने संकोचवश आप को एक दशा नहीं लिखी परन्तु अब पूज्य मास्टर साहब जी की आज्ञानुसार लिख रही हूँ, क्षमा करियेगा। ‘आप’ से तथा पूज्य मास्टर साहब जी से जब Sitting लेने बैठती थी और अब भी, जब बैठती हूँ तो, बजाय Sitting लेने के, ऐसा मालूम पड़ता है कि मैं ही ‘आप’ लोगों को Sitting दे रही हूँ। यह दशा अब तक है। आपका पत्र मिलने के दूसरे या तीसरे दिन ऐसे ही बैठी थी कि इतने में एकदम ऐसा मालूम पड़ने लगा कि सब में मैं ही व्याप्त हूँ। यहाँ तक कि स्वयं ‘आप’ में तथा मास्टर साहब जी में भी मुझे ऐसा ही मालुम पड़ता था कि मैं ही हूँ और यह दशा अब तो दिन भर में अक्सर हो जाती है। मैंने कोशिश की, कि ऐसी तबीयत न हो, परन्तु मैं असफल हो गयी। इसके अतिरिक्त जब से आप का पत्र मिला है, दशा बदली है, परन्तु मैं अभी तक इसे पहिचान नहीं पाई हूँ। हाँ, तबियत हल्की और अधिक हो गई है। आप का पत्र मिलने के दो दिन बाद तक तकलीफ Tonsil तथा दाढ़ में बहुत थी, इसलिये कुछ गौर न कर सकी थी।

परम् स्नेही, भईया, मैंने सुना है ‘आप’ २८ मार्च से छुट्टी लेकर Tour पर जाने वाले हैं। ‘आप’ अपनी पावन चरण-रज से हम सबको धन्य करने तथा आत्मोन्नति करने का सौभाग्य प्रदान करने की अवश्य कृपा करें। मेरी तो ‘आप’ से करबद्ध यही प्रार्थना है कि जाने से पहले ‘आप’ चार-पाँच दिन को यहाँ अवश्य पधारें।

तबियत ठीक होने पर मैं आजकल की दशा को यदि ठीक समझ सकी, तो लिखूँगी। वैसे ‘आप’ तो जानते ही हैं। आइयेगा अवश्य। यद्यपि ‘आप’ को सफ़र में बहुत कष्ट होगा, परन्तु बहन अपने सहोदर के दर्शन को सदा उत्सुक है। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-32
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
20/3/1949
मेरा एक पत्र आपको मिला होगा। मेरी तवियत अब ठीक है। आशा है आप भी सकुशल होंगे। पूज्य मास्टर साहब जी को, जो आपने पत्र डाला था, उससे मालूम हुआ कि आप तारीख ३ की रात को जायेंगे और यह भी लिखा था कि ‘कस्तूरी’ से कहना कि मैं अभी वहाँ नहीं आ सकूँगा, इस लिये मुझे माफ करें। भाई, आप कृपा करके कम से कम इस दीन के लिये यह शब्द न लिखें तो अच्छा हो। वैसे कोई बात नहीं है, परन्तु अपने लिये यह शब्द खटकता सा लगता है। फिर क्षमा तो उल्टी मुझे आपसे माँगनी चाहिये, क्योंकि ‘मालिक’ के काम की तड़प के आगे मुझे आप को बुलाना नहीं चाहिये था। परन्तु फिर भी भाई, अब आपसे नाता ही कुछ ऐसा हो गया है। खैर, लौटने में यदि सुविधा हो, तो अवश्य पधारने की कृपा करियेगा।

मैंने पहले लिखा था कि अपनी आजकल की आत्मिक-दशा के विषय में फिर लिखूँगी, परन्तु क्या करुं, अभी तक कुछ पहिचान नहीं पाई हूँ। परन्तु इतना जानती हूँ कि ईश्वर की कृपा से दशा बहुत अच्छी है। पूज्य बाबूजी, आप मुझे पहले क्यों न मिले, जिससे तब मैं बहुत शीघ्र उन्नति कर सकती, जिससे आपका भी परिश्रम मेरे लिये कम पड़ता। खैर, ईश्वर को कोटि-कोटि बार धन्यवाद है, जिसने अपनी अहेतु की कृपा से उचित और सरल मार्ग पर चलाने को इस दीन को ‘आप’ से मिला दिया। भईया, बस अब तो एक ही लगन है कि किसी प्रकार क्षण-प्रतिक्षण मेरी परम् आत्मोन्नति होती चली जाये। और आपके तथा मास्टर साहब जी के परिश्रम तथा आशीर्वाद से ऐसा ही लगता है कि बस, सब एक ही धार हो गया है। मैंने जो Sitting देने वाली दशा लिखी थी, वह अब बिल्कुल नहीं है और मैं ही सब में स्थित हूँ, यह भी दशा अब नहीं है। अब तो न जाने क्या दशा है, हर समय बिल्कुल खाली सी बैठी रहती हूँ। बड़ी अच्छी दशा है, परन्तु इन दिनों इच्छा-शक्ति दिनों दिन बढ़ती मालूम होती है। आज Sitting ले रही थी, तो एक दृश्य दिखलाई दिया कि मैं और ‘आप’ बैठे हुए हैं। मैंने कहा कि अब तो भाई ‘मालिक’ जो चाहें, मुझसे ले सकता है तो आपने कहा कि अच्छा मैं तुझसे तेरा हाथ माँगता हूँ। बस, आपका वाक्य पूरा भी नहीं हो पाया था कि मैंने तुरंत तलवार से हाथ काटकर आप को अर्पण कर दिया। फिर आप बहुत ही प्रसन्न हुए। और वैसे आप तो इस भिखारिणी पर सदैव ही से प्रसन्न तथा कृपालु हैं। प्रार्थना, कर जोड़कर केवल एक ही है कि आप ‘मालिक’ के काम को जा रहे हैं उसके काम के बाद, यदि थोड़ा अवसर मिले तो तमाम अवगुणों की खान इस दीन कस्तूरी पर कृपा करना न भूलियेगा और ‘मालिक’ के काम के बाद जो आपके शरीर की थकान और कष्ट हों, उन्हें कृपा करके मेरे में Transfer कर दीजियेगा। इस बात को न भूलियेगा। अम्मा आप को आशीर्वाद कहती है तथा केसर प्रणाम कहती है। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
बहन-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-33
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
2/5/1949
आशा है आप आराम से पहुँच गये होंगे। केसर कहती है कि करीब १५ तारीख से ध्यान करते समय न दिल दिखलाई पड़ता है, न कुछ, बस ‘आप’ ही दिखलाई देते हैं। तबियत में शान्ति और आनन्द भी अधिक आ गया है और मेरे विषय में तो ‘आप’ जानते ही हैं। भाई, यहाँ तो कोरा मामला है। सच में तो, अपनी साधना से स्वयं संतुष्ट नहीं हूँ और मैं चौबीसों घंटे ‘मालिक’ की याद कर सकती, तो शायद कुछ सन्तुष्ट हो जाती। परन्तु नहीं, यह मेरी भूल है। साधना की Dictionary में संतोष शब्द तो आना ही नहीं चाहिये। मेरी अपने लिये तो यही धारणा है और रहेगी कि साधनावस्था में संतोष शब्द का ध्यान में भी आना, यह साधक की (मेरी) बड़ी कमज़ोरी है। ‘मालिक’ से यही प्रार्थना है कि ऐसे ही दिन रहें और रात रहे और यह दीन कस्तूरी तेरी याद में मस्त रहे।

आत्मिक-दशा आजकल की शायद मैंने ‘आप’ से बताई थी। दिन भर यही लगता है कि जैसे किसी दूसरे नये देश में आ गई हूँ। यहाँ तक कि कभी-कभी तो रसोई घर तक भूल जाती हूँ। बस भौचक्की सी खड़ी रहती हूँ, और याद तो यहाँ तक भूलती है कि प्रार्थना करते- करते यही भूल जाती हूँ कि किससे प्रार्थना कर रही हूँ, क्या प्रार्थना कर रही हूँ। छपे हुए, जो साधकों के दस नियम हैं, उसमें लिखा है कि - ‘प्रार्थना ऐसी करनी चाहिए, कि हृदय प्रेम से भर आवें, परन्तु यहाँ तो प्रेम से हृदय भरना तो दूर रहा, बस तबियत बिल्कुल शून्य हो जाती है। उसमें प्रेम तो मालूम नहीं पड़ता। खैर ‘मालिक’ जाने। वैसे दशा जो आजकल है, वह पहले से अच्छी ही मालूम पड़ती है। शरीर के रोग निवारणार्थ ‘आप’ ने जो उपाय बतलाया है, उसके लिए कोशिश करुँगी, यदि कुछ अपना बस चला तो। ‘आप’ को शायद याद होगा, ‘आप’ ने एक पत्र में मुझे लिखा था कि – ‘कदम सदा आगे ही बढ़ना चाहिए’ बस यह वाक्य मेरे लिये पत्थर की लकीर है और ‘आप’ से भी प्रार्थना है कि यदि आप कदम आगे बढ़ने में कुछ कमी देखें तो तुरन्त मुझे सचेत करियेगा। मेरी तो यह कोशिश है कि जिस कृपालु ने इस अधम को भी एक बार अपनी पुत्री कह कर पुकार लिया है, ‘उनके’ नाम को कोई हंसने न पाये और ‘मालिक’ से भी यही प्रार्थना है। कुछ अधिक लिख दिया हो तो क्षमा करियेगा। अम्मा का आपको शुभाशीर्वाद। केसर तथा बिट्टो प्रणाम कहती हैं। इति:-

आपके मिशन के सब साधकों में,
महा तुच्छ – कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-35
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
5/12/1949
कृपा-पत्र आपका कल मिला। पढ़कर प्रसन्न होने के बजाय दशा बिल्कुल शून्य हो गई, फिर काफी देर चुपचाप लेटे रहने के बाद कुछ-कुछ ठीक होने लगी। करीब एक घंटे में बिल्कुल ठीक हो गई, परन्तु रमक आज तक आ जाती है। भाव के बारे में आप की जैसी मर्जी हो रखें, परन्तु मुझे तो आपका पहला वाला (बेटी का) भाव बहुत अच्छा लगता है। आप को भाई मानने का भाव माताजी के कहने से शुरु तो किया था और अभ्यास भी बहुत किया, परन्तु यह भाव बिल्कुल ठीक मन को कुछ गड़ा नहीं। अंत में जब आप गया गये थे, तब तो मैंने पिताजी से साफ कह दिया था कि आप से भाई का भाव करने में असमर्थ हूँ। जब आप को पहली बार देखा था, तो एकदम से ऐसा ही भाव और स्नेह आपसे हुआ था, जैसा कि एक बेटी को उसके पिता से मिलने पर होता है। ज़ाहिर में आप की जैसी इच्छा हो करें। अबकी से जब आप को पत्र डाला था, उसके दो-तीन दिन तक तबियत बिल्कुल Dull रही। खैर, कल से फिर अच्छी हो गई। आपने लिखा है कि – ‘यदि तुम्हें इस भेद को जानने को curiosity हो, तो मास्टर साहब से पूछ लेना’। इसका उत्तर तो बस यही है कि सारी curiosity तो एक (ईश्वर की) ही ओर मोड़ दी है। अब और किसी विषय के लिये curiosity ही नहीं रह गई। यदि कभी हुई, तो पूछ लूँगी। आध्यात्मिक हालत के symptoms जानने की भी मेरी अभी इच्छा नहीं है। हाँ, जब ‘मालिक’ की कृपा से इस दीन को आध्यात्मिक-दशा पूर्ण रुप में प्राप्त हो जावेगी, तब बता दीजियेगा। पिताजी (स्वामी विवेकानन्द) के डिक्टेट और उसमें दिये हुए शुभाशीर्वाद के लिये कोटिश: धन्यवाद है, परन्तु उनको किन शब्दों में धन्यवाद दूँ, यह मुझे नहीं मालूम और कोरा धन्यवाद मैं उन्हें देना भी नहीं चाहती। हाँ, यदि ‘मालिक’ की कृपा से उनकी (स्वामी जी की) आज्ञा का अक्षरश: पालन करके ईश्वरीय मार्ग में अच्छी तरह जाग जाऊँ, जैसा कि उन्होंने कहा है ‘Avail daughter, this opportunity’ और आपको किन शब्दों में धन्यवाद दूँ? आपको धन्यवाद तो मैं, जिस चीज़ को आप हम सब को देने के लिये बेचैन से हैं, उसको प्राप्त करके ही, दे सकूँगी। न जाने क्यों, जो वाक्य आपने स्वयं अपने हाथों से लिखे हैं, उनके अक्षर-अक्षर से पिता का स्नेह और blessings मुझे मिलते मालूम पड़ते हैं और प्रत्येक वाक्य से Sitting मालूम होती है। आप लिखते हैं कि ‘मैंने तुम्हें किसान की लड़की लिख दिया इसका मुझे खेद है, और तुम्हें बुरा लगे तो क्षमा करना’। कृपया इस क्षमा शब्द का प्रयोग आप इस दीन के लिये न किया करें। क्योंकि क्षमा तो मुझे स्वयं आपसे माँगनी चाहिए कि महर्षि पांतजली के समय में होने पर भी Liberate न हो सकी और अब आप सा सहायक मिलने पर भी शीघ्र उन्नति न कर सकी। किसान अगर ईश्वर से रहित होता तो मुझे अवश्य बुरा लगता।

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी "
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-37
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
20/5/1949
कृपा-पत्र आप का मिला, पढ़कर प्रसन्नता हुई। आप की आज्ञानुसार जीवनी लिखना तो पहले ही प्रारम्भ कर चुकी हूँ, परन्तु मैंने उसे बहुत छोटा कर दिया है। अब आप के पत्र से मालूम होता है कि ‘आप’ विस्तृत चाहते हैं। इसलिये पूज्य मास्टर साहब और पिताजी की सहायता से अब विस्तृत लिखना आरम्भ कर रही हूँ।

परम् स्नेही श्री बाबूजी, न जाने मुझे क्या हो गया है कि ऐसी तबीयत चाहा करती है कि छोटी बच्ची बन कर ‘आप’ की गोद में खेला करूँ और हृदय में इस बात की लहरें सी उठती हैं। ‘मालिक’ की कृपा से जब मैं कभी छ: माह और कभी साल भर के बच्चे की तरह ‘आप’ की गोद में लेटी हुई होती हूँ, तो बिल्कुल Thoughtless सी हो जाती हूँ और इसके अतिरिक्त तबियत में न जाने कैसा सुहावना पन हो जाता है जो मेरी समझ से बाहर है।

वैसे भी अब हालत समझ में नहीं आती या ऐसे कहिये कि समझना ही नहीं चाहती। खैर, जो ‘मालिक’ की मर्ज़ी। एक बात यह है कि कभी-कभी थोड़ी देर के लिये ऐसा मालूम पड़ता है कि मैं सब में फैल सीं गई हूँ।

अब कुछ अपनी ढिटाई लिख रही हूँ कि ‘आप’ की गोद में बैठकर बच्चों की तरह दाढ़ी से खेलने लगती हूँ। अम्मा आपको आशीर्वाद कहती हैं। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-38
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
28/5/1949
पूज्य मास्टर साहब तथा आपके कृपा-पत्र ताऊजी के लिये आये। आपका पत्र सुनकर तबियत प्रसन्न हुई, परन्तु खेद भी हुआ, क्योंकि आपने लिखा कि - ‘आप लोगों ने मुझे गिरवी रख लिया है’। यह सुनकर प्रसन्नता हुई, परन्तु अभी खरीद नहीं पाये है, इस बात का खेद भी हुआ और अब यह फैसला ‘मालिक’ पर है कि हमने आपको गिरवी रखा है या स्वयं आपने हमको। परन्तु है अभी गिरवी का ही मामला। अभी खरीद शायद किसी ओर से नहीं हुई। क्योंकि यदि हम बिल्कुल बिक चुके होते तो अहंभाव रत्ती- रत्ती चला गया होता, जैसा कि आपने समझाया था कि ‘मैं’ कहते समय इसका भान न रहे कि यह ‘मैं’ किसने कहा? हाँ, धीरज इसमें है, कि ‘मालिक’ के हाथों बिकने की कोशिश अवश्य है, यदि वह खरीद ले और कभी-कभी कुछ दिनों को ऐसी दशा हो भी जाती है। अब आज कल की आत्मिक-दशा यह है कि ‘मालिक’ की याद आई या नहीं, इसका पता ही नहीं लगता है। कोशिश करके बार-बार याद करती हूँ, परन्तु थोड़ी देर में ऐसा लगता है कि फिर भूल गई। असली बात यह है कि यह याद नहीं रहता कि ‘मालिक’ की याद थी या नहीं थी। जब यह विश्वास होता है, कि थी, तो धीरज रहता है, परन्तु जब यह प्रश्न उठता है कि याद नहीं थी, तो कुछ बेचैनी हो जाती है। कृपया आप ही इस प्रश्न का उत्तर दें। बार-बार भौंचक्की हो जाना, यह दशा कुछ-कुछ बढ़ ही रही है। और एक बात कुछ यह हो गई है कि जब कभी रात में यह खयाल करती हूँ कि आज दिन भर में क्या किया, तो यह याद ही नहीं आता कि क्या किया अर्थात् यह मालूम नहीं पड़ता कि मैंने कुछ किया भी है। मेरी नींद कुछ दिनों से ऐसी बढ़ गई है कि रातभर बिल्कुल गहरी नींद में पड़ी रहती हूँ और कुछ मिनटों के लिये दिन में भी सोती हूँ। परन्तु दोनों बार जब सोकर उठती हूँ तो ऐसा ही लगता है कि न मालूम किस देश से आयी हूँ, जो सब कुछ भूल गई। ‘मालिक’ की कृपा से दशा कुछ अच्छी ही है। नींद की तो मेरी कुछ-कुछ यह समझ में आया कि ‘पिता’ की गोद में सोने में ही बड़ी मस्ती है। दिन में भी यह हालत, जो सोकर उठने पर होती है, अब बार-बार होती है, और अधिक देर तक रहती है, परन्तु अब अजीब नहीं लगता, जैसा कि पहले एकाएक हो जाने पर लगता था। शायद इस दशा से मेरी कुछ जान-पहिचान हो गई है। अम्मा हम सब को पूजा करायें, यह पढ़कर अत्यन्त प्रसन्नता हुई। अम्मा कहती हैं कि यदि आपका मतलब Sitting देने से है तो मुझे नहीं मालूम कि कैसे दी जाती है और न कुछ आता ही है और आपको और मास्टर साहब को आशीर्वाद कहती हैं। अब कुछ दिनों से ऐसा लगता है कि मन न जाने कहाँ रहता है कि कुछ पता ही नहीं लगता है। पूज्य मास्टर साहब जी से मेरा भी प्रणाम कह दीजियेगा।

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-40
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
13/6/1949
कृपा-पत्र आपका ताऊजी द्वारा प्राप्त हुआ, पढ़कर प्रसन्नता हुई। श्री बाबूजी मैं आपसे उऋण नहीं हूँ। एक गरीब के लिये इतनी मेहनत कौन करता। आठ-नौ दिन से हालत फिर बदल गई है, परन्तु अभी ठीक समझ में नहीं आई। पहले से अच्छी ही लगती है। फैलाव अब बिल्कुल नहीं लगता। भौचक्कापन भी अब मालूम नहीं पड़ता। हाँ, नींद में कुछ और गाढ़ापन है। कुछ ऐसा है कि रात को सोने में जितना मज़ा आता है, उतना Sitting में भी नहीं आता है। आपने इसका कारण तो लिख ही दिया है। ‘मालिक’ की याद के विषय में जो आपने लिखा, वह तो अब शायद छूटना कठिन है। चाहे जैसे भी करूँ, याद तो करनी ही पड़ेगी, नहीं आती तो जबरदस्ती ही सही। आपने लिखा है कि अभी बहुत चक्रों की Crossing बाकी है, परन्तु मेरी समझ से तो जब केवट मिल गया तो Cross होने में कोई कठिनता नहीं, वरन् मार्ग बड़ी आसानी और मस्ती से पार हो जायेगा। जब ‘आप’ यह लिख देते हैं कि ईश्वर जाने क्या हालते हैं, उसके बाद उसका भी छोर नहीं है, तो इससे मेरे मन में बड़ा लालच और उत्साह बढ़ जाता है। तबियत तो मैं अपनी ‘मालिक’ को अर्पित कर चुकी हूँ, अब जो उसकी मर्ज़ी हो करे। एक बात मेरे में कुछ ऐसी हो गई है, जो बात मन में जैसी आती है, वैसी ही मुह से निकल जाती है, मुझे पता ही नहीं लगता। यदि आजकल की दशा समझ सकी या और कुछ बदली, तो लिखूँगी। वैसे आज शायद कुछ और फ़र्क लगता है, किन्तु ठीक से नहीं कह सकती। केसर व बिट्टो आपको प्रणाम कहती हैं और अम्मा आशीर्वाद कहती हैं। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-41
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
2/7/1949
यहाँ सब कुशल पूर्वक हैं। आशा है आप भी सकुशल होगें। ‘मालिक’ की अहेतु की कृपा और ‘आप’ तथा पूज्य मास्टर साहब जी के परिश्रम से मेरी आत्मिक-दशा अच्छी ही है। वैसे तो तबियत में न खुशी मालूम होती है, और न कुछ दुख ही है, अजीब सी दशा है। इधर चार-पाँच दिन बड़ी बेचैनी रही और मन भी बड़ा उचाट सा रहा और अब तो दशा फिर सम हो गई है। छ: सात दिन तो पूजा करने को किसी तरह जी ही नहीं चाहता था और यह दशा थोड़ी अब भी मौजूद है परन्तु पूजा करने की याद बराबर परेशान करती रही। खैर, अब ‘मालिक’ का धन्यवाद है कि दो-तीन दिन से पूजा में फिर तबियत लगने लगी। मैं तो बिल्कुल घबड़ा ही गई थी, परन्तु अधिक जिद्दी होने के कारण जितनी बार Sitting लेती थी उससे अधिक बार बैठी। कुछ ऐसा भी हो गया कि आप को पत्र डालने की भी तबियत ही नहीं चाहती थी। बहुत कोशिश से ता: १ को थोड़ा सा प्रारम्भ किया, फिर आध-घंटे तक कलम पकड़े बैठी रही, परन्तु दिमाग में, सोचने पर भी, कुछ बात ही नहीं आई, तो बन्द कर दिया। अब आज ‘मालिक’ की मर्ज़ी हुई तो लिख दिया। परन्तु विश्वास कुछ ऐसा बंध गया है और यह बात मालूम भी होती है कि दशा गिर नहीं रही है और न ही गिरेगी। क्योंकि ‘मालिक’ अहेतु की कृपा वाला है।

पूज्य श्री बाबूजी, प्रार्थना की आपने लिखी थी और मैं करती भी थी, परन्तु अब अच्छी तरह प्रार्थना नहीं हो पाती, क्योंकि तबियत नहीं चाहती, परन्तु मैं करती अवश्य हूँ। वैसे अब दो-तीन दिन से तबियत कुछ फिर लगने लगी है।

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-42
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
10/7/1949
मेरा एक पत्र आपको मिला होगा। इधर कुछ दिनों से मुझे तो दिनभर सुस्ती छाई रहती है और हर समय नींद ही लगी रहती है। यह हालत जब मैंने वह पत्र लिखा था, तब भी थी, परन्तु इन दिनों अधिक बढ़ गई है। इसी बीच में ‘मालिक’ की याद में रत रहने की बेहद चाह बढ़ गई है। यहाँ तक कि रात को सोने की भी तबियत नहीं चाहती थी, इस लिये फिर मेहनत भी, जो कुछ इस टूटे-फूटे शरीर से हो सकती थी, शायद उसके बाहर तक हुई। दिन-रात की दिमागी मेहनत के कारण अब दिमाग फेल हो गया है। सिर भी घूमने लगा। जी भी घबड़ा-घबड़ा जाता है। सिर की नसें भी सब तड़क उठी और शरीर भी अधिक कमज़ोर है। बस प्रसन्नता इस गरीबनी को एक ही हुई और जिस प्रसन्नता के आगे यह सब तकलीफें बहुत हेय हो गई, वह यह है कि एक बार जी भर कर ‘मालिक’ की याद तो कर ली। परन्तु देखती हूँ कि उसकी याद में जी भरने के बजाय और उथला हो गया है।

श्री बाबूजी, ‘आप’ नाराज न होइयेगा, इसमें मेरा कोई दोष नहीं। क्योंकि इसका स्वाद तो ‘आप’ ही ने चखाया है। फिर यह शारीरिक तकलीफ़ कितने दिन की। वह हालत अब कम हो गई है। आज एक भी Sitting नहीं ली। सिर में खूब सारा तेल ठोक लूँगी। बस कल फिर अपने काम के लिये मुस्तैद हो जाऊँगी। कमजोरी की दवा डाक्टर से मंगवा कर पी ली। परन्तु असली डाक्टर साहब के पास तो अब हाल लिखकर भेज रही हूँ। मगर एक बात है कि ‘आप’ मर्ज़ दूर न करें, क्योंकि इसमें बड़ा मज़ा है। फिर ‘आप’ एक पत्र में लिख चुके हैं कि बेचैनी ही ऐसी चीज़ है, जो हमको दूर तक पहुँचा देती है। वैसे आमतौर पर न तो यह मालूम पड़ता है कि बेचैनी है। दशा एक सी हो जाती है। और एक बात कुछ यह हो गई है कि चाहे अपने आप ध्यान करूँ या पूज्य मास्टर साहब करायें, उसके बाद इतनी शिथिलता आती है कि अपने आप उठने तक में पैर लड़खड़ाते हैं और थोड़ी देर तक दिल के ऊपर बड़ा दबाव मालूम पड़ता है, परन्तु थोड़ी देर में फिर ठीक हो जाता है। अपने अन्दर कुछ एक ऐसी चीज़ हो गई है, जो हर समय मन को ‘मालिक’ की ही ओर लगाये रखना चाहती है। वह ‘मालिक’ की अहेतु की कृपा है। अब तो हालत में बड़ा गम्भीरपन सा आ गया है। चाहे कितनी हंसी की बात हो, परन्तु मुझे कुछ हंसी आती ही नहीं। न जाने, कुछ सुन नहीं पाती हूँ, न जाने क्या बात है।

अम्मा आपको आशीर्वाद तथा केसर, बिट्टो प्रणाम कहती हैं। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-43
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
12/7/1949
कल एक पत्र डाल चुकी थी। अब आज मास्टर साहब के पत्र में जो आपने मेरे लिये लिखा कि फकीर का कदम आगे ही बढ़ना चाहिये, सुनकर परेशानी होने लगी और आगे बढ़ने के लिये शिक्षा मिली। इससे तबियत कुछ खुश हुई। परेशानी इस बात की हुई कि बाबूजी इस भिखारिन को जहाँ यह संदेह हुआ कि कदम आगे बढ़ने से कहीं रुक तो नहीं गये, बस तबियत बहुत बेचैन हो जाती है। मेरा पत्र ता. ७ को आप को मिला होगा, जिसमें मैंने लिखा था कि, न तो पूजा करने की तबियत चाहती थी, यहाँ तक कि आपको पत्र लिखने का भी जी नहीं चाहता था। हर समय आलस्य और निद्रा ही लगी रहती थी और यह अब भी है। दिमाग और मस्तिष्क बिल्कुल खाली से हो गये हैं। कल वाले पत्र में जो मैंने शारीरिक तकलीफ़ के विषय में लिखा था, आज बिल्कुल अच्छी है।

परम् स्नेही श्री बाबूजी, यह प्रतिज्ञा तो पहले कर चुकी हूँ और फिर कर रही हूँ कि शरीर में चाहे तो तकलीफ हो जाये, परन्तु कोशिश ऐसी ही रही है और रहेगी कि इस मार्ग में कदम रोज़-रोज़ आगे ही बढ़ेंगे और जब मुझे यह मालूम होगा कि अब उन्नति नहीं हो रही है, तो सम्भव है, इस बेचैनी को यह दिल बरदाश्त न करके बैठ जाये। आम तौर पर हालत यह है कि तबियत सम रहती है। जैसे मुझे कोई डाँटने लगे तो तबियत बिल्कुल गम्भीर हो जाती है। कोई काम किया, उसके बाद तबियत फिर गम्भीर हो जाती है। आप यह विश्वास रखें कि हालत बहुत अच्छी है। हाँ, एक बात लिखना भूल गई कि, आपने लिखा कि फ़क़ीर के कदम आगे ही बढ़ने चाहिये, परन्तु श्री बाबूजी, अफ़सोस है, और खुशी है कि फकीर के कदम ही न रहे और कदम क्या, जब फकीर ही न रहा तो उसके कदम कहाँ से आयें? परन्तु, श्री बाबूजी, अभी कभी-कभी एकाध बार धोखे से छिपे-छिपे यह अपनापन आ जाता है, परन्तु तबियत उस पर टिकती नहीं। असली बात यह है कि हालत अब अधिक समझ में नहीं आ पाती। इस कारण पत्र में देर हो जाती है। यह बात है मन में तो हालत कुछ-कुछ समझ जाती हूँ, परन्तु उसको प्रकट नहीं कर पाती। हालत में हल्कापन भी बहुत अधिक है।

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-44
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
15/7/1949
आशा है, मेरे दो पत्र मिले होंगे। परसों से हालत कुछ बदल गई है। हर चीज़ से लिपट जाने की तबियत होती रहती है। कभी-कभी दीवाल तक से लिपट जाने को जी चाहता है, परन्तु न जाने कैसे काबू हो जाता है। मैंने एक बार आप को लिखा था कि मैं बच्चा बनकर अक्सर आप से खेला करती हूँ। परन्तु अब यह बात बहुत दिनों से छूट गई, क्योंकि बस, अब तो एकान्त में शान्त चित से बैठने की तबियत होती हैं।

याद का तो बहुत ही बुरा हाल हो गया है। लिखने की बात नहीं है, परन्तु सच तो यह है कि पखाने-पेशाब जाती हूँ, परन्तु यह ध्यान नहीं रहता कि कब से बैठी हूँ। खाना खाती हूँ तो यह ज्ञान नहीं रहता कि क्या खाया और किसने खाया है। बैठे-बैठे थोड़ी देर में भूल जाती हूँ कि यह कौन बैठा है. इस लिये अपने को सचेत रखना पड़ता है। यह हालत १०-१५ दिन से है, परन्तु ७-८ दिन से इस हालत की अधिकता है। सम्भव है कि अगले पत्र में मैंने इस हालत को लिखा हो। पूज्य श्री बाबूजी, इस गरीबनी को खींचे लिये चलियेगा, कहीं ठहरने मत दीजियेगा।

अम्मा आपको आशीर्वाद कहती हैं।

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-45
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
23/7/1949
कृपा-पत्र आपका पूज्य मास्टर साहब के लिये आया। उससे समाचार मालूम हुए। पत्र में यह पढ़कर अत्यन्त खेद हुआ कि मेरी आत्मोन्नति रुक गई थी। बस, दुख तो सबसे भारी इस बात का है, कि जितने दिन उन्नति रुकी रही, उतने ही दिन ‘जिस’ पर कि यह तन-मन सब बलिहार कर चुकी हूँ, ‘जो’ इस भिखारिन का केवल खज़ाना और ध्येय है। हाय ! ‘उसके’ पास तक पहुँचने में उतनी ही अधिक देरी हो जायेगी।

पूज्य ‘बाबूजी’ आप बताइये कि इस गरीबनी से क्या त्रुटि हो गई थी? मेरी साधना में क्या कमी हो गई थी? जिससे कि मैं उसे शीघ्र सुधार लू, और ‘जिसने’ मेरा सारा चैन लूट लिया उस तक मौज और मस्ती में पहुँच सकूं। यह अवश्य है कि इस बेचैनी में ऐसा चैन है और होगा, जो सदा के लिये स्थाई है। प्रथम, जब ध्यान करने की तबियत ही नहीं होती थी और तबियत में अजीब उचाटपन था, तो मैंने यह समझा कि यह भी कोई दशा होगी, परन्तु मैंने Sitting नहीं छोड़ी। यद्यपि जब मैं ध्यान करती थी तो दिल पर बड़ा दबाव पड़ता था, परन्तु मैंने दिन-रात में छ:-सात Sitting लेना प्रारम्भ कर दिया और दिन भर, जब भी अवसर मिला, मैंने पूजा की। यह मुझे विश्वास हो गया था कि अब Sitting पचती नहीं। तो मुझे याद आया कि एक बार मास्टर साहब ने कहा था कि ‘मालिक’ की याद से सब पच जाती है, तो मैंने रात-रात भर जाग कर शुरु किया, परन्तु हृदय का बोझ बढ़ता ही गया। यहाँ तक कि दिन में चार-चार बार इतनी दशा खराब हो जाती थी कि मुंह पीला पड़ जाता था और ऐसा लगता था कि Heart Sink हुआ जा रहा है, परन्तु किसी से कुछ बताया नहीं। बताती भी क्या अपने आप ही कहीं ग्रान्डिको और कभी ग्लूकोज़ पी लेती थी, उसी में कमज़ोरी बहुत बढ़ गई। यदि मुझे तनिक भी सन्देह रुकावट की ओर होता तो मैं आप को शीघ्र लिखती। खैर, अब की ‘मालिक’ ने उबार लिया। बाबूजी, आप बीच-बीच में मुझे देखते जाया कीजिये। मैं भी अब आपको तुरंत्त ही लिख दिया करुँगी। आप की अकारण कृपा से मेरी हालत अब फिर ठीक आ गई। दिल का सारा बोझ हटकर फिर बड़ा हल्कापन आ गया है। वह दशा जो पहले लिखी थी, कि सबसे लिपट जाने को जी चाहता है, अभी है। बस नई बात यह हे कि कभी-कभी बैठे-बैठे अकस्मात बड़ी फुरफुरी सी आती है और ऐसा लगता है कि तमाम शरीर से Sitting निकल रही है। आजकल आँखे ध्यान में बन्द नहीं होतीं, बरबस खुल जाती हैं और बैठे-बैठे कभी पैर में कुछ रेंगता सा मालूम होता है। कभी उंगली में, कभी हाथों में और ऐसे ही कभी सिर में भी रेंगन मालूम पड़ती है। कभी-कभी तो किसी जानवर के चढ़ने का वहम् हो जाता है, परन्तु होता कुछ नहीं है। कभी-कभी गाते समय मालूम पड़ता है कि मुंह से बड़ी पवित्रता निकल रही है। पूज्य श्री बाबूजी, मुझे वहीं पहुँचना है कि जिसके लिये स्वयं आपने, स्वामी जी ने तथा पूज्य दादा जी (लाला जी) ने अपनी किताब में कहा है। पत्र में यह पढ़कर अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि आपने इस दीन भिखारिन के लिये यह लिख दिया कि ‘उसे मैं ठीक ले चलूँगा’। यह ‘आप’ की महानता है और यश है कि मुझ सी अधम के लिये यह वाक्य लिख दिया।

अम्मा आपको आशीर्वाद कहती हैं और केसर, बिट्टो प्रणाम कहती हैं।

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-46
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
26/7/1949
मेरा पत्र ‘आप’ को मिला होगा। अब अपनी आत्मिक-दशा के बारे में लिख रही हूँ। पाँच-छ: दिन से अब इसका भी पता नहीं लगता है कि Self-Surrender है या नहीं। पहले जैसे यह मालूम पड़ता था कि किसी मशीन की तरह सब काम हो रहे हैं परन्तु अब यह भी नहीं है। आज न जाने क्या है, जब मास्टर साहब जी से हाल बताती हूँ या और कुछ करती हूँ तो, मैं कौन हूँ या क्या हूँ, इसका पता ही नहीं रहता है। दूसरे अब जब Sitting लेती हूँ तो कभी-कभी समय का भी ध्यान नहीं रहता। हाँ, शरीर जल्दी थक जाता है, तब ध्यान आता है। और कभी-कभी माथे में भी बड़ा फैलाव सा लगता है। अगले पत्र में जो लिखा था कि सारे शरीर से तमाम sitting निकल रही है, यह और कोई नया हाल नहीं है।

एक हाल यह है कि ‘आप’ के इस ‘सहज-मार्ग’ में आने से मन तो बिल्कुल शायद ‘मालिक’ की याद से घायल हो गया है। परन्तु मैं तो यह कहूँगी कि इन घावों को पालने में है कोई अजीब मस्ती, परन्तु यह घाव बहुत ही छुपे और गहरे होते हैं, जिनका उभार ऊपर तक नहीं आने पाता। तभी तो ‘आप’ के मिशन में कोई जल्दी आने को तैयार नहीं होता। न जाने यह क्यों लिख गई हूँ, खैर, क्षमा करियेगा। कोई और हालत मालूम होते ही शीघ्र लिखूंगी। इतिः-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-48
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
शाहजहाँपुर
30/7/1949
तुम्हारा पत्र आया था, उसका जवाब मास्टर साहब के पते से भेज चुका हूँ। अब तुम्हारा दूसरा पत्र ता. २६.७.४९ का लिखा हुआ मिला। तुमने जो कुछ लिखा है कि ‘मन तो बिल्कुल ‘मालिक’ की याद से घायल हो गया है’, परन्तु मैं तो यह कहूँगी कि इन घावों को पालने में है कोई अजीब मस्ती, परन्तु यह घाव बहुत ही छुपे और गहरे होते हैं, जिसका उभार ऊपर नहीं आने पाता। तभी तो आप के मिशन में कोई जल्दी आने को तैयार नहीं होता। यह बात तुमने बड़ी सही लिखी है। अगर कोई तरकीब तुम्हारी समझ में आ जावे कि छिपा हुआ घाव ऐसा उभर आये कि अभ्यासी को प्रतीत होने लगे तो ज़रूर लिखना। सम्भव है कि चौबेजी साहब भी सोचकर कुछ बतला सकें ताकि दूसरों को लाभ हो और लोग आकर्षित हों। शौक कम होने की वजह से उन्हें यह महसूस नहीं होता। अब शौक कैसे पैदा हो? इसकी तरकीब मैं बताता हूँ। अगर कोई नहीं करता और मैं जो तवज्जह देता हूँ, वह बिल्कुल खालिस होती है। उसमें न उभार होता है और न माया का लेश -मात्र लगाव। वह ऐसी चीज़ है कि उसमें सिवाय शान्ति और हल्केपन के कोई चीज़ अनुभव नहीं होती न प्रेम, न भक्ति। जो ईश्वरीय हालत है, ठीकमठीक वही आती है और जितना काम यह बना सकती है और दूसरी तरह की तवज्जह नहीं बना सकती। और मैं इस तरह की तवज्जह देने में इसलिये मजबूर हूँ कि मेरे ‘मालिक’ ने मुझको इसी हालत में बिल्कुल लय कर दिया है। ऐसे लोग मौजूद हैं, जिनकी तवज्जह से अभ्यासी को जोर प्रतीत पड़ता है और वह उस चीज़ को अच्छा समझते हैं, इसलिये कि खालिस चीज़ जो वाकई चीज़ है उनको एहसास नहीं होती। मेरी हालत जैसी भी कुछ है, इस हालत को देखकर मुझको हर शख्स इतना Judge नहीं कर सकता, जितना कि मेरे ‘मालिक’ ने वाकई बनाया है और लोग इस वजह से अक्सर धोखा खाते हैं। अब इसका मेरे पास क्या इलाज है कि लोग हलुवा खिलाने से न खुश हों और चने चबाने से खुश हों।

तुमने जो हालत अपनी लिखी है, ईश्वर की कृपा से अच्छी है। हृदय चक्र की सैर बहुत अच्छी और काफी हो चुकी है। मैं इसको स्पष्ट रुप से और देखना चाहता हूँ और अभी इस चीज़ को और बढ़ाने का जी चाहता है ताकि कोई कैफ़ियत ऐसी न रह जाये जो पूरी तौर से न खुल जाये।

माता जी से प्रणाम कहना और सबको दुआ।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र "
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-49
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
30/7/1949
कृपा-पत्र आप के दो मिले। एक जो पूज्य मास्टर साहब के पते से भेजा था, और एक जो उनके हाथ से भेजा था। अब हालत यह है कि यह पता नहीं रहता कि रात में सोयी थी या नहीं। सो कर उठने पर यह नहीं मालूम पड़ता कि सो कर उठी हूँ। अब तो यह भी पता नहीं रहता कि कब दिन बीत गया और कब रात आ गई। और कुछ यह हो गया है कि कभी भी हर चीज़ से बिल्कुल एक सा लगता है। Sitting लेते लेते यह भूल जाती हूँ कि Sitting ले रही हूँ। कभी-कभी सोते से एकदम हड़बड़ा कर उठ बैठती हूँ कि बहुत देर हो गई, परन्तु आँख खोलने पर देखती हूँ कि कुछ देर-बेर नहीं होती। मैंने जो शरीर में रेंगने के बारे में लिखा था, वह गुदगुदी सी पैदा करती थी और वह भी किसी किसी समय मालूम पड़ती थी, परन्तु अब तो वह चीज़ बहुत कम है, बल्कि नहीं के बराबर है। एक-आध बार दिन में कभी-कभी माथे में हो जाती है, कभी नाभि के पास मालूम पड़ती है, और नहीं भी होती है। जब मैंने आपको लिखा था, उसके दो-तीन दिन बढ़ गई थी।

‘आप’ के पत्र में यह पढ़कर अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि हमारे यहाँ कोई रुकता नहीं। अब यह आशा हो गई है कि ‘मालिक’ की अहेतु की कृपा से आगे बढ़ती ही चलूँगी। और फिर जिनको ‘आप’ सा सहायक मिल गया हो, वे कैसे गिर सकते हैं। मैं तो यह भी कहूँगी कि कोटि-कोटि बार धन्य हैं ‘आप’ के श्री गुरुदेव भगवान और हमारे श्री दादाजी , जिन्होंने हमको ऐसा ‘मालिक’ दिया कि जिसकी कृपा से हम ऐसे दीन संसारिक प्राणी भी इस अथाह भव-सागर को बिना परिश्रम के पार कर जायेंगे। हम उनके लाख-लाख बार आभारी हैं और कोटि-कोटि बार धन्य हैं। आप स्वयं, जो ऐसे बने और इतना प्राप्त किया कि संसार की धार्मिक हिस्ट्री में और यहाँ तक कि बड़े-बड़े ऋषि और महर्षि भी बड़ा परिश्रम करके भी न बन सके। और इतना क्या सम्भव है कि इसका १/४ भाग भी न प्राप्त कर सके हों। जो उपमा ‘आप’ के श्री गुरुदेव महाराज के लिये दी जाती थी, बस वही, ‘आप’ के लिये भी उचित है कि:-

‘इन सम ये उपमा उर आनी। कवि-कुल आगम करम मन बानी।।’


बस ‘आप’ का आशीर्वाद और दृष्टि सदैव साथ रहे, जिससे इस गरीबनी का भी बेड़ा पार हो जायेगा। मेरे चित्त में कोई ग्लानि वगैरह कुछ नहीं है, बल्कि उत्साह है। हाँ, एक बात यह हो गई है कि वह गरीबी अब मुझसे किनारा करने लगी है, या यों कहिये कि अब गरीबी को भी याद नहीं रहती।

दूसरे पत्र में जो मैंने लिखा था कि मन शायद ‘मालिक’ की याद में घायल हो गया है। यह केवल मैंने शरारत से लिखा था। मेरा मतलब केवल यही था कि अच्छा भला आदमी घायल क्यों होना चाहेगा। पूज्य श्री बाबूजी, मिशन तो आप का अवश्य और शीघ्र उन्नति करेगा। यह तो हमारा दोष है कि हम अपने शौक की कमी के कारण उस हलुवे की मिठास को नहीं पहिचानते, जो ‘आप’ की Sitting में हमें मिलती है। यदि गौर से देखा जाये तो उस उभार से यह धीमी आग लाख दरजे अच्छी है। यहाँ तक कि तबियत अब उभार को बिल्कुल नहीं चाहती है। यदि कोई मुझसे इस धीमी आग के बदले उभार देने को कहे, तो मैं तो साफ मना कर दूँगी और दूसरी बात यह है कि मैं तो बचपन से ही मिठाई की बहुत शौकीन हूँ। मेरी ‘आप’ से यही प्रार्थना है कि ‘आप’ सदा ऐसी तवज्जोह देने को मजबूर रहे, जैसी कि ‘आप’ देते आये हैं। यह तो हमारा अवगुण है कि, ऐसे मायामय हो गये हैं कि, ‘आप’ की Sitting जो माया के लेशमात्र लगाव से अलग है और जिसमें शान्ति और हल्कापन कूट-कूट कर भरा है, उसका अनुभव नहीं कर पाते। ‘मालिक’ से सदा यही प्रार्थना है कि हमारे मन ऐसे हों कि हम अपने master की उन्नति को देख सकें और उन्हें ठीक Judge कर सकें और उनकी दी हुई चीज़ को ठीक वैसा ही प्राप्त कर सकें कि जैसा ‘वे’ चाहते हैं। मुझे तो जैसी ‘आप’ की मर्ज़ी हो वैसे ले चलिये। जो चीज़ आप बढ़ाना चाहते हैं, सो बढ़ा दीजिये, केवल चने न चबवाइयेगा, क्योंकि दाँत बहुत कमज़ोर हैं। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी "
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-50
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
7/8/1949
मेरा एक पत्र आप को मिला होगा। मेरी हालत यह है कि अब इसका तो केवल एक ख्याल रह गया है कि सब काम ‘मालिक’ ही कर रहा है और अब इस ख्याल का भी बार-बार ख्याल करना पड़ता है। तबियत में बड़ा हल्कापन और मुलायम पन रहता है। कुछ यह हो गया है कि जब कहीं जाती हूँ और कोई किसी 'बाबूजी' का नाम लेता है, तो न जाने क्या हो जाता है कि एकदम ऐसा मालूम होता है कि मेरे सारे शरीर से तमाम पवित्रता निकल कर फैल रही है। यह हालत है जबसे आपको पहला पत्र लिखा था तब से, तीन-चार दिनों तक थी, परन्तु इधर चार-पाँच दिन से तबियत में रुखापन बढ़ गया है। यद्यपि पहले यह कभी-कभी होता था, परन्तु अब तो दिन भर की यही हालत हो गई है। मैंने किसी पत्र में आप को लिखा था कि ‘यह याद नहीं रहता कि मुझे ‘मालिक’ की याद थी या नहीं’ परन्तु अब तो यह हो गया है कि ‘उसकी’ याद की भी याद नहीं रहती है। जहाँ तक हो सकता है, कोशिश ‘मालिक’ को याद करने की करती ही रहती हूँ, और जब-जब भी ‘उसकी’ याद करने की याद भूल जाती हूँ, तो कभी-कभी झुंझलाहट आ जाती है। ध्यान में भी बिल्कुल खाली बैठी रहती हूँ। दिन भर की और ध्यान में बैठने की हालत में कोई ख़ास अन्तर ही नहीं दीखता। इसलिये कभी-कभी तो तबियत यह चाहती है कि क्या करूँ ध्यान में बैठकर। परन्तु आदत के अनुसार जो और जितना भी करती आयी हूँ उतना ही, बल्कि शायद कुछ उससे अधिक कर रही हूँ और करती रहूँगी। खास हालत तो बस यही है कि तबियत बिल्कुल रुखी हो गई है। अम्मा आपको आशीर्वाद तथा केसर और बिट्टो प्रणाम कहती हैं। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-52
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
31/8/1949
पत्र आपका आया, समाचार मालूम हुए। आपने जो Retina Glaze के बारे में लिखा, सो अभी कुछ-कुछ उसके सिर्फ माने समझ में आ गये हैं, परन्तु मेरी तो कुछ ऐसी बुद्धि है कि बिना उस कैफ़ियत के आये कुछ समझना नहीं चाहती हूँ। इसलिये कुछ अधिक समझ में भी नहीं आता और जितना समय किसी चीज़ के समझने में लगाऊँ उतना यदि ‘मालिक’ की याद में लगा सकूँ, तो कितना अच्छा हो। अपने और ‘मालिक’ के प्रति वह सुदृढ़ Chain स्थापित कर सकूँ, जिसे यदि स्वयं ‘वह’ भी हिलाना चाहें तो भी न हिल सके। ‘मालिक’ की अनवरत कृपा से ऐसा होगा। और अवश्य होगा सिर के पिछले भाग के लिये आपका झंकार शब्द ही बिल्कुल ठीक है, परन्तु झंकार हुई बड़ी ज़ोर से थी। आप ने जो यहाँ के वायुमण्डल के विषय में पूछा, सो मुझे तो यहाँ का वायुमण्डल बड़ा हसता हुआ मालूम पड़ता है और शान्ति तथा हल्कापन भी बहुत लगता है। जब आपके यहाँ गई थी तो केवल शान्ति ही अधिकतर मालूम पड़ती थी। आज कल के वायुमण्डल और पहले के में काफी अन्तर है। अब अपनी आजकल की आत्मिक-दशा के बारे में लिख रही हूँ। आजकल तबीयत ऐसी है कि न तो ‘मालिक’ से जरा भी प्रेम है, और न ही भक्ति में। शायद इसीलिये काफी दिनों से उसकी याद की भी याद आनी कम होती जा रही है। कभी-कभी ऐसा मालूम पड़ता है कि ‘उसे’ बिल्कुल भूल बैठी हूँ, इस भूल की दशा में भी तबियत उधर ही मालूम होती है। परन्तु आदत के कारण जब उसकी ओर ध्यान जाता है, तो ऐसा ही मालूम पड़ता है कि तबियत ‘उसकी’ ही ओर या उसमें ही स्थित है। पहले जब ‘मालिक’ की याद की याद नहीं आती थी, तो बहुत झुँझलाहट लगती थी, परन्तु अब न तो बुरा ही लगता है, वरन् बिल्कुल हल्कापन रहता है। अब ऐसा मालूम पड़ता है Self-Surrender का तो केवल इतना ही मालूम पड़ता है, मानों बार-बार नकल उतार रही हूँ। यद्यपि यह भी नहीं मालूम पड़ता कि किसी काम को मैं स्वयं ही कर रही हूँ। यह सब होते हुए भी जैसा कि ‘आप’ ने लिखा था, अपना कर्तव्य समझ कर अभ्यास व ‘मालिक’ की याद जितना पहले करती थी, उतना किसी न किसी प्रकार किये जा रही हूँ। हाँ, पूज्य श्री बाबूजी, अब आप को एक खुशखबरी ‘मालिक’ की अपने ऊपर अहेतकी कृपा की सुनाऊँ। वह यह कि परम् कृपालु ‘मालिक’ ने कृपा करके संस्कार भोगने में भी मेरी बड़ी सहायता की है, क्योंकि अब की तकलीफ़ कुछ अधिक हुई, परन्तु ‘मलिक’ हर समय ऐसा मालूम पड़ता था कि यह तकलीफ़ नहीं, बल्कि ‘उसकी’ मेरे ऊपर कृपा बरस रही है, जिससे मेरे कुछ संस्कार साफ़ हो जायेगें और इसीलिये ‘मालिक’ को बार-बार धन्यवाद भी देती रही। वास्तविक बात तो यह है कि ध्यान दूँ या न दूँ, परन्तु ‘मालिक’ की कृपा से तबियत बिल्कुल एक धार से ‘उसी’ की ओर लगी मालूम होती है। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-53
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
2/9/1949
एक पत्र डाल चुकी हूँ, मिला होगा। परसों से दशा कुछ थोड़ी सी और बदल गई है। वह जो कुछ और जितना समझ सकी हूँ, लिख रही हूँ।

परसों से कुछ ऐसा होता है कि दिन भर में कई बार ऐसा होता है कि कोई काम करते-करते तबियत एकदम न जानें कहाँ चली जाती है। फिर थोड़ी देर बाद फिर लौट आती है। यद्यपि होती थोड़ी-थोड़ी देर के लिये है, परन्तु अब यह कुछ और होने लगा है। तबियत एक ओर को कुछ ऐसी हो गई है कि उससे एक क्षण को भी हटना नहीं चाहती। वैसे तबियत मुलायम अधिक मालूम होती है। बस अभी इतनी ही दशा समझ सकी हूँ। अब फिर लिखूँगी।

सबेरे सोकर उठने पर बड़ी ही थकान मालूम होती है। यह थकान दिन में भी मालूम होती है। यद्यपि नींद गहरी आती है। इति:-

आपकी दीन हीन सर्व साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-54
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
4/9/1949
मेरा एक पत्र पहुँचा होगा। आजकल की आत्मिक-दशा कोई विशेष अच्छी तो मालूम नहीं पड़ती। जैसी कि दशा इस पूजा में आरम्भ में थी, बस वैसी ही हो गई है। अन्तर इतना ही मालूम पड़ा है कि पहले अभ्यास के कारण दिल पर भारीपन अधिक हो जाता था, परन्तु अब कुछ अधिक अभ्यास करने पर भी हल्कापन ही विशेष रहता है। अबकी जब से आप के यहाँ से आई हूँ, न जाने क्या हो गया है कि –

“मन हठ परा न सुनहि सिखावा। चहत बारि पर भीति उठावा।।“


सचमुच ‘चहिय अमिय जग जुरहिन छाछी’ वाली दशा है। पूज्य बाबूजी, इसमें मेरा कुछ दोष भी नहीं है। कारण यह है कि देखती हूँ, कि ‘आप’ की इस पूजा में जब से आई हूँ, इस मन की उड़ान बहुत ऊँची होती जाती है और ‘आप’ के सामने ऐसा निडर होता जाता है, मानों इसने ‘आप’ को खरीद ही लिया है। भला देखिये तो, यह चाहता क्या है? और बिना ‘आप’ को बतलाये चैन भी नहीं पड़ता। बस, मेरी तो केवल यही इच्छा है कि जैसा और जितना अटूट प्रेम ‘आप’ के ‘मालिक’ का ‘आप’ पर है, उतना ही स्नेह ‘आप’ मुझ पर करें और जितना आप अपने श्री ‘समर्थ’ जी को करते हैं, उतना ही मैं अपने ‘बाबूजी’ को कर सकूं। क्या करूँ, आज चार-पाँच दिन से तो मन में ऐसी ही प्रबल इच्छा है।

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-55
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
10/9/1949
मेरा एक पत्र मिला होगा। यहाँ सब कुशल है। आशा है, आप भी सकुशल होंगे। मेरी आत्मिक-दशा मामूली है, जैसी कि लिख चुकी हूँ। कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि जब sitting लेती हूँ तो ऐसा मालूम पड़ता है, मानों शरीर के ऊपरी धड़ से रोशनी निकल रही है। वह चमक कभी-कभी किरण की तरह मालूम पड़ती है। यह हालत अधिकतर जब तबियत बहुत लग जाती है, तभी मालूम पड़ती है और रोशनी भी तभी मालूम पड़ती है और कोई खास हाल नहीं है। मालूम होता है कि हालत देर में बदलती है और समझ में भी थोड़ी आती है।

अम्मा आप को आशीर्वाद तथा बिट्टो व जिज्जी (शकुन्तला) प्रणाम कहती हैं। इतिः :-

आपकी दीन-हीन, सर्व साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-56
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
16/9/1949
मेरा पत्र मिला होगा। यहाँ सब अच्छी तरह हैं, आशा है ‘आप’ भी सकुशल होंगे। ताऊ जी और मास्टर साहब से मालूम हुआ कि ‘आप’ शायद २८ तारीख को आयेंगे। ‘आप’ आइयेगा अवश्य। अपनी आत्मिक दशा के बारे में क्या लिखूँ? सब हाल बेहाल हुआ जा रहा है और हुआ क्या जा रहा है, हो ही गया है। हालत बदलती है, परन्तु इतनी हल्की होती है कि जल्दी समझ में नहीं आती और न समझने की कोशिश ही करने को जी चाहता है। चार-पाँच दिनों से हालत फिर कुछ बदल गई है। पूज्य बाबूजी, अब न जाने क्या हो गया है कि कभी-कभी ऐसा मालूम होता है कि मैं तो ठाठ से बैठी हूँ और ‘मालिक’ मेरी याद में तड़प रहा है। मामूली याद नहीं, बल्कि बिल्कुल तड़प रहा है। और न जाने ‘आप’ ने मुझे chief commander बना दिया है कि ऐसा लगता है कि संसार में मुझे किसी का भय ही नहीं रह गया है। कभी-कभी तो यहाँ तक होता है कि, ऐसा विचार होता है कि संसार की कोई ताकत नहीं जो मुझे अपने ‘ध्येय’ तक पहुँचने में बीच में विध्न डाल सके। यदि रास्ते में पर्वत भी मुझे रोकना चाहेगा, तो उसे भी फोड़ कर निकल जाऊँगी। बस आँखों के सामने केवल अपना ‘ध्येय’ ही दिखलाई पड़ता है और उस ‘ध्येय’ के सामने संसार की सारी वस्तुएँ फीकी हैं। कभी तो ऐसा हो जाता है कि केवल इतना ही ज्ञान रहता है कि मुझे पहुँचना है, परन्तु कहाँ पहुँचना है, इसका पता नहीं। अपनी दशा तो ‘मालिक’ की कृपा से अच्छी ही दीखती है। अब अधिकतर जब sitting लेने बैठती हूँ, तो तबियत उतनी अच्छी नहीं लगती, जितनी कि दिन भर लगी हुई मालूम होती है। जब कभी जोश आ जाता है, जैसा कि ऊपर लिख चुकी हूँ तो अपने अन्दर बहुत ताक़त मालूम पड़ती है, परन्तु यह जोश कभी-कभी ही आने पाता है और बहुत बढ़ने नहीं पाता है, तुरंत ढीला हो जाता है। अब न तो सुषुप्ति है, न जागृति है। अब तो कुछ और ही दशा है। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-57
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
20/9/1949
मेरा पत्र मिला होगा। यहाँ सब कुशल पूर्वक हैं। आशा है, आप भी सकुशल होंगे। आज एक अजीब दशा हो गई थी और कुछ-कुछ असर अब भी है। इसलिए आप को इतनी जल्दी पत्र डाल रही हूँ और कुछ ऐसा अपनापन हो गया है कि बिना आप को पत्र डाले चैन भी नहीं पड़ता है। यद्यपि कई दिनों से दशा एक ही Point पर स्थित मालूम पड़ती है, परन्तु फिर भी आप को पत्र लिखे बिना चैन नहीं पड़ा। कुछ न कुछ लिखती ही रही हूँ। अब आज की दशा के बारे में लिख रही हूँ।

आज सबेरे सो कर उठी तो दशा मामूली थी, परन्तु करीब आध घंटे बाद दिल में लहरें सी उठती मालूम पड़ीं। फिर एक subject पर मन ही मन में एक बहुत ही सुन्दर और जबरदस्त पूरा मज़मून तैयार होता रहा। दिल में उन्हीं लहरों के साथ बराबर उसी subject पर शब्द पर शब्द उठते रहे और अब वह subject क्या था, वह लिख रही हूँ। कल Hospital गई थी। वहाँ डाक्टर साहब ने एक महाशय का Blood Test किया। जब उनका Blood लिया गया, तो उन्हें बड़ा बुरा लगा और वे बोले- डाक्टर बड़े cruel होते हैं। तब मेरा ध्यान उधर नहीं था। कल शाम को ताऊ जी ने बतलाया, तब भी कुछ नहीं हुआ। बस आज सबेरे थोड़ी देर लहरें सी मालूम हुई। फिर अपने में बड़ा जोश मालूम हुआ। तब समझिये मन में एक भाषण सा होता रहा। कुछ थोड़ा सा ही याद रह गया है, वह लिख रही हूँ। वह यह है - ‘आज कल हम लोगों में इतनी भी शक्ति नहीं रह गई कि जरा सी एक सूई को सहन कर सकें। एक वह समय था, जब हमारे भीष्म पितामह जी छ: महीनों तक वाणों से छिदे शरशैया पर पड़े रहे। वे भी हमारी तरह मनुष्य ही थे। उनका भी शरीर था। परन्तु इतने समय तक कभी किसी ने उनके मुख पर हाय तो कहना दूर रहा, एक विषाद की रेखा भी नहीं देखी। यह सब केवल इसी कारण है कि जो सब शक्तियों का अधिपति ‘ईश्वर’ है, उसको भुला दिया। अरे ! जब जो सारी शक्तियों का ‘ईश्वर’ है, उससे प्रेम होगा, तो उसकी शक्ति हमारे में प्रवेश करेगी। भाई, सहन करना भी तो एक शक्ति ही है। किसी ताकत से ही हम बड़ी से बड़ी पीड़ा, असहनीय विपत्तियों को सहन कर सकते हैं।’ ऐसे ही काफ़ी बड़ा मज़मून तैयार हो गया। उस समय ऐसा मालूम पड़ता था कि ‘मालिक’ का मुझमें बिल्कुल समावेश हो गया और उसकी तमाम ताकत मेरे में दौड़ रही है। बिल्कुल ऐसा मालूम पड़ता था, तमाम लहरें दिल में उठ रहीं हैं। और उस समय मुहं भी बड़ा आभायुक्त लगता था। फिर नहा कर खाना बनाया तो ऐसा ही मालूम पड़ रहा था कि ‘मालिक’ की तमाम ताकत ही मेरे में समायी हुई सब काम कर रही है। जब पूजा करने बैठी तो ध्यान करते ही करते ऐसा मालूम पड़ता था कि मानों अपने ध्यान में मस्त बैठी हूँ। उस समय सबके प्रति बिल्कुल अपना सा ही प्रेम लगता था और ऐसा मालूम पड़ता था कि सब मेरे ही हैं। शरीर का उस समय क्या कहना। जब से दिल में लहरें उठने लगी और शब्द वगैरह उठते रहे, तन थर-थर काँपता रहा था और अब तक असर कुछ शेष है। और खाना भी, ताऊजी से मालूम हुआ, कि आज बहुत अच्छा बना है और पवित्रता भी बहुत मालूम पड़ी थी। पूज्य श्री बाबूजी, मुझे नहीं मालूम यह क्या हो गया। अब फिर बिल्कुल खाली है। शरीर में थोड़ी कमज़ोरी अवश्य हो गई। मुझे जो होता है, तुरंत आपको लिख देती हूँ।

अम्मा आप को आशीर्वाद तथा केसर, बिट्टो प्रणाम कहती हैं।

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री–कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-58
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
22/9/1949
ईश्वर की कृपा से हम सब बहुत आराम से यहाँ आ गये। ‘आप’ तो हर अभ्यासी की नस-नस को भली-भाँति पहिचानते ही हैं, परन्तु फिर भी ‘मालिक’ की कृपा से जो दशा है और जितना समझ में आया है, लिख रही हूँ। अब की से यह अजीब बात हुई कि जब मैं घर पर आई तो यह हालत थी कि ऐसा लगता था कि यहाँ की प्रत्येक वस्तु भूल चुकी हूँ। न कोई जगह याद थी। लखीमपुर बिल्कुल परदेश सा लगता था। घर वालों को ऐसे देखती थी, मानों मैं उन्हें बिल्कुल पहिचानती भी नहीं हूँ और न किसी के प्रति मन में ज़रा भी प्रेम ही मालूम पड़ता था। वैसे दशा में न आनन्द है, न बेआनन्द ही है। कुछ खालीपन सा लगता है। ध्यान में भी, दिल पर ध्यान करने के बजाय खाली बैठे रहना ही अच्छा लगता है। दिल पर ध्यान करने से थोड़ी देर बाद ही भारीपन मालूम पड़ने लगता है, जो अब बिल्कुल सहन नहीं होता। यह मैंने ‘आप’ से वहाँ भी कहा था, तो आप ने शायद कहा था कि दिल पर निगाह नहीं टिकती तो, कोई हर्ज़ नहीं है, इसलिये इसकी कोई बात नहीं है। कभी-कभी सिर के पिछले भाग और कभी माथे पर कुछ होता है, फिर मालूम पड़ता है, कि कुछ खुल गया। जब शाहजहाँपुर पहूँची थी, तो स्टेशन पर सिर के पिछले भाग में यही हुआ था, परन्तु, श्री बाबूजी, यह खालीपन अच्छा लगता है, बुरा नहीं लगता। जब से आप के यहाँ से गई हूँ, हालत बहुत बदली हुई लगती है। अबकी से ‘आप’ की याद बहुत आती है। हालत में एक प्रकार का सुहावनापन है। जो भी हो, अब पूज्य पिताजी की उंगली पकड़ कर सीखना प्रारम्भ किया है। ‘मालिक’ की कृपा बनी रहे तो कुछ दूर नहीं है। जो हालत पहले सोने में होती थी कि मन न जाने कहाँ चला जाता है, अब ‘मालिक’ में बिल्कुल लय सी मालूम होती हूँ, या शायद बिना नींद के सुषुप्ती ही सुषुप्ती में दिन भर रहती हूँ। ऐसा लगता है कि किसी एक सुहावनी धार में बेसुध बही जा रही हूँ। यदि आप मुझे कुछ और पहले मिल गये होते, तो कितना अच्छा होता। मुझे याद है, छुटपन में जब मैं पूजा करती थी तो बहुधा ताऊजी से पूछती थी, कि मुझे आप कोई ध्यान करना बता दीजिये, तो ताऊ जी ने मुझे राम-सीता का ध्यान करने को बतलाया था, परन्तु उससे भी पूरा सन्तोष मुझे नहीं मिला। खैर, ‘मालिक’ ने कृपा करके दुखिया की सुन ली, जो ऐसा ध्यान बताने वाला दिया कि अब बिल्कुल निश्चिन्त हो गई।

अम्मा आप को आशीर्वाद कहती हैं तथा बिट्टो प्रणाम कहती हैं। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-59
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
30/9/1949
कल नारायण दद्दा से पूज्य श्री बुआ जी का देहावसान सुन कर हम सब को महान् दुख हुआ। ईश्वर से प्रार्थना है कि ‘वह’ दिवंगत आत्मा को परम् शान्ति प्रदान करे। यद्यपि अब उन महान् आत्मा के लिये तो यह सूर्य को दीपक दिखाने के सदृश है, परन्तु फिर भी ‘उनके’ और अपने अलौकिक प्रेम होने के कारण हम सब का यह परम् कर्तव्य हो जाता है। दद्दा से ‘उनकी’ मरने के बाद की उच्च अवस्था जान कर परम् सन्तोष और परम् आश्चर्य हुआ। परन्तु आश्चर्य की बात क्या हो सकती है? क्योंकि ‘जिसकी’ एक तनिक सी इच्छा मात्र से या जो स्वयं नरक को भी 'आलमें बाला’ में परिणित कर सकता है, उनकी धर्मपत्नी के लिये ऐसी उच्चतम अवस्था ही उचित थी। परन्तु जो भी हो, महिला मण्डल के मध्य में से एक सदा-प्रसन्न चेहरा सदैव के लिये चला गया। अम्मा को इस बात का बड़ा दुख है कि वे दोबारा उनके दर्शन न कर सकीं।

अपनी आत्मिक-दशा के विषय में क्या लिखूँ? कोई खास बात नहीं है। जो दशा बाद वाले पत्र में लिखी थी, वह कभी-कभी फिर आ जाती है। कुछ दशा और लिखनी थी परन्तु वह याद ही नहीं आती। क्योंकि न जाने क्या हो गया है कि जब से ऐसी खबर सुनती हूँ, तो मन बिल्कुल शान्त और ऐसा स्थिर हो जाता है कि वह न किसी तरफ़ जाता है और न उसमें कोई विचार ही आते हैं। वैसे भी यही हालत ही करीब दस-बारह दिन से लगातार चल रही है। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-60
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
8/10/1949
यहाँ सब सकुशल हैं। जिज्जी का पत्र भी आया था, सो आप को भेज रही हूँ। उन्होंने मुझे भी लिखा है कि तुम श्री बाबूजी को मेरी याद दिला दिया करो। भला जो स्वयं अपनी याद अभी तक न दिला पाया हो, वह केवल सिफ़ारिश के और कर क्या सकता है। फिर सिफ़ारिश उस पर चल सकती है, जिसके पास कुछ अपना अस्तित्व शेष हो, परन्तु जहाँ केवल ‘मालिक’ ही ‘मालिक’ है तो उसकी याद बार-बार करना ही अपनी याद आप को दिलवाने में काफ़ी सहायक हो सकती है। यही मैं जिज्जी को लिख दूँगी।

माता जी तो गई और उनके जाने से ‘आप’ तथा हम सब बच्चों को बहुत ही तकलीफ़ हो गई, परन्तु इससे अपने बाबूजी की महान् शक्ति का कुछ थोड़ा सा अन्दाज़ का आभास हम सब को मिल गया। हमें मालूम हो गया कि हम किस शक्ति की छाया में सुख से पड़े निश्चिन्तता की नींद सोते हैं। मैं तो निर्द्धन्द हूँ, ‘पिता’ के हाथों की छाया में रहने से क्या स्वतंत्रता होती है, इसका कुछ-कुछ आभास मिल गया। मुझे न जाने क्या हो गया है कि मुझे ‘मालिक’ की याद बड़ी कठिनता से आती है। जरा सी ढील दी नहीं कि दिन भर याद भूली रहती है। कभी-कभी अक्सर यह मालूम पड़ता है कि तमाम शक्ति मेरे अन्दर भर रही है। कुछ दिनों से अक्सर यह होता है कि जरा सी किसी बात की इच्छा भर होती है, तो यद्यपि मैं तुरन्त ही उस इच्छा को दबा लेती हूँ, परन्तु फिर भी वह किसी न किसी तरह पूरी हो ही जाती है। यद्यपि मैं कोई भी इच्छा को आने नहीं देती और कुछ ऐसा हो भी गया है कि केवल ‘मालिक’ की याद के और कोई इच्छा आती ही नहीं है।

अम्मा आपको आशीर्वाद तथा केसर प्रणाम कहती हैं।

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-63
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
14/10/1949
कृपा-पत्र आपके जो पूज्य मास्टर साहब जी के हाथों आपने भेजे, वे मिल गये। आपने लिखा है कि मेरे ख्याल से तुम्हारी हृदय-चक्र की सैर पूरी हो चुकी और अब आत्मा-चक्र की सैर दर पेश है। परन्तु श्री बाबूजी, आप तो जानते ही हैं कि आपके पल्ले एक बावरी लड़की भी पड़ी है, जो हर चीज़ से अनभिज्ञ है। पिता की शिक्षा में अभी तक जिसने केवल दो ही words सीखे हैं, कि ‘आगे चलना’। तो उसे फुर्सत ही कहाँ है और बेचारी इतनी समझ भी कहाँ से लाये, जो इन चक्रों को और पिण्ड-देश के विषय में कुछ समझे। फिर बाबूजी, मैं तो ऐसे पथ की पथिक हूँ जिसका यह अन्दाज़ नहीं कि वह कितनी दूर है, फिर ऐसे पथ के पथिक को तो केवल चलना ही है। हाँ, जैसे एक बावरा पथिक चलता जाता है तो रास्ते में कोई पुकार कर कहता है कि – ऐ पथिक तू इतनी दूर चल चुका और अब तू इस गाँव में पहुँच गया। तो पथिक एक क्षण को खड़ा हो कर सुनभर लेता है, और फिर कुछ प्रसन्न सा होकर पुनः अपना मार्ग पकड़ता है। बस, मेरे पास कृपालु ‘मालिक’ ने मुझे महादीन और बावरी जान कर कुछ थोड़ी सी ऐसी ही दशा प्रदान की है और अंतर केवल इतना ही है कि उस पथिक को कोई दूसरा पथिक केवल बतला ही देता था और इस (आत्मिक मार्ग) पथ में स्वयं ‘मालिक’ ही बड़ी सावधानी से मार्ग के खन्दकों से बचाकर पथिक को मार्ग के उस पार तक पहुँचा देता है और केवल पहुँचा ही नहीं देता, वरन् और भी न जाने कितनी कृपा करता है, यह स्वयं हम पथिक भी नहीं जानते और जिसकी महिमा से वह लम्बा मार्ग छोटा हो जाता है। इसके लिये आप को कोटि-कोटि धन्यवाद है। आजकल मुर्दा वाली हालत फिर आ गई है। अपने भीतर बड़ी निर्जीवता लगती है। पूजा करते समय और जब लेटती हूँ, तब तो बिल्कुल एक मुर्दे की तरह मालूम होती हूँ। वैसे दिन में अधिकतर तबियत उदासीन और शान्त रहती है। आपने ‘मालिक’ की याद के बारे में जो लिखा है, सो ‘आप’ निश्चिन्त रहिये। जब तक थोड़ा भी बस है, तब तक चाहे रुप बदल कर, चाहे Suppose करके ‘उसकी’ याद से एक क्षण भी खाली न रहने की ही कोशिश करुँगी। कुछ ऐसा है कि जब केवल Suppose कर लेती हूँ तो बिना रुप के याद के चैन नहीं पड़ता और न यह विश्वास ही होता है कि मैंने ‘मालिक’ की याद की है। परन्तु अभी तो किसी न किसी प्रकार पूरी तरह न सही, तो भी थोड़ी बहुत याद जितनी कर सकती हूँ, करती हूँ। भूल की हालत भी काफ़ी तौर पर मौजूद हो गई है। माताजी के बारे में आपने बिल्कुल सत्य लिखा है कि जैसी आपके सामने गई, वैसी हालत उन्हें नहीं मिल सकती थी तबियत में खालीपन और हल्कापन अब हमेशा रहता है और बहुत दिनों से है। छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-64
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
18/10/1949
मेरा एक पत्र मिला होगा। हम सब लोग ‘मालिक’ की कृपा से कुशल पूर्वक हैं, आशा है, आप भी सकुशल होंगे। ताऊजी को ‘मालिक’ ने कृपा करके सम्बन्ध प्रदान कर दिया है, सुनकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई। सर्व शक्तिमान मालिक से कर-जोड़ कर मेरी सदा यही प्रार्थना है कि जितना भी हो सके, उसकी कृपा से मेरे माता-पिता सदैव उठते जायें। कितनी प्रसन्नता और गर्व की बात है कि जिस मालिक की कृपा के लिये दुनियाँ तड़पती है, ‘उसी’ परम् कृपालु मालिक से पिताजी का सम्बन्ध हो गया। उस परम् कृपालु ‘मालिक’ को इस गरीबनी का कोटि-कोटि बार धन्यवाद है और प्रणाम है। रही मेरी आत्मिक-दशा, सो तो कुछ अच्छी नहीं मालूम देती है। कभी कभी तो इतनी रुखी तबियत हो जाती है, कि ‘मालिक’ के रत्ती भर प्रेम तथा जरा सा आनन्द से रहित हो जाती है। जब से आप को पत्र डाला है, तब से हालत में थोड़ा सा परिवर्तन और हो गया है। शान्ति के लिये भी शक है। न शान्ति ही मालूम होती है और न अशान्ति ही कही जा सकती है। आपने लिखा था कि हम भक्ति-मार्ग से चलते हैं, परन्तु यहाँ मैं तो भक्ति से बिल्कुल खाली हूँ, परन्तु मालिक की कृपा से मैं उसकी सच्ची भक्ति को पाने की कोशिश अवश्य करुँगी। आजकल तबियत बेरस अधिक है, यद्यपि यह हालत बीच बीच में आ जाती थी, परन्तु अब तो यह बात तबियत में कुछ-कुछ घर सी करने लगी है। यह बेरस तबियत भी बुरी नहीं लगती। ‘मालिक’ की याद के लिये कोशिश कर रही हूँ। आपने लिखा था कि जब ऐसे न याद आवे तो Suppose कर लिया करो, परन्तु Suppose करने को भी याद चाहिये यानी कभी-कभी Suppose करने की भी याद नहीं रहती है। अभी तो किसी तरह चल रहा है। जब बिल्कुल भी बस नहीं रहेगा, तो आपसे आगे के लिये कायदा पूछूंगी। जैसे प्रारम्भ में याद के लिये बार-बार लड़ना पड़ता था, वही लड़ाई अब फिर चालू है। बस तब तो मैं जीती थी, परन्तु अब देखें ‘मालिक’ किसको जितावें? अब यह भी नहीं मालूम कि मैंने जरा भी पूजा की है, या पहले कभी की थी। पहले यह मालूम होता था कि ‘मालिक’ मेरी याद में तड़प रहा है, परन्तु अब तो यह भी नहीं मालूम पड़ता कि उसे मेरी याद आ रही है। अब चूकि मुझे ‘उसकी’ याद कम आती है, तो सम्भव है ‘उसे’ भी मेरी याद कम आती हो। जो भी हो, हालत अच्छी चल रही है, क्योंकि मेरा ऐसा विश्वास है कि मेरी आत्मिक-दशा कुछ न कुछ थोड़ी बहुत उन्नति कर रही है, आगे ‘मालिक’ की कृपा पर सब निर्भर है। ‘वह’ जो भी करेगा, सब अच्छा ही करेगा। हाँ, पूज्य बाबूजी, चार-पाँच दिन से जब ‘मालिक’ का ध्यान करती थी, तो न जाने कैसे हमारे श्री समर्थ जी महाराज जी की शक्ल सामने आ जाती थी। ऐसा कई बार होता था।

अधिकतम आजकल की दशा बिल्कुल शून्य है और कभी-कभी तो ऐसा होता है कि हर चीज़ शून्य दीखती है। जड़, चेतन सब शून्य सा ही दीखता है।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-65
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
18/10/1949
कल पूज्य मास्टर साहब से मालूम हुआ कि अब छुटिट्यों में आप बीमार हो गये थे। आपकी साँस उखड़ गई थी। आशा है, आपकी तबियत अब ठीक होगी। हमारी तो ‘मालिक’ से यही प्रार्थना है कि ‘यह’ अनमोल रत्न हमारे मध्य में बहुत वर्षों तक रहे और हम सब इनकी छाँह में उत्तरोतर पलते हुए वृद्धि को प्राप्त करें। हम बड़भागी हैं कि जिनके माता-पिता की हमारे पूज्य बाबूजी को इतनी अधिक याद आती है और अपनी बालिका जानकर कभी-कभी मेरी भी बारी आ जाती है। जब से ‘मास्टर साहब’ के दवारा ‘आप’ को पत्र भेजा है, तब से आत्मिक दशा में फिर थोड़ा सा परिवर्तन आ गया है। याद का हाल तो बुरा ही है। Suppose करके भी याद करने की अधिकतर याद भूल जाती है, परन्तु फिर भी ‘मालिक’ की कृपा से कुछ न कुछ चली ही जा रही है। नींद में भी, पहले भी कभी मैंने लिखा था कि तेज़ आती है। परन्तु तब में और अब में काफ़ी अन्तर है। अब तो ऐसी नींद आती है कि यदि दस मिनट रात में सो लू तो शरीर तथा दिमाग का इतना अधिक Refreshment हो जाता है कि इससे अधिक सोने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है। ऐसा मालूम पड़ता है कि मानों अभी दिमाग और शरीर से कोई काम ही नहीं लिया गया है। परन्तु जागने पर करीब आठ-दस मिनट तक न यह ध्यान रहता है कि कहाँ पड़ी हूँ, दिन है या रात है। थोड़ी देर बाद धीरे-धीरे सब बातें एक-एक कर ख्याल में उतरने लगती हैं। शायद मैंने पहले कभी लिखा था कि जागने पर ऐसा मालूम पड़ता है कि विदेश में आ गई हूँ। परन्तु इधर करीब १५-२० दिनों तक तो दिन भर यही हालत रहती थी, परन्तु अब तो, न यही मालूम पड़ता है कि विदेश में हूँ और न यही मालूम पड़ता है कि घर में हूँ। और तो हालत करीब-करीब अभी वैसी ही है, जैसी कि अगले पत्र में लिख चुकी हूँ।

अम्मा आपको आशीर्वाद कहती हैं। केसर बिट्टो प्रणाम कहती हैं। छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-67
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
11/11/1949
मालिक की कृपा से हम सब यहाँ सकुशल आ गये। आत्मिक-दशा का क्या कहना है, क्योंकि जिस ‘मालिक’ की ‘जुम्बिशे अबरु में है, क्या जाने क्या-क्या आबोताब’ यह तारीफ़ है, यह शान है, फिर उस ‘मालिक’ और उन बिना कारण ही कृपा करने वाले मेरे बुजुर्गों को दृष्टि के सामने से होकर जो भी निकल जाये, उसके भाग्य की तारीफ कैसे की जा सकती है। उसकी आत्मिक उन्नति में कुछ शेष नहीं रह जाता है। आपकी वह परम् कृपामयी वाणी ‘चौबे जी ईश्वर ने चाहा तो कस्तूरी के लिये मैं कुछ उठा नहीं रखूँगा’ मेरे हृदय में चुभ गई है। यदि ‘मालिक’ की ऐसी ही कृपा बनी रही तो विश्वास रखिये, कस्तूरी भी अपनी ओर से जितना भी बन सका कुछ उठा न रखेगी। क्षमा कीजियेगा बाबूजी, आपने चार दिन तक आराम करने के लिये कहा था, सो शरीर को तो मैंने अब तक खूब आराम दिया है, परन्तु और सब परसों से ही आरम्भ कर दिया है। काम करने के बाद तबियत खुश हो जाती है। परसों जब No.१ working कर रही थी, तो सामने ऐसा मालूम पड़ा कि कुछ पिघल-पिघल कर बहा जा रहा है। कभी-कभी ऐसा होता है कि यह ख्याल आ जाता है कि मैं कर तो रही हूँ, परन्तु न जाने काम हो रहा है या नहीं। परन्तु तुरंत आपकी ताकत का ख्याल आते ही यह विश्वास हो जाता है कि अवश्य हो रहा है। सच तो यह है कि अपने ऊपर Faith पूरा है। मेरी हालत तो ऐसी है कि मालूम पड़ता है कि तबियत कहीं डूब गई है। अब कुछ-कुछ Self Surrender लगने लगा है। कोशिश बिल्कुल Complete की करुँगी, क्योंकि न जाने क्या बात है कि जरा भी अहम् पना बेचैन कर देता है। एक बात और हो गई है कि तड़प और बढ़ गई है। तबियत बड़ी हल्की और सरल हो गई है। आपसे मिलने की इच्छा इलाहाबाद की ओर खींच रही है। न जाने क्या बात है कि मेरी इच्छा सदा यही है कि पिता जी का रुपया मेरे लिये केवल शाहजहाँपुर जाने में यानी केवल आत्मिक उन्नति में ही खर्च हो, और करना भी क्या है। आपने जो सबसे पहले पत्र में लिखा था कि ‘ऐके साधे सब सधे, सब साधे सब जाये।’ के अनुसार ‘मेरी इच्छा केवल एक ही को देखने की, एक ही से मिलने की, और केवल एक ही में एक हो जाने को चाहती है’। क्षमा करियेगा, न जाने क्या-क्या लिख गई हूँ। आपके सामने तो स्वतंत्र हूँ और कहावत भी है- ‘बच्चा माँ के सामने जितना स्वतंत्र होता है और जितनी स्वच्छन्दता से बात कर सकता है, उतना किसी के सामने नहीं’। काम में कोई त्रुटि हो तो लिखियेगा शौक इतना है कि इस पूजा में हर चीज़ को बिल्कुल जानने की इच्छा होती है। इसकी एक-एक हालत में सराबोर हो जाने को जी चाहता है। Working No.२ करने के बाद ऐसा मालूम पड़ता है कि जो जगह आपने छोड़ने को बतलाई थी, उसे छोड़कर सब वातावरण में पवित्रता की धारा बहती मालूम देती है। वैसे आप जानें। इतिः-

आपकी दीन-हीन, सर्व साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-68
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
13/11/1949
एक पत्र आपको परसों लिखकर कल मास्टर साहब को दे चुकी हूँ। आज आपका कृपा-पत्र मिला, पढ़कर प्रसत्रता हुई। मेरी तबियत अब बिल्कुल अच्छी है। आशा है, आप भी सबके सहित सकुशल होंगे। आपका बहुत-बहुत हार्दिक धन्यवाद है कि इस दीन को निमित्त बनाकर ‘मालिक’ का काम स्वयं ही सब सम्भाल रहे हैं। यह ‘मालिक’ की अनन्त कृपा है, जो उसके काम जो मुझे बताये गये हैं तबियत इतनी अधिक लगती है और इतनी अधिक खुश होती है, जैसी कि कभी-कभी पूजा के समय हो जाती थी। आपने जो कृपा करके पिण्ड-देश व ब्रह्माण्ड-देश के विषय में कुछ समझाया है सो मैंने गौर से पढ़ लिया है। पूज्य श्री बाबूजी, मुझे तो केवल ‘एक’ ही को समझना है। ‘एक’ को समझने से ही सब समझ में आ जायेगा। जैसा कि आपने लिखा है, जल्दी हज़्म करने की कुछ-कुछ कोशिश मैं भी करुँगी, यदि ‘मालिक’ की ऐसी ही कृपा बनी रही।

दिमाग जल्दी थक जाने के कारण लगकर ‘मालिक’ का काम एक बार में ३५ मिनट से अधिक नहीं हो पाता। पूजा भी घर में भी सब बैठते हैं और जिया वगैरह भी, जो कि हफ्ते में एक बार आयेंगी और जहाँ तक बन पड़ा एक बार मैं भी जाऊँगी, क्योंकि वे भी पूजा करती हैं। आपने लिखा-तुमको सब कुछ मिला, परन्तु मैं तो यही कहूँगी कि मेरा सब कुछ चला गया। हाँ, मिली है केवल बेचैनी। इसके अतिरिक्त मिला है या मिलेगा वह जिसकी मिसाल नहीं है और जिसको सचमुच पाकर फिर कुछ पाना शेष नहीं रह जाता है और उसको आप जानते हैं। आपने जो शुक्रिये के प्रसाद के लिये लिखा है, वह परसों चढ़ जायेगा, परन्तु मुझे केवल इतने से ही सन्तोष नहीं। कल से रह-रहकर यही बात उठ रही है कि कृपया आप परम् कृपालु माननीय बुजुर्गों के चरणों में इस दीन गरीबनी का सादर प्रणाम करते हुए कह दीजियेगा कि विश्वास रखें, ‘उनकी’ यह मेहरबानी, यह बख्शीश बेकार नहीं जायेगी। उनकी बख्शीश को पूरी तौर से निभाने की कोशिश करने से ही उनका कुछ शुक्रिया अदा हो सकता है। और ‘आप’ के लिये क्या लिखूँ? आपके सामने आप के चरणों में तो यह सिर सदैव झुका हुआ है। इसके लिये वाणी से केवल इतना ही कह सकती हूँ कि:-

चरणों पर अर्पण है, इसको चाहो तो स्वीकार करो। यह तो वस्तु तुम्हारी ही है, ठुकरा दो या प्यार करो।।
जहाँ तक बन पड़ेगा, ‘मालिक’ के काम से जी नहीं चुराऊँगी। आप को तो कुछ लिखने की ज़रुरत नहीं थी, आप तो स्वयं ही सबके मन की बात जानते हैं। प्रार्थना भाई व भाभी वगैरह ने हिन्दी में माँगी थी, सो एक नकल भेज रही हूँ और सब उतार लेंगी।

डायरी में रोज़ का हाल लिखती जा रही हूँ। जब ‘आप’ आयेंगे, तो देख लीजियेगा। इतिः-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-70
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
19/11/1949
पत्र आपने जो दद्दा के हाथों भेजा, सो मिला। केसर का शौक बढ़ रहा है, पढ़कर प्रसन्नता हुई। आज न जाने क्यों करीब ग्यारह बजे से अजीब उलझन सी हो रही है। इसका कुछ कुछ मतलब समझ में आ गया है। अब दिमाग की आदत ठीक आ गई है। अब तो पहले से अधिक काम करने पर भी उतना नहीं थकता है। इलाहाबाद मैं नहीं जा रही हूँ। आप ने पर्दे के लिहाज़ के लिये लिखा है, सो बिल्कुल ठीक है। ऐसा उचित भी है। बस केवल अन्तर इतना ही होगा कि ‘मालिक’ से पर्दा करने वालों से पर्दा उचित भी है और रहेगा। अब कुछ दो - एक बात Working में जो समझ में आई हैं, सो आप से पूछ रही हूँ।

1. तारीख १३ की रात में दो बजे आँख खुली तो भारत की शुद्धता वाले Work को करने की तबियत बहुत चाहने लगी। जब मैं कर रही थी, तो थोड़ी देर बाद ही एक कुछ नक्शा सा सामने आ गया और दिल में बार-बार इन्दौर, इन्दौर सा शब्द होने लगा, परन्तु मैं इसका कुछ अर्थ नहीं समझ पाई हूँ। यदि कोई आज्ञा हो तो लिखियेगा।

2. तारीख १६ को पण्डित महादेव प्रसाद के यहाँ गई थी। वहाँ थोड़ी देर बातें होती रहीं, परन्तु न जाने क्यों हृदय पर भारीपन होने लगा और जब काफी बढ़ा, तब 'मलिक’ की कृपा से तुरन्त सफ़ाई का उपाय समझ में आ गया। बस सफाई करते ही फिर हल्कापन आ गया। जब चली तो एक बार फिर सफ़ाई कर ली। बस फिर तबियत जैसी थी वैसी हो गयी।

3. तारीख १७ की रात को ९ बजे न जाने क्यों ‘आप’ को Sitting देने की तबियत चाहने लगी। करीब १५ मिनट Sitting दी।

4. तारीख १८ को जब दोपहर में Work कर रही थी, तो जब Pakistan वाला करने लगी तो कुछ हल्की लाली सी दिखाई दी।

‘मालिक’ की कृपा से आत्मिक-दशा अचछी चल रही है। आज न जाने क्या बात है कि कुछ काम करने की यहाँ तक किसी से बात करने की भी तबियत नहीं चल रही है। बस चुपचाप बैठे रहने की तबियत चाहती है। Working यदि और बढ़ाने की आज्ञा दीजिये तो मैं और बढ़ा दूँ। आज अब दिमाग ठप्प है। कोई विचार ही नहीं उठ रहा है। बिल्कुल खाली है। किसी तरफ़ तबियत ही नहीं जा रही है। ऐसी दशा कभी-कभी हो जाया करती है।

छोटे भाई बहनों को प्यार। इतिः-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी "
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-71
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
30/11/1949
कल मास्टर साहब जी से मालूम हुआ कि ‘आप’ भी कल ही शाहजहाँपुर पहूँचे होंगे। वहाँ के समाचार सुन कर प्रसन्नता हुई। यदि संसार के सब लोग पूजा करने लगें तो कितना अच्छा हो। ‘मालिक’ की जैसी मर्ज़ी। ‘मालिक’ की कृपा से मेरी आत्मिक-दशा अच्छी है और सदैव अच्छी ही होती चलेगी, यह भी निश्चित ही है। अब स्वयं पूजा करने की बहुत तबियत होती रहती है, नहीं तो जब शाहजहाँपुर से आई थी, तो कुछ दिनों पूजा करने की तबियत ही नहीं होती थी। कुछ ऐसा है कि कभी-कभी ऐसा मालूम होता है, अधिकतर तबियत भीतर ही भीतर रोती रहती है, क्योंकि सम्भव है ‘मालिक’ की याद मेरे जी भर कर नहीं होती और कर भी कैसे पाऊँ क्योंकि ‘उससे’ बढ़ कर अच्छी चीज़ समस्त ब्रह्माण्ड में अपने को कोई प्रतीत ही नहीं होती। परन्तु उसके लिये मुझ में प्रेम है, इसमें भी शक है। श्री बाबूजी ! क्या कभी मैं जी भर कर अपने ‘मालिक’ से प्रेम कर सकूँगी? परन्तु नहीं, मैं उससे ऐसा प्रेम करना भी नहीं चाहती कि जिसकी Limit हो, ‘उसके’ लिये तो Unlimited प्रेम ही रखने की कोशिश करूँगी। क्या करूँ श्री बाबूजी ! जब आप को पत्र लिखने लगती हूँ तो हृदय बिल्कुल खुल जाता है, कुछ छिपाने को जी नहीं चाहता है। फिर यह भी सोच लेती हूँ कि अब जैसी भी हूँ, सारी कलई तो खुल ही चुकी है। अब तो वही करना है, जो ‘उसे’ कराना है। फिर करना, कराना भी क्या? उसकी चीज़ पर उसका पूर्ण अधिकार है। अपनी तरफ से तो मैं उस पर प्रेम का भी दावा नहीं कर सकती। खैर, जो हो, सो हो। जब पूजा करने बैठती हूँ, तो कभी-कभी ऐसा मालूम होता है कि बिल्कुल निर्जीव सी हो गई हूँ। कृपया अपनी इस बेटी को जो अंट-संट बेमतलब की बातें लिख जाती है, हृदय से क्षमा करते रहियेगा। अब न जाने क्या बात है कि गरीबनी बेचारी का गरीबपन भी छिना जा रहा है। अब कुछ हाल अपनी डायरी में से पूछ रही हूँ।

१. तारीख २० - न जाने क्या बात है जब नम्बर एक (भारत की शुद्धता) वाला work करती हूँ तो तबियत बड़ी नम्र और खुश रहती है, परन्तु जब नम्बर दो – पाकिस्तान वाला करती हूँ तो तुरन्त तेजी और ज़ोश आ जाता है, परन्तु control रहता है। यद्यपि अधिकतर अब दोनों work के समय तबियत सम रहती है।

२. तारीख २२ - अपने ऊपर Full confidence है, हर बात को तबियत ऐसी होती है कि बस अब यह हो गया। देखा बाबूजी, किसकी चीज़ पर कौन कूद रहा है।

३. तारीख २३ - आज एक दो बार तबियत न लगने पर भी ज़बरदस्ती work किया। फिर जिया आई थीं, उनका मेरे ऊपर एहसान था। इसीलिये वैसे भी पूजा कराती रही, फिर दोनों जने बैठे भी। ऐसी तबियत लगी कि, ऐसा मालूम पड़ने लगा कि मैं स्वयं भी पूजा कर रही हूँ। जिया की तबियत भी काफ़ी मुलायम और हल्की मालूम पड़ी।

4 तारीख २९ - कुछ दिनों से जब नंबर एक (भारत) पर work करती हूँ, तो ऐसा मालूम होता है कि सारी पृथ्वी कुछ मुलायम हो चली है। आज तबियत कुछ उदास और सुस्त सी रही। न मालूम क्या कारण है कि मुन्नी को पूज़ा कराने में तबियत नहीं लगती। उसके Heart पर सम्भव है कुछ कड़े संस्कार जमे हुए हैं।

पूज्य श्री बाबूज़ी ! इधर कुछ दिनों ऐसा रहा कि जिसको पूजा कराऊँ उसे ही रात भर नींद नहीं आवे। जिया को जब पूजा कराऊँ तो वे जगे, और केसर को कराऊँ तो वह जगे, तो मैं अपनी गलती सोचा करूँ, परन्तु कुछ समझ में ही नहीं आता है।

अक्सर ऐसा होता है कि आजकल work के बाद जो समय मिले तो प्रथम, थोड़ी सी आदत के अनुसार हर समय पूजा करने की ही इच्छा रहती थी। जब किसी को Sitting दूँ, तो भी थोड़ी बहुत ‘मालिक’ की याद में ही। तब मैंने, जब इस चीज़ को रोक कर पूजा कराई तो सबको खूब गाढ़ी नींद आने लगी है। कल मास्टर साहब जी से पूछा तो उन्होंने कहा कि अक्सर ऐसा हो जाता है, तब, अब मुझे कोई डर नहीं रहा। एक बात लिखते हुए डर लगता है, आप क्षमा करियेगा कि अब यह भाव उठता है कि ‘मालिक’ मेरी याद करे और कभी-कभी यह मालूम भी पड़ता है कि ‘मालिक’ मेरी याद में बैचेन हो रहा है। जिया वाले पत्र की नकल मैंने कर ली है। कितना उच्च कोटि का उपदेश सबके लिये है। परन्तु आप तो जानते ही हैं कि यह उपदेश कितना है और मेरी समझ कितनी छोटी।

छोटे भाई - बहनों को प्यार तथा दादी से प्रणाम कहियेगा। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-72
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
2/12/1949
कल एक पत्र आपको लिखकर पूज्य मास्टर साहब जी को दे चुकी हूँ, परन्तु आज फिर, आपको पत्र लिखने की तबियत हो आई। कल से ‘मालिक’ की कुछ अपने ऊपर विशेष कृपा मालूम पड़ रही है। कल शाम को तो मेरे अन्दर न मालूम क्या हो रहा था। ऐसा लगता है कि भीतर जैसे आँखें सी खुल गई हैं कि ‘मालिक’ की याद कैसे की जाती है? बहुत सोचती हूँ, परन्तु कुछ समझ में ही नहीं आता। और यह भी ठीक याद नहीं पड़ता कि कभी मैं उसकी याद करती भी थी। एक बार ‘आप’ ने कहा था कि तुम मालिक की याद करती हो। और तब मेरी भी समझ में आ गया था, परन्तु अब जब सोचती हूँ कि पहले कैसे याद करती थी तो वह भी कुछ ख्याल में नहीं आता है। बस सारी बात यही है कि याद भूल गई है कि ‘मालिक’ की याद कैसे की जाती है? और ‘मालिक’ की याद कहते किसे हैं? work थोड़ा बहुत किये ही जा रही हूँ। तबियत ऊँची और गहरी मालूम पड़ती है यही दो-चार बेकार की बातें लिख दी हैं, परन्तु कुछ लिखे बगैर रहा भी नहीं गया। ताऊ जी व छोटे भईया परसों आ गये हैं, परन्तु अम्मा अभी नहीं आई हैं। छोटे भाई बहनों को प्यार।

work तथा पूजा कराते समय अब केवल यह ख्याल ही रहता है कि हाँ, यह हो रहा है, परन्तु काम चल खूब मज़े में रहा है। आज पहले की एक बात याद आ गई, सो लिख रही हूँ, क्षमा करियेगा। पहले जब मास्टर साहब कहते थे, कि अब बाबूजी कस्तूरी से कुछ काम लेगें तो मैं मन ही मन में सोचती थी, कि हमारे पूज्य तथा आदरणीय ‘श्री लालाज़ी’ ‘श्री बाबूजी’ को बहुत प्यार करते थे, इसलिये ‘उन्होंने’ ‘श्री बाबूजी’ से १३, १४ वर्ष बाद काम लेना प्रारम्भ किया था। तो मैं भी कुछ ऐसा करूँगी कि श्री बाबूजी मुझे खूब प्यार करने लगें, तो १४, १५ वर्ष में मुझे ठीक-ठाक करके तब काम लेंगे, मैं अभी क्यों करूँ, परन्तु अब यह कुछ नहीं है, अब तो जिसमें ‘मालिक’ खुश हो, वही खुशी से होता जायेगा। कल से हालत कुछ बदली हुई है, परन्तु अभी ठीक समझ में नहीं आई है। कृपया यदि उचित समझियेगा तो बता दीजियेगा कि ‘मालिक’ की याद कैसे की जाती है, नहीं तो जैसी मर्ज़ी। इतिः-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-74
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
9/12/1949
कृपा-पत्र आप का मिला। पढ़ कर प्रसन्नता हुई। जिज्जी के ऊपर आप की इतनी अहेतु की कृपा देखकर उस परम् कृपालु ‘मालिक’ से मेरी यही प्रार्थना है कि जैसे जिज्जी के भाग्य जगे, ऐसे ही सब पर उसकी अनुपम कृपा होती रहे। और अपने मिशन में ‘आप’ की कृपा से दिल वाले रोगी के लिये भी कितना सरल तरीका निकल आया।

‘आप’ ने लिखा कि जहाँ तक हो सके ‘मालिक’ की याद से गाफ़िल नहीं होना चाहिये। सो तो आप विश्वास रखें, जब तक जरा भी बस है ‘उसकी’ याद किसी न किसी तरह बनी ही रहेगी। उस दिन मैंने जो आपको लिखा था कि - ‘भीतर जैसे आँख सी खुल गई’, सो उसका मतलब या अनुभव मुझे भी नहीं मालूम कि क्या हुआ था। बस इतना विश्वास तो मुझे है कि उस दिन जिसने भी Sitting ली थी, उससे उनका बहुत लाभ हुआ था। आपने जो नींद के बारे में पूछा है, सो शाहजहाँपुर जाने से पहले और वहाँ से आने के बाद ६-७ दिन तो सोते में जागने का एहसास होता था, परन्तु अब तो ‘मालिक’ की कृपा से मस्त, इतनी गहरी नींद सोती हूँ कि ५-६ घंटे बाद ही नींद खुलती है। इतनी देर लगातार मैं शायद पहले कभी नहीं सोती थी। हाँ, यह तो ज़रुर है कि सोने की तबियत तो नहीं होती, नींद को जहाँ तक हो सकता है, बराती ही रहती हूँ। ऐसा क्यों करती हूँ, यह आप जानते ही हैं। जब से work कुछ प्रारम्भ किया है, तभी से नींद भी गहरी आने लगी है। कभी-कभी एकाध दिन ऐसा अब भी हो जाता है, कि ऐसा मालूम पड़ता है कि रात भर जागती रही हूँ, परन्तु बहुत कम। यह बात अक्षरश: सत्य है कि सिवाये इस तरीके के, जो ‘आप’ के ‘मिशन’ में है, Liberation इसके अतिरिक्त और किसी तरीके से नहीं हो सकता।

जो Work बतलाया गया है, वह उसी तरीके से, जैसा कि आप ने लिखा है, प्रारम्भ कर दिया है, और Plot के Destroy का भी Work कुछ आज से प्रारम्भ कर रही हूँ, परन्तु यदि उचित हो तो, उसका भी कुछ तरीका लिख दीजियेगा। और पूज्य श्री स्वामी जी ने जो यह लिखा है की - ‘But this thing is prevailing, through out India’, उस दिन जब मैंने [P] में वह चीज़ देखी थी, उसी दिन Whole India में बिल्कुल वही चीज़ बल्कि उससे अधिक लाल मालूम पड़ी थी और बार-बार, परन्तु मैंने अपना कुछ वहम् समझ कर ध्यान नहीं दिया। क्षमा कर दीजियेगा, अब से सचेत रहूँगी। श्री स्वामी जी के चरणों में मेरा सादर प्रणाम करते हुए निवेदन कर दीजियेगा कि यदि यह Heart मेरा होता तो सम्भव है बुजदिल ही होता, परन्तु अब किस ताकत का है, ‘आप’ जानते ही हैं। अब तो जब जैसा Heart Required होगा तब तैसा ही मिलेगा। कोशिश और ‘मालिक’ से सदैव प्रार्थना यही है कि कभी इस गरीबनी से ऐसी गलती न बन पड़े, जिससे मेरे ‘मालिक’ को चोट पहुँचे। वैसे अपनी सज़ा का मुझे कोई भय नहीं , परन्तु ‘मालिक’ के हृदय की चोट मुझसे सहन नहीं हो सकेगी। और मुझे पूर्ण विश्वास है कि ऐसा कभी नहीं होगा। श्री स्वामी जी कहते हैं कि ‘He has fatherly relation with you’ परन्तु मुझे अभी चैन नहीं है, अभी बहुत कुछ शेष है। मैं उनसे जैसा प्यार चाहती हूँ, और स्वयं जैसा ‘मालिक’ को करना चाहती हूँ, वह मेरा ‘मालिक’ भली भाँति जानता है। और ऐसा मैं अवश्य कभी न कभी कर लूँगी, यह दृढ़ निश्चय है। हाँ ‘मालिक’ के काम में, इससे कोई कमी नहीं आने पायेगी, ‘मालिक’ की प्रशंसा तो जितनी भी की जावे, थोड़ी है। ‘उनकी’ प्रशंसा शब्दों के परे है। पूज्य श्री बाबूजी! आपने जो Self Surrender के Stages लिखे हैं, वे अदिव्तीय हैं। और क्या कहूँ? आप ही अदिव्तीय हैं तो हर Word जो ‘आप’ के श्रीमुख से निकलते हैं, वे ऐसे क्यों न हो? परन्तु श्री बाबूजी! मैं ऐसी नासमझ हूँ कि मुझे तो केवल एक Word के दूसरा समझ में ही नहीं आता है।

मेरी आजकल की हालत तो गूंगे के गुड़ जैसी है। बहुत अच्छी है। कभी-कभी न जाने क्यों ‘आप’ को Sitting देने की तबियत हो आती है और जब देती हूँ, तो ऐसी अच्छी हालत होती है, जैसी कि जब मैं स्वयं पूज़ा करती हूँ, तब नहीं होती। अधिकतर तबियत बिलकुल शान्त हो जाती है। दिन भर कोई न विचार आते हैं और न कोई और बात ही मालूम पड़ती है।

अम्मा आप को आशीर्वाद कहती हैं और कहती हैं ‘आप’ कभी-कभी हमें याद कर लिया करें। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-75
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
15/12/1949
मेरा एक पत्र पहुँचा होगा। यहाँ सब कुशलपूर्वक हैं, आशा है आप भी सकुशल होंगे। केसर के फोड़ा गाल के नीचे निकला था, परन्तु ‘मालिक’ की कृपा से सब ठीक हो गया है केवल कुछ घाव शेष रह गया है। मेरी आत्मिक-दशा ‘मालिक’ की कृपा से अच्छी है, परन्तु एहसास इतना मन्द पड़ गया है कि अब तो सर्दी-गर्मी यानी मौसम का भी एहसास करीब-करीब खत्म ही समझिये। यही ध्यान नहीं रहता कि सर्दी पड़ रही है जब शरीर काँपने लगता है तब एक झटका सा लगता है और तब थोड़ी देर के लिए यह एहसास होता है कि सर्दी है और फिर भूल जाती हूँ। एक आदत के कारण जितने गर्म कपड़े उतारती हूँ उतने फिर पहिन लेती हूँ कभी-कभी तबियत एकदम उदासी सी न मालूम कैसे हो जाती है। कुछ दिनों से ऐसा मालूम पड़ता है, कि एक मन तो सब काम वाम कर रहा है, परन्तु दूसरा मन ‘मालिक’ में बिल्कुल डूब सा गया है। ऐसे ही रात में एक मन तो खूब गहरी नींद में खो जाता है, परन्तु एक मन तब भी जगता रहता है, इस कारण सबेरे जब उठती हूँ तो ऐसा नहीं मालूम पड़ता कि दिमाग को कोई खास आराम मिला है यही दशा दिन भर रहती है।

Working थोड़ा बहुत हो रहा है। परन्तु न जाने क्यो ३-४ दिन से [P] वाले work करने में तबियत नहीं लगती है, बार-बार उचट जाती है। आजकल यह मालूम पड़ता है, कि मैं सबकी नौकर हूँ और कुछ यह हो गया है कि मुझे किसी में कुछ बुराई ही नहीं मालूम पड़ती। क्योंकि अब तो कुछ-कुछ यह दशा हो गई है कि:-

“बुरा जो ढूंढ़न मैं गया, बुरा न मिलया कोय। जो दिल देखा आपना, मुझ सा बुरा न कोय।।”

परन्तु अपने लिये मैं अब यह भी नहीं कह सकती। क्यों? इसका उत्तर तो आपको स्वयं मालूम ही है। कल ४-५ दिन बाद [P] वाले work में खूब तबियत लगी। नींद का यह हाल बहुत दिन से है, परन्तु समझ में अब जाकर आया है। केसर, बिट्टो आपको प्रणाम कहती है, तथा अम्मा आशीर्वाद कहती हैं। इति:-

आपकी दीन-हीन सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-76
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
29/12/1949
मेरे दो पत्र मिलें होंगे। यहाँ सब कुशलपूर्वक हैं, आशा है, आप भी सकुशल होंगे। न मालूम क्यों आपको पत्र लिखने की फिर तबियत हो आई, क्षमा करियेगा। मेरी आत्मिक-दशा ‘मालिक’ की कृपा से अच्छी चल रही है और सदैव अच्छी ही चलती रहेगी, ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है। अब तो यह हाल हो गया है कि अपने शरीर का एहसास भी करीब-करीब खत्म हो गया है। और कुछ यह है कि जैसे पहले जब पूजा करने बैठती थी तो यही ध्यान करती थी कि सामने आप बैठे हुए मुझे पूजा करा रहे हैं, परन्तु अब ऐसा करने की कभी-कभी बिल्कुल तबियत नहीं होती। भाई, अब तो यह हाल हो गया है, कि ज़ो आँख, आँख को देखना चाहती थी, वह सिर से पैर तक एक हो गई है। नींद का तो यह हाल हो गया है कि एक तरह से देखा जाये तो रात में जब नींद खुलती है तो ऐसा मालूम पड़ता है कि कहीं बहुत ऊँचे से तबियत उतरी है। और इतनी गहरी होती है कि यदि कोई सोते से मुझे जगावे तो सम्भव है कुछ तकलीफ़ हो जावे परन्तु एक तरह से देखा जाय तो रात में भी जगती ही रहती हूँ। एक हालत बहुत अच्छी मालूम पड़ती है परन्तु मैं उस हालत को लिखूँगी नहीं जब आऊँगी तब आपसे बतला दूँगी। अब बिल्कुल खालीपन रहता है ‘मालिक’ ने तो मुझपर सदैव कृपा की है और करता ही रहेगा। यह ऊँची तबियत जो सोकर उठने पर मालूम पड़ती है, ऐसी ही तबियत दिनभर ही रहती है। ज़ब कभी फ़कभी झटका लगता है, तब ऐसा मालूम पड़ता है कि तबियत ऊँचे से उतरी है।

Working मजे में चल रही है अब कोई खास बात मालूम नहीं पड़ती। बस ‘आप’ कृपा करके कभी-कभी देखते अवश्य रहियेगा बड़ी जिज्जी (शकुन्तला) यहाँ आ गई है, वह तथा केसर बिट्टो आपको प्रणाम कहती हैं, तथा अम्मा आशीर्वाद कहती हैं। केसर कहती है कि कल से उन्हें बेचैनी बहुत मालूम पड़ती है और हल्कापन भी बहुत मालूम पड़ता है। छोटे भाई बहनों को प्यार तथा दादी को प्रणाम कहियेगा। इतिः-

आपकी दीन-हीन सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-78
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
8/1/1950
पत्र आपका आज आया, पढ़कर प्रसन्नता हुई। बसंत पंचमी के निमंत्रण पत्र के लिये आप को बहुत धन्यवाद है। ‘मालिक’ की मर्ज़ी रही तो हम सब सेवा में उपस्थित होंगे और ‘मालिक’ की कृपा अभी तक है और रहेगी, इसमें सन्देह नहीं। ईश्वर की कृपा से आत्मिक-दशा अच्छी चल रही है और चलती रहेगी। उदासी की दशा में कोई फ़िक्र वगैरह नहीं होती। वह तो बस एकदम बिल्कुल उदास हो जाती है। कभी जल्दी ठीक हो जाती है और कभी-कभी पूरे दिन रहती है और होती अक्सर है। अधिकतर तो अब यही हालत है कि हर चीज़ का केवल एक ख्याल मात्र ही रह गया है। Working का भी एक ख्याल ही ख्याल बंधा रहता है। पूज्य बाबूजी इस पूजा की कहाँ तक प्रशंसा की जावे। जिन बातों को अपने में लाने का पहले वर्षों अभ्यास व प्रार्थना की, वे केवल ‘मालिक’ की कृपा मात्र से ही स्वयं पैदा हो गई हैं। स्वभाव व आदतों में कुछ परिवर्तन हो गया है और बराबर होता हुआ देख रही हूँ। जहाँ तक मुझे याद है १५ दिसम्बर के बाद मेरे दो या तीन पत्र आप के पास और पहूँचे होंगे। आखिर वाला पत्र तो पहली या दूसरी जनवरी को ही पहुँचा होगा। एक दिन जब Working कर रही थी तो India में ‘ॐ’ शब्द सा दिखाई दिया था। इसके लिये मैं यह ठीक नहीं कह सकती क्योंकि मुझे अब कुछ याद नहीं रहा कि शायद उस शब्द की ओर मेरा कुछ ध्यान चला गया हो। यह बात अभी याद आ गई, सो लिख रही हूँ, परन्तु जहाँ तक याद है, तो उस समय मेरा ध्यान उस ओर नहीं गया था।

पूज्य बाबूजी, न जाने क्या बात है कि सो कर उठने पर जैसी ‘मालिक’’ की कृपा से कुछ आदत थी कि सर्वप्रथम ‘मालिक’ का ही ध्यान ‘उसकी’ ही याद आती थी, सो अब एकदम नहीं आती। जागने के थोड़ी देर बाद ध्यान आता है। कई दिन से कोशिश और बढ़ा दी है, परन्तु अब भी नहीं आता। यद्यपि और ख्याल भी नहीं आते, परन्तु याद भी नहीं आती। ऐसा ही दिन में भी होता है। अब मुझे पहले की तरह दिन भर याद नहीं रहती। इस कारण कभी-कभी बेचैनी बहुत बढ़ जाती है। या यह कहिये कि सबेरे कुछ ख्याल नहीं रहता है और यही हाल दिन में होता है। Working मज़े का चल रहा है। छोटे भाई-बहनों को प्यार तथा दादी से प्रणाम कहियेगा। अम्मा आप को आशीर्वाद कहती हैं। इतिः-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-79
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
12/1/1950
मेरा एक पत्र मिला होगा। यहाँ सब ईश्वर की कृपा से कुशल पूर्वक हैं। आशा है, आप भी सकुशल होंगे। अपनी आत्मिक-दशा के विषय में तो लिख चुकी हूँ, परन्तु इधर तीन-चार दिन से तो यह दशा चल रही है कि ऐसा मालूम पड़ता है कि न कभी पूजा की है, और न अब कुछ हो रही है। अब तो पूजा-ऊजा सबसे खाली लगती हूँ और न तो गरीबी लगती है, और न कुछ अमीर ही लगती हूँ। याद का हाल तो इतना बुरा हो गया है कि अब जल्दी-जल्दी साँस लेने की भी याद नहीं रहती है। इससे जब कभी-कभी परेशानी हो जाती है, तब याद आती है। बस फिर खूब जल्दी-जल्दी साँस लेकर शरीर की परेशानी दूर कर देती हूँ। भाई, मुझे तो तकलीफ़ आराम से कोई मतलब नहीं रह गया है। अब तो ‘मालिक’ की अपने ऊपर प्रसन्नता से बढ़कर कोई आराम नहीं है और उसकी जरा सी अप्रसन्नता से बढ़कर कोई तकलीफ़ नहीं है। आजकल बिल्कुल खाली लगती हूँ। इसलिए बेचैनी कभी-कभी उग्र रुप धारण कर लेती है। इधर दो-तीन दिन से अजीब रोनी सी दशा रहती है।

कल Working के समय तो बैठे ही बैठे एकदम [P] में India का तिरंगा फहराता सा मालूम पड़ा और Working ‘मालिक’’ की शक्ति से अच्छा

चल रहा है। अम्मा आप को आशीर्वाद कहती हैं।

अब तो तारीख २१ को आप की सेवा में उपस्थित होऊँगी। इतिः-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-81
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
16/1/1950
कृपा-पत्र ‘आप’ का पूज्य मास्टर साहब जी द्वारा, जो आप ने भेजा था, मिल गया। पढ़कर प्रसन्नता हुई तथा अफ़सोस हुआ। कृपा करके ‘आप’ क्षमा करियेगा, क्योंकि मुझे यह बिल्कुल मालूम न था कि ‘आप’ की खाट हिल जावे तो आप को तकलीफ हो जाती है। मुझे याद आया कि अक्सर मैं आप की चारपाई के सहारे बैठ जाती थी और इससे ‘आप’ की चारपाई अवश्य हिल जाती होगी।

यह बिल्कुल सत्य है कि ऐसे समय का मुद्दतों आना दुर्लभ है। ऐसी Personality कभी आने की नहीं। बस, मुझे तो केवल बेहद अफ़सोस यह है और रहेगा कि ‘आप’ मुझे दस-बारह वर्ष पहले क्यों न मिले। फिर भी ‘आप’ निश्चय मानिये कि मैं ज़रुर ‘आप’ को अपनी हालत से, जो कुछ भी श्री गुरु कृपा से आप को मिली है, उस हालत से Sitting देने को मजबूर कर देती। और ‘आप’ विश्वास रखिये, कोशिश यह गरीबनी यही कर रही है और बराबर करती रहेगी कि यदि ‘मालिक’ की कृपा ऐसी ही बनी रही तो जल्दी से जल्दी उस हालत से केवल Sitting देने को ही नहीं, बल्कि उसमें स्थिर करने को ‘आप’ को मजबूर कर देगी और मेरी इच्छा तो सदैव यही थी और है कि मेरे परिश्रम की ही खटक, जो और जितना ‘आप’ को माँगे, उतना ही मुझे मिले। हाँ, आप की तो कृपा और आशीर्वाद मेरे निश्चय को सत्य में परिणित कर देंगे। वैसे ‘मालिक’ ने जो अपनी अहेतु की कृपा से ताकत देकर कुछ सेवा का इस बेचारी गरीबनी को सुअवसर दिया, यह इसका अहोभाग्य है। पूज्य श्री बाबूजी! मैंने तो जीवन और जीवनोपरान्त का पल-पल बस, केवल अपने ‘मालिक’ की याद और उसकी सेवा में समर्पित कर दिया है। मेरे बाबूजी! आप विश्वास रखिये, मैं ‘आप’ को कभी यह कहने का अवसर न दूँगी, कि ‘बिटिया! तेरा एक पल खराब गया’ हाँ, ‘मालिक’ की कृपा से यह कोशिश करती रहूँगी कि उस योग्य बन सकूँ। बस मुझे तो यह चीज़ अच्छी लगी। अब तो यदि ‘मालिक’ की कृपा ऐसी ही बनी रही तो ओर-छोर न रखूंगी। वैसे मेरा तो अब अपना कुछ शेष रह ही नहीं गया। अब जैसी ‘मालिक’ की मर्ज़ी हो, वैसे चलावे। इस पत्र में ‘आप’ के अफ़सोस से कुछ उफान आ गया। वह फिर शान्त हो गया। उसी उफान में सब ‘आप’ को लिख दिया है। यदि कुछ गलती हो तो क्षमा कर दीजियेगा। ‘आप’ ने यह जो लिखा है कि -’मैं किसी चीज़ के इन्तज़ार में रहता हूँ। यदि वह बात पैदा हो जावे तो, जब मुझे कोई रोकता है, तब रुक जाता हूँ’। तो यदि अनुचित न हो और ‘आप’ की इच्छा हो तो मुझे भी बता दीजियेगा। वैसे जब यह बात मुझ में पैदा हो जावे, तब बता दीजियेगा।

मेरी आत्मिक-दशा अच्छी चल रही है। उधर कुछ दिनों से Self-Surrender भी बिल्कुल नहीं लगता। हाँ, यह ज़रुर है कि अपने चेहरे के बजाय एक दाढ़ी वाला चेहरा मालूम पड़ता है और सच तो यह है कि कभी कभी यह याद भी भूल जाती है कि मैं लड़की हूँ। अपने को भूल जाती हूँ कि मैं कौन हूँ। एक बात कुछ यह हो गयी है कि सब लोग चाहे किसी सती की प्रशंसा करें या और किसी की, परन्तु मुझे अब किसी के प्रति न जरा भी श्रद्धा होती है, न कुछ आदर, बनावटी में चाहे जो कहूँ। अब हालत बेरस अधिक रहती है। अब की पत्र में ‘जो’ श्री स्वामी जी ने ‘आप’ की प्रशंसा की है, उसके लिये बहुत बहुत धन्यवाद है। कृपया यह पत्र, यदि ‘आप’ की मर्ज़ी हो तो किसी को न दिखलावें। अब किसी हालत प्राप्त करने की इच्छा नहीं है। केवल जो मैंने पहले ‘आप’ से कहा था, वही चाहिये। छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन बिहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-82
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
1/2/1950
कल पूज्य ताऊजी आ गये। उनके ऊपर की गई कृपा के लिये कोटि कोटि धन्यवाद है और ‘मालिक’ से प्रार्थना है कि लोग और पूजा तथा अभ्यासों के बजाय इस सरल सीधे और शीघ्र उन्नतिशील मार्ग की ओर आकर्षित हों। मेरी आध्यात्मिक-दशा कोई खास अच्छी नहीं मालूम पड़ती है। और क्षमा करियेगा, अब की उत्सव में भी मुझे अपनी तबियत कुछ अच्छी नहीं मालूम पड़ी थी। हाँ, वहाँ से लौटने पर हल्कापन तथा खालीपन विशेष हो गया है। बस अफ़सोस यह है कि ‘मालिक’ की याद तथा Self Surrender से भी बिल्कुल खाली हूँ। पूज्य श्री बाबूजी, मुझे न मालूम क्या हो गया है कि अब ऐसा मालूम पड़ता है कि मानों मैंने कभी पूजा की ही नहीं और अब हर चीज़ से खाली हूँ, तो कभी-कभी बहुत रोना आता है, परन्तु वह रोना भी बे आँसू का। खैर भाई, अब तो - ‘राज़ी हैं हम उसी में, जिसमें रजा है तेरी’। अब तो जो हालत इस पूजा में प्रारम्भ में थी, वही हालत है। अब न जाने क्यों नींद की तेजी इतनी अधिक हो गई है कि जब आँख मूँद कर पूजा करती हूँ, तभी नींद आ जाती है, बल्कि यदि यह कहा जाय कि हर समय नींद की ही हालत में रहती हूँ तो ठीक होगा। कभी कभी तो दिन में भी यदि खाली बैठी हूँ और कोई ज़ोर से आवाज़ दे तो मैं एकदम चौंक कर हड़बड़ा जाती हूँ। रात की क्या लिखूँ? आज सबेरे देर तक सोती रही तो नींद का यह हाल था कि कौओं की आवाज़ भी सुनाई पड़ती थी और सो इतनी गहरी नींद में रही थी कि जब आँख खुली तो एकदम उठकर जल्दी सब काम करने से शरीर काँपता था। अब तो श्री बाबूजी, सोने में ज़रुर कमाल प्राप्त हो गया है, क्योंकि अब तो दिन भर करीब करीब वैसे भी सोनी और साथ-साथ जगनी हालत रहती है। परन्तु इस आराम के साथ-साथ ही कोई आग भीतर हमेशा सुलगती रहती है। याद के लिये यदि यह कहा जावे कि बिल्कुल रुखी-सूखी आती है, तो शायद ठीक होगा, क्योंकि किसी न किसी Form में मैं याद से खाली न रहने की ही कोशिश करती हूँ। यही हाल जब परम् पूज्य श्री पापा जी ने मुझे प्रणाम किया था, तब मैं प्रेम में भरकर उन महान आत्मा के चरणों में लिपट जाती परन्तु प्रेम और उभार मुझे उस समय भी नहीं आया और विफल होकर मुझे उन्हें रुखा ही बेरस प्रणाम करना पड़ा। खैर ‘मालिक’ की जैसी मर्ज़ी। आज कल तो कुछ यह हाल भी हो गया है कि सिवाय ‘मालिक’ के अपनी शक्ल देखने पर बड़ी बेचैनी हो जाती है। छोटे भाई-बहनों को प्यार तथा दादी जी से प्रणाम कहियेगा।

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-84
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
10/2/1950
आशा है आप आराम से पहुँच गये होंगे। मेरी आत्मिक-दशा ‘मालिक’ की कृपा से उन्नति पर ही है और सदैव उन्नति पर ही रहेगी। पूजा तो अब बिल्कुल ऐसी लगती है कि अब प्रारम्भ कर रही हूँ। बल्कि अब यह भी नहीं मालूम पड़ता कि पूजा कर भी रही हूँ। अब अधिकतर किसी काम का Weight अपने ऊपर मालूम नहीं पड़ता है। केवल एक ‘मालिक’ की ही कृपा है, जो मेरे साथ सदैव रहेगी। अब किसी हालत में फैलाव और मालूम पड़ता है। एक विनती आप से यह है कि तारीफ़ हर हालत में केवल ‘मालिक’ की ही होनी चाहिये और हो। श्री बाबूजी, अन्धे को क्या चाहिये? केवल दो आँखे और उसमें ऐसी रोशनी जो केवल एक ‘मालिक’ की ही ओर टकटकी बाँध कर देखे और सब संसार उन आँखों के लिये अधेरा हो जावे । ‘मालिक’ की अहेतु की कृपा ने इन अन्धी आँखों में कुछ - कुछ ऐसी ही रोशनी भरनी प्रारम्भ कर दी है। अब कुछ ऐसा हो गया है कि रात दिन सब एक से ही लगते हैं और एक से ही गुजर जाते हैं। कोई अन्तर नहीं लगता। शरीर के आराम और तकलीफ़ का भी कुछ एहसास नहीं होता।

छोटे भाई-बहनों को प्यार तथा दादीजी को प्रणाम कहियेगा। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-85
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
15/2/1950
कृपा-पत्र ‘आप’ का आया। पढ़कर प्रसन्नता हुई। आपने जो यह लिखा है, सो ईश्वर को अपने ‘मालिक’ की अहेतु की कृपा का सही धन्यवाद तो कभी नहीं हो सकेगा। मैं तो उसकी कृपा के आगे अपने को बिल्कुल दीन, गरीबनी पाती हूँ। अपनी उन्नति का कारण, जो मेरी तुच्छ बुद्धि में है, वह केवल यही है कि ‘आप’ ने एक बार मुझे लिखा था कि –’ईश्वर तुम्हें रोज़-ब-रोज़ रुहानी तरक्की देवे’। मैं अपनी हालत पर ग़ौर अवश्य करती हूँ और ‘मालिक’ की कृपा से हालतों का अन्तर भी कुछ न कुछ मालूम ही पड़ता चलता है। यह ज़रुर है कि हालतें सूक्ष्म ज़रुर होती जाती हैं। आत्मिक उन्नति, जो ‘आप’ की ‘मर्ज़ी’ हो सो करिये। मेरी निगाह में तो बस केवल एक ‘मालिक’ ही है। मुझे तो यह भी नहीं मालूम कि आत्मिक उन्नति होती क्या है। धन्य है ‘आप’ को, कितनी अच्छी हालत कितने सुन्दर Sentence में लिख दी है। आपने लिखा कि ‘सोलहों Circles मेरी निगाह में हैं’ और यहाँ इस गरीबनी की निगाह में तो केवल एक ही Circle है, जिसे ‘मालिक’ कहते हैं। ‘आप’ का एक वाक्य, जो ‘आप’ ने लिखा था कि ‘कदम आगे ही बढ़ना चाहिये।’, वह भी ‘मालिक’ की ही ‘मर्ज़ी’ और उसके ऊपर छोड़ दिया। वह जैसे चाहे, जहाँ चाहे, ले जावे। आप के पत्र की नकल कल पूज्य मास्टर साहब जी को अवश्य दे दूँगी। कुछ आजकल की हालत मुझे भीतर ही भीतर तो मालूम है, परन्तु लिख नहीं पाती। जब ठीक से एहसास होगा, तब फिर लिख दूँगी। अब रात-दिन की हालत में कोई अन्तर नहीं रह गया है। रात-दिन सब एक से ही हैं। मुझे तो अब यह लगता है कि वास्तविक गरीबपन की थोड़ी सी झलक की अब शुरुआत है।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-86
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
27/2/1950
मेरा पत्र मिला होगा। मेरी हालत फिर बदली हुई लगती है। ‘मालिक’ की कृपा से सब हालतों का अन्तर कुछ न कुछ मालूम ही पड़ता चल रहा है। अब जो उदासी वाली हालत पहले कभी थोड़ी देर को आ जाती थी, अब वह हर समय रहती है। अब तो हर काम करने से पहले यह ख्याल नहीं रहता है कि यह काम करना है और न काम करने के बाद यह ख्याल ही रहता है कि क्या काम किया। काम करने के बाद फिर उदासी वाली हालत ही रहती है। हर काम उदासी की हालत में ही हो जाते हैं और न जाने क्यों उदासी वाली हालत में फैली हुई लगती हूँ। अब शरीर का तो यह हाल हो गया है कि यदि चाहूँ तो इसकी आराम- तकलीफ़ का एहसास होता है, अन्यथा नहीं।

अब न जाने क्या हो गया है कि अपनापन तो संसार में किसी से लगता ही नहीं। हाँ, केवल एक से अपनापन हो सकता है, परन्तु श्री बाबूजी ! लिखते हुए डर लगता है और फिर भी ‘आप’ तो सदा ही मेरे अवगुणों को क्षमा करते आये हैं, इसलिये लिखे देती हूँ कि सच तो यह है कि अपने पन का एहसास अब शायद ‘मालिक’ के प्रति भी समाप्त सा है, परन्तु फिर भी उसके बिना चैन न है, न होने दूँगी। हाँ, कायदा में कुछ फ़र्क आ गया है। पहले जैसे बारबार यह कहती थी कि सब काम ‘मालिक’ ही कर रहा है और मैं उसकी याद में मस्त हूँ। परन्तु अगर अब यह करूँ तो तुरन्त भारीपन आ जाता है। परम् स्नेही श्री बाबूजी ! सच तो यह है कि मैं उसकी याद में मस्त हूँ, के बजाय ‘वह मेरी याद में मस्त है’ निकलता है। यही मालूम पड़ता है कि ‘वह’ बहुत प्रेम से मेरी याद कर रहा है। यहाँ तक कि अक्सर मुझे यह मालूम पड़ता है कि मेरा मन खिंचा जा रहा है और अब कुछ यह भी हो गया है कि दुनिया में न अपनी, न किसी की कुछ जाति-पाति नहीं लगती है या यों कहिये कि जब जाति-पाति का भेद केवल नहीं के बराबर रह गया है। अब कभी-कभी सोते में भी Working होता मालूम पड़ता है। श्री बाबूजी ! कृपा करके अपनी इस बिटिया को माफ़ कर दीजियेगा। क्योंकि कोई-कोई बात इस पत्र में Etiquette के बाहर लिख गई हूँ, कुछ बदतमीज़ी सी हो गई है। अब आज से हालत कुछ बदली हुई है।

होली की बहुत-बहुत बधाई है। यद्यपि वैसे मुझे नहीं देनी चाहिये थी, परन्तु आप को बधाई देने को मैं स्वतंत्र हूँ। working भले में चल रहा है। एक शिकायत मुझे यह है कि मैं उसकी याद, जितनी चाहिये, उतनी नहीं कर पाती। सब काम उदासी की हालत में होते हैं और बिल्कुल यह नहीं मालूम पड़ता कि कौन कर रहा है। जैसे खुद हाथ उठाने पर एहसास नहीं रहता कि किसका हाथ है। ऐसे ही सब काम का हाल है। कृपया यह बतलाइये, कि मैं याद कैसे रखू? इसलिये किसी न किसी तरह से अब तक याद होती जा रही है, परन्तु बड़ी मुश्किल से। वैसे ‘मालिक’ की जैसी मर्ज़ी। हमारे पूज्य मास्टर साहब व ताऊ जी की खूब उन्नति हो, ऐसी कृपा रखियेगा क्योंकि उनका, ‘आप’ की बिटिया पर बड़ा एहसान है।

कल जब Pt. N. की Life के Safe वाला working कर रही थी तो in Kanpur शब्द बार-बार आता था। इसका क्या मतलब समझूँ, कृपया लिखियेगा।

अम्मा आप को आशीर्वाद कहती हैं। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-89
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
11/2/1950
कृपा-पत्र ‘आप’ का आया। पढ़ कर प्रसन्नता हुई। ‘मालिक’ की अपने ऊपर अहेतु की कृपा का कहाँ तक धन्यवाद दिया जा सकता है। बस, 'उसकी', ऐसी ही कृपा इस गरीबनी के ऊपर बनी रहे। यही ‘उससे’ प्रार्थना है। ‘आप’ ने लिखा है कि – ‘मैं हर शख्स की तरक्की बताता चलता हूँ। समझ में नहीं आता कि मैं यह गलती कर रहा हूँ’। परन्तु शायद किसी Dictate में जो पूज्य समर्थ महात्मा श्री लाला जी का ‘आप’ के लिये था कि – ‘तुमसे कभी गलती हो ही नहीं सकती’। मेरी समझ में इससे भी ‘मालिक’ की हम सब सीखने वालों पर कोई न कोई अहेतु की कृपा छिपी होगी और फिर समर्थ महात्मा श्री लाला जी के समान तो न कोई हस्ती हुई है, न होने की आशा है। जब ‘वे’ आप में पूर्ण रुप से Merge हैं तथा आप उनमें फिर गलती का सवाल ही कहाँ रहा? खैर, ‘आप’ का ऐसी बातें कहना भी हम सबके लिये बड़ा शिक्षाप्रद है। हाँ, मेरी यह प्रार्थना है कि यदि हो सके तो, जो कड़े संस्कार हों, वे मुझे दीजियेगा। वैसे जो ‘आप’ की इच्छा। और ‘आप’ ने जो यह सब लिखा है कि – ‘मैं इसलिये गुरु नही बना’। यह सब या इस पत्र में सब सत्संगियों के लिये बड़ा उच्च उपदेश हैं। पूज्य श्री बाबूजी ! आपने दीन गरीबनी पर अब तक कितनी कृपा की है, और कितनी और करेंगे यह शब्दों के परे है। मैने जो यह लिखा था कि – ‘अपनेपन का एहसास शायद ‘मालिक’ के प्रति भी खत्म सा है’। उसके केवल यही माने है, कि बाबूजी ! मैं तो अब यह भी भूल गई हूँ कि ‘मालिक’ कौन है, कैसा है? परन्तु यह ज़रुर है कि चाहे उसे भूल गई हूँ, चाहे जो हो, परन्तु देखती हूँ कि चैन तो एक क्षण भी उसके बिना पड़ता नहीं। जब से आप को वह पत्र लिखा था, तब से उदासी वाली हालत में कुछ और हो गया है। अब तो एक तरह से मुर्दा वाली हालत रहती है और ऐसा लगता है कि अब यह मुर्दा वाली हालत मुझमें बसी जा रही है। और अब कुछ यह हो गया है कि याद ज़ो Natural हो, सो हो, परन्तु कभी कभी बार-बार कोशिश करने से तबियत भारी हो जाती है। अब मुर्दावाली हालत तो सोते में भी मालूम पड़ती है, यहाँ तक कि कभी-कभी तो लेटने और चलने फिरने में भी कोई अन्तर नहीं मालूम पड़ता। न जाने क्या बात है कि अब तक का मेरा जीवन एक स्वप्न की तरह बीत गया, बल्कि अब तो करीब-करीब भूल ही गई हूँ और अब न जाने क्या है, मुझे नहीं मालूम। अब तो जैसे मालिक के लिये यह भूल गई हूँ कि कौन है, कैसा है। यही हाल खुद अपने लिये भी हो गया है। यहाँ तक कि जब आफ़ताबे मारफ़त या हिन्दी वाली कविता गाती हूँ तो प्रेम वगैरह तो दूर रहा, यहाँ तक ध्यान नहीं रहता कि किसकी तारीफ़ गा रही हूँ। उस ‘मालिक’ का ही ध्यान नहीं रहता। खैर, कोशिश कुछ न कुछ ज़ारी है। फिर ‘मालिक’ की जैसी मर्ज़ी। अब न जाने क्यों जब मैं पूजा करती हूँ तो, यदि कोई चीज़ भीतर गिर पड़े या कोई जोरों से चिल्ला देता है, तो ऐसा लगता है कि दिल पर बड़ी ज़ोर का धक्का लगा है। पूज्य श्री बाबूजी ! आप तो खुद इतने कमज़ोर हैं। ‘आप’ के पेट में सदा तकलीफ़ रहती है और फिर ‘आप’ मेरे संस्कार भी भोगेंगे। इसके लिये आप को हार्दिक धन्यवाद के अलावा और क्या कह सकती हूँ। क्योंकि ‘आप’ ने Law of Nature कह कर मुझे लाचार कर दिया है। अब यह देखती हूँ कि सब काम जैसी ज़रुरत होती है, वैसा कुछ कुदरती अपने आप हो जाते हैं। अब मैं कभी-कभी नाराज भी हो जाती हूँ, डाँट भी देती हूँ, परन्तु मुझे कुछ खास मालूम नहीं पड़ता, न कुछ अफसोस ही लगता है। आज हालत फिर कुछ बदली हुई लगती है। अब मुर्दा वाली हालत में फैली हुई मालूम पड़ती हूँ। पूज्य महात्मा श्री पापा के चरणों में मेरा सादर प्रणाम कहते हुए बधाई के लिये बहुत-बहुत धन्यवाद दे दीजियेगा और कह दीजियेगा कि भाई, बधाई की अधिकारिणी मैं नहीं, बल्कि ‘आप’ (श्री बाबूजी) हैं।

‘आप’ कहते हैं, लय-अवस्था पूर्ण रुप में आ जावे। परन्तु यहाँ तो यह हाल हो गया है कि भाई, अब तो मुझ में लय-अवस्था मालूम भी नहीं होती। यहाँ तक कि बार-बार अभ्यास करने पर भी नहीं आती । क्या करूँ, लाचारी है। ‘मालिक’ की जैसी मर्ज़ी। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-90
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
13/2/1950
आशा है आप सकुशल और आराम से पहुँच गये होंगे। मैं यह देखती हूँ कि जब आप आते हैं, और चले जाते हैं, तो भीतर की आग में कुछ दिन को थोड़ी तेजी आ जाती है। और अबकी से तो जब से आप गये हैं, तो पहले जो पाँच-दस मिनट पूजा में तबियत लग जाती थी, वह भी खतम हो गई। कुछ तो एक घंटा, जो सबेरे की पूजा के लिये अब तक मैंने रखा है, बस बेचैनी से इधर-उधर, किसी न किसी तरह ‘मालिक’ की याद की कोशिश में कट जाता है परन्तु सिवाय लढ़ी घसीटने के और कुछ नहीं मिलता। खैर, ‘मालिक’ की जैसी मर्ज़ी। आजकल तो बस यह है कि यदि दिन भर दूसरों को पूजा कराती रहूँ, तो ऐसी अच्छी और हल्की तबियत रहती है कि कहना नहीं। जैसा मैंने पहले लिखा कि अपने अन्दर हर समय एक ईश्वरीय धारा बहती हुई मालूम पड़ती है, परन्तु अब तो उस धारा में फैली हुई मालूम पड़ती हूँ। जैसा मैंने लिखा था कि मुझे यह भ्रम हो जाता है कि मेरी कोई दशा है भी, कि नहीं, का केवल ख्याल ही है, परन्तु फिर मैं Suppose कर लेती थी कि मेरी हालत है ज़रुर और अब तो इसकी भी याद नहीं रहती है। अब तो यह हालत है कि हर समय खालिस तबियत बड़ी अच्छी मालूम पड़ती है। पूजा में भी यदि ध्यान-त्यान में पड़ी रहती हूँ, जो अब तक करती आई हूँ, तो तकलीफ़ होती है। यह खालिस तबियत ही अब दिन भर या हर समय की हालत अपने आप ही रहती है। भाई, सच तो यह है कि अब नाते रिश्तेदारी का डोरा भी कटा हुआ मालूम पड़ता है, जैसा कि आपने कहा था, उस दिन यहाँ। अब तो यह खालिस हालत कभी-कभी तो अपने में से फैलती हुई लगती है।

अब तो भाई, जो कैफ़ियत है, वह ऐसी है कि अधिकतर भीतर ही भीतर तो उस हालत का कुछ अनुभव मुझे है, परन्तु न जाने क्यों उस हालत को कहना चाहूँ या लिखना चाहूँ तो नहीं पता, कैसे लिखूं। Self-Surrender का भी यही हाल है कि अब कोशिश करने से भारी लगता है, बल्कि यों कहिये कि उसका ध्यान तक अच्छा नहीं लगता। अब बताइये, इसका क्या इलाज़ हो? बस अब तो यह पूजा है, या ख्याल रहता है कि यह बिल्कुल खालिस चीज़ बैठी है, और इसी में अच्छा लगता है। और अब तो अपने अन्दर हर समय एक बहाव सा लगता है। जो उदासी की हालत दिन भर रहती थी, वह अब कुछ सूरत बदले हुए है। हालत वही है, परन्तु उसमें कुछ और हो गया है, शायद कुछ गाढ़ापन है। आप ने एक बार लिखा था कि मन में जागृति पैदा हो गई है और तब इसका मुझे भी एहसास था परन्तु अब तो मैं कहती हूँ कि मन अब तो पहले से भी गाढ़ी निद्रा में सो गया है और हर समय सोता रहता है, क्योंकि अब मैं देखती हूँ कि इसमें न तो तेजी रह गई है, न जोश है। अजीब मरा सा हो गया है। हाँ, यह बात ज़रुर है कि हर काम करने में भी यह मरा ही रहता है। अब तो यह हो गया है कि हर समय ‘जैसी’ ‘मालिक’ की मर्ज़ी यह निकलता रहता है।

श्री बाबूजी मुझे न तो कोई हालत चाहिये, न कुछ। बस केवल ‘मालिक’ से ही काम है और वही चाहिये। और विश्वास रखिये, देर सबेर भले ही हो, 'वह मुझे मिलेगा अवश्य ।

दादी जी से प्रणाम तथा छोटे भाई-बहनों को प्यार कहियेगा।

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-91
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
18/2/1950
कल पूज्य मास्टर साहब जी से मालूम हुआ कि आपका तार आ गया है कि आप नहीं आ रहे हैं। इसलिये आज पत्र लिख रही हूँ। आशा है, वहाँ सब सकुशल होंगे। मेरा एक पत्र पहुँचा होगा। मेरी ‘आत्मिक-दशा’ ‘मालिक’ की कृपा से अच्छी चल रही है। मेरी हालत से तो समझ लीजिये कि मेरे लिये केवल रात ही रात है, या दिन ही दिन है। क्योंकि मैं अब नहीं कह सकती कि मैं क्या करती रहती हूँ। यदि अपनी हालत स्वप्न की तरह कहूँ तो बिल्कुल ठीक यह भी नहीं है। यदि उचाट कहूँ तो यह भी ठीक नहीं है। न जाने कैसी हालत है। मैं तो यह तक नहीं जानती कि मैंने दिन भर में कोई काम अच्छा या बुरा, गलत या ठीक, कुछ किया है या नहीं। हाँ, यह अवश्य कह सकती हूँ, मेरे लिये अब अच्छा या बुरा, गलत या ठीक, कुछ नहीं है। जो काम Natural ही होते हैं, वे होते हैं। अब न मुझमें पूजा है न पाठ, न लय-अवस्था है न Self Surrender ही है, न ‘मालिक’ की याद ही है, न कुछ। अब मैं यह कह सकती हूँ कि भाई मेरे श्री बाबूजी मुझमें अब कोई गुण नहीं है और मुझे तो यहाँ तक नहीं मालूम कि मैं कौन हूँ, क्या हूँ। न अब उदासी वाली हालत मालूम होती है और जैसे पहले अधिकतर बड़ा हल्कापन व खालीपन मालूम पड़ता था। अब तो मुझे या अपने में कुछ नहीं मालूम पड़ता है। पूज्य श्री बाबूजी। मैं तो हाथ जोड़कर आपसे यही कहती हूँ, कि अब आप की इस बिल्कुल गरीब बिटिया में कोई गुण या कोई बात न रही। ‘मालिक’ की याद जिससे आप खुश होते हैं, उसका यह हाल हो गया है, कि जब ध्यान करती हूँ, या दिन भर जब कोशिश करती हूँ तो यही निकलता है, कि ‘मालिक’ खुद अपनी याद में मस्त है। अब आप बताइये कि ‘मालिक’ के सिवाय उसकी मर्ज़ी के अब खुश करने के लिये मेरे पास अब क्या है? हाँ, केवल कोशिश अब भी जहाँ तक वश है, जारी है। परसों सबेरे से अपने अन्दर बड़ी हल्की ईश्वरीय धारा बहती हुई मालूम पड़ती है। उसकी कैफ़ियत भी बड़ी हल्की, कुछ धीमी-धीमी शान्तियुक्त सी लगती है, परन्तु उसकी कैफ़ियत मुश्किल से समझ में आने वाली लगती है। यह धारा हर समय बहती रहती है। केवल अब एक कोशिश है, वह भी ‘मालिक’ की मर्ज़ी पर है। इसके साथ-साथ में उसकी या जी भर कर न कर पाने की शिकायत भी ज़ारी है। Working का भी हाल यह है कि ‘मालिक’ की जो मर्ज़ी होती है, जैसी मर्ज़ी होती है, सो होता है। मैं कुछ नहीं जानती हूँ।

छोटे भाई - बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-92
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
25/2/1950
मेरे दो पत्र पहुँचेगा होंगे। आज आप के पत्र से मालूम हुआ कि वहाँ के झगड़े के कारण ‘आप’ यहाँ नहीं आ सके। खैर, जैसी ‘मालिक’ की मर्ज़ी। अपनी आत्मिक-दशा के बारे में क्या लिखूँ। मुझे अब यह नहीं मालूम कि मेरी दशा उन्नति पर है। हाँ, मेरा बस यह दृढ़ विश्वास तो हमेशा से था और है कि आप के शुभाशीर्वादानुसार मेरी उन्नति रोज-ब-रोज बढ़ती ही जावेगी। याद का यह हाल हो गया है कि पहले जैसे यह मालूम पड़ता था कि ‘मालिक’ खुद अपनी याद में मस्त है, अब यह भी नहीं रह गया है। अब तो केवल मन बहलाने को कभी कुछ ख्याल कर लेती हूँ और अब जब पूजा खत्म करके उठती हूँ तो ऐसा लगता है कि बड़ी गहरी नींद से जगी हूँ। यद्यपि ख्यालात पूजा में आते ही रहते हैं। यह हालत तो कुछ ऐसी ही हो गई कि मैं जब चाहूँ तब ऐसी हालत हो जाती है। यहाँ तक कि यदि कोई मुझ से बात करे या गाना गावे तो यदि मैं चाहूँ तो सुन लू और यदि न चाहूँ तो पास बैठे हुए भी नहीं सुन सकती हूँ। यही दिन भर की याद का हाल है। न जाने क्यों यदि एक तरह से ख्याल करूँ तो ऐसा लगता है कि मैंने दिन भर याद नहीं की, परन्तु कभी-कभी एक तरह से शायद मैं यह कह सकूँ कि मुझे याद थी, परन्तु मैं यह भी कहने की हकदार नहीं रही। अब तो भाई, जब जैसी ‘उसकी’ मर्ज़ी होती है, सो हो जाता है। कौन करता है, और कैसे होता है, यह ‘वह’ जाने। सच तो यह है श्री बाबूजी ! कि यह ‘मैं’ शब्द निकलता किसके लिये है, मुझे यह भी नहीं मालूम। अब तो यदि ज़बरदस्ती अपना ध्यान रख कर मैं कहूँ तो भी कहते समय उस ‘मैं’ शब्द का ध्यान नहीं रहता कि ‘मैं’ है कौन? आजकल तो बड़ी लापरवाही की हालत है। यद्यपि किसी काम-वाम में तो बिल्कुल लापरवाही और आलस नहीं है, परन्तु फिर भी न जाने कैसी हालत है। एक शिकायत बढ़ती ही जाती है कि मुझे ‘मालिक’ की याद नहीं आती। मैं यह देखती हूँ कि मेरा जोश व तेजी Working में या वैसे, जैसे पहले यह जोश रहता था कि बस ‘मालिक’ तक पहुँचना है। केवल ‘मालिक’ चाहिये। अब वह सारा जोश और तेजी खत्म है। अब तो एक लाचार लाश की तरह जैसी ‘मालिक’ की मर्ज़ी हो।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-94
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
30/3/1950
कृपा-पत्र ‘आप’ का आया। समाचार मालूम हुए। ‘आप’ ने जो यह लिखा है कि ‘उसकी’ अपार दया से असलियत का एक छींटा लगा है। तो भाई, मेरा भी यही दॄढ़ विश्वास है कि जिस मालिक ने इतनी कृपा की है, वही अब इस छींटे को भी Develop करता चलेगा, क्योंकि वह खूब अच्छी तरह जानता है कि मेरी वास्तविक कलई क्या है। कृपा करके क्षमा करियेगा। आप ने यह खूब लिखा कि – ‘मैंने अपना पीछा छुड़ा लिया है’। हाँ ‘आप’ जो कहिये, परन्तु मेरा तो केवल यही कहना है कि-

बाँह छुड़ाये जात हो, निबल जानि के मोहि। हृदय ते तब जाहुगे, मर्द बदौं तब तोय।।
परन्तु नहीं, मुझे कहना कुछ नहीं है। मुझे तो जो भी करना है, सो करना है। अपने ‘मालिक’ का धन्यवाद कहाँ तक दूँ। उसकी तो मुझ पर सदैव अहेतु की ही कृपा रही है और बराबर रहेगी। ‘आप’ ने जो यह लिखा है कि ‘हिम्मत ऐसी ही रखना’, सो मैंने तो हिम्मत भी उसी ‘महाहिम्मतवर’ को सौंप दी है, या खुद उसी ने छीन ली है, जिसने मुझ सी महा अधम को भी कृपा करके अपनी ओर खींचने का साहस किया है। आजकल मेरी आत्मिक-दशा तो निराली ही चल रही है। मैं शायद यह तो लिख चुकी हूँ कि मेरी तेजी Working करते समय व वैसे भी खत्म ही है। यहाँ तक कि मैं बार-बार कोशिश करके वह जोश व तेजी लाना चाहती हूँ, तो भी नहीं आती, केवल ख्याल से ही सब होता है। एक सार हालत ही बराबर रहती है। बस, ऐसी हालत है, जो न बुरी कही जा सकती है। हाँ, अच्छी यों कही जा सकती है कि ‘मालिक’ की कृपा ही है। न उतार चढ़ाव मालूम पड़ता है, न जोश, न दीनता। यदि यह कहूँ कि यह हालत कोई हालत नहीं है, तो भी उचित न होगा, न जाने क्या हालत है। पूज्य श्री बाबूजी ! सच तो यह है कि ऐसी हालत है कि कभी कभी तो मैं बहुत डर तक जाती हूँ कि अब यह मेरी दशा है कि केवल ख्याल। मुझे तो अब अपनी कोई हालत ही नहीं लगती। हाँ, यह कहा जा सकता है कि जिसने कभी कोई पूजा न की हो, बिल्कुल सादा हो, बस शायद अब वैसी ही मैं हूँ और अब कुछ यह हो गया है कि सब दुनिया के लोग मेरे लिये ऐसे हो गये हैं, जैसे एक फ़कीर या एक छोटे बालक के लिये, जो बस अपने में मस्त हो। दुनिया के लोगों का शायद उसे एहसास ही नहीं होता या यह समझ लीजिये कि सब तरफ से एक बेपरवाह हालत है। इधर कुछ दिनों से अपने आप ही यह निकलता है कि ‘मालिक’ पूर्ण रुप से मुझमें लय है और कुछ यह हो गया है कि बेशर्म होने लगी हूँ। जब कभी डॉट-वाट पड़े तो यदि चाहूँ तो उसका असर लू और न चाहूँ तो वैसे ही बैठी रहूँ। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-95
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
18/4/1950
मेरा एक पत्र मिला होगा। यहाँ सब कुशल-पूर्वक हैं, आशा है आप भी सकुशल होंगे। अब जो अपनी आत्मिक-दशा ईश्वर की कृपा से समझ में आई है, सो लिख रही हूँ। मैंने शायद अगले पत्र में लिखा था कि अब नाते रिश्तेदारी की डोरी बिल्कुल कटी हुई मालूम पड़ती है, परन्तु मैं देखती हूँ कि केवल नाते रिश्तेदारी की ही नहीं, बल्कि दुनियाँ के सारे लोगों की तरफ से सम्बन्ध की डोरी बिल्कुल कटी हुई लगती है। अब तो मैं अपने को दुनिया से बिल्कुल Seperate पाती हूँ ऐसी कि किसी वस्तु या और लोगों से लेश- मात्र भी लगाव प्रतीत नहीं होता है, और किसी हद तक मैं अब यह भी कह सकती हूँ कि मेरे लिये सोने और मिट्टी का मूल्य समान प्रतीत होता है। भाई, सच तो यह है कि अब मनुष्य और जानवरों में भी एक प्रकार से समानता ही लगती है। मैं यह देखती हूँ कि मुझ में छुआ-छूत का विचार बिल्कुल रह ही नहीं गया है। मैं अपने को दुनियां से Separate भी कह सकती हूँ और बिल्कुल एक भी कह सकती हूँ क्योंकि न किसी के प्रति जरा सी भी नफ़रत है, न लगाव। हाँ, बल्कि ऊपर के व्यवहार में सब के प्रति प्रेम का भाव और बढ़ गया है। यद्यपि नियम एक शुद्ध या अशुद्धताई के जैसे अब तक होते आये हैं, वैसे ही जबरदस्ती स्वयं ही होते रहते हैं। भला बताइये श्री बाबूज़ी, मुझे हो क्या गया है? मैं तो अब अपने वश की ही नहीं रह गई हूँ। कुछ यह भी देखती हूँ कि सब भाव, जैसे भाई-बहन, माता-पिता के सब ऊपरी रह गये हैं। अब तो ऐसा लगता है कि बिल्कुल ‘मालिक’ की ही इच्छा पर रह रही हूँ। हर समय, हर काम के लिये, जो ‘मालिक’ की मर्ज़ी, जो उसकी इच्छा, बस यही होता रहता है। सब काम कौन करता है? कैसे होते हैं? इसका तो सवाल ही नहीं उठता। अब जो ‘वह’ चाहे, सो ही ठीक है। मुझे तो आप या उसकी इच्छा या ‘उसका’ नौकर समझ लीजिये। और श्री बाबूजी, क्षमा करियेगा, लिखते हुए डर लगता है कि ‘मालिक’ और ‘आप’ के बीच की पृथकता भी लोप हुई समझिये। अब वह हालत जो ईश्वरीय धारा अपने में भीतर हर समय बहती मालूम पड़ती थी, अब तो केवल वही हालत हर समय भीतर-बाहर रहती है। या यों कहिये कि अब उसी हालत में लय हो गई हूँ। उस हालत की अगर आप कैफ़ियत पूछें तो मैं उसे कहने या लिखने में अपने को असमर्थ पाऊँगी।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-96
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
26/4/1950
कृपा-पत्र ‘आप’ का, जो पूज्य मास्टर साहब जी के लिये आया था, उसमें ‘आप’ ने जो मेरे लिये लिखा था, कि हालत में वहम् मालूम होता है, तो पहले तो मैं बहुत घबड़ा गई कि यह कोई रुकावट तो नहीं है, परन्तु फिर पूज्य मास्टर साहब जी ने बतला दिया, तब कुछ चैन पड़ा। मेरे श्री बाबूजी ! मुझे तो बस यह विश्वास है कि ‘आप’ की कृपा से कोई रुकावट आ ही नहीं सकती। ‘आप’ से प्रार्थना है कि, ‘आप’ कृपा करके इस गरीबनी को देखते रहा करिये, क्योंकि आजकल, मुझे अपनी हालत न जाने क्यों कुछ रुकी हुई मालूम पड़ती है, इसलिये परेशानी अधिक है। और अपनी हालत आजकल बुरी भी बहुत लगती है। कभी लगता है कि, श्री बाबूजी मुझसे बहुत दूर हो गये, कभी यह सोचती हूँ कि कहीं ‘आप’ मुझसे किसी बात पर नाराज तो नहीं हो गये। कोशिश ‘मालिक’ की कृपा से जितनी कर सकती हूँ, सो थोड़ी बहुत ज़ारी है। बस, श्री बाबूजी! यह समझ लिजिये कि मैं ‘उससे’ एक क्षण भी अलग की कल्पना मात्र से घबड़ा जाती हूँ। फिर जब यह हालत होती है कि ‘उससे’ दूर हूँ, तो दिन-भर तबियत भीतर ही भीतर रोती रहती है और याद और कोशिश भी मन भर के नहीं कर पाती हूँ, जितनी कि चाहती हूँ। क्योंकि ६-७ दिन से कुछ थोड़ी सी तबियत भी खराब है। खैर, वह तो शायद कल-परसों तक ठीक हो जावे। पूज्य मास्टर साहब जी से कल Sitting ली थी, तो उन्होंने बताया है कि न जाने कहाँ से काले धुएँ की तरह तमाम मैल आ गया है। पहले जैसे मुझे हर बात में, हर काम में बस ‘मालिक’ की मर्ज़ी ही मालूम पड़ती थी, अब फिर कुछ नहीं मालूम पड़ता। परन्तु भाई, अब तो न जाने क्या हो गया है, कहीं कोई गलती तो नहीं हो गई। परन्तु ‘वह’ तो हमेशा से इस अपने दर की भिखारिन को अब तक क्षमा करके कृपा ही करता आया है और अब भी यही आशा है। हाल यह है कि एकदम यह तो बिल्कुल ही भूल जाती हूँ कि मेरी कुछ तबियत खराब भी है। बाकायदा पहले की तरह सब काम-वाम करने लगती हूँ। खैर, इसकी तो कोई बात नहीं। मुझे तो हर हालत में अपने ‘मालिक’ से काम है, यद्यपि मुझ में प्रेम-वेम कुछ नहीं है। आजकल मेरी तबियत बस परेशान है, क्योंकि अपनी हालत रुकी हुई मालूम पड़ती है और तबियत बिल्कुल चुस्त और उचाट ही रहती है। पूज्य श्री बाबूज़ी, मैं रुकूँगी नहीं, चाहे जो हो जावे। मैं तो बस चलने को आई हूँ, और इस मार्ग में चलती ही चलूँगी। Working में भी जरा सा देख लीजियेगा, क्योंकि ज़रा होश अपने में बहुत कम पाती हूँ। कृपया ‘आप’ पूज्य मास्टर साहब जी को ही लिख दीजियेगा कि मुझे क्या हो गया है। बस, यह जरुर लिख दीजियेगा कि मैं रुकी तो नहीं हूँ। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-97
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
29/4/1950
मेरा एक पत्र आप को मिला होगा। यहाँ सब कुशल पूर्वक है, वहाँ भी सब सकुशल होंगे। इधर करीब आठ-दस दिन से हालत बहुत खराब लगती है। तबियत हर समय बिल्कुल उचाट ही रहती है। किसी समय भी खुश नहीं होती। न किसी काम में जी लगता है, न पूजा व Working वगैरह ही में लगता है। परन्तु Working होता वैसा और उतना ही है, जैसे हमेशा से होता है। आजकल की हालत से तो जब पूजा नहीं करती थी, तभी अच्छी थी। न किसी से बात करने को जी चाहता है, न किसी को पूजा तक कराने की तबियत होती है, बस एकान्त में पूजा-ऊजा छोड़कर चुपचाप बिल्कुल बेख्याल लाचार पड़े रहने की ही तबियत रहती है। दिमाग से कुछ भी सोचने तक की ही तबियत नहीं चलती है। बस अभ्यास के बिना चैन नहीं पड़ता और करूँ कैसे? यह समझ में नहीं आता। भाई, समझ में तो तब कुछ आवे, जब कुछ सोचूँ। ऐसी ही नीरस हालत रही तो क्या करूँगी? क्योंकि ‘मालिक’ तक तो मुझे पहुँचाना ही है। क्या करूँ श्री बाबूजी! कैसे करूँ? मुझे तो एक मात्र ‘मालिक’ ही चाहिये। मुझे आप जोश पहले की ही तरह कर दीजिये, यद्यपि मैं उसकी याद के बगैर एक क्षण भी रह नहीं सकती, परन्तु जोश मुझे अच्छा लगता है। केसर आप को प्रणाम कहती है और कहती है कि मेरे दिल में कुछ खुलाव लगता - जल्दी आगे बढ़ने की परेशानी बहुत है। अम्मा आप को आशीर्वाद कहती | इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-99
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
4/5/1950
कृपा-पत्र ‘आप’ का मिला। पढ़ कर सारी बेचैनी तथा ‘आप’ के नाराज़ होने का बेकारी ख्याल बिल्कुल दूर हो गया। ‘मालिक’ की मुझ सी गंवार लड़की पर इतनी कृपा है, इसका बहुत-बहुत धन्यवाद है। बस ‘आप’ का कृपा पूर्ण हाथ सदैव मेरे सिर पर इसी प्रकार रहे, बल्कि जितना और हो सकता है, उतनी कृपा रहे, जिससे मैं बराबर सीधी अपने ‘मालिक’ की ही ओर को चलती चलूँ। क्षमा करियेगा, पहले तो मैं जितनी कोशिश कर सकती थी, सो करती रही, परन्तु जब किसी प्रकार रफ्तार तेज़ न हुई, तब मैं बहुत घबड़ा गई और तभी मैंने एकाध बार यह सोचा कि कहीं आप नाराज़ तो नहीं है, परन्तु ‘आप’ सच मानिये, चाहें ‘आप’ पूज्य मास्टर साहब जी से पूछ लीजिये कि यह ख़याल कभी मैं रोक न पाई और कहा मैंने हमेशा यही कि ऐसा कदापि हो नहीं सकता और न जाने क्यों जब भी कभी मुझे यह ख्याल आया, तभी तुरन्त किसी ने यह कह कर रोक दिया कि ‘नहीं’ यह ख्याल कभी मत आने दो। इससे नुकसान हो सकता है और एक अब कुछ यह जो हो गया है कि सही-गलत, अच्छा-बुरा, हो वही रहा है, जो और जैसा ‘मालिक’ चाहता है। इसलिये भी इसके खिलाफ ख्याल नहीं आ पाता है और कुछ यह भी ‘मालिक’ की कृपा हो गई है कि हालत के बारे में भी अधिकतर मन में आ जाता है। जैसी अभी, जब यह समझ में आया कि हालत रुकी हुई है, तो तुरंत्त यह भी आता था कि नहीं, यह एक Stage से दूसरी पर जाने में बीच का ठहराव है। परन्तु मैं तो कुछ ऐसी बेचैन सी थी कि मुझे जब तक ‘आप’ का कृपा-पत्र न आ गया, चैन ही न पड़ा। आप की कृपा के धन्यवाद देने को तो मैंने स्वयं अपने को ही न रखने की ही कोशिश की है और करूँगी, क्योंकि मेरी समझ का दायरा तो एक ही का होकर समाप्त हो गया है। क्योंकि जब से ‘आप’ ने दूसरे पत्र में मुझे लिखा था, कि - एक ही साधे, सब सधै, तब से दूसरे को अब तक अपनी ओर देखने का समय ही नहीं दिया। यह सब केवल और केवल मेरे ‘मालिक’ आप ही की कृपा है। Working ठीक चल रहा है। ‘मालिक’ की ही कृपा है और, 'उसी की करामात है। परम् पूज्य समर्थ श्री लालाजी साहब तथा परम् पूज्य श्री स्वामी जी का आशीर्वाद सदैव इस भिखारिन के सिर-माथे है।

आजकल हालत फिर कुछ बदली हुई है, परन्तु अभी कुछ ठीक समझ में नहीं है। अजीब बेपरवाह तबियत रहती है। हाँ, एक बात ज़रूर है कि अब मैं अपने को मालिक से बिल्कुल चिपटा हुआ अनुभव करती हूँ और अब यह लगता है कि मेरा मन बहुत ही छोटा सा हो गया है। तबियत हर समय बेख्याल सी रहती है। यह ज़रूर है कि उसे जबरदस्ती ईश्वर के ख्याल में या याद में लगाया जाता है। यद्यपि इस ज़बरदस्ती का नतीज़ा सिर्फ भारीपन के और अपने कुछ मन को बहलाने के शायद ही कुछ और होता हो। अब तो यह हाल है कि जितनी ‘उसकी’ याद की कोशिश करती हूँ, उतना ही दिल पर भारीपन या एक बोझ सा प्रतीत होता है। कभी-कभी तो दिन भर में परेशान होकर ‘मालिक’ की याद को भूलना पड़ता है, तब जाकर वह बोझ उतरता है। परन्तु मैं यह भी नहीं कह सकती हूँ कि मुझे याद भूलती है। पूज्य श्री बाबू जी ! आप मुझे कोई नुस्खा ‘उसकी’ हर समय की याद का न बतायेगें? बता दीजिये श्री बाबू जी! तब तो आप जैसा चाहते हैं, वैसा बनने में समर्थ हो सकूँगी। पूज्य मास्टर साहब जी ने परसों मुझे Sitting में देखा था, तो उन्होंने यह हाल बताया है कि वह काले धुएँ की तरह चीज़ पहले मेरे चारों ओर थी, परन्तु अब एक हो गई है। न जाने क्यों, मेरी समझ में तो कुछ मतलब वगैरह आता नहीं। यह भी कोई ‘मालिक’ की कृपा होगी। पहले जो हालत मैंने लिखी थी, वे अब बहुत हल्की मालूम होती है। मुझे महसूस भी कम होती है, क्योंकि मेरी हालत तो बड़ी बेपरवाह है।

जीवनी लिखने के लिये आप पहले भी कह चुके हैं। परन्तु मैं क्या करूँ? न तो मेरी तबियत कुछ लिखने पढ़ने को होती है, न मुझे कुछ मालूम ही है। अब हर चीज़ में अपने ‘मालिक’ को ही देखने की तबियत होती है, और होती क्या है, ‘मालिक’ की कृपा से स्वयं ही यह होने लगा है। सब दुनिया कुल एक ही दिखती है। सारी मिट्टी मिलकर एक हो गई है। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-100
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
12/5/1950
मेरा एक पत्र पहुँचा होगा। अब अपनी आध्यात्मिक-दशा के बारे में क्या लिखूँ। बीमारी में कुछ समझ में नहीं आई और वैसे भी जैसी थी, वैसी ही मालूम पड़ती है। चाल भी अभी मध्यम ही लगती है। अब हर समय अपने को एक मुदें की भाँति पाती हूँ। तबियत हर समय न जाने कहाँ उड़ी रहती है, इसलिए तबियत को सावधान रखने की कोशिश करनी पड़ती है। एक तरह से तबियत अब Innocent रहती है। श्री बाबू जी, क्षमा करियेगा, जिज्जी के बारे में जो आपने पूछा कि उन्हें Higher Region में पहुँचा दूँ, यह ‘आप’ की उनके ऊपर तथा हम सब पर बड़ी मेहरबानी है, जिसका कि धन्यवाद हमारी वाणी नहीं दे सकती। उनके विषय में तो हम सब का यही कहना है कि जो ‘आप’ की मर्ज़ी हो, सो करिये।

अम्मा आप को आशीर्वाद कहती हैं, तथा केसर, बिट्टो प्रणाम कहती हैं। इतिः-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-101
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
6/6/1950
कल दोपहर को ताऊजी, अम्मा वगैरह सब आ गये। ‘आप’ की तबियत बहुत खराब हो गई थी, यह सुनकर तबियत परेशान हो गई। आप ने पहले लिखा था कि – “कुछ तुम भोगोगी, कुछ मैं”, परन्तु देखती यह हूँ कि मैंने तो कुछ भोगा नहीं, सब खुद ही भोग रहे हैं। परन्तु ‘आप’ की मर्ज़ी के खिलाफ़ ज़बान खोलने की इच्छा भी नहीं होती। एक पत्र भेज चुकी हूँ। कृपया अपनी तबियत का हाल जल्दी-जल्दी लिखवाइयेगा।

अब तो भाई, आत्मिक-दशा का यह हाल है कि चौबीसों घंटे, सोती-जागती सी हालत रहती है। अब हल्कापन और कुछ अजीब शान्ति की लहर तो हर समय की हालत हो गई है। और कोई खास हाल तो मालूम नहीं पड़ता है।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-102
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
मेरठ
16/6/1950
आशा है, आप अब बिल्कुल अच्छे हो गये होंगे। आप के कृपा-पत्र आये हुए बहुत दिन हो गये हैं। कुछ आत्मिक-दशा लिख रही हूँ। अब इन बहुत दिनों से तो न जाने कितनी बुरी हालत है, जैसे सब अनपूजा करने वाले लोग हैं, वैसे ही मैं भी हूँ। मुझमें न तो जो पहले दया-माया थी, वह भी नहीं मालूम पड़ती। पहले जैसे किसी गरीब अपाहिज को देखती थी तो बड़ी दया लगती थी, परन्तु अब तो जैसे कुछ जुंआ ही नहीं रेंगता। अब ‘आप’ कृपा करके बतलाइये कि मेरी क्या हालत है, अच्छी है या बुरी। दया ही क्या हर चीज़ से बिल्कुल खाली रहती हूँ। सच तो यह है कि अब की हालत न जाने क्या है। एक तो मुझे न जाने क्या हो गया है कि ‘मालिक’ की शकल इतनी कोशिश करती हूँ तो भी अब किसी तरह याद ही नहीं रहती। लखीमपुर में तो फोटो देखकर दो-चार मिनट कुछ शकल याद रह जाती थी, परन्तु अब तो पूजा या Sitting की तरह शकल याद रखने की भी लाचारी हो गई है। अब तो हालत में कोई खास अन्तर ही नहीं मालूम पड़ता। पहले जैसे सब हालतें बिल्कुल खुलती चली आती थीं, परन्तु अब तो जाने क्या हो गया है। अब तो भाई यह हाल हो गया है कि चाहे दिन में कितना सोऊँ या रात में सोऊँ या जागूं, परन्तु अब देखती हूँ कि Working या ‘मालिक’ की याद में कोई कमी या अन्तर नहीं मालूम पड़ता, क्योंकि रात-दिन मेरे लिये तो बराबर है। बस, कृपा आपकी सदैव अपार बनी रहे, यही सदा प्रार्थना है। हाँ, हालत में कभी-कभी इतना फ़र्क तो ज़रूर आता है कि हालत पहले की तरह दो-चार मिनट को ही खुल सी जाती है। इसलिये कभी-कभी तबियत खुश हो जाती है, परन्तु केवल उन्नीस-बीस का फ़र्क हो पाता है। कभी-कभी मुझे यह सोच अवश्य हो जाती है कि यह सब पूजा या Working कर रही हूँ या यह सब मज़ाक हो रहा है। पूजा या Working करने की, बस ऐसा लगता है कि दिमाग को एक लत सी रह गई है और वह भी ऐसी लत जिसका कभी-कभी कुछ थोड़ा सा एहसास मात्र हो पाता है।

छोटे भाई-बहनों को प्यार।

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-104
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
29/6/1950
कृपा-पत्र ‘आप’ का, जो ‘आप’ ने नारायण दद्दा के हाथ भेजा था, सो आज मिला, पढ़कर प्रसन्नता हुई। यह भी मालूम हुआ कि अभी ‘आप’ की तबियत बिल्कुल अच्छी नहीं हुई है। कृपया अब ‘आप’ जल्दी अच्छे हो जाइये। प्रार्थना के अतिरिक्त मुझे कुछ और यदि ‘आप’ के अच्छे होने के लिये बताया जाये, तो दिन-रात इसे अपना ही समझ कर कुछ और उपाय भी बतलाइये। यदि आप आज्ञा दें तो कुछ दिन आप की Will Power का प्रयोग भी करूँ, यद्यपि दो दिन कुछ थोड़ा सा प्रयोग ‘आप’ के लिये, बिना ‘आप’ की आज्ञा लिये, किया था, इसलिये क्षमा माँगती हूँ। मेरी तबियत से ‘आप’ निश्चिन्त रहिये। अब ठीक है। कुछ ऐसा हो गया है कि बीमारी वगै़रह सब में ‘मालिक’ की मर्ज़ी में ही मस्ती रहती है।

मेरी आत्मिक-दशा तो अब एक विरक्त सी हो गई है। अब देखती हूँ कि तबियत किसी तरह अधिक नहीं झुकने पाती है। मेरठ में, शादी की खुशी में, मैं यह नहीं जानती कि मैं वहाँ की चहल-पहल में जरा भी लिप्त हो सकी थी या नहीं, क्योंकि कोशिश तो ‘मालिक’ की कृपा से सदैव यही रही है कि निगाह ‘उसके’ अलावा कहीं जरा सी भी मुड़ न सके। अब तो भाई, यह हाल है कि कोई बात, कोई गुण, अवगुण या गलती तक अपनी नहीं मालूम पड़ती है। न जाने क्या हाल है कि जब हम सब मेरठ से चले तो सब लोग रोने लगे। मेरे भी कुछ आँसू बहे। परन्तु मेरी अब यह समझ में नहीं आता और न तब ही आ पाया कि क्या हुआ। यदि कहूँ कि सब से अलग होने का दुख हुआ, सो मैं यह भी नहीं कह सकती हूँ क्योंकि मुझे तो अब जैसे दुनिया के सब लोग हैं, वैसे ही अपने घर वाले लोग लगते हैं। सच पूछिये तो किसी से लेश-मात्र भी लगाव प्रतीत नहीं होता। बस, उस समय ऐसा हाल लगता था जैसे एक छोटा बालक सब को रोता देख कर बिना कारण रोने लगे। पहले जैसे मुझे जब मैं किसी पर गुस्सा हो जाती थी, तो बाद में बड़ा अफ़सोस होता था, परन्तु किसी बात का अफ़सोस तो एक तरफ़ रहा, उस तरफ ध्यान तक नहीं जाता कि कुछ हुआ भी है। अब जब मैं कहीं चली जाती हूँ या कोई मेरे सामने से चला जावे तो मुझे कभी उसका ख्याल तक नहीं आता। अब तो ‘मुहँ देखे की प्रीति सब से रह गई है’। जब से यहाँ आई हूँ तो हर एक की शक्ल याद करनी पड़ती थी। मेरे पूज्य श्री बाबूजी! मैं ‘मालिक’ का धन्यवाद किस मुँह से और कहाँ तक अदा करूँ। फिर अब हालत कुछ ऐसी हो गई है कि कौन अदा करे और किसे अदा की जावे । जैसी उसकी मर्ज़ी हो, सो करे। मैं यह कहती जो ज़रूर हूँ कि मुझमें अब कोई बात नहीं रही, परन्तु समय पर होता ज़रूरत के अनुसार सब कुछ है। परन्तु फिर किसी बात का कुछ असर नहीं रहता है। श्री बाबूजी ! यह हाल न जाने क्या है कि यदि मैं कहीं जाती हूँ तो रास्ते में कोई भी यदि दाढ़ी वाला मनुष्य दिख जाता है, तो तबियत एकदम कुछ क्षण को परेशान या बेचैन सी हो जाती है। पूजा की जो ‘आप’ ने लिखी, सो सच तो यह है कि पूजा से अब जी चुरा रहता है, क्योंकि तबियत खुश होने के बजाय परेशान हो जाती है। कुछ थोड़ी सी देर ही बैठने पर जब आँख खोलती हूँ तो बड़े जोर का झटका सा लगता है और जैसे पहले, सो कर उठने पर लगता था कि किसी दूसरे देश से आई हूँ, सोई तब लगता है। इस लिये अब पूजा से जी घबराता है। मुझे पूजा वगैरह कुछ नहीं चाहिये। मुझे तो चाहिये केवल और केवल एकमात्र ‘मालिक’। कोई हालत हो या न हो, मुझे तो किसी से कुछ काम नहीं और पूजा ही क्या बाबूजी ! बैठकर अब Working तक करने से जी घबराता है। न जाने भाई, मेरा क्या हाल है कि धीरे धीरे ‘मालिक’ को भी भूलती ही जा रही हूँ। शकल वगैरह तो हरगिज़ याद ही नहीं रहती, इसलिये कभी-कभी ‘आप’ के दर्शनों की इच्छा बढ़ जाती है। ईश्वर की तारीफ़ जो आप ने लिखी है कि ‘जो है, सो है’। सो ‘आप’ की ही कृपा से कुछ-कुछ अब यही बार-बार निकलता है, परन्तु ‘जो है, सो है’ की हालत मेरी समझ में नहीं आ पाती है। खैर, ‘मालिक’ की जैसी मर्ज़ी। ‘आप’ ने लिखा है कि हमें उसी हालत की तरफ़ जाना चाहिये, सो ‘आप’ की जैसी मर्ज़ी हो, वैसे ले चलिये। मुझे जो आज्ञा होगी, उसके लिये मैं तैयार हूँ। और ‘आप’ ने जो यह लिखा है कि – “तराजू के दोनों पलड़े बराबर रहने चाहिये। जब तौलने का वक्त आ जाये तो नीचे-ऊँचे थोड़ी देर के लिये हो जायें और फिर बराबर हो जायें”, वास्तव में बहुत अच्छा है। सच तो यह है कि ‘आप’ का पत्र कुछ अधिक समझ में नहीं आया। अब धीरे-धीरे पूजा छोड़ रही हूँ, मुझे नहीं चाहिये। बस, हाल एक विरक्त की तरह ही अब हर समय रहता है। अब मुझे ठीक याद नहीं कि कल शायद पूजा में या वैसे ही सरदार पटेल को अकस्मात पड़े हुए देखा। अब इसका क्या मतलब समझूं। उस समय मुझे किसी का ज़रा सा भी ख्याल तक नहीं था। अब आप जानें। पूजा करने से अब मेरा जी बहुत घबड़ाता है अब नहीं होती, परन्तु तबियत अब भी हर समय तड़पती रहती है।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-106
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
10/7/1950
कृपा-पत्र जो आपने पूज्य मास्टर साहब जी के हाथों भेजा सो मिल गया। आपकी तबियत ठीक है, पढ़कर सब को प्रसन्नता हुई। आप को दो दिन की will power exercises से बहुत लाभ हुआ। इसके लिये ‘मालिक’ का बहुत-बहुत धन्यवाद है। मैंने शायद working छोड़ने के लिये न लिखा हो, क्योंकि वह असम्भव है। अब तो ‘मालिक’ की कृपा से जैसी पूजा वह चाहता है, वह ही होती है। आपने जो यह रंज और खुशी के बारे में लिखा है, सो बिल्कुल ठीक है। ऐसा ही होना भी चाहिये। आप, कोई लिखने वाला न होने के कारण मेरे पत्र का उत्तर विस्तार पूर्वक नहीं दे पाते, तो न सही। मुझे तो केवल ‘मालिक’ से काम है, बस कृपा सदैव बनी रहे, यही विनती है।

पूज्य मास्टर साहब जी से मालूम हुआ कि परम् पूज्य महात्मा श्री पापा को बहुत तेज़ बुखार आ गया, सो कृपया उनसे प्रणाम कहियेगा और उनकी तबियत का हाल जल्दी लिखवाने की कृपा कीजियेगा। मेरी आत्मिक-दशा तो अब यह है कि पहले ‘मालिक’ की याद ही भूलती थी, परन्तु अब देखती हूँ कि खुद ‘मालिक’ को ही भूलती जा रही हूँ। कभी तो फोटो देखकर भी मैं यह भूल जाती हूँ कि यह किसकी फ़ोटो है और अब कुछ यह न जाने क्या हो गया है कि अब ‘मालिक’ की याद ऐसे आती है, जैसे एक अजनबी जिसे कभी न देखा है, न जिसके विषय में ही कुछ मालूम है। जैसा मैंने एक बार आप को लिखा था कि जब मैं कहीं से लौटती हूँ तो घर वाले ऐसे लगते हैं, जैसे मैं किसी को जानती ही न हूँ, उन्हें पहचानने की कोशिश करनी पड़ती है, परन्तु अब वही हाल ‘मालिक’ के प्रति है। पहले जैसे ‘मालिक’ के प्रति बिल्कुल अपनापन लगता था, अब वह भी नहीं है। अब तो उसके प्रति भी तबियत में कुछ लापरवाही सी या भाई, कुछ और मालूम पड़ता है। परन्तु चैन एक क्षण को भी नहीं है। खैर वह जाने उसका काम जाने।

आपने जो पत्र जिज्जी को लिखा है, वह तो अद्वितीय है। परन्तु समझ में उतना ही आ पाया है जितना अपने ऊपर आज़माइश हो चुकी है। इस मौजूदा पत्र के पहले, जिसका कि आप ने जवाब भेजा है, मैंने नोट में कुछ पूछा है। यदि मेरे योग्य हो तो कृपया लिखियेगा। छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-107
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
15/7/1950
आज हरिदद्दा से ‘आप’ की तथा परम् पूज्य पापा जी की तबियत का हाल मालूम हुआ। आप को फिर परसों कुछ दौरा हो गया, सुनकर यहाँ सब को बहुत फ़िक्र है। कृपया अपना तथा पापा जी का हाल शीघ्र दीजियेगा। मेरी तो भूलने की आदत इस कदर बढ़ी है कि मैं कुछ जानती ही नहीं हूँ। अब तो जब तक काम करती हूँ, तब तक काम, फिर तुरन्त सब कुछ भूल जाती हूँ। यहाँ तक कि मुझे यह एहसास तक नहीं होता कि क्या काम किया है। हालत यह है कि काम करती जाती हूँ। खाना खाती हूँ, उसके बाद कोई यदि मुझसे पूछे तो शायद मैंने क्या तरकारी खाई थी और उसका कैसा स्वाद था, यह सब मुझे भूल जाता है। भाई, जब ‘मालिक’ को ही भूल गई हूँ, तो और की क्या कहना। देखती हूँ कि तबियत हर समय एक सी सधी हुई ही अधिकतर रहती है। और अब तो भाई, और भी कमाल है। न जाने क्या है कि ‘मालिक’ में मुझे न कोई खास बात लगती है, न कुछ Attraction ही मालूम पड़ता है। परन्तु फिर भी वह मेरा ‘मालिक’ है और मैं तो जो हूँ, सो हूँ ही। सच तो यह है कि जैसे मैं हूँ और दुनिया के और हैं, वैसे ही मेरा ‘मालिक’ लगता है। मैं देखती हूँ कि यद्यपि ‘मालिक’ की भी मुझे कुछ याद नहीं रहती है कि कैसा है, कहाँ है। ‘मालिक’ के प्रति भी कुछ वैराग्य या कुछ हो गया है और पूजा भी छोड़ दी। परन्तु फिर भी मस्त सी हूँ, कोई अफ़सोस वगैरह कुछ नहीं है। यह भूलने वाली हालत हर समय रहती है, और अब ऐसी रहती है कि अधिकतर इसका एहसास तक नहीं हो पाता। क्योंकि मैं देखती हूँ कि जो काम करती हूँ, वे करते समय मैं अपने को भूला हुआ नहीं पाती हूँ, परन्तु काम से जरा सा हटते ही अपने को भूली अवस्था में पाती हूँ और देखने वाले अब मेरे शरीर में activity बहुत बतलाते हैं और इससे अब बाहर वाले मुझे बीमार मानने में धोखा खा जाते हैं। यह सब मेरे ‘मालिक’ का ही मेरे ऊपर असीम अनुग्रह है, 'उसका बहुत-बहुत धन्यवाद है। सब लोग मेरे शरीर में Activity बहुत बतलाते हैं, परन्तु मैं कुछ नहीं जानती कि कैसे सब और क्या होता रहता है। एक हालत बीच-बीच में न जाने कैसे बिल्कुल खाली सी आती है। यह मैं कई बार लिखना चाहती थी, परन्तु लिख नहीं पाई। पहले यह कभी-कभी आती थी और अब अक्सर दिन में आ जाती है।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-108
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
25/7/1950
मेरा पत्र पहुँचा होगा। कल हरी दद्दा का पत्र जो मास्टर साहब के लिये आया था, उससे आपकी तबियत ठीक पढ़कर सबको प्रसन्नता हुई। मेरी आत्मिक-दशा का यह हाल है कि अब तो हर समय अधिकतर ऐसी रूखी सी हालत रहती है कि मेरी यह समझ में ही नहीं आता कि यह भी कोई अच्छी हालत है। अब न तो बिल्कुल कुछ Self Surrender ही जम पाता है, न ही और कुछ। सच तो यह है कि पूजा-ऊजा तो दूर रही, अब मेरे किये Self Surrender भी नहीं होता। मेरी कोई कोशिश नहीं चल पाती। पहले हर चीज जो मेरे अन्दर खाने पीने की जाती थी, सब में मुझे ईश्वरीय धारा ही मालूम पड़ती थी। परन्तु अब मेरी तो कुछ अभ्यास की तबियत ही नहीं चाहती। यदि करती हूँ तो सब बिल्कुल खेल या नकल लगती है और जरा से में, दिल पर तुरन्त भारीपन आ जाता है। पहले जब यह हालत कभी-कभी आती थी, तो मुझे बहुत बुरी लगती थी। सच तो यह है कि यदि यह हालत ‘मालिक’ पहले मुझे देता तो शायद मैं यह कहती कि भाई, मेरी हालत तो बिल्कुल गिर गई है, परन्तु अब तो जो और जैसा ‘उसने’ दिया है, सो मुझे मंजूर है। फिर भी कभी-कभी तो मैं चकरा जाती हूँ, खैर ! श्री बाबूजी ! न जाने क्या बात है कि अब भी मेरे मन में हर समय एक कुरेदन सी होती रहती है। आप मुझे कृपया यह बता दीजिये कि मैं ठीक चल रही हूँ। मुझे अपनी चाल से सन्तोष नहीं होता। पहले ‘आप’ ने लिखा था कि – ‘चाल कहीं-कहीं मध्यम ज़रूर हो जाती है’ परन्तु मैं देखती हूँ उसके दो-चार दिन तो फिर ठीक रही, परन्तु अब यह मध्यमपना तो शायद जायेगा ही नहीं, बल्कि शायद कुछ और धीमी हो गई है। भला यह भी कोई हालत है? सच पूछिये तो अब हालत देखते हुए मुझमें क्या आध्यात्मिकता रही, बस कुछ नहीं। भाई ! सच्ची और ठीक बात ‘आप’ जाने। मेरी हालत देखते हुए तो यही लगता है, खैर ! अब कभी-कभी कुछ दिमाग में ठकठक सी होती है और कुछ अजीब भौचक्कापन सा हो जाता है। मैं कुछ ठीक नहीं जान पाती हूँ।

छोटे-भाई बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-109
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
2/8/1950
कृपा-पत्र आपका बहुत दिनों से नहीं आया। यहाँ सब कुशल पूर्वक हैं। आशा है आप भी सकुशल होंगे। मेरा तो अब यह हाल है कि कुछ भी पढ़ने या खुद लिखने पर तबियत में न जाने क्या हो जाता है कि फिर न तो कुछ समझ में आता है, और फिर यदि पत्र लिखकर पढ़ना चाहती हूँ तो फिर चाहे पूरा पत्र पढ़ डालूं, परन्तु ऐसा लगता है कि खुली आँखों से भी कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता, पढ़ लेने पर भी यह नहीं मालूम पड़ता कि क्या लिखा है और अब कुछ यह हो गया है कि कुछ भी Self Surrender का अभ्यास व प्रार्थना वगैरह करती हूँ तो ऐसा लगता है कि यह सब ऊपर ही ऊपर रह जाते हैं, सब ऊपर ही ऊपर तैरा करते हैं। और अब तो कुछ यह भी हो गया कि कुल दुनिया तथा अपने प्रति एक सा भाव हो गया है। यद्यपि यह क्या भाव है, मैं यह भी नहीं जानती। सच तो यह है कि भाव क्या होता है, मुझे यह भी नहीं मालूम। या यों कहिये कि कुल दुनियाँ सब एक धार हो गई है। क्या अच्छा है, क्या बुरा है, मुझे यह कुछ भासता तक नहीं। फिर भी श्री बाबूजी, यह सब होते हुए भी मेरी हालत महीनों से एक सी ही चल रही है। खैर, जैसी ‘मालिक’ की मर्ज़ी। अब हालत न जाने क्यों कठिनता से एहसास में आती है।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। अम्मा आप को आशीर्वाद कहती हैं। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-110
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
3/8/1950
कृपा-पत्र ‘आप’ का बहुत दिनों से कोई नहीं आया है, न कोई कुशलता के समाचार ही मिले। इसलिये सब को बहुत फिक्र है। आज कल मेरी भी थोड़ी तबियत खराब है। खैर, ‘मालिक’ की कृपा से ठीक हो जावेगी। अपनी आत्मिक-दशा के बारे में क्या लिखूँ। मेरे में अब ज़रा सी भी आध्यात्मिकता है, मैं यह भी कहने की अधिकारिणी नहीं रही। मुझे अपने में न कोई खास बात लगती है, न कुछ ‘मालिक’' में ही। भाई, कृपया ‘आप’ मुझे देखकर लिखिये कि क्या बात हो गई। भारीपन का यह हाल है कि अकस्मात् बैठे-बैठे एकदम अपने आप ही ऐसा लगता है कि भारीपन होता चला जा रहा है। फिर अपने आप ही कभी जल्दी और कभी कुछ देर में ठीक हो जाता है। कभी-कभी अधिक बार और कभी-कभी एकाध बार ही होता है और अब कुछ यह हो गया है कि एक बार सोच लिया कि यह Working हो रही है, तो कोई बात नहीं, परन्तु यदि उसी Working का बार-बार ध्यान करके करती हूँ, तो भी भारीपन हो जाता है। अपने आप जो हो, सो हो। जरा भी ज़ोर देने से भारीपन हो जाता है। हाँ, समझ ज़रूर कुछ तेज हो गई है। खैर, मुझे अपनी हालत से और तो कुछ मतलब नहीं, परन्तु ‘मालिक’ के प्रति अनजाने ही एक कुरेदन सी लगी रहती है। कृपया ‘आप’ अपनी तबियत का हाल जल्दी लिखने की कृपा कीजियेगा।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-111
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
10/8/1950
‘आप’ का कोई पत्र बहुत दिनों से नहीं आया है, इसलिये सब लोगों को बहुत फ़िक्र है। कुछ नहीं तो माया से ही अपनी कुशलता की दो लाइनें लिखवा कर जल्दी से जल्दी पत्र डलवाने की कृपा करियेगा। मेरी तबियत भी अब ठीक सी है।

अपनी आत्मिक-दशा के बारे में क्या लिखूँ। बस इतना देख रही हूँ कि अब मुझमें ‘मालिक’ से प्रार्थना भी नहीं होती। तबियत जमती ही नहीं। अक्सर तो जब-जब प्रार्थना करती हूँ तो ऐसा मालूम पड़ता है कि जो कुछ भी, जैसी भी, मेरी हालत हर समय की है। उससे अलग हो जाती है। खैर, फिर भी अब मन नहीं होता और श्री बाबूजी ! ‘आप’ ने पहले एक बार लिखा था कि चाल मध्यम पड़ गई है। परन्तु अब मैं देखती हूँ कि बजाय सुधरने के चाल अब बराबर धीमी पड़ती जाती है। सो कृपया ‘आप’ देखियेगा कि क्या बात है और ऐसी है कि अपने बस के बाहर है। खैर, ‘मालिक’ की शायद यही मर्ज़ी है। अब मैं देखती हूँ कि मुझमें Activity भी धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है। यद्यपि जिसे आलस कहते हैं, वह बात नहीं है। कुछ ऐसा है कि जैसे पहले कुछ ऐसा जोश रहता था कि - "अच्छा यह चीज़ है, यह तो मैं कर ही लूँगी"। जैसे यहाँ ‘आप’ ने कहा था कि - "यदि कोई ऐसा कर दे कि अपने शरीर का जर्रा-ज़र्रा मालिक में लय कर दे"। तो कुछ तुरन्त मेरे में जोश आ गया। मैंने कहा कि - "मैं ज़रूर करूँगी"। परन्तु अब तो मेरे में वह बात ही नहीं रही। कभी-कभी अब मैं सोचती हूँ कि - "मैंने श्री बाबूजी से कहा था, तो अब कुछ कोशिश करूँ” परन्तु यदि सच पूछा जाय तो दिन भर में शायद एक क्षण भी कुछ कर नहीं पाती हूँ। अजीब लापरवाह सा मन हो गया है, परन्तु लाचारी है, क्योंकि अब मेरी तो यह हालत है कि “न मैं यह कह सकती हूँ कि मुझ में कुछ है और न यह कह सकती हूँ कि मुझमें कुछ नहीं है”। अब तो जो है सो है। बस यही हालत है। यद्यपि Working के विषय में तो यह हो गया है कि पहले जब मुझे कुछ थोड़ा सा Working बताया गया तो मेरे मन में कुछ दुविधा सी होती थी, कि न जाने काम ठीक हो रहा है या नहीं। परन्तु अब देखती हूँ कि इस मामले में तो मैं खूब मज़बूत हो गई हूँ।

अपने विषय की समझ भी ‘मालिक’ ने कृपा कर के मुझे पहले से कुछ अधिक दे दी है। भाई, सच तो यह है कि प्रार्थना ही क्या, मुझसे तो अब कुछ नहीं होता। खैर, जो हो। देखती हूँ कि नींद की अवस्था और जागती हुई अवस्था में मुझे कोई अन्तर ही नहीं लगता। हाँ, इतना ज़रूर होता है कि नींद की अवस्था में शरीर को आराम मिल जाता है। बस, मेरे बाबूजी, शिकायत मेरी बस अब भी 'आप” से यही है कि ‘मालिक’ की जितनी याद, जितना प्रेम चाहिये, सो मुझमें नहीं होता। न जाने क्यों काफ़ी दिनों से बिना किसी खास तकलीफ़ के शरीर में कमज़ोरी हर समय मालूम होती है। कभी-कभी ऐसे ही कुछ थकान सी लगने लगती है। खैर, यह भी ‘मालिक’ की कोई मेहरबानी ही है। कृपया ‘आप’ इसे दूर करने की न सोचियेगा। अब मुझसे Self-Surrender बिल्कुल नहीं हो पाता है, जाने क्या बात है।

छोटे भाई-बहनों का प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-112
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
11/8/1950
कल ‘आप’ को एक पत्र लिख चुकी थी कि कल ‘आप’ का भी कृपा पत्र, जो ‘आप’ ने सब के लिये लिखा था, सो आ गया। पढ़कर, सब की, आप का पत्र न आने की चिन्ता मिट गई। कृपया ‘आप’ सच-सच बताइये कि अब की से करीब ३-४ महीने से ‘आप’ की तबियत क्यों नहीं सुधरने आती? क्या मेरे सारे भोग खुद ही भोगने की ठान ली है। पूज्य बाबूजी, मेरी ‘आप’ से यही प्रार्थना है, अब आप अच्छे हो जाइये और अपनी उन तकलीफ़ों को छोड़कर जो ‘आप’ के जीवन स्थाई रखने के लिये ज़रूरी है, बाकी सब मुझे दे दीजिये और जिस जिस की तकलीफ़ आप अपने में लेना चाहें, वे सब सहर्ष मैं लेने को तैयार हूँ। बस, आप अच्छे हो जाइये और इस दुनिया में रहने की इच्छा, जो अब ‘आप’ में कम हो गई है,उसे कृपया ‘आप’ फिर तेज़ कर दीजिये। अपने लिये न सही तो अपनी इस गरीब बिटिया के ही लिये। ‘आप’ ने लिखा कि –“मैं चाहता हूँ यह सैर तुम खुद पूरी करो”। सो मैं सहर्ष तैयार हूँ। मेरी यह इच्छा शुरु से रही है कि आप को मेरे लिये कम मेहनत करनी पड़े। परन्तु कहीं-कहीं लाचारी हो जाती है। खैर, वह ‘आप’ की जैसी मर्ज़ी और ‘आप’ ने लिखा कि – “कस्तूरी से कहना कि Working जो उसे सौंपा गया है, ठीक करती रहे”। सो ‘आप’ Working की तरफ से बिल्कुल निश्चिन्त रहिये। जो दिया गया है, उसे करने में अपनी तरफ़ से यदि ‘मालिक’ की ऐसी ही कृपा सदैव बनी रही तो कभी रत्ती भर भी कसर या कमी नहीं आने पावेगी। कृपया आप अब अपने स्वस्थ होने की खुशखबरी जल्द ही दीजिये। कभी-कभी ‘आप’ को तथा पापा जी को देखने की बहुत तबियत हो आती है। खैर, जब ‘मालिक’ की मर्ज़ी होगी, तब देखा जायेगा। लिखने में जो धृष्टता हो गई हो, उसे क्षमा करियेगा। छोटे भाई-बहनों को प्यार तथा पापा जी को प्रणाम कहियेगा। इतिः-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-113
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
14/8/1950
मेरा पत्र आया है, कल पहुँच गया होगा। आशा है ‘आप’ की तबियत अब ठीक होगी। मेरी आत्मिक-दशा का तो यह हाल हो गया है कि मुझे तो अब खालीपन तक का ख्याल मात्र भी बुरा लगता है। और जो चीज़ बुरी लगती है, जैसे अब प्रार्थना को तबियत नहीं चलती, खालीपन की याद भी बुरी लगती है, परन्तु यदि अब भी करती हूँ तो Shock सा लगता है। मैं देखती हूँ कि वह नींद वाली अवस्था ही अनजाने दिन भर रहती है और उसी में भूल वाली अवस्था भी मिली हुई है। क्योंकि मैं देखती हूँ कि कुछ काम करते समय मुझे कुछ यह नहीं मालूम पड़ता कि मैं नींद की अवस्था में या भूल की अवस्था में हूँ, वरन् जब भी अपने में निगाह जाती है तो हर समय उसी अवस्था में पाती हूँ। सच पूछिये तो मेरी समझ में तबियत लाट साहबियत की ओर जा रही है। कह दिया यह नहीं होता, वह नहीं होता। खैर, जैसी ‘मालिक’ की मर्ज़ी। अब तो जो है, सो है, उसकी क्या फ़िक्र।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-114
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
22/8/1950
मेरा पत्र ‘आप’ को मिला होगा। आशा है, ‘आप’ की तबियत अब ठीक होगी। मेरी आत्मिक-दशा तो बस अजीब है, क्योंकि अब मैं देखती हूँ कि Sitting का तो नाम ही मुझे भारी लगता है। अपनी तो एक किनारे रही, यहाँ तक कि जब दूसरों को भी पूजा कराऊँ तो उसमें भी पहले की तरह यदि यह सोच लूँ, यद्यपि ‘मालिक’ के लिये ही सोचूँ कि ‘उसके’ हृदय से निकल कर ईश्वरीय धारा सबके हृदय में जा रही है, तो भी मुझे भारी लगता है। इसलिये भाई, मेरे लिये तो पूजा का नाम तक भारी लगता है। खैर, ‘मालिक’ की जैसी मर्ज़ी। और अब न जाने कौन सी हालत है कि दिन भर ऐसा लगता है कि सब कुछ देखते हुए भी कुछ दिखलाई नहीं देता। सब कुछ सुनते हुए भी कुछ सुनाई नहीं देता और सब कुछ करते हुए भी कुछ करने का एहसास नहीं होता है और यहाँ तक कि सब सूरतें देखते हुए भी सूरतों का एहसास नहीं होता। खैर, यह भी ‘वही’ जाने।

मुझे अपने अन्दर इधर-उधर ३-४ दिनों से बिल्कुल खुलाव मालूम होता है। यद्यपि इस खुलाव में चमक वगैरह तो कहीं कुछ मालूम नहीं पड़ती, बस केवल खुलाव ही मालूम पड़ता है। हल्कापन तो इतना है कि इसकी वज़ह से अन्दर तमाम खोखला सा मालूम पड़ता है। यह खुलाव या खोखलापन तमाम फैलाव में मालूम पड़ता है और मैं शायद पहले पत्र में भी लिख चुकी हूँ कि ‘मालिक’ में मुझे न कोई खास बात लगती है न कुछ Attraction ही मालूम पड़ता है, परन्तु फिर भी वह मेरा ‘मालिक’ है। भाई सच तो यह है कि जैसी मैं हूँ और बाकी सब हैं, वैसे ही मेरा ‘मालिक’ हैं, या यह समझ लीजिये कि ‘उसके’ प्रति भी कुछ वैराग्य सा है। खैर, मुझे तो कुछ करना नहीं है। बस फिर भी प्रार्थना सदैव ‘आप’ से यही है कि ‘मालिक’ की ओर किसी तरह जल्दी-जल्दी बढ़ चलूँ।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। अम्मा ‘आप’ को आशीर्वाद कहती हैं। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साघन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-115
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
10/9/1950
कृपा-पत्र ‘आप’ का बहुत दिनों से नहीं आया, पता नहीं क्या कारण है। जन्माष्टमी पर भी कोई वहाँ नहीं पहुँच पाया। इस लिये तब भी कोई समाचार नहीं मिल सका। खैर, अब पूज्य मास्टर साहब जी द्वारा हाल मिल जायेगा। मेरी आत्मिक-दशा तो इधर कई दिनों से एकाध दिन को अच्छी हो जाती है और फिर खराब हो जाती है। जो भूल की या नींद की हालत मुझ में महीनों से जाने या अनजाने हर समय रहती थी, परन्तु इधर कई दिनों से मुझमें वह हालत भी नहीं मालूम पड़ती। हर काम मुझसे वैसी ही अवस्था में होते रहते थे, परन्तु कई दिन से वह बात भी मुझमें मालूम नहीं पड़ती। हालत सुधारने की बहुत कोशिश की, परन्तु ‘मालिक’ की असीम कृपा से आज हालत में, जो हालत महीनों से थी, उसमें कुछ ज़रा सा Change लगता है। उस नींद या भूल वाली अवस्था में भी अब कुछ अजीब थोड़ा सा Change लगता है। उसको मैं अभी कुछ ठीक समझ भी नहीं पाई हूँ। खैर, इस अच्छी न लगने वाली हालत में भी उस परम् कृपालु ‘मालिक’ की कोई कृपा ही छिपी होगी और अब कुछ यह भी हो गया है, कि जब हालत अच्छी नहीं मालूम पड़ती, तो यदि पहले की हालत कुछ सोचने या पढ़ने की कोशिश करती हूँ, तो तबियत उसे एक पल भी सहन नहीं करती, बड़ी परेशान हो जाती है। इसलिए अब तो भाई, इसी में खुशी है और सन्तोष है कि “जो है, सो है”। परन्तु फिर भी मेरे श्री बाबूजी ! ‘आप’ इस गरीब को देख ज़रूर लीजियेगा। working में भी यदि कहीं कोई कमी-पेशी हो तो, मास्टर साहब जी से बता दीजियेगा। वे मुझे बता देंगे। यद्यपि कमी-पेशी सब मेरा ‘मालिक’ किसी न किसी तरह महसूस करा कर ठीक करा ही लेता है। इसका ‘उसे’ बहुत-बहुत धन्यवाद है।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-116
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
16/9/1950
कल से पूज्य मास्टर साहब से, परम् पूज्य श्री पापा जी की तबियत का हाल सुनकर सबको फ़िक्र है। हमारे पूज्य पापा जी अच्छे हो जावें, यही हमारी ईश्वर से प्रार्थना है। यहाँ तो महीने भर से लय अवस्था २४ घंटे में एक मिनट को भी नहीं आती, न मालूम क्या बात हो गई है। इसलिये तबियत में कुछ परेशानी सी हो जाती है। सारी कोशिशें इस तरह बेकार होती चली जा रही है जैसे चिकने घड़े पर पानी की बूंदे। न जाने अपनापन बढ़ गया है, न जाने क्या हो गया है, कुछ समझ में नहीं आता। अब तो मुझे अपने में कोई खास अच्छी बात दिखाई ही नहीं पड़ती। न मुझमें अब वह भूली अवस्था जो दिन भर रहती थी, रह गई है। अब तो मुझमें कोई अवस्था ही नहीं रह गई। अब तो केवल मुझे गोबर-गणेश समझ लीजिये। इन्हीं कारणों से तबियत में कुछ फ़िक्र सी रहती है और मेरी समझ में अब यह तक नहीं आता कि लय अवस्था होती क्या चीज़ है। और अब कृपया यह लिखियेगा कि मैं क्या करूँ। पूज्य श्री बाबूजी, ‘आप’ से सच कहती हूँ कि केवल एक विश्वास को छोड़कर कि मेरी उन्नति हो रही है और मेरे पास कोई चिन्ह नहीं है, जिससे मैं यह आप से कह सकूँ या समझ सकूँ कि मेरी उन्नति हो रही है। आप जानें, आप का काम जाने। मैंने तो अपनी हालत लिख दी है। आप ही कहा करते थे कि बिटिया ! बड़ी अच्छी उन्नति कर रही है। अब लीजिये, अब चढ़ाइये गाड़ी ऊपर। सोचती रहती हूँ, शायद कल हालत सुधर जावे, परन्तु देखती हूँ वह कल, परसों कभी तशरीफ़ लाते ही नहीं। खैर, वह तशरीफ़ लायें या न लायें, हम तो उनकी तरफ तशरीफ़ लेते चले ही जावेगें। आगे ‘मालिक’ की मर्ज़ी। और यह ‘मालिक’ की मर्ज़ी भी कहने भर की रह गई है। सच पूछिये तो हालत भी अब कुछ मालूम नहीं पड़ती। पापा जी की तबियत का हाल लिखियेगा।

अम्मा आप को तथा पापा जी को आशीर्वाद कहती हैं। इतिः-

आपकी दीन-हीन, साधन-विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-117
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
20/9/1950
मेरा एक पत्र जो पूज्य मास्टर साहब जी के द्वारा भेजा था, सो मिला होगा। आप की किताब निर्विध्न छप जावे, हमारी यही प्रार्थना है। पूज्य ताऊजी से मालूम हुआ कि ‘आप’ को बहुत मेहनत करनी पड़ती है। इसलिये ‘आप’ को सिर में दर्द हो जाता है। ‘आप’ तीन-चार बार खूब तेल सिर में ठोकवाया करें तो शायद सिर की तकलीफ़ को आराम मिले। मेरी आत्मिक-दशा तो न जाने कैसी है। खैर, जो है, सो है। यद्यपि इधर करीब आठ-दस दिन से जो एक हालत महीनों से एक सी थी, सो अब बदली हुई लगती है। परन्तु मुझे तो केवल इतना अन्तर मालूम पड़ता है, कि पहले एक अवस्था थी जो हर समय एकसार से मुझमें मौजूद रहती थी, परन्तु अब मुझे अपने में कोई खास अवस्था मालूम नहीं पड़ती और अब तो इधर कुछ ऐसा लगता है कि पूजा-ऊजा कुछ चीज़ ही नहीं है। न मुझे यह मालूम है कि पूजा है क्या चीज़? अब न जाने क्या है, यह मुझे मालूम नहीं। अब तो अपने में जो धारा अन्दर बहती रहती है, सोई हर समय, हर जगह मालूम पड़ती है। अब तो भीतर और बाहर सब एक धार हो गया है। शायद इसीलिये अब अपने में कोई अवस्था नहीं मालूम पड़ती और अब तो जब कभी पहले की हालत पढ़ती हूँ तो ऐसा मालूम पड़ता है कि न मालूम किसकी हालत पढ़ रही हूँ खैर, भाई ! अब तो “जो है, सो है” ही मेरी हालत है और वही हालत सब तरफ़ है। आगे ‘आप’ जाने, और हर तरफ़ एक खुलाव सा हो गया है।

अम्मा ‘आप’ को तथा पापा जी को आशीर्वाद कहती हैं। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-118
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
27/9/1950
कल पूज्य मास्टर साहब जी से मालूम हुआ कि परम् पूज्य पापा जी की तबियत अब कुछ-कुछ ठीक हो चली है। ईश्वर का बहुत धन्यवाद है। ‘आप’ दशहरे में आइयेगा ज़रूर। मेरी हालत तो जो दशा पहले हर समय अन्दर की मालूम पड़ती थी, सो अब हर समय बाहर की हो गई है। अब तो कुल दुनिया में हर समय, हर जगह, चाहे जानदार हो या बेजान, यहाँ तक कि पेड़-पौधे तक में सब मेरे लिये तो कुल एक ही हालत दरसती है। खुद मैं तथा कुल दुनिया सब एक सार हो गये हैं। भाई सच तो यह है कि मेरी निगाह में तो समस्त जड़-चेतन एक बहाव में हो गये हैं। यद्यपि क्या हो गया है, यह मुझे नहीं मालूम। जो ‘उसकी’ मर्ज़ी और अब कुछ यह हो गया है, कि निगाह में सब तरफ़ तमाम फैलाव ही फैलाव दिखलाई पड़ता है। कृपा कर के क्षमा करियेगा श्री बाबूजी, यह लाट साहबियत भी हो गई है कि पूजा-ऊजा अपने से अब बहुत छोटी चीज़ मालूम पड़ने लगी है। खैर, जो है सो ‘मालिक’ जाने।

छोटे भाई, बहनों को प्यार। इतिः-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-119
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
3/10/1950
कृपा-पत्र आप का आज जो पूज्य मास्टर साहब के लिये आया था, उससे मालूम हुआ कि परम् पूज्य पापा जी का बुखार बढ़ना अभी तक बन्द नहीं हुआ है। न जाने क्या बात है। भाई बड़े लोगों की बातें वे ही जाने। मेरी आत्मिक-दशा आजकल कुछ खास अच्छी नहीं मालूम पड़ रही है। मुझे तो अपने में शायद, जैसा मैं ‘आप’ को लिख चुकी हूँ कोई अवस्था नहीं मालूम पड़ती। मेरी एक चिट्ठी शायद तारीख ३० को आप को मिली होगी, जिसमें मैंने लिखा था कि मेरी जो हालत भीतर पहले थी, अब मुझे सब तरफ सब में, पेड़-पौधों तक में, कुल दुनिया में, बस एक ही हालत दिखाई पड़ती है और निगाह में सब तरफ तमाम फैलाव ही फैलाव दिखाई पड़ता है अब कुछ यह भी हो गया है कि खुद अपने का यह पता नहीं लगता कि मैं स्त्री हूँ, पुरुष हूँ कौन हूँ। खैर, जो हूँ सो हूँगी। जाति-पाति तो बहुत ही जा चुकी थी, अब यह न जाने क्या हो गया। यद्यपि कुछ भूल की अवस्था भी मुझमें नहीं है। पूज्य श्री बाबूजी, अब मुझे सच-सच ज़रूर लिखियेगा कि Self Surrender के बजाय मुझ में कहीं ‘मैं पना’ तो नहीं बढ़ रहा है क्योंकि मुझे इस चीज़ से बड़ा दुख होता है। वैसे ‘मालिक’ की जैसी मर्ज़ी। अपनी सफ़ाई करती हूँ फिर भी कोई लाभ नहीं होता। अब आज एक कोई हालत मुझमें और कुछ मालूम पड़ती है। पता लगाने पर लिखूँगी। पूज्य श्री बाबू जी ! ‘आप’ को तकलीफ़ तो ज़रूर होगी, उसके लिये मैं क्षमा-प्रार्थिनी भी हूँ। बस अब की से एक पत्र में आप ही कुछ मेरी हालत लिखियेगा, क्योंकि कभी-कभी मुझे अपनी हालत अच्छी नहीं मालूम पड़ती। यद्यपि मैं ईश्वर की कृपा से आगे तो अवश्य बढ़ती जाऊँगी।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इतिः-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-120
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
6/10/1950
मेरा एक पत्र पहुँचा होगा। आशा है ‘आप’ की तबियत ठीक होगी। अब बहुत दिन ‘आप’ को यहाँ आये हो गये हैं, इसलिये कृपया गंगा-स्नान की छुट्टियों में ज़रूर आइयेगा। सुना है, २३-२४ तारीख की ‘आप’ की छुट्टियाँ है और २५ तारीख शनिश्चर की ‘आप’ और लेंगे। इसलिये यदि सुविधा हो, तो आप २२ तारीख की शाम को छ: बजे की Train से आ जायें तो ‘आप’ को तीन दिन पूरे मिल जायेंगे। वैसे, जैसी ‘आप’ की मर्ज़ी हो, वही ठीक है। मुझे तो कुछ यह हो गया है कि दुनिया के सब लोग, सब चीजें अजीब तस्वीरों की तरह लगती हैं और शायद वैसी ही स्वयं मैं हूँ। नाटक के पर्दे की तरह एक के बाद एक दिन बीतते चले जाते हैं। हाल यह है कि सबेरे की बातें, शाम को ऐसी लगती हैं, मानों यह वर्षों पहले की बातें कही जा रही हैं और भाई, अब तो यह हाल हो गया है कि यदि मुझे और कुत्ते को एक ही थाली में खाना दे दिया जावे तो भी हम दोनों बड़ी खुशी से खाते रहेंगे, क्योंकि कुछ ऐसा है कि शायद मुझे कुत्ते और कस्तूरी में कोई खास फ़र्क ही नहीं मालूम देता यह ‘आप’ जानें कि क्या बात है। केवल कुत्ता ही क्या, बस सबके लिये यही बात है। खैर, ‘मालिक’ जानें। और कुछ यह है कि तमाम फैलाव बढ़ता जाता है। वैसे तो श्री बाबूजी ! मुझे अपने में कुछ मालूम नहीं पड़ता, परन्तु फिर भी कुछ ज़रूर है। अब क्या है, ‘मालिक’ जानें। न जाने क्या हो गया है, मेरा एहसास मंद होता चला जाता है। अब तो १०-१२ दिन में बड़ी मुश्किल से जाकर कहीं कुछ हालत समझ में आ पाती है। अब करीब २-३ दिन से अपने में कुछ हल्का सा फ़र्क लगता है। आज पूज्य मास्टर साहब जी से मालूम हुआ कि ‘आप’ की साँस की तकलीफ़ फिर बढ़ गई है। क्या करूँ, श्री बाबूजी न जाने क्यों Will Power भी कुछ ऐसी हो गई है कि ‘आप’ के शरीर को अब कुछ आराम नहीं दे पाती। वैसे Sitting वगैरह के लिये तो जैसा चाहती हूँ, वैसा ही होता है। खैर, यह भी ‘मालिक’ की ही कोई मर्ज़ी है। ‘आप’ ने पूज्य मास्टर साहब से कहा कि यदि ऐसी ही कमज़ोरी रही तो कैसे आवेंगे, सो हम सब की यही प्रार्थना है कि आप कृपया यहाँ आने की पक्की सोच लीजिये जिससे सब कमज़ोरी वगैरह दूर हो जावे। क्योंकि अब रुका नहीं जाता। वैसे जैसे रखियेगा, रहेंगे।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-121
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
11/10/1950
आपके पत्र से महानुभाव श्रीमान् पापा के महाप्रयाण का बज्राघात सा समाचार पाकर हम सब को असहनीय दुख हुआ। साथ ही परम आश्चर्य भी। क्योंकि हमें उन महात्मा के महाप्रयाण की इस समय लेश मात्र भी संभावना तक न थी। हमारी बदकिस्मती से ईश्वर ने हमारी प्रार्थना मंजूर नहीं की या भाई ! हमारी आवाज़ उस तक न पहुँच सकी। बस सन्तोष मुझे केवल इस बात का है कि मैंने अपना कर्तव्य, जो उनके लिये प्रार्थना का बताया था, सो पूरा कर दिया। यहाँ तक कि दिन में तीन-तीन बार प्रार्थना की और कई-कई बार करीब दो महीने Will Power भी लगाई परन्तु क्या लाभ। Result तो वही निकला जो निकलना था। इसलिये तो अब यही कहना पड़ता है कि कुछ नहीं किया। अब हम उन परम पूज्य पापा के चरणों में पत्र-पुष्प तुल्य ‘शान्ति-पाठ’ ही अर्पण करते हैं। यद्यपि उनके लिये तो कुछ भी करना, “सूर्य को दीपक दिखाने” के सदृश्य है। कुछ भी हो, अब तो यह कहना पड़ता है कि हमारे मिशन का एक स्तम्भ भग्न हो गया। ईश्वर से हमारी यही प्रार्थना है कि उनके दुखित परिवार को शान्ति प्रदान करें। यद्यपि ऐसा हुआ भी होगा। मेरे श्री बाबूजी ! ‘वे’ प्रेम की मूर्ति थे। उनकी बोल-चाल, रहन-सहन तथा उनके दर्शन से हमें ईश्वर प्रेम का पाठ मिलता था। खैर, मैं क्या लिख सकती हूँ। वे जैसे थे, वैसे थे। जो थे, सो थे। बस इतना ही काफ़ी है, क्योंकि उनके वास्तविक मूल्य को आँकने वाले यहाँ स्वयं केवल ‘आप’ हैं। ईश्वर ने यहाँ भी सब को कुछ शान्ति व सब्र प्रदान कर दिया है।

मेरी हालत तो कुछ यह हो गई है कि मुझे चाहे कितनी भी तकलीफ़, दुख क्यों न हो, परन्तु अन्दर दृष्टि करते ही एक अविचल शान्ति व स्थिरता का सा अनुभव होता है। जब तक सब लोग उनकी बातें करते हैं, तब तक मैं भी परेशान सी हो जाती हूँ, परन्तु वहाँ से उठ जाने पर मुझे कोई खास तकलीफ़ नहीं होती। ऐसी ही हालत हर परेशानी में समझ लीजिये। इस कारण यधपि अब न तो मुझे कुछ तकलीफ़ व परेशानी अधिक महसूस होती है और न कुछ खुशी, न आनन्द ही मालूम पड़ता है। पूज्य श्री बाबूजी ! न मुझमें महीनों से वे बड़े आनन्द की कैफ़ियत ही कभी आने पाती है। अब तो मेरी हालत कुछ अजीब तरह की होती जाती है और कुछ यह हो गया है कि चाहे कुछ भी हो, अब मुझे भारीपन कभी एक क्षण को भी नहीं आता। यह बात महीनों से है।

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-122
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
14/10/1950
मेरा एक पत्र ‘आप’ को मिला होगा। यहाँ सब लोग कुशल हैं, आशा है ‘आप’ भी सकुशल होंगे। मेरी हालत तो जैसा कि मैं शायद लिख चुकी हूँ कि न मुझे यह मालूम पड़ता है कि मैं स्त्री हूँ न जाने कौन हूँ, क्या हूँ। करीब-करीब ऐसा ही मुझे कुछ दुनिया में सब के लिये मालूम पड़ता है। इसलिये अब यह भी बात जाती रही कि न जाने कौन मेरा है, न जाने कौन दूसरा है। ऊपर वाली हालत केवल जीवधारी मनुष्यों में ही नहीं, वरन् कुल जानवर तथा पेड़-पौधों तक के लिये बस एक ही हालत रहती है। इधर कुछ दिनों से क्या, अधिक दिनों से रात में नींद बहुत बुरी आती है। इसलिये कुछ आराम नहीं मिलता, परन्तु मैं यह देखती हूँ कि दिन में चाहे मैं १५-२० मिनट ही सो जाऊँ तो बहुत आराम मिल जाता है। जैसा कि मैं पहले लिख चुकी हूँ कि जरा सी परेशानी में भी दृष्टि भीतर करते ही मुझे अविचल शान्ति तथा स्थिरता का अनुभव होता है, परन्तु मैं यह देखती हूँ कि यह हालत अधिक महसूस तो तभी होती है, जब ज़रा भी चित्त परेशान होता है, परन्तु वैसे तो बस कुछ एक ही हालत सब ओर दरसती है।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-123
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
26/10/1950
कल पूज्य मास्टर साहब जी से वहाँ के समाचार मालूम हुए। ‘आप’ की साँस को भी ईश्वर की कृपा से लाभ है, सुनकर प्रसन्नता हुई और यह भी मालूम हुआ कि गंगा-स्नान की छुटिट्यों में आपका यहाँ पधारने का इरादा है। ईश्वर इस इरादे को सुदृढ़ बनाये रखें, हमारी यही प्रार्थना है। इधर मेरा कोई खास हाल तो नहीं मालूम पड़ता है। हाँ, कुछ ऐसा लगता है कि कोई चीज़ है, जिससे अब निकलने के लिये बस अभी उसी में ही उतरा-चढ़ाई होता है, खैर ईश्वर जाने। और कुछ यह हो गया है कि सारी ताकत जो अपने में है, वह सब बिल्कुल अपने काबू में लगती है और जब भी अपने अन्दर दृष्टि जाती है तो बस ऐसी कैफ़ियत रहती है कि भीतर गोते लगाती रहती हूँ। अब जागने का माद्दा कुछ ऐसा बढ़ गया है, रात में चुपचाप लेटे हुए भी चाहे जितनी देर जागती रहती हूँ। मैं अपनी हालत क्या लिखूँ, जबकि अब न तो मुझमें भूल वाली हालत है, न मुझमें अब जो ‘आप’ लिखते थे कि लय-अवस्था बढ़ रही है, वह कोशिश करते-करते परेशान हो जाती हूँ, तब भी किसी तरह नहीं आ पाती। हाँ, जब बिल्कुल कोशिश बन्द कर देती हूँ, तो कभी-कभी बहुत हल्की सी ‘है’ कहने भर को मालूम पड़ती है। भाई, सच तो यह है, मुझमें अब कोई खास बात नहीं है। जैसे दुनिया के सब लोग हैं, वैसे ही मैं हूँ। तिस पर भी तुर्रा यह कि मैं आगे तो ज़रूर बढ़ रही हूँ और अभी श्री बाबूजी ! मुझमें एक खासियत यह है कि पहले मुझे जैसे मालूम पड़ जाता था कि मेरे में Sitting आ रही है, सो भी अब कुछ नहीं है। मैं नहीं जानती कि मैं क्या हूँ, कैसी हूँ, पेड़ हूँ कि पौधा हूँ, ईश्वर जाने। लेकिन जो भी हूँ, जैसी भी हूँ, ‘उसकी’ तो ज़रूर हूँ और यह भी केवल अपना अन्दाज़ और विश्वास है। और स्वभाव में कुछ यह देखती हूँ कि अपना हो या कोई दूसरा, जब तक पूजा कराऊँगी या बात करूँगी, तब तक तो वे अपने हैं, वैसे उनसे जैसे कोई मतलब नहीं।

छोटे-भाई-बहनों को प्यार। अम्मा ‘आप’ को आशीर्वाद कहती हैं। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-124
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
12/11/1950
मेरा एक पत्र मिला होगा। आप की तबियत अब कैसी है? आशा है डाक्टर की दवा से अब साँस को लाभ होगा। आप कृपया जल्दी से अच्छे हो जाइये। क्योंकि आने के दिन अब करीब आ रहे हैं। मेरा हाल तो यह है कि कभी-कभी फैलाव इस कदर बढ़ा हुआ लगता है कि हर चीज़ में हर तरफ़ बस मैं ही फैली हुई हूँ या यों कहिये कि सब ओर मेरा ही फैलाव लगता है। मैं देखती हूँ कि सारी चीजों का Attraction बिल्कुल खत्म सा हो गया है। यद्यपि ऊपर से तो ज़रूर लगता है। कि जैसे गाना मुझे बहुत अच्छा लगता है, परन्तु जब गाना सुनने लगती हूँ तो तबियत न जाने कहाँ चली जाती है। कुछ ऐसी हालत रहती है कि कुछ अच्छा भी लगता है, कुछ तारीफ़ भी करती हूँ, परन्तु फिर भी सब चीजें ऐसी लगता है, कि बहुत दूर से सुनाई पड़ती हैं तथा दिखाई पड़ती है और भीतर जाती हैं। भाई ! सच तो यह है कि सब तरह से देख चुकी हूँ कि दुनिया की हर चीज़ से, हर आदमी से, लगाव का डोरा कटकर बिल्कुल दूर हो गया है। यद्यपि रंज व खुशी हल्के रूप में होती ज़रूर है, परन्तु वह भी सबके बीच में बैठकर ही महसूस हो पाती है, ‘मालिक’ जाने। और देखती हूँ कि “मैं पने” का एक भाव सा रह गया है, वह भी ईश्वर जाने कहाँ रहता है। पूज्य श्री बाबूजी ! कुछ भी हो, जैसा कि मैं चाहती हूँ और जैसा कि चाहिये, उतनी याद शायद मैं ‘मालिक’ को नहीं कर पाती हूँ। इसलिये मन में एक कुरेदन सी चैन नहीं लेने देती और यह देखती हूँ कि जो हालतें मैं पहले लिख चुकी हूँ, उसका असली रूप धीरे-धीरे ‘मालिक’ की अनन्य कृपा से अब आता जाता है, वैसे ‘मालिक’ जानें। तारीख १० को सबेरे पूजा में बैठते ही अचानक बड़ा तेज़ कुछ लाल प्रकाश सामने दिखलाई पड़ा। ऐसा जैसे सूर्योदय और सूर्यास्त के समय आकाश का रंग होता है। यह चीज ४-५ बार दिखाई पड़ चुकी है। करीब ८-१० दिनो से सिर के पिछले भाग में बड़ी लपकन होती है और सारे में कुछ अजीब हाल है। न जाने कुछ कमज़ोरी है, न जाने क्या बात है। कभी-कभी दर्द तथा कभी-कभी ठंडक सी मालूम पड़ती है। आप जानें क्या बात है।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-125
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
1/12/1950
आशा है आप सकुशल पहुँच गये होंगे। आशा है आज ताऊजी तथा मास्टर साहब जी की चिट्ठियाँ पहुँची होंगी।

‘आपके’ यहाँ आने पर ता.२५ से मुझे अपनी हालत बदली हुई सी लगती है, परन्तु अब ता.२७ से जैसी कुछ हालत समझ में आई है, सो सेवा में निवेदन करती हूँ।

अब तो यह हाल है कि शरीर का एहसास तो बिल्कुल खत्म ही समझिये। यह हाल तो इधर करीब बहुत दिनों से है। शरीर का जाड़ा-गर्मी का एहसास केवल इतना या इतनी देर को हो पाता है, जैसे कोई चीज़ छू भर जाती है। इसको ही समझ लीजिये कि शायद शरीर को एहसास हो पाता हो, परन्तु मुझे नहीं मालूम। परन्तु फिर भी Mind तो हर समय समाधि-अवस्था में ही डूबा रहता है या शायद मुर्दे की ही दशा में हर समय लीन रहता है। ऐसा लगता है कि मेरे लिये तो हर चीज़ बस केवल एक भाव मात्र है। अब तो working में सोते में तथा जागते में ऐसा भासता है, मानों एक बड़ी लड़ाई होने वाली महसूस होती है। करीब १४-१५ तारीख से सामने एक लाश सी दिखाई पड़ती थी। अन्दाज से शायद सरदार पटेल की death बहुत करीब है, वैसे ईश्वर जाने। भाई, इधर जब से आप आये, तब से तो कुछ अजीब यह हाल लगता है कि कुछ ऐसा लगता है कि जैसे स्वप्न में भोग खत्म हो रहे हैं। और कुछ यह हो गया है कि जो ताकत या हालत ‘मालिक’ ने दी है, उस पर command या Mastery की सी हालत लगती है। कुछ ऐसा लगता है कि सारे भोग बड़ी शीघ्रता से खत्म हो रहे हैं। और पहले जैसे मालूम पड़ता था कि ‘मालिक’ मेरी याद में मस्त है, वैसे अब कुछ self surrender में भीतर ही भीतर से ऐसा लगता है कि शायद ‘मालिक’ का कुछ-कुछ मुझमें लय होना आरम्भ हो गया है और शायद यह है कि लय-अवस्था में अपनी अवस्था को मुझमें लय करना शुरु कर दिया है, वैसे ‘आप’ जानें। जैसे पहले ‘आप’ ने याद के लिये लिखा था कि आंतरिक हो गई है, वही बात कुछ self surrender के लिये मालूम पड़ती है।

इधर कुछ यह हो गया है कि ‘मालिक’ कहीं अलग मुझे दिखाई ही नहीं पड़ता बल्कि ‘उसे’ एक क्षण भी अलग देखना असहय हो जाता है। जैसे अब तक सामने कोच पर ‘मालिक’ का ही ध्यान करती थी कि ‘वह’ सामने है, परन्तु अव्वल तो मुझे अब कोच-वोच पर कहीं कुछ मालूम ही नहीं पड़ता। दूसरे यदि करती भी हूँ तो समझिये लकीर पीटने की तरह मालूम पड़ता है। यहाँ तक हाल है कि अब की से ‘आप’ आये थे, तो सामने बैठे हुए भी अधिकतर ऐसी ही हालत रहती थी कि मुझे यह बिल्कुल भूल जाता था कि ‘आप’ बैठे हुए हैं। और यदि कोशिश करके यह ख्याल जमाती थी कि ‘आप’ बैठे हैं तो तबियत बरदाश्त नहीं कर पाती थी, परेशान हो जाती थी। यही हाल प्रार्थना गाते व करने में होता है। सो भला ‘आप’ बताइये, जब हाल तो अपना यह रहता है, तो प्रार्थना किसकी की जावे और उसमें क्या मज़ा आवे। खैर आप जानें। अब मेरा हाल तो कुछ ऐसा समझ लीजिये कि तबियत हमेशा बेख्याल सी रहती है। परन्तु फिर भी राजी हैं, हम उसी में, जिसमें रज़ा है तेरी और खुशी से। भाई सच तो यह है कि कुछ ऐसी हालत लगती है, कि – “खुद को पहिचान लिया है”। पूज्य श्री बाबूजी ! मेरी तो जो कुछ समझ में आता है, सो लिख ज़रूर देती हूँ, अब आप जानें। और यह तो शायद लिख चुकी हूँगी कि हर तरफ़ हर चीज तथा सब में बस एक ही हालत दरसती है या बहती हुई लगती है। शायद एक कुछ हालत और है, परन्तु मैं उसे ठीक catch नहीं कर पाई हूँ।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-126
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
11/12/1950
आशा है, आप आराम से पहुँच गये होंगे और मेरा वह लिफाफा भी मिल गया होगा। यदि न मिला हो तो लिख दीजियेगा, मैं वह हालतें जो उसमें लिखी थी, फिर से लिखकर भेज दूँगी। क्योंकि ‘आप’ ने कहा था कि “सारी चिट्ठियाँ, जिसमें कुछ हालतें लिखी हैं, मेरे पास मौजूद हो जायें”। अब जो हालत ईश्वर की कृपा से है, सो लिख रही हूँ।

अब कुछ यह हो गया है कि हर चीज़ का एक दायरा सा बँधता जा रहा है, कि कोई चीज़ जैसे दया-वया इत्यादि बस इससे आगे नहीं जा सकती। एक Check सा लग जाता है। और कुछ यह हाल है कि सब में बैठी हुई सब को देखती हुई, पहचानती हुई तथा बात करते करते सब को बार बार भूल सी जाती हूँ। या यों कहिये कि जैसे पहले एक बार लिख चुकी हूँ कि सब कुछ देखती हुई भी कुछ दिखाई नहीं देता, सुनते हुए भी सुनाई नहीं देता और न कुछ करते हुए महसूस होता है। उसकी असली कैफ़ियत ईश्वर की कृपा से अब कुछ कुछ महसूस हो रही है। कुल दुनियाँ में न जाने सब एक ही लगते हैं। न जाने कुछ मालूम भी पड़ता है या नहीं। पहले जैसे मैंने लिखा था कि कुल जड़-चेतन, पेड़-पौधों तक में, बस एक ही हालत दरसती है, परन्तु अब देखती हूँ कि वह हालत अब न जाने क्या हो गई, कैसी हो गई है। Sitting में यदि यह ख्याल बाँध दूँ कि हृदय से फैज जा रहा है, तो भी कुछ weight सा लगने लगता है। खैर ‘मालिक’ जाने। जैसे मर्ज़ी हो, वैसे रखे। कुछ ऐसी हालत है कि – “खुद ने खुद को पहचान लिया है”। अब मौजूदा हालत तो श्री बाबूजी ! कुछ ऐसी है कि यदि self surrender की तरफ तबियत जाती है, तो ऐसा मालूम पड़ता है कि जैसे शरीर पिघल-पिघल कर फैला या बहा जा रहा है। और कुछ ऐसा मालूम पड़ता है कि शरीर का ज़र्रा-ज़र्रा अलग-अलग या छिन्न-भिन्न होकर बिखरा सा जा रहा है। परसों यानी तारीख ९ की रात में कुछ ऐसा अन्दाज़ होता है कि स्वप्न में कुछ order सा मिला था, परन्तु जब तक उर्दू और लिखूँ, तब तक मुझे याद भूल गई और अब याद ही नहीं आती। सो आप से करबद्ध प्रार्थना है, यदि सच ही इस गरीब के लिये कोई सेवा हो तो ज़रूर लिखियेगा। वैसे ‘मालिक’ की जैसी मर्ज़ी। अब - ‘राजी हैं हम उसी में जिसमें रज़ा है तेरी’ की कुछ कुछ असली कैफ़ियत सी मालूम पड़ती है।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-
आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-127
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
18/12/1950
मेरा एक पत्र मिला होगा। आपकी पहुँच का कोई पत्र नहीं आया। आशा है ‘आप’ की तबियत ठीक होगी। इधर ‘आप’ जब से गये हैं, तब से, ‘आप’ या तो कुछ Stage या कोई हालत बदल गये हैं, खैर, ‘आप’ की मर्ज़ी। अब मेरी हालत तो कुछ ऐसी हो गई है, यद्यपि नई नहीं है, परन्तु उन हालतों का जैसे मुर्दे वाली हालत का रूप बदलता जाता है। और जो मैं पहले आप को कभी लिख चुकी हूँ कि एक ईश्वरीय धारा सी अन्दर हर समय बहती हुई मालूम पड़ती है और अब देखती हूँ कि वही धारा ही मेरा कुल रूप हुआ जा रहा है। वह हालत या धारा ही मेरा स्वरुप हो गया है। एक मुर्दे की हालत मुझ पर अधिकार करती जा रही है। अब नाभि में खोखलापन तथा कुछ खुलाव सा होता मालूम पड़ता है। मैंने जो लिखा कि नाभि में खोखलापन मालूम पड़ता है, मैं देखती हूँ कि शायद वह ईश्वरीय धारा मेरा स्वरूप ही हो जाने के कारण सारा शरीर हर समय बिल्कुल हल्का तथा शान्तिमय मालूम पड़ता है। ऐसी हालत रहती है, कि जैसी ‘आप’ जब कहते थे कि centre से फैज आ रहा है, तब होती थी। मन तो हर समय अब डूबा ही रहता है। ऐसा मालूम पड़ता है कि सारी इन्द्रियों की वृत्तियाँ एकदम शान्त या खत्म होती चली जाती हैं। आज अभी ‘आप’ का कृपा पत्र मिला आज्ञा का पालन शुरु कर दिया है। जैसी मर्ज़ी हो, वैसा काम लिया जावे। आप ने यह बहुत ही प्रिय बात लिखी है कि – “तारीफ़ उस मालिक की ही है, जिसने मुझ ऐसी को अपनी शरण में लिया है”।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इतिः-

आपकी दीन-हीन, सर्व साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-128
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
20/12/1950
कल आपका कृपा पत्र मिला। उसमें आप ने जो working लिखा है, उसे जो कायदा सफ़ाई का Northern India का आप ने पूज्य मास्टर साहब को लिखा है, वैसे करूँ या ऐसे ‘ईश्वरीय धारा’ के प्रभाव से सारी अशुद्धता दूर हो रही है, ऐसे ही करूँ? वैसे तो काम हो ही रहा है। पूज्य मास्टर साहब को आपने लिखा था कि पृथ्वी की सारी अशुद्धता वायुमण्डल में मिल रही है और जात की Power से हल्की-हल्की फुहारें वायुमण्डल में मिल गई हैं। और सारी अशुद्धता को तुरन्त की तुरन्त खत्म कर रही हैं। आप का पत्र आ गया। वैसे ४-५ दिन से उसी working को तबियत बार-बार जाती थी, बल्कि कुछ-कुछ शायद शुरु भी हो गया था।

अम्मा ‘आप’ को आशीर्वाद कहती हैं। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-130
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
28/12/1950
आप का एक पत्र पोस्टकार्ड मिला। अपनी आत्मिक-दशा के बारे में क्या लिखूँ। न जाने अब उदासी वाली हालत ही हर समय रहती है। कुछ यह है कि न तो ‘मालिक’ की याद रहती है, न कुछ विशेष अपना ही ख्याल रहता है। न जाने कुछ रहता भी है कि नहीं। हालत यद्यपि न कुछ विशेष अच्छी ही लगती है, न कुछ बुरी ही मालूम पड़ती है। सच पूँछिये तो कोई खास हालत भी नहीं मालूम पड़ती। शान्ति वगैरह के बारे में देखती हूँ कि जब कोई घबराहट वाली बात, जैसे जिज्जी की इस बीमारी के बारे में सुनी थी, तो तबियत तो काफ़ी परेशान हो जाती है परन्तु भीतर जब भी निगाह पहुँचती है, तब तो एक अविचल शान्ति का ही अनुभव होता है। ऐसी हालत है कि ख्याल भी आते हैं, और तबियत बेख्याल रहती है। न जाने self surrender है भी कि नहीं। परन्तु मुझे तो इससे कुछ मतलब नहीं। जैसे चाहे ‘मालिक’ मुझे रखे। परन्तु कभी-कभी तबियत बेचैन हो जाती है। पूज्य श्री बाबूजी ! न जाने क्यों एक बिल्कुल नीरस, रूखी हालत मेरे पीछे पड़ी रहती है। कभी-कभी तो मेरी तबियत उस नीरस हालत से ऊब जाती है। न जाने यह क्या हालत है और कुछ यह हाल है कि Life होते हुए भी Lifeless मालूम पड़ती हूँ। पहले जब भी ख्याल करती थी तो तबियत को ‘मालिक’ की याद में अटका हुआ पाती थी, परन्तु अब मुझे यह भी नहीं मालूम पड़ता है। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-131
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
2/1/1951
आज ताऊजी आराम से लौट आये। वैसे तो ‘आप’ की तबियत ठीक थी, परन्तु ताऊजी से मालूम हुआ कि ‘आप’ के पेट का दर्द बढ़ गया था। आशा है अब आराम होगा। ईश्वर ने हमें ‘आप’ के समय में जन्म देकर कृतार्थ कर दिया। मेरी तो बस यही प्रार्थना है कि ‘मालिक’ के चरणों में पड़ी हुई और उनकी पावन बाँहों की छाँव में पड़ी हुई मैं पूर्ण रूप से इस समय का लाभ उठा सकूँ और यदि ‘मालिक’ की इस गरीबनी पर हमेशा ऐसी ही कृपा-दृष्टि रही तो संसार में कोई भी अटक मेरे मार्ग में एक क्षण भी टिक न सकेगी और ‘मालिक’ ज़रूर इस गरीब पर कृपा और परवरिश करता ही रहेगा, इसमें शक नहीं। क्यों? यह ‘मालिक’ जाने। अपना हाल क्या लिखूँ? सब बातें सुनकर बस ऐसा लगता है, हर चीज़ की शुरुआत है। खैर, जिसने कृपा करके यह शुरुआत बख्शी है, वही धीरे-धीरे ठीक भी कर लेगा। अब कुछ ऐसा हाल हो रहा है कि ऐसी तबियत होती जाती है कि working में भी बस करने से मतलब, बाकी क्या हो रहा है, क्या Result निकल रहा है, इस तरफ़ तबियत ही नहीं जाती। ऐसे ही करीब-करीब सब बात के लिये हो जाता है। हालत यह है कि “चाकर को केवल चाकरी से काम”। शेष ‘मालिक’ जाने। पूज्य श्री बाबूजी! न जाने क्यों मेरी चाल में पहले जैसी तेज़ी नहीं आती। यद्यपि कोशिश में जहाँ तक हो सकेगी, कभी शिकायत का मौका यदि ‘मालिक’ की मर्ज़ी रही तो न आने पावेगा। वैसे मेरी समझ से तो पहले जोश की वजह से तेज़ी अधिक मालूम पड़ती थी, परन्तु अब वह जोश कुरेदना में बदल गया है, खैर, ‘आप’ जानें। नींद का तो यह हाल है कि यदि कहीं दर्द होता है तो सोती भी रहती हूँ और दर्द भी मालूम पड़ता रहता है। ‘मालिक’ की कृपा से जो माने आप ने ब्रह्माण्ड देश की विलायत के बताये हैं, इधर कुछ दिनों से तबियत उस हद तक ही पहुँचती है। खैर, ‘मालिक’ की मर्ज़ी।

छोटे-भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-132
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
7/1/1951
मेरा पत्र मिला होगा। यहाँ सब कुशल पूर्वक हैं, आशा है ‘आप’ भी सकुशल होंगे। मेरी हालत तो ऐसी लगती है कि मुझ से क्या कर्म हुआ करते हैं और क्या हो चुके हैं, इससे तो मुझे कोई मतलब ही नहीं रह गया या यों कहिये कि तबियत उस तरफ से बिल्कुल फिर ही गई है। यद्यपि यह हालत कई महीनों से बराबर चल रही है। परन्तु अब ऐसा लगता है कि साफ़ रूप में अब आई है और कुछ यह हो गया है कि जैसे छोटा बच्चा जब कहीं से जाता है या उसके पास से कोई बहुत दिन रह कर जाता है तो दो-एक दिन उसे याद आती है, फिर बिल्कुल भूल जाता है। उसी तरह का कुछ मेरा हाल हो गया है। मुझे शक्ल वगैरह भी भूल जाती है। अब जब अम्मा, जिज्जी व बच्चों की बातें करने लगती हैं, तब जैसे कुछ-कुछ उनकी सूरतें याद आने लगती हैं, परन्तु बात खत्म होते ही फिर वही हाल हो जाता है। यद्यपि यह हालत कुछ है बहुत महीनों से, परन्तु इसका भी शायद साफ़ रूप आता जाता है और क्या लफ्ज लिखूँ? मालूम नहीं। और कुछ अब यह होता है कि यदि मेरे सामने कोई बहुत खुश आता है, तो तबियत अपने आप ही भीतर खुश होने लगती है। वैसे ‘मालिक’ जाने। हर समय न जाने बेख्याल पड़ी रहती हूँ। भूलने की आदत का तो यह हाल हो गया है कि यदि अम्मा के संग कहीं बुलावे में चली जाती हूँ तो लौटने पर ऐसा लगता है, मानों न जाने किसके घर में घुसी जा रही हूँ। और यह भी तारीफ़ संग में है कि जितने जने संग में जाते हैं, उनको छोड़कर वापिस लौटने पर सब को भूल सी जाती हूँ या कुछ ही को। खैर, ‘मालिक’ जाने। जैसे चाहें, वैसे रखें। इधर कुछ दिनों से सोते में, न जाने क्यों रात में ख्याल आते रहते हैं। वैसे तो यह हाल है कि यदि जाग कर तुरत चलने लगूँ तो सिर चकराने लगता है। मालूम पड़ता है न जाने कितनी गहरी नींद या न जाने कहाँ से आई हूँ।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। अम्मा ‘आप’ को आशीर्वाद कहती हैं। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-133
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
12/1/1951
आप का कृपा पत्र जो पूज्य मास्टर साहब जी के नाम आया, उससे समाचार मालूम हुए। ईश्वर की कृपा से जो कुछ भी हालत है, सो लिख रही हूँ।

उदासी की हालत बड़े ज़ोरों से अब हर समय ही रहती है। कभी-कभी तो इसकी ऐसी शक्ल होती है कि यदि उसे गहरे अफसोस का Mood बिना रंज के समझ लिया जावे तो कोई हर्ज न होगा। जब ‘आप’ को अगला पत्र डाला था तो उसके बाद ४-५ दिन चाल में कुछ तेजी आ गई थी, परन्तु अब तो फिर कुछ धीमी पड़ गई। खैर ‘मालिक’ जैसे चलावे, ‘उसकी’ मर्ज़ी। और कुछ यह हाल हो गया है कि जैसे पहले कभी मैंने लिखा था कि सब में बैठी हुई, बार-बार सब को भूल जाती हूँ, परन्तु अब तो हर समय ऐसा हाल हो गया है कि संसार में सब लोग ही क्या सब चीज कुछ परछाई मात्र ही मालूम देती हैं। यहाँ तक कि अपना शरीर तक शायद एक परछाई या एक आकार मात्र ही रह गया है। और देखती हूँ कि अहं भाव भी, कभी-कभी को छोड़ कर एक परछाई मात्र समझ लिया जावे, तो शायद ठीक होगा। कुछ ऐसी बेख्याल, रूखी उदास हालत हर समय रहती है। आजकल की हालत तो ऐसी मालूम पड़ती है कि अब तो स्वप्नावस्था ही दिन रात चौबीसों घंटे रहती है। सात-आठ दिन हुए, जब शुद्धि वाला working कर रही थी तो ऐसा मालूम पड़ा कि तमाम कुछ गाढ़े कुहरे की तरह है और सब मजे में चल रहा है। यदि ‘मालिक’ की मर्ज़ी हुई तो उत्सव में ‘आप’ के दर्शन होंगे।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-134
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
24/1/1951
कृपा-पत्र ‘आप’ का, जो पूज्य ताऊजी के लिये, पूज्य मास्टर साहब के हाथों आया था, उसे सुन लिया। समझना तो मेरी सी मोटी बुद्धि वाले के लिये अत्यन्त कठिन है, खैर, मालिक जाने। ‘आप’ की तबियत ठीक सुनकर खुशी हुई। ईश्वर, बस ‘आप’ की बड़ी उम्र करे और स्वास्थ्य ठीक रखे और हमसे नादान बालक आत्मिक उन्नति में ‘आप’ के अभय हाथों की छाया में फलें फूलें तथा परवरिश पाते रहें। मुझे और कुछ नहीं चाहिये। न जाने क्यों श्री बाबूजी ! मेरी आत्मिक हालत तो आजकल कुछ अच्छी नहीं चलती मालूम होती। इधर १२-१४ दिन से दिन रात ख्याल आते रहते हैं। यद्यपि क्या ख्याल आते रहते हैं, यह मुझे नहीं मालूम है और न उनका मुझ पर कुछ असर ही रहता है। परन्तु आते ज़रूर हैं। मुझे आजकल अपनी हालत कोई खास उन्नति की नहीं मालूम पड़ती है। हाँ, विश्वास तो यह है और रहेगा कि मेरी आत्मिक उन्नति सदैव बढ़ रही है। कुछ ऐसी हालत मालूम होती है या शायद कोई गुत्थी वगैरह तो नहीं आ गई, मालूम नहीं क्या है। अब आप ही लिखेंगे तब मालूम होगा। पहले मैंने लिखा था कि स्वप्नावस्था ही चौबीसों घंटे रहती है। सोई अब है, या कुछ ऐसी हालत है कि दिन में बस कुछ-कुछ ऐसा लगता है कि जागती हुई हालत में भी सोती हुई सी हालत रहती है। उसको अब स्वप्नावस्था कह लीजिये या जो हो, यह ‘आप’ जानें। अब हालत working को छोड़कर सदैव Inactiveness सी रहती है। श्री बाबूजी ! कि सिवाय ‘मालिक’ के मुझे एक क्षण भी कुछ अच्छा नहीं लगता। और न मुझे कुछ चाहिये। परन्तु आजकल हालत न जाने कैसी है। भीतर-बाहर मुझे कहीं किसी में कुछ अन्तर नहीं मालूम पड़ता। पहले मैंने शायद लिखा था कि यदि कुत्ता और मुझे एक ही थाली में भोजन दे दिया जाये तो हम दोनों खुशी से खाते रहेंगे। परन्तु अब देखती हूँ कि यद्यपि न तो किसी से घृणा ही है, परन्तु न साथ खाने का ही शौक है। कुछ ऐसी हालत है कि जो हो सो हो। मानों किसी से कुछ मतलब ही नहीं है। ऐसी ही हालत सबके लिये है। अब तो न जाने क्या है और न जाने क्या नहीं है। शायद यह समझ लिया जावे कि सब कुछ अजीब धुंधली परछाई की तरह से हो गया है। ‘आप’ कृपया यह ज़रूर लिखियेगा कि मेरी हालत आजकल कुछ खराब तो नहीं है। और एक कुछ यह बात हो गई है कि रात में जब भी मेरी आँख खुलती थी, तभी सबसे पहले केवल मुझे ‘मालिक’ का ही ध्यान आता था, परन्तु अब तो थोड़ी देर बाद ही आता है।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-135
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
29/1/1951
आशा है मेरा एक पत्र मिला होगा। मेरी आत्मिक हालत करीब १०-१५ दिन से खराब रही। कुछ उस तरह की मालूम पड़ती थी, जैसी कि पहले शायद एक स्टेज से दूसरी स्टेज बदले जाने पर बीच की हालत होती है। यद्यपि यह १०-१५ दिन बड़ी जबरदस्ती तथा कुछ थकान के से बीते हैं। परन्तु श्री बाबूजी ! ईश्वर ने कृपा करके कल से मेरी हालत को बदल दिया है। कल से हालत बदल गई है। ‘मालिक’ का बहुत-बहुत धन्यवाद है। मुझे तो बस केवल उसी का आसरा है, उसी का सहारा है। मेरे श्री बाबूजी ! चाहे कुछ भी हो, मुझे बस यही आशीर्वाद तथा ऐसी ही कृपा करें कि मैं अपने ‘मालिक’ को पूर्ण रुप से पाकर इस Time का पूरा-पूरा लाभ उठा सकूँ। यदि ‘मालिक’ की ऐसी ही अहेतु की कृपा बनी रही तो मेरी ओर से भी ‘आप’ को शिकायत का अवसर कभी न मिल सकेगा। बस खूब जल्दी-जल्दी बढ़े चलूँ। यही ‘आप’ की इस गरीब बिटिया की प्रार्थना है। वैसे तो अब कुछ यह हाल हो गया है, पूजा करने, या कराने पर न तो यही मालूम पड़ता है कि पूजा कर रही हूँ और न यही मालूम पड़ता है कि पूजा करा रही हूँ। हर काम का बस यही समझ लीजिये कि Automatic ही होते रहते हैं। खैर, मुझे उससे भी कोई मतलब नहीं। ‘मालिक’ की जैसी मर्ज़ी हो, वैसे रखें।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इतिः-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-136
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
6/2/1951
हम लोग ‘मालिक’ की कृपा से आराम से पहुँच गये। अब अपनी आत्मिक हालत ईश्वर की कृपा से जो कुछ भी एहसास में आई है सो लिख रही हूँ। कुछ ऐसा हाल है कि चाहे Train पर बैठी हूँ या कहीं चली जाऊँ सब अपना ही घर मालूम पड़ता है और चाहे कोई भी पूजा करने आता है, या यों समझ लीजिये कि सब अपने ही लगते हैं। और इसी कारण शायद न किसी से कुछ संकोच होता है, न कुछ। परन्तु फिर भी यह देखती हूँ कि न जाने क्यों अपने लगते हुए भी कुछ ऐसी लापरवाही की सी हालत रहती है कि सब से अलग होने पर, फिर किसी का जरा भी ख्याल तक नहीं आता है। भाई, और क्या कहूँ? जिज्जी जब तक यहाँ रहीं, तब तक तो बड़ा ख्याल तथा उनसे बड़ा हेल-मेल लगता था, परन्तु अब उनकी शकल तक याद नहीं आती। हाँ, जब उनका पत्र आता है, या जब कभी उनकी बातें होती हैं, तो कुछ ख्याल सा भी हो आता है, परन्तु कुछ यह भी समझ में नहीं आता कि न जाने किसकी बातें हो रही हैं और मज़ा यह भी है कि उनकी बीमारी की बात सुनकर कुछ फिक्र भी हो जाती है। क्या कहूँ किसी से मिलती हूँ, जैसे जिया वगैरह से, तो कभी-कभी कुछ शर्म सी मालूम होने लगती है कि क्या “मुहँ देखे की प्रीति” वाला हाल है। खैर, इससे मुझे क्या? मुझे तो जैसे ‘मालिक’ रखेगा, वैसे रहूँगी। और कुछ यह हो गया है जैसे पहले मैंने कहीं लिखा है कि जब सो कर उठती हूँ तो ऐसा मालूम पड़ता है कि कहीं परदेश से आई हूँ। ऐसे ही दिन में जब पूजा में या ऐसे भी कभी बैठे-बैठे ज़रा सी आँख यदि मूंद लेती हूँ तो ऐसा ही कुछ झटका सा लगता है, और वैसा ही मालूम पड़ता है। वैसे भी दिन भर में कुछ उसी तरह का हाल रहता है। कुछ यह हाल है कि कहीं चली जाऊँ तो या जैसे शाहजहाँपुर से चली थी, तो मन में तो ‘आप’ से अलग होने का बुरा भी लग रहा था, परन्तु फिर भी अफसोस को अधिकतर भूल जाती थी और भीतर ही भीतर मालूम पड़ता था। क्योंकि कुछ ऐसा हाल है कि ‘मालिक’ की कृपा से ‘मालिक’ से अलहदगी एक क्षण को भी नहीं मालूम पड़ती है। तबियत अधिकतर बड़ी Innocent सी हो जाती है। नींद का कुछ यह हाल है कि जैसे जागने में ‘आप’ से बातें करती हूँ, वैसे ही रात में सोते में भी लगती है, यद्यपि सपने में ही बाते करती हूँगी। परन्तु यह नहीं मालूम पड़ता कि सपने में हो रही हैं।

छोटे भाई-बहनों का प्यार। इतिः-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-137
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
20/2/1951
मेरा एक पत्र मिला होगा। आशा है कि ‘आप’ अच्छी तरह से होगें। पूज्य ताऊ जी तथा हम लोगों पर परम् पूज्य ‘आप’ की कितनी अहेतु की कृपा हुई है, हो रही है और होगी, इसको न तो कोई जान सकता है और इसलिये ‘आप’ को केवल धन्यवाद के और क्या कहा जावे। हाँ, कोशिश अवश्य है, आगे ‘ईश्वर’ मालिक है, परन्तु नहीं ! जो ठान लिया है, सो ‘मालिक’ की कृपा से सफल अवश्य होगा। ‘आप’ ने जो कृपा की है, वह तो केवल ‘आप’ ही की शान है, तकदीर वाले हम ज़रूर हैं। अब ‘मालिक’ की कृपा से आत्मिक-दशा जो समझ में आई है, सेवा में निवेदन कर रही हूँ।

पहले तो न जाने क्या बात है कि जब ‘आप’ की अंग्रेजी वाली पुस्तक पढ़ने लगती हूँ तो न जाने तबियत कहाँ चली जाती है और यद्यपि तबियत न जाने कहाँ चली जाती है, परन्तु फिर भी उस समय समझती भी हूँ, परन्तु जहाँ पढ़ना खत्म करती हूँ तो ऐसी Absent minded हो जाती हूँ कि एक कुछ झटके के बाद सब कुछ भूल जाती हूँ। खैर ‘मालिक’ जाने। अब तो भाई, कुछ यह हाल हो गया है कि इस दुनिया में रहती हुई भी मैं यहाँ नहीं रहती हूँ। न जाने कहाँ रहती हूँ, यह भी नहीं मालूम। यद्यपि यह हालत कुछ-कुछ तो पहले से ही है, परन्तु अब तो यह कुछ Free हालत सी है। हाँ, यह हालत कुछ उस तरह की समझ लीजिये, तो शायद ठीक हो सकती है कि जब जिस हालत पर ‘आप’ ने लिखा था कि तुम सुषुप्ती की हालत में तेज़ जाती हो। अन्तर इतना ही है कि अब यह हालत हर समय की हो गई है। वैसे ‘आप’ जानें। कुछ यह बात है कि तबियत जहाँ भी रहती है उससे हटने को नहीं चाहती। यद्यपि ‘मालिक’ की कृपा से इस गरीबनी को तो केवल ‘मालिक’ की चाह है। बस, उसी की विनती है। अधिकतर तबियत ऐसी हो जाती है कि न तो कुछ काम करने की तबियत होती है, न ही और कुछ। कुछ World से पृथक रहने की सी हालत रहती है। Absent Mindness ही आजकल की खास हालत समझिये। श्री बाबूजी ! न जाने यह क्या बात हो गई है, कि जैसे ‘मालिक’ का ध्यान अपने शरीर में हर समय रहता था, परन्तु जब नहीं टिकने लगा तो भी जबरदस्ती किसी न किसी प्रकार चालू रखे ही रही। परन्तु अब न जाने क्या हो गया है कि अपना शरीर मय आकार, एकदम से गायब हो गया है। अब कैसे ध्यान करूँ? परन्तु ‘मालिक’ की कृपा से ध्यान अपने आप ही अपने भीतर ही कहीं और टिक गया है। ‘मालिक’ की कितनी कृपा है, कह नहीं सकती बस, मुझे तो ‘मालिक’ से मतलब है। जैसे भी हो, वैसे हो।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-138
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
2/3/1951
मेरा एक पत्र मिला होगा। आशा है ‘आप’ अच्छी तरह से होंगे। ईश्वर की कृपा से जो कुछ आत्मिक-दशा आजकल है, सो लिख रही हूँ। न जाने क्या बात है कि हर समय ख्याल से आते रहते हैं। यद्यपि उनका मुझ पर कुछ Impression तो नहीं पड़ता और कभी-कभी तो मैं यह समझ भी नहीं पाती कि यह ख्यालात हैं या क्या है। परन्तु फिर भी दिमाग कभी-कभी परेशान सा हो जाता है। कभी ख्याल आता है और ऐसा आता है कि या तो उस ख्याल के कारण या कैसे भी वही चीज़ सामने मालूम सी पड़ने लगती है कि तमाम आग लगी हुई है, कभी वायु में बैठे तमाम हल्ला-गुल्ला सा मालूम पड़ता है। कभी-कभी बेकार को कुछ अफ़सोस वगैरह मालूम होने लगता है। कभी-कभी फिर शान्तिमय सा मालूम पड़ने लगता है। न जाने क्या होने वाला है। कहाँ तो एक भी ख्यालात का मुझमें महीनों पता तक नहीं रहता था, हर समय तबियत को केवल ‘मालिक’ को छोड़कर दूसरे ख्याल का नाम तक नहीं रहता था। अब न जाने क्या बात हो गई है, कुछ समझ में नहीं आता और न जाने क्या बात हो गई है कि इधर न जाने कितने दिनों से तबियत उचाट सी रहती है। हर तरफ़ से, हर समय, हर चीज़ से उचाट रहती है । यदि कोई मुझसे कुछ बात करने लगता है तो झुंझलाहट सी आने लगती है। इस हाल को बराने के लिये उपाय करती हूँ, परन्तु कुछ मिनटों को छोड़कर तबियत संभालने में असमर्थ ही रहती हूँ। न जाने यह भी कोई हालत है या न जाने क्या बात है। अपने अन्दर जो हर समय एक आनन्द तथा शान्ति की अविचल धारा सी बहती रहती थी, या यह समझ लीजिये कि यह मामूली बात थी, परन्तु अब भीतर बाहर उसका कहीं पता नहीं रहता है। मेरे परम पूज्य महात्मन, मैं अपने ‘मालिक’ से खूब प्रेम, जितना चाहिये, उतना नहीं कर पाती, खैर अब ‘उसकी’ जैसी मर्ज़ी। अब तो केवल ‘मालिक’ की चाह के मुझे कहीं कुछ दिखता नहीं कुछ मालिक की कृपा है हालत भी ऐसी ही है कि मुझे अन्धी कहने में कोई हर्ज़ न होगा। प्रेम हो या न हो, मुझे ‘मालिक’ चाहिये। और जैसे ही होगा, एक दिन ‘वह’ ज़रूर आयेगा कि ‘मालिक’ को मैं पूर्णतया प्राप्त करूँगी और मुझे कुछ मतलब नहीं, जैसे चाहे वह रखे। परन्तु इधर यह उचाट हालत हर समय न जाने क्यों रहती है। कुछ यह देखती हूँ कि जब हालत बदलती है तो और तो कुछ मैं जानती नहीं, अहंता के रुप में परिवर्तन हो जाता है या यों कह लीजिये कि जब अहं भाव का रूप बदलता है, तभी हालत का परिवर्तन मालूम पड़ता है पूज्य श्री बाबूजी ! उचाट और उदास हालत ही मेरी हर समय की हालत हो गई है।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इतिः-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,

पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-139
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
3/3/1951
तुम्हारे सब खत मिल गये। तुम्हारी हालत के विषय में केवल यही लिखना है कि तुम फ़नायेफ़ना की कैफ़ियत से पार हो चुकी हो और अब बका की हालत में दाखिल हुई हो। जितनी तेज़ हालत फ़नायेफ़ना की होती है, उसी मिक़दार में उसको बक़ा ईश्वर के दरबार से मिलती है।

भाई-बहनों को दुआ। अम्मा को प्रणाम।

तुम्हारा शुभचिन्तक,
रामचन्द्र
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-140
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
4/3/1951
कृपा पत्र ‘आप’ का जो पूज्य मास्टर साहब जी के नाम आया था, सो सुनकर तबियत खुश हुई, परन्तु ‘आप’ की तकलीफ़ तथा ‘आप’ रूहानी लाभ न पहुँचा सकेंगे, सुनकर अफ़सोस तथा फ़िक्र हुई। चाहे जो हो, आप हमें रूहानी लाभ से एक क्षण को भी वंचित न रखें। अब ‘मालिक’ की कृपा से जो आत्मिक-दशा है, सो लिख रही हूँ।

कुछ यह हाल है कि अब ख्यालात वगैरह तो कम हो गये हैं या कुछ रूप बदल गया है, परन्तु उचाट वाली हालत गाढ़ी होती चली जाती है। मन क्या चाहता है? कुछ हाल यह है कि चुपचाप बिल्कुल शान्त या सुस्त हालत में काम करती रहती हूँ, बल्कि ऐसी ही कुछ आदत पड़ती जा रही है। कुछ यह है कि न हंसी वाली बात पर हँसी आती है, यद्यपि हँसती ज़रूर हूँ। भीतर से तबियत हर समय सुस्त सी रहती है। सुस्त कह लीजिये या कुछ अजीब तरह की हालत है। पहले मेरी निगाह करीब-करीब हर समय अपने भीतर ही टिकी रहती थी, परन्तु अब मुझे नहीं मालूम कि क्या हो गया है। अब मुझे कहीं कुछ दिखाई नहीं देता, न सामने कुछ महसूस होता है। परन्तु फिर भी, यह न समझियेगा कि कुछ काम में या व्यवहार में ‘मालिक’ जैसा चाहता है, वैसा ही बना है। कुछ दिखाई नहीं देता के माने ये है कि संसार में सामने जितनी भी चीजें हैं, या आदमी हैं, क्या घर के, क्या बाहर के, कोई भी नहीं दीखता है। खैर, ‘मालिक’ की जैसी मर्ज़ी। आज से ‘मालिक’ की कृपा से हालत फिर कुछ बदलती हुई मालूम पड़ती है, वैसे आप जानें।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-141
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
12/3/1951
मेरा एक पत्र मिला होगा। ‘मालिक’ की कृपा से आजकल जो आत्मिक-दशा चल रही है, सो लिख रही हूँ। जिस दिन ‘आप’ को अगला पत्र लिखा था, उस दिन से तबियत में उचाटपन बहुत कम हो गया है। ऐसा हाल रहा, कभी-कभी हो गया, कभी फिर अपने आप ही ठीक हो गया। अब उचाटपन तो नहीं है, परन्तु कभी-कभी कुछ उससे ही मिलती जुलती दशा हो जाती है। वैसे आजकल की हालत को न अच्छे ही कहते बनता है, न बुरा ही कहते बनता है। अजीब हाल है। तमाम कोशिश करने पर भी ‘मालिक’ की सूरत तथा याद किसी तरह भी उन्हीं कुछ मिनटों को छोड़कर नहीं बन पाती है और अब कुछ यह भी नहीं मालूम पड़ता है कि अपने आप ही याद हो रही है। इस कारण और भी फ़िक्र लगी रहती है, परन्तु कुछ वश नहीं चलता। इसलिये भाई ! ‘मालिक’ की जैसी मर्ज़ी। क्या हालत है मेरे बाबूजी। लय-अवस्था का कहीं पता नहीं है। यदि अशान्ति नहीं है तो शान्ति वाली दशा का भी भीतर-बाहर कहीं पता नहीं। अब यही हालत अधिकतर रहा करती है। फिर अब इसका निर्णय आप ही करिये कि इस हालत को बुरा कहा जावे या अच्छा। हाँ, बुरा यों नहीं कहते बनता कि चीज़ तो ‘मालिक’ ने ही दी है, फिर वह खुद को चाहे जैसी लगे। फिर भी ईश्वर की कृपा से हालत आज से कुछ-कुछ बदली हुई सी मालूम पड़ रही है। एक बात मैंने यह और देखी है श्री बाबूजी, कि न जाने क्यों इधर दो-तीन दिन को अपनेपन का एकदम उभार सा आ गया। यद्यपि उसका असर वसर तो मुझ पर कुछ मालूम नहीं पड़ता। खैर, चाह तो बस एक अपने ‘मालिक’ की ही है, यदि वह कभी सुन ले और आशा भी यही लगा रखी है कि सारे खाई-खंदकों से निकाल कर, कृपा करके ‘वह’ मुझे पूर्णतयः मिलेगा अवश्य।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-143
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
16/3/1951
कृपा-पत्र आप का आया, सुनकर प्रसन्नता हुई। हम सब वास्तव में बड़भागी हैं और ईश्वर की हम पर असीम कृपा है, जिसने हमें या जिन्हें भी ‘आप’ पर विश्वास एवं प्रेम है, इस Golden Age of spirituality में जन्म देकर कृतार्थ कर दिया। अब यह हमारी बात है कि हम इस समय से लाभ उठायें और भरपूर लाभ उठायें। हम अपने परम पूज्य महात्मन् श्री लाला जी के परम आभारी हैं, जिन्होंने हमारी उन्नति के लिये हमें ऐसी महान् हस्ती प्रदान की है। बस मेरी प्रार्थना सदैव उनसे व ‘आप’ से यही रही है और यही है कि बस अपने ‘मालिक’ की इस गरीब भिखारिनी पर सदैव ऐसी ही कृपा बनी रहे। अब ‘मालिक’ की कृपा से जो भी आत्मिक-दशा है, सो लिख रही हूँ। इधर कुछ दिनों तो यह हाल रहा कि दो दिन तो हालत बदली हुई मालूम पड़ती है और फिर वही हाल हो जाता है। वह झुंझलाहट वगैरह तो कब की खत्म हो चुकी है। वैसे न जाने क्या बात है इधर दो-तीन दिन से कभी-कभी अपने अन्दर ही अन्दर खुशी मालूम होने लगती है। परन्तु अब कल से तो वह बात काफी बढ़ चुकी है। हालत बदलने का जो मैंने ‘आप’ को लिखा था, यह माने मालूम पड़ते है कि जब हालत थोड़ी देर को कुछ साफ़ निखरी हुई सी मालूम पड़ती है, तभी शायद मालूम पड़ता है कि हालत बदलने लगी, परन्तु देखती हूँ कि अभी जो भी हालत है, वह साफ रुप में नहीं आई है। और कुछ यह देखती हूँ कि मेरी जो भी, जैसी भी हालत है, तबियत को भीतर ही भीतर अच्छी मालूम पड़ती है। या यों कह लीजिये कि अच्छी लगे या न लगे, परन्तु तबियत उसे छोड़ना नहीं चाहती। यह ‘मालिक’ जानें, ‘उसका’ काम जाने। और कुछ यह है कि उचाटपन की हालत, जो मैंने लिखी थी, वह शायद धीरे-धीरे मुझे पचने लगी है, या यह कह लीजिये कि तबियत को उसकी आदत पड़ गई है। हाँ, कभी-कभी भीतर ही भीतर खुशी इतनी बढ़ी हुई मालूम पड़ती है कि ऐसा लगता है कि दिल से बाहर निकली जा रही है। यह हाल तो ता.१४ तक का रहा। अब कल से जो हाल है, लिख रही हूँ। अब तो ऐसी दशा हो जाती है कि जी चाहता है कि कलेजा पकड़े हर समय मन ही मन में, अकेले में खुश ही होती रहूँ। कलेजे भर में तमाम गुदगुदी ही गुदगुदी मची रहती है। खुशी के माने यह नहीं है कि मैं हर समय हँसती ही रहती हूँ या हसूँ, वरन् ऐसा होता है या लगता है कि भीतर आत्मा को शायद न जाने क्यों खुशी हो रही है। हाँ, जैसा मैंने ता.१४ तक के हाल में लिखा है कि जो भी हालत हो वह अभी साफ़ रुप में नहीं आई है। परन्तु ‘मालिक’ की असीम दया से अब यह बातें तो नहीं मालूम पड़ती, वैसे ‘मालिक’ जानें। ‘आपने’ जो लिखा है कि ग्लानि नहीं होनी चाहिए, बल्कि ईश्वर का धन्यवाद देना चाहिए। सो तो जब से ‘आपने’ पहले एक बार कभी लिखा था, तब से ग्लानि वगैरह तो मेरे पास फटकती भी नहीं, परन्तु यह अवश्य है कि जब याद ठीक नहीं बन पड़ती तो तबियत फड़फड़ाती रहती है। उस खुशीवाली हालत की भी यदि तह में देखा जावे तो बेचैनी ही निकलेगी। कभी-कभी तो इस बेचैनी के लिये भी बेचैन होना पड़ता। इतिः-

आपका दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-144
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
21/3/1951
आशा है मेरा एक पत्र मिला होगा। ‘मालिक’ की कृपा से जो आत्मिक दशा है, सो लिख रही हूँ। कल से हालत खुली हुई मालूम पड़ती है। न जाने अब यह क्या बात है कि कभी-कभी जैसे माथे में पहले खोखलापन और बड़ी गुदगुदी सी मालूम पड़ती थी, वैसे ही अब कभी-कभी ठीक बीचों बीच पीठ में करीब आठ अंगुल के बीच में बड़ी गुदगुदी और बिल्कुल खोखलापन मालूम पड़ता है। कुछ यह बात है कि जैसे पहले, चाहे जितनी भी किसी से बात करूँ या कुछ फिर भी तबियत को हर समय कहीं ऊंचे पर ही अटका पाती थी, परन्तु अब तो यह बात भी बिल्कुल नहीं लगती और यही हाल ‘मालिक’ की याद का हो गया है कि अब मुझे यह भी नहीं मालूम पड़ता कि अपने आप ही याद हो रही है। कुछ यह हाल हो गया है कि जैसे पहले अपने घर के हों या बाहर वाले, मुझे सब अपने ही लगते थे और जो कोई ‘मालिक’ की बात करता था, सो तो बिल्कुल अपना ही लगता था, परन्तु अब देखती हूँ कि चाहे कोई कुछ कहे और चाहे कोई हो, अब किसी के प्रति न तो अपनापन ही लगता है, न कुछ पराया ही। बस मन में बिल्कुल बुत बनी बैठी रहती हूँ या यों कह लीजिये कि मुझमें किसी के प्रति कोई भाव वगैरह एक क्षण को भी नहीं लगता है, या नहीं आता है। कुछ यहाँ तक है कि जैसे मैं जानती भी होऊँ कि यह बुरे लोग हैं, परन्तु फिर भी ‘मालिक’ की कृपा से उनके प्रति भी भीतर से मन में न तो कोई घृणा या बुरा भाव ही होता है, इसलिये व्यवहार भी सब के साथ वैसा ही होता है, कोई अन्तर नहीं पड़ता है। भाई, सच बात तो यह है कि अच्छा-बुरा कुछ मालूम ही नहीं पड़ता है। और वास्तव में होता भी शायद नहीं होगा। और अच्छाई-बुराई का सवाल ही कहाँ है। जब कि ‘मालिक’ की कृपा से हाल यह है कि मुझे कहीं कुछ दिखाई ही नहीं देता। कोई चीज़ या मनुष्य बिल्कुल महसूस तक नहीं होता। कोई शक्ल मुझे नहीं दीखती। यदि आप मुझसे यह प्रश्न करें कि तुमने मास्टर साहब को देखा था, तो चाहे वे मुझे Sitting भी दे गये हों, परन्तु मेरा अन्तर तो नहीं ही में मिलेगा। कोई भाव वगैरह भी मुझमें नहीं रह गये हैं। वह भी कृपा करके ‘मालिक’ ने ले लिया है। खैर, ‘उसकी’ जैसी मर्ज़ी। मुझे कुछ चाहिये भी तो नहीं। बस एक ही केवल एक ‘मालिक’ ही चाहिये। यह जो कुछ भी है, केवल मेरे ‘मालिक’ की ही, मुझ सी जाहिल पर भी, अहेतु की कृपा का फल है। इधर दो-तीन दिन से हालत शुद्ध या Innocent सी मालूम पड़ती है।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-145
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
26/3/1951
आशा है मेरा एक पत्र ‘आप’ को मिला होगा। ‘मालिक’ की कृपा से जो भी आत्मिक-दशा है, सो निवेदन कर रही हूँ। मैंने अगले पत्र में खुशी के बारे में लिखा था, सो तो कब की गायब हो गई है। पूज्य महात्मन् न जाने क्यों मैं इधर कई दिनों से अपने में ‘मैं पना’ बढ़ा पाती हूँ और ऐसा कि अपने बस का नहीं मालूम पड़ता। शायद यह भी कोई हालत होती होगी। मैंने कभी ‘आप’ को लिखा था कि मुझे ‘मालिक’ में और अपने में बिल्कुल एकता लगती है। और सच में श्री बाबूजी ! वह हालत मुझे बड़ी अच्छी लगती थी, परन्तु वह कम पड़ती गई और इधर तो करीब महीने डेढ़ महीने से वह हालत बिल्कुल गायब हो गई। एक क्षण को भी नहीं आती है। अब न जाने क्या हो गया है कि मुझे ‘मालिक’ में न तो बिल्कुल एकता ही लगती है और न जरा भी प्रेम लगता है और न वह Link ही मालूम पड़ती है, जो मुझे हर समय मालूम पड़ती थी। और शायद इसी कारण से मुझे अपने में ‘मैं पना’ बढ़ा हुआ लगता है। परन्तु फिर भी हालत ‘मालिक’ की कृपा से अच्छी ही होगी। या यों कह लीजिए कि मन को ऐसी ही आदत सी पड़ गई है। और न जाने यह क्यों हो गया है कि जब से मैंने वह हालत लिखी थी कि शरीर मय आकार के एकदम गायब हो गया है, तब से ‘मालिक’ का ध्यान जैसे हर समय अपनी जगह ‘वहीं’ दिखलाई पड़ता था, सो बिल्कुल एक क्षण को भी नहीं हो पाता, परन्तु फिर भी ‘मालिक’ ही ‘मालिक’ की रटना है। पूज्य श्री महात्मन् ! अब भी ‘वह’ जैसे भी हैं, जहाँ भी है, है वह ज़रूर। अब यह ‘उसकी’ मर्ज़ी, जैसे भी वह रहे और जिस हालत में मुझे रखे। और अब कुछ यह हो गया है कि sitting लेने व देने में एक सी ही दशा रहती है। न मालूम पड़ता है कि दे रही हूँ, न यह मालूम पड़ता है कि ले रही हूँ। यद्यपि यह हालत शुरु तो पहले से है, परन्तु अब तो बिल्कुल खत्म है। और जो भी पूजा करता है, न जाने क्यों अब उसकी तबियत उतनी अच्छी नहीं लगती, जितनी पहले लगती थी और ‘मालिक’ की कृपा से उन्हें अब नींद की शिकायत भी अधिकतर नहीं होती। कृपया ‘आप’ यह ज़रूर लिखियेगा कि तबियत अच्छी न लगने की वज़ह मेरी कुछ गलती तो नहीं है, यद्यपि है नहीं। नींद का वही हाल हो गया है, जो पूजा शुरु करने से पहले था। बेकार के स्वप्न दीखते हैं। अर्थात उनसे मेरा कोई मतलब नहीं होता। फिर भी ‘मालिक’ की कृपा से ही उन्नति हो रही है, इसमें शक नहीं है। और ‘मालिक’ की जैसी मर्ज़ी, कह भर लेती हूँ, वरना हालत तो अब वह भी नहीं मालूम पड़ती।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। केसर, बिट्टो ‘आप’ को प्रणाम कहती हैं तथा अम्मा ‘आप’ को आशीर्वाद कहती हैं।

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-147
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
3/4/1951
मेरा पत्र मिला होगा। ‘आप’ का कोई समाचार बहुत दिनों से नहीं मिला है, इसलिये सब को फिक्र है। आशा है ‘आप’ अच्छी तरह से होंगे। ताऊजी से मालूम हुआ कि आप जगन्नाथपुरी को भी पवित्र करने के लिये वहाँ भी पधारेंगें, फिर भी आशा है ‘आप’ २६-२७ अप्रैल तक अवश्य लौट आयेंगे। यदि असुविधा न हो तो लौटते समय एकाध दिन यहाँ आराम करते हुए फिर शाहजहाँपुर जायें। यह यहाँ पर सबकी हार्दिक इच्छा है। वैसे जिस तरह ‘आप’ को सुविधा तथा आराम मिले, वही हमारी इच्छा तथा प्रार्थना है।

अब तारीख २८ मार्च से जो हाल है, वह निवेदन कर रही हूँ। न जाने यह क्या बात है कि भूल की अवस्था जो महीनों से मुझमें नहीं मालूम पड़ती है, तथा यही हाल लय-अवस्था का भी हो गया है, कि अब तक बराबर कोशिश करने पर, उतनी देर को दोनों अवस्था महसूस होती थी, परन्तु अब तो यह हाल है कि यद्यपि है मुझमें एक भी नहीं, पहले से भी साफ़ हूँ, परन्तु अब यदि कोशिश जितनी देर को करती हूँ तो ऐसा लगता है, मानों उस हालत से उतनी देर को अलग हो रही हूँ और बुरा लगता है। अब बताइये, “ज्यों दवा की त्यों मर्ज बढ़ा” का क्या इलाज हो। खैर, श्री बाबूजी ! जिस हाल में हूँ खुश हूँ। न मुझे किसी हालत की चाह है, न कुछ, बस चाह केवल एक ही है, वैसे ‘मालिक’ की जैसी मर्ज़ी।

तारीख ३० मार्च से न जाने क्या बात है, सारी पीठ में, रीढ़ में तथा उसके इधर-उधर की हड्डीयों के नीचे तमाम सुरसुराहट, गुदगुदी तथा रेंगन सी होती रहती है। सारी पीठ में ऊपर नीचे, अधिकतर ऊपर यह बात अधिक मालूम पड़ती है। तथा बड़ा हल्कापन और खोखलापन मालूम होता है, गर्दन में पीछे, जहाँ से रीढ़ शुरु होती है, परन्तु खास कर यह दशा Heart के ठीक पीछे वाली पीठ में अधिक मालूम पड़ती है। परन्तु अब यह बात, जैसे Heart आगे है, उसी जगह पीठ में तथा बाँयें कंधे के नीचे यह गुदगुदी तथा सुरसुराहट करीब-करीब हर समय मालूम पड़ती है, वैसे पीठ में और जगह भी होती है। इस दशा के अलावा भी उस दिन से कुछ और हालत बदली हुई है। अब तो भाई, न जाने क्या बात है कि शरीर तो बिल्कुल Free मालूम पड़ता है। हर काम तथा हर बात में बिल्कुल Free लगता है। जो मन आया, सो किया और यहाँ तक कि ऐसा मालूम पड़ता है कि साधना, पूजा आदि तो कभी इससे हुई ही नहीं। खैर, ‘मालिक’ की मर्ज़ी।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-148
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
7/4/1951
हरिदद्दा से तथा ‘आप’ के पोस्टकार्ड से सब समाचार मालूम हुए। मेरी आत्मिक-दशा तो ‘मालिक’ की असीम दया से अच्छी ही है। फिर आज ‘आप’ ने भी लिख दिया है। इस गरीबनी पर तो जन्म से ही ‘मालिक’ की कृपा रही है और विश्वास है कि सदैव ऐसी ही कृपा रहेगी। मुझे जैसे पहले फैलाव वगैरह मालूम पड़ता था, परन्तु अब वह भी खत्म है। जैसा मैंने अगले पत्र में लिखा था, पीठ में गुदगुदी, खोखलापन तथा कुछ सुरसुराहट सी, वह अब भी मौजूद है, परन्तु अब अधिकतर पीठ में बाई ओर कंधे से नीचे तक तथा बीच रीढ़ में यह चीज़ करीब-करीब हर समय मालूम पड़ती है। और अभी कोई खास हाल नहीं मालूम पड़ा। अब आप के लौटने पर लिखूँगी। शरीर की Freeness का तो अब यह हाल है कि हर काम, हर बात Free निकलती है और फिर उस तरफ कोई ख्याल भी नहीं रहता। ‘आपने’ शरीर को तो भाई, खूब Free किया है। इससे तो ऐसा मालूम पड़ता है कि न तो कभी कुछ पूजा, साधना हुई है, बस उससे भी Free है।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-149
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
27/4/1951
आशा है लम्बे Tour के बाद सबको अपने दर्शन व अपनी उपस्थिति से कृतार्थ करते हुए आप अब शाहजहाँपुर पहुँच गये होंगे। वास्तव में वे ही दिन, वे ही क्षण मनुष्य का वास्तविक जीवन है, कि जो दिन, जो क्षण उसके ‘आप’ पर विश्वास के सहित आप के साथ तथा ‘आप’ के दर्शन करते हुए बीतें हैं अथवा बीतेंगे। और उनका तो कहना ही क्या होगा जो केवल ‘मालिक’ की खातिर सर्वस्व न्योछावर कर चुका हो अथवा करने की कोशिश करता हो। यदि ‘मालिक’ की ऐसी ही कृपा रही तो एक वह भी दिन अवश्य आयेगा, जब इस गरीब भिखारिन की भी कोशिश सफल होगी। खैर, आशा है इतने सफर के बाद भी ईश्वर की कृपा से ‘आप’ की तबियत ठीक ही होगी। यद्यपि थकान तो बहुत आ गई होगी और शायद इसी कारण आप यहाँ नहीं पधार सके, फिर भी यहाँ सबको ‘आप’ के आज आने की बहुत आशा लगी हुई थी, परन्तु कल बड़े भईया आ गये। उनसे मालूम हो गया कि ‘आप’ अभी यहाँ नहीं पधार सकेंगे। कल ‘मालिक’ की कृपा से ‘आप’ का जन्मोत्सव भी सानन्द सम्पन्न हो गया। अब ‘मालिक’ की कृपा से, ‘आप’ शाहजहाँपुर से बाहर गये हैं, तब से अब तक जो भी आत्मिक-दशा समझ में आई है, सो लिख रही हूँ।

अब तो कुछ यह हाल हो गया है कि जैसे पहले यदि मैं किसी काम में या बात वगैरह में लग जाऊं तो पीछे मुझे बड़ा अफ़सोस तथा कुछ थोड़ा सा असर या कुछ और कहिये मालूम पड़ता था, परन्तु देखती हूँ कि अब यह बात नहीं है। अब घर से आठ दिन बाहर रही, परन्तु कुछ नहीं। मुझे जब कोई पुजारिन कहता है, तो मेरी समझ में ही नहीं आता कि यह सही कह रहा है। लोग तो पहले की तरह समझ कर कहते हैं। खैर, ‘मालिक’ जाने, वे ठीक कहते हैं या गलत। ऐसे ही कभी जब किसी काम की या बात की कुछ तारीफ़ सुनती हूँ तो, यद्यपि न तो मुझे मन में कुछ शर्म का सा ही भाव मालूम पड़ता है और न कुछ समझ में ही आता है। यही हाल तब भी रहता है, यदि कुछ गलती हो जावे तो मुझे कोई बुरा-भला कहने लगे। श्री बाबूजी ! तारीफ़ सुनने पर शर्म आनी चाहिये परन्तु न जाने यह क्या हाल है। खैर, मुझे इसकी भी कुछ परवाह नहीं। ‘वह’ जैसा चाहे रखे। ‘वह’ जैसा कि मैं पहले हालत शायद लिख चुकी हूँ कि हालत बिल्कुल Free है। यदि Free रखना चाहता है तो Free रखे, मुझे क्या करना। और एक बात कुछ यह भी हो गई है कि न तो तबियत इस ओर ही जाती है कि सब काम कौन कर रहा है? किसके द्वारा हो रहे हैं? बस, सब काम Automatically होता मालूम पड़ता है। परन्तु इधर महीनों से यह Automatically का ख्याल भी खत्म हो गया है। अब तो किसी ओर ध्यान ही नहीं जाता और खुद ही न इस तरह के कोई विचार ही उठते हैं। अब तो भाई ! जो है, सो है। ‘मालिक’ की जैसी मर्ज़ी अब तो मुझमें से दीनता महीनों से गायब है। यद्यपि यह भी नहीं है कि दीनता के बजाय कुछ अमीरपना हो या कुछ और सो भी कुछ नहीं है। सच तो यह है कि कुछ तो चिकना घड़ा थी ही, परन्तु जब से बका की हालत चली है, तब से तो इसने बिल्कुल ही साफ़ कर दिया। अब जैसे मैं कानपुर और इटावा गई तो वहाँ ‘मालिक’ की याद की शायद कोशिश भी कम हो गई, परन्तु हाल वहाँ भी यही रहा और यहाँ भी यही है कि जैसे कुछ बात ही नहीं हुई हो, मैं कहीं गई ही नहीं। पहले मैं देखती थी कि यदि मैं जरा भी देर को याद भूल जाती थी तो बड़ा दुख होता था, परन्तु अब यदि भूल जाती हूँ तो जैसे कोई बात नहीं। इसलिये भाई ! आजकल की हालत का सार तो है चिकना घड़ा। और कुछ यह हाल हो गया है कि मैं चाहे कहीं चली जाऊँ, तो वहीं मुझे अपने घर की तरह मालूम पड़ने लगता है। यद्यपि वहाँ मैंने किसी को कभी देखा भी नहीं होगा, परन्तु फिर भी मुझे कुछ ऐसा नहीं मालूम पड़ता कि मैं इनसे अपरिचित हूँ। और यह होता है कि जितनी देर या दिन वहाँ रहूँ तो खुद ही सबसे परिचित सी लगती हूँ। और लौटने पर खुद ही फिर सब को भूल जाती हूँ। असली बात यह है कि अपना-पराया किसे कहते हैं, क्या होता है, यह मुझे कुछ भी मालूम नहीं रह गया है। अब तो कुछ दशा ऐसी है, यदि थोड़ी सी देर को मैं यह सोचना चाहूँ या मुझसे कोई यह पूछे कि तुम्हें इस पूजा से क्या मिला, तो मेरी कुछ समझ में ही नहीं आता कि क्या मिला? और भाई ! मालूम भी कैसे पड़े जबकि हाल अपना यह भी तो है कि यह भी नहीं मालूम कि ज़िन्दगी में कभी पूजा की भी थी, परन्तु फिर भी कुछ फ़िक्र नहीं। फ़िक्र करें ‘मालिक’ और सब वही जानें। और अब तो भाई ! और भी कमाल हो गया है कि मुझे फैज़ वगैरह तक की भी पहचान नहीं रह गई है। कल ‘आप’ के जन्मोत्सव में जब कि सारे सत्संगी फैज़ के आनन्द में मस्त थे, परन्तु मेरी हालत यह थी कि मुझ से न रहा गया तो मैंने पूज्य मास्टर साहब जी से पूछा कि ‘आप’ बताइये क्या फैज़ बरस रहा है तो उन्होंने भी कहा तथा सबने कि सचमुच फैज़ की बारिश हो रही है। अब मेरी सच्ची हालत यह है। खैर मुझे अपने ‘मालिक’ की चाह है। अब बताइये, यह मेरी क्या हालत हो गई है और ‘आप’ के इस जन्मोत्सव में मैंने भरसक काम किया, परन्तु श्री बाबूजी ! जैसा कि हमेशा होता था, अबकी से भीतर से मुझे अपने में उमंग, खुशी व जोश बिल्कुल नहीं आया तो नहीं आया। सच पूछिये तो आज मुझे यह भी नहीं मालूम कि कल घर में उत्सव वगैरह हुआ भी था। यह न जाने सब क्या हाल हो गया है, कुछ समझ में नहीं आता। यदि हो सके तो विष्णु से ही चार लाइनें लिखवा दीजियेगा, क्योंकि कभी अपना हाल देखकर कुछ फ़िक्र सी हो जाती है।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-
आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-151
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
12/5/1951
आशा है आप आराम से पहुँच गये होंगे। ‘आप’ को खाँसी बहुत आती थी, सो कुछ लाभ हुआ या वैसी ही है। मेरी आत्मिक-दशा ‘मालिक’ की कृपा से जो कुछ भी थोड़ी बहुत मालूम पड़ी है, सो लिख रही हूँ। मैंने शायद अगले पत्र में लिखा था कि करीब महीने या डेढ़ महीने से किसी भी काम में अब Automatically का भाव या अन्दाज़ भी खत्म हो गया है, यानी अब किसी भी काम के लिये ऐसे कोई विचार एक क्षण को भी नहीं आते कि कैसे हो रहे हैं। कुछ हाल यह है कि बेचैनी ‘मालिक’ के प्रति बढ़ाने की कोशिश करती हूँ तो भी मन पर इसका ज़रा सा भी प्रभाव पड़ता नहीं मालूम होता। अब तो working ही मेरा आधार है। यही मेरी पूजा है और जब से शायद वह हालत हुई थी कि 'अपना शरीर मय आकार के गायब हो गया” तब से निगाह केवल मेरा शक ही है कि सूक्ष्म शरीर पर रहती है, सो भी सूक्ष्म तौर से। अब तो अपना तमाम फैलाव जो दिखाई पड़ता था, सो सब खत्म हो चुका है। पूज्य श्री बाबूजी न मुझे किसी हालत से मतलब है, और न चाह। परन्तु फिर भी यदि ग़ौर से देखती हूँ तो अनजाने ही मन में एक बहुत धीमी सी तड़प या बेचैनी अवश्य पाती हूँ। यद्यपि हाल अब यह भी हो गया है कि कारण से भी मैं बरी हूँ। ‘मालिक’ ही सर्वस्व है, जैसा रखेगा, वैसे ही रहूँगी, और खुशी से। जिज्जी के लिये यहाँ और वैसे भी जो आप ने किया है, वह केवल बहुत-बहुत धन्यवाद के, अवर्णनीय है। दुनिया के काम बनाने को आप एक क्षण में कितनी सरल और कितना लाभकारी उपाय तुरन्त सोच लेते हैं और सोचते ही क्या, उसी क्षण पूर्ण भी कर देते हैं। फिर भी ‘आप’ पर जिन्हें विश्वास नहीं, वे सच में अभागे हैं। ईश्वर वह दिन शीघ्र लावे, जिससे आध्यात्मिकता के इस स्वर्णयुग में कोई भी आध्यात्मिक लाभ से वंचित न रह सके। मैं सोचती थी कि ‘आप’ जब यहाँ पधारेंगे तो शायद हालत कुछ सुधरे, परन्तु अबकी से ‘आप’ गये हैं तो ऐसा लगता है मानों गये बहुत वर्ष बीत गये हैं। हालत जैसी ‘आप’ के आने से पूर्व थी, सो ही है।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-152
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
15/5/1951
आशा है, मेरा पत्र मिला गया होगा। यह पत्र इसलिये और भी जल्दी भेज रही हूँ कि मैंने तारीख १३ की रात को, उसे स्वप्न कह लीजिये, परन्तु उस अवस्था को बिल्कुल स्वप्न भी नहीं कह सकती हूँ। तीन साढ़े तीन बजे आप मुझे बिल्कुल अपने सामने दिखलाई दिये और ‘आप’ से पूछा तो ‘आप’ को देखकर मालूम पड़ता था कि ‘आप’ की साँस की तकलीफ़ बढ़ गई है, और मैंने ‘आप’ से पूछा तो ‘आपने’ भी बतलाया कि साँस की तकलीफ़ बढ़ गई है और एक किसी काम का शायद ‘आप’ ने कुछ तरीका भी बतलाया था और मेरी समझ में भी आ गया था, परन्तु क्या बताऊँ लिखना नहीं मिला और फिर ‘आप’ की तकलीफ़ के आगे अब तो कुछ याद ही नहीं आता है। आशा है, ‘आप’ को अब आराम हो गया होगा। वैसे भी मैं देखती हूँ कि रात में अधिकतर ऐसी ही अवस्था रहती है कि सपने वगैरह में भी बात करती हूँ तो अधिकतर मुझे बिल्कुल मालूम रहता है कि मैं बात कर रही हूँ। यद्यपि मैं यह नहीं जानती कि मेरा मुहँ खुलता है या नहीं। खैर, यह सब ‘आप’ जानें। कृपया अपनी तबियत का हाल जल्दी से जल्दी भेजियेगा। ईश्वर करे ‘आप’ बिल्कुल अच्छे हो जायें। और जो कुछ भी हालत ‘मालिक’ ने मुझे दी है, सो लिख रही हूँ।

न जाने क्या बात है कि पहले मेरा ख्याल या इरादा ‘मालिक’ के प्रति बेहद मज़बूत था और अब तो वह ख्याल या इरादा ही महसूस नहीं होता तो उसकी मज़बूती का पता का तो कुछ सवाल ही नहीं। लगन-वगन भी अब मुझमें रत्ती भर भी नहीं रह गई है। मुझे यह तक भूल जाता है कि मेरा ध्येय क्या है। शायद इसी लिये सारा जोश भी ठंडा हो गया है। अब तो यह ख्याल भी खत्म हो चुका कि मेरी आत्मिक उन्नति हो रही है, या हो चुकी है अथवा होती रहेगी या कुछ हो रही है। पूज्य श्री बाबूजी ! मैंने जो कुछ भी अपनी हालत ऊपर लिखी है, सब मेरे वश के बिल्कुल बाहर है। इसलिये कोई खास चिन्ता नहीं है।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-153
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
3/6/1951
कल पूज्य मास्टर साहब जी के पत्र से मालूम हुआ कि ‘आप’ की तबियत कुछ अच्छी है, पढ़कर खुशी हुई। मेरी आत्मिक-दशा जो, कुछ ‘मालिक’ की कृपा से मालूम हुई है, सो लिख रही हूँ। भाई, मेरा तो अब कुछ यह हाल हो गया है कि मैं तो अब बिल्कुल बेकन्ट्रोल सी हो गई हूँ। मुझे तो किसी बात में, किसी चीज़ में अपने ऊपर अपना कुछ Control ही नहीं मालूम पड़ता है। बिल्कुल बेअख्तियार हाल हो रहा है। परन्तु वैसे मैं देखती हूँ कि ‘मालिक’ की कृपा से Control की जगह या समय हो, सब कुछ हो जाता है। वैसे कुछ ऐसी हालत हो गई है कि मुझे अब अपने में Sure नहीं है कि मुझमें अब कुछ यह सब बातें हैं या नहीं और यह बात इस हद तक हो गई है कि खैर, ‘मालिक’ में प्रेम का दावा तो मैं पहले ही छोड़ चुकी हूँ पर अब तो मुझे यह भी Sure नहीं है या यह भी मैं नहीं कह सकती कि मुझे ‘उसमें’ (‘मालिक’ में) कुछ विश्वास वगैरह भी रह गया है या नहीं। खैर, मेरा तो यही है कि ‘वह’ जिस तरह रखेगा वैसे ही खुशी से रहूँगी। पूज्य श्री बाबू जी ! मुझ पर ऐसी ही कृपा दृष्टि बनाये रखें, जिससे प्रतिक्षण मेरी उन्नति बढ़ती ही चली जावे। पूज्य मास्टर साहब से प्रणाम कहियेगा।

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-155
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
5/6/1951
कल ‘आप’ का तथा पूज्य मास्टर साहब जी का पत्र आया। ‘आप’ की तबियत खराब पढ़कर हम सब को बहुत चिन्ता है। न जाने ईश्वर को क्या मंजूर है। कृपया अपनी तबियत का हाल जल्दी-जल्दी लिखवा दिया करिये। मैं भी करीब २०-२१ दिन से बीमार ही हूँ। कल-परसों से अब उठ कर थोड़ा बहुत चलने फिरने भी लगी हूँ। अब तो केवल कमजोरी ही है। वैसे बिल्कुल ठीक हूँ। कोई फ़िक्र की बात नहीं। इसी कारण बहुत दिन से पत्र न डाल सकी। यद्यपि डायरी में हाल बहुत दिन के लिखे पड़े हैं। कृपया क्षमा करियेगा। यद्यपि पत्र वगैरह लिखने में चक्कर तथा हफंनी सी आने लगती है। मेरे लिये बिल्कुल फ़िक्र न कीजियेगा। दो-एक दिन में पूर्ण स्वस्थ हो जाऊँगी। अब जो कुछ अब तक का हाल है, सो लिख रही हूँ।

कुछ ऐसी हालत है कि पहले मैं लिख चुकी हूँ कि – “अपनी दशा का एहसास या दशा के एहसास का एहसास भी खत्म हो गया है”, क्योंकि अब देखती हूँ कि वैसे मुझे अपनी हालत कम या देर में एहसास हो पाती है। परन्तु कभी-कभी जब बातें छिड़ जाती हैं, और ताऊ जी कुछ बताने लगते हैं तो मुझे मालूम पड़ता है कि यह मेरी दशा है, वह भी मेरी दशा है, परन्तु सुनने के बाद कुछ ही मिनटों में फिर सब ख्याल से उतर जाती है और कुछ ऐसा हाल है कि मुझे यह भी नहीं मालूम कि न जाने मैं आस्तिक हूँ, न जाने मैं नास्तिक हूँ। हालत को Judge करके अधिकतर मैं नास्तिक कही जा सकती हूँ। पहले जैसे मैं लिखा करती थी और ‘आप’ ने भी लिखा था कि समता की दशा बढ़ रही है परन्तु अब तो ऐसा लगता है कि वह भी मुझमें न तो है, न थी और शायद अब आने भी न पावे। यही हाल हल्केपन का है कि यदि एक क्षण अपने में ढूँढने की कोशिश करूँ तो तबियत तुरन्त घबड़ाने पर आमादा हो जाती है, इसलिये मैंने तो इन सब बातों के आने पर गौर करना भी छोड़ दिया है, न कुछ तबियत ही चाहती है। पूज्य श्री बाबूजी ! अब कुछ यह भी हो गया है कि पहले जैसे सामने बैठे हुए लोग मुझे परछाई की तरह मालूम पड़ते थे परन्तु अब तो परछाई वगैरह भी सब गायब हो गई है। अब तो यह हाल है कि मुझे उनका शरीर तथा जान तक कुछ भी महसूस नहीं होती है और अब यही हाल कुछ-कुछ अपने लिये भी होता जा रहा है। आज कल तो कुछ यह हाल है, हर समय बिल्कुल चुपचाप पड़े रहने की तबियत चाहती है और अधिकतर पड़ी भी रहती हूँ। न कुछ लिखने की, न किसी को पूजा कराने की ही तबियत चाहती है।

पूज्य मेरे श्री बाबू जी ! अम्मा की दशा देखी नहीं जाती। उनके अधिकतर बहते हुए आसू देखकर तबियत जाने कैसी हो जाती है, बरबस अपने आँसू रोकना कठिन हो जाता है। फिर भी बेचारी बहुत धैर्य धारण करती हैं। वे अधिकतर यही कहती हैं कि दुनिया में हमारे जैसा पापी मिलना कठिन है कि वे मेरी ज़िन्दगी में खत्म भी नहीं हो सकते हैं। इसी कारण कभी-कभी तबियत मेरी भी कुछ पेरशान हो जाती है। पूज्य श्री बाबूजी ! ‘आप’ अच्छे हो जाइये, यह हमारी सब की प्रार्थना है। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-157
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
10/6/1951
कृपा-पत्र ‘आप’ का तथा पूज्य मास्टर साहब जी का मिला। ‘आप’ को एक दौरा फिर पड़ गया, पढ़कर चिन्ता हुई। यद्यपि चिन्ता के बजाय मैं कोशिश ही अधिक करती हूँ कि जैसे भी हो, ‘आप’ की कुछ यही सेवा हो जाये कि ‘आप’ की तकलीफ़ कम हो जावे और इस बात की कोशिश करते आज दस महीने हो गये, परन्तु ‘आप’ को न जाने क्यों कोई आराम न पहुँचा सकी। मैं सदैव से यहाँ तक तैयार थी और हूँ कि ‘आप’ के दौरे वगैरह की यह सब सारी तकलीफ़ यदि ‘मालिक’ मुझे देने की कृपा कर दे और फिर यह देखे कि ‘मालिक’ के आराम की खुशी में वे तकलीफें चाहे बेइन्ताही तौर पर मुझ पर गुजरें, परन्तु उसकी ‘कस्तूरी’ के मन में एक क्षण को भी जो मैल या कुछ तकलीफ़ महसूस होने पावे। Dictate में जो पूज्य चरण 'स्वामी' जी ने कहा है – “master Sahib and Kasturi may exercise themselves will fully, the desease can not remain इसे सचेत करने के लिये उन्हें बहुत-बहुत धन्यवाद है, परन्तु ‘मालिक’ की कृपा से अपने जीवन का मुख्य कर्तव्य मानती हुई उनकी आज्ञा के पहले ही कुछ न कुछ अवश्य करती आ रही हूँ। कभी-कभी जब मुझे काफ़ी खाँसी उठती है, तो मुझे उसमें ‘आप’ की खाँसी का आभास पाकर तबियत में यह आ जाता है कि ‘आप’ के बजाय मुझे आ जाती है। खैर ‘मालिक’ की जैसी मर्ज़ी। प्रार्थना तो यहाँ सब लोग कर ही रहे हैं। मास्टर साहब जी से यह भी कह दीजियेगा। कि मैं बराबर कर रही हूँ और जोर से करूँगी। ‘आप’ ने जो लिखा है कि – “सब कुछ होते हुए भी दिल्ली बहुत दूर है”, परन्तु मैं तो यही कहूँगी कि यद्यपि सच ही बहुत दूर है, परन्तु ‘आप’ की कृपा दृष्टि से और आप के अभय हाथों की छाया के नीचे आ जाने से दिल्ली अब खुद ही हमारे नज़दीक आ जायेगी। मेरी आत्मिक-दशा में और तो कोई खास बात अभी नहीं मालूम हुई। हाँ, अब हालत ऐसी मालूम पड़ती है, जैसे शरीर के ऊपर हो या इस शरीर के परे हो।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-159
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
23/7/1951
मेरा एक पत्र पहुँचा होगा। आशा है ‘आप’ की तबियत अब बिल्कुल ठीक होगी। कमज़ोरी को भी लाभ ही होगा। मैं तो आप के कहे अनुसार इस हफ्ते के अन्दर ही ठीक हो गई। यह सब हुआ ‘आप’ की कृपा तथा पत्र के कारण, क्योंकि उससे पहले मेरे अन्दर की ताकत बिल्कुल सोई हुई थी, ‘आप’ की कृपा ने फिर सजीव कर दिया। बहुत-बहुत धन्यवाद है।

आत्मिक-दशा भी फिर उसी प्रकार चालू हो गई है। पूज्य श्री बाबूजी ! बीच में एक परेशानी यह हो गई है, कि मेरी समझ में नहीं आता कि मैं अभ्यास क्या करूँ। Sitting वगैरह अभ्यास के बजाय अब तक जो-जो अभ्यास करती आई हूँ या ईश्वर की कृपा से जो ‘उसकी’ कृपा से स्वतः ही होते आये हैं, अब मेरे लिये सब निरर्थक ठहरता है। बिल्कुल बेकार सा लगता है। समझ में नहीं आता, अब क्या करूँ? ‘मालिक’ के हाथ में है। देखूँ, अब वह क्या करता है, जो अब तक ठीक करता आया है, वही अब भी करेगा। अब तक कुछ न कुछ अभ्यास मेरे जाने में अथवा अनजाने में होता बराबर रहता था परन्तु अब मैं Sure हूँ कि मुझ से कोई अभ्यास नहीं होता। कुछ ऐसा ख्याल होता है कि ईश्वर की कृपा से अपने को अब मैं अभ्यास से अधिक हल्की पाती हूँ। खैर, फिर भी ‘मालिक’ का धन्यवाद है कि कृपा करके ‘वह’ कोई न कोई तरकीब निकाल ही देता है। यद्यपि अबकी तरकीब भीतर ही भीतर है और इतनी हल्की है कि यदि मुझसे कोई पूछे तो मैं बतला नहीं सकती। शायद वह अभ्यास से पतली है।

अब तो श्री बाबूजी ! मेरी समझ से जाने तथा अनजाने में भी हर समय मेरी मुर्दा अवस्था ही रहती है और अब मुझे अपने अन्दर की कुछ ऐसी हालत मालूम पड़ती है, जैसी पहले कभी मैं लिख चुकी हूँ कि – “शरीर का ज़र्रा-ज़र्रा पिघल-पिघल कर बहा जा रहा है”। वही हाल मुझे अब अपने अन्दर प्रतीत होता है।

‘आप’ के पत्र से मालूम हुआ कि ‘आप’ की तबियत खराब है, फ़िक्र लगी है। ईश्वर से प्रार्थना है, मैं चाहे कितनी भी बीमार क्यों न हो जाऊँ परन्तु आप अच्छे रहें, इसमें ही मेरी खुशी है। राज के बारे में जो ‘आप’ ने पूछा, सो ‘आप’ के पत्र रुपी दीपक से उसी दम कब का खत्म हो चुका है। और किसी के बारे में मैं कह नहीं सकती। ‘आप’ की कृपा से सब ठीक ही होगा।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन-विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-160
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
10/8/1951
आशा है ‘आप’ सकुशल आराम से पहुँच गये होंगे। मेरी आत्मिक-दशा तो आप देख ही गये हैं। जो कुछ भी है, जैसी भी है परन्तु मुझे कुछ ऐसा लगता है कि अब शुरुआत है। ‘आप’ ने मास्टर साहब जी के यहाँ पूछा था कि- “क्या तुम्हारे लिये जल्दी करूँ”? सो पूज्य श्री बाबूजी ! आप की इस अकारण मेहरबानी का धन्यवाद इस जीभ से बाहर की बात है। परन्तु ‘आप’ की कृपा से हर हालत से पार होते हुए पूर्णत: ‘मालिक’ को प्राप्त कर लूँ। बस, ‘आप’ के अभय और वरद कर की सदैव छाया में रहूँ, यही प्रार्थना है। आप को कम परिश्रम करना पड़े। बस ध्येय तो हर हालत में ‘आप’ की कृपा से प्राप्त कर ही लूँगी। निगाह वास्तविक चीज़ में गड़ गई हो तो फिर दूरी ही कितनी रह जाती है। वास्तव में ‘आप’ का यह वाक्य सत्य है। न मालूम अब की यह क्या बात रही कि ‘आप’ यहाँ आये, तो चाहे मेरे घर में थे, तब चाहे मास्टर साहब जी के यहाँ थे, तब भी, जहाँ मैं ‘आप’ के सामने से चली जाती थी, तो मुझे बिल्कुल नहीं लगता था कि ‘आप’ आये हैं। इतना Uncommon कि क्या लिखूँ? पूज्य श्री बाबूजी ! आप ने बताया था कि गीता वाली कैफ़ियत चल रही है, परन्तु मैं देखती हूँ कि कुछ समय पहले तो मुझे यह हालत हर समय बहुत साफ़ महसूस होती थी, परन्तु इधर तो गौर करने पर भी नहीं मालूम पड़ती थी और न अब मालूम ही पड़ती है। और पहले की तरह न ऐसा ही लगता है कि मेरे बेजाने में ही अन्दर यह हालत हो। परन्तु ‘आप’ ने कहा था, इसलिये है तो अवश्य। एक तो कुछ यह भी बात मुझमें कुछ Naturally ही हो गई समझिये कि मेरा ख्याल इन सब आत्मिक हालतों में तो सिर्फ़ महसूस करने भर को होता है, परन्तु देखती हूँ कि भीतर कोई चाह है, सो केवल ‘मालिक’ की ही ओर लगी रहती है। जो कुछ भी हुआ है, हो रहा है और होगा, वह केवल मेरे ‘मालिक’ की ही कृपा और मर्ज़ी पर ही आश्रित है। बल्कि हालत तो यह है कि चाह होती क्या चीज़ है और अब वह मुझमें है भी या नहीं, इसमें भी मुझे शक लगता है, क्योंकि वह चाह अब मेरे सामने नहीं पड़ती।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,

पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-161
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
22/8/1951
मेरा एक पत्र मिला होगा। आशा है ‘आप’ की तबियत ठीक होगी। अपनी आत्मिक-दशा जो ‘मालिक’ की कृपा से अब है, सो लिख रही हूँ। इधर ४-५ दिन तबियत किसी में नहीं लगती थी और इसीलिये जब मुझ से कोई बात करने लगता था, तो मुझे झुँझलाहट सी आने लगती थी, परन्तु इधर अब झुँझलाहट वगैरह तो बिल्कुल नहीं रह गई है। पहले उलझी हुई हालत थी परन्तु अब ‘मालिक’ की कृपा से हालत जो भी हो, वह साफ़ हो गयी है। मुझे अब अपनी आध्यात्मिक उन्नति वगैरह कुछ नहीं मालूम पड़ती है और कुछ यह हो गया है कि अपने शरीर की तो खैर जाने दीजिये, मुझे कभी-कभी क्या अब अक्सर यह शक हो जाता है कि न जाने इस शरीर में जान वगैरह कुछ है या नहीं और महसूस तो अब सचमुच नहीं होता न इस तरफ़ कुछ ध्यान ही आता है। पहले मुझे सारे संबंधों की डोर सब तरफ़ से कटी हुई मालूम पड़ती थी और अब तो न कटी हुई न लगी हुई ही मालूम पड़ती है। अब तो किसी प्रकार का कुछ महसूस भी नहीं होता। यहाँ तक कि मुझे अपने में कोई हालत, स्थायी तो दूर रही मुझमें एक क्षण को आती नहीं मालूम देती है। अब तो न जाने मेरी क्या हालत है। अब अपने लिए न तो यह कह सकती हूँ कि मुझ में कुछ वैराग्य है, न मैं यह कह सकती हूँ कि मैं ‘मालिक’ प्रेमिन हूँ। मैं किसी इन सब के बारे में कुछ जानती भी नहीं। न मुझे यह मालूम है कि कभी मुझ में आई भी थी और कैसी होती है, यह सब मुझे कुछ नहीं मालूम रह गया। मैं तो जो थी, सो रह गई। जैसी थी, वैसी रह गई। अब तो भाई, उदासी वाली हालत तथा मुर्दा वाली हालत सब खत्म हो गई लगती है। तारीख १८ से हालत बदल गई। उलझन तथा झुँझलाहट वगैरह से निकल कर किसी साफ हालत से आ गई हूँ। अब तो ‘मालिक’ की असीम कृपा से कुछ यह हाल हो गया है कि हर चीज़ में ज़िन्दगी या हर चीज़ में से रोशनी निकलती हुई महसूस होती है। और श्री बाबूजी ! वह रोशनी भी कैसी, कि जिसमें उजियाला या अंधियारा, कुछ नहीं होता है। न जाने यह क्या हाल है। मेरी तो जो समझ में आया, लिख दिया। अब ‘आप’ जानें, ‘आप’ का काम जाने।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-163
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
29/8/1951
कृपा-पत्र ‘आप’ का आया। समाचार मालूम हुए। हालत के बारे में जो आप ने लिखा, सो मैं तो यही कहूँगी कि – “शुक्र है ईश्वर का कि कैसा ‘मालिक’ दिया, कि लाजवाब और अद्वितीय”। बस ऐसी कृपा बनी रहे, यही गरीबनी की प्रार्थना है। मुझे आप की यह चीज़ तो बहुत पसन्द आई कि जब भिखारी ही बनने को निकले, तो बनें फर्स्ट क्लास, वरना भिखमंगा बनना व्यर्थ है। परन्तु हालत तो श्री बाबूजी ! कुछ ऐसी है कि यद्यपि हूँ तो उसकी सदैव भिखारिनी परन्तु, अब उस कैफ़ियत का ज्ञान ही नहीं। अब यह भी उसकी ही मर्ज़ी है। हालत तो मैं भी लिख चुकी हूँ कि अब शुरुआत लगती है। पूज्य श्री बाबूजी! बन्धन से छुटकारा तो मनुष्य का तभी हो जाता है, जब वह सच्चे हृदय से केवल ‘मालिक’ की चाहत लिये आपके दर पर पहुँचता है। अब ‘मालिक’ की कृपा से जो आत्मिक-दशा मालूम होती है, सो लिख रही हूँ।

अब तो अधिकतर अपने में भूल की सी अवस्था मालूम पड़ती है। अक्सर मालूम भी पड़ती है और फिर नहीं भी मालूम पड़ती है। ऐसा मालूम पड़ता है कि इस भूल की अवस्था को भी भूली रहती हूँ। आजकल जो भी हालत है, शुद्ध है। आप ने एक बार लिखा था कि – “तड़प हर जगह रास्ता बना देती है”। और भाई, मेरा यह हाल है कि न जाने कब से मुझ में तड़प आती ही नहीं और यदि कोशिश करना चाहूँ तो जी घबराने लगता है और फिर भी एक बूँद नहीं आती। इसलिये अब तो जिस हालत में हूँ, उसी में ही चैन मानती हूँ क्योंकि भाई, जब अपना हाथ ही खत्म हो चुका, फिर उसकी मर्ज़ी पर हूँ। देखती हूँ एक प्रकार का आनन्द भीतर ही भीतर हर समय मेरे अन्दर रहता था, परन्तु अब यह हाल है कि ढूँढने पर भी उस आनन्द तथा किसी में ऊँच-नीच, छोटा-बड़ा न देखने आदि की स्मृति या झलक तक मुझमें नहीं रह गई है।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-165
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
5/9/1951
आप का वह खोया हुआ पत्र मिला, समाचार मालूम हुए। अभ्यास की अब मुझे कोई चिन्ता भी नहीं है, क्योंकि मेरा सम्बन्ध तो केवल ‘एक’ से है। इसलिये मेरा तो अभ्यास वगैरह भी केवल ‘वही’ है। आप ने अपने अभ्यास के विषय में जो लिखा है, वह तो अद्वितीय चीज़ होगी। ‘आप’ का यह कहना तो बिल्कुल ठीक है कि इस हालत के परिपक्व होने पर आध्यात्मिक विद्या का ‘अ’, ‘आ’ पढ़ना शुरु होगा। मेरी आध्यात्मिक हालत जो अब मालूम पड़ती है, सो लिख रही हूँ।

पूज्य श्री बाबूजी ! न जाने यह क्या बात है कि मुर्दा वाली दशा मुझे अपने में तो मालूम नहीं पड़ती, परन्तु दूसरों में अपने सामने सब तरफ वही अवस्था मालूम पड़ती है और अब तो अक्सर यह भी गायब हो जाती है। महीनों बाद अब कभी-कभी मुझे अपने में भूल वाली अवस्था तथा कुछ भौचक्की वाली अवस्था सी मालूम पड़ती है। अब अपनेपन का यह हाल है कि यद्यपि पहले तो मैं इससे बिल्कुल बरी मालूम पड़ती थी, परन्तु अब यह हाल है कि अपनापन होते हुए भी इसके भाव से अपने को कहीं दूर तथा कहीं हल्का पाती हूँ। अपनापन कहते समय मैं इसके भाव को तो अवश्य भूली रहती हूँ और इसके भाव से अपने को इतना हल्का पाती हूँ और इस कदर लापरवाह सी रहती हूँ कि मुझे अक्सर इसका एहसास तक नहीं हो पाता कि यह मुझ में आया भी था कि नहीं। अब तो श्री बाबूजी ! कभी-कभी तो मैं खुद धोखा खा सकती हूँ कि कहीं आ तो नहीं गया, परन्तु नहीं, क्योंकि जब उस ‘मैं’ का ही यह पता न रहा कि न जाने वह क्या चीज़ है, फिर यह नहीं हो सकता। फिर भी ‘मालिक’ की कृपा का भरोसा है। वैसे ठीक हालत ‘आप’ ही जान सकते हैं। पहले मेरा यह हाल था कि ‘मैं’ कहते समय, मुझे यह बिल्कुल मालूम नहीं रहता है कि यह ‘मैं’ शब्द किसके लिये कहा जा रहा है। मेरे लिये अथवा ‘मालिक’ के लिये, परन्तु देखती हूँ कि दो-ढाई महीने से यह बात बिल्कुल जाती रही। मैं इससे बिल्कुल बरी हो गई। अब न जाने क्या हाल है, यह ‘आप’ जानें। क्योंकि मेरी तो अब इन सब की तरफ कभी बिल्कुल तबियत ही क्या, बिल्कुल ख्याल ही नहीं जाता। लय-अवस्था तो मेरी श्री बाबूजी ! कब की खत्म हो चुकी। शारीरिक तथा भीतरी लय-अवस्था बिल्कुल नहीं मालूम पड़ती। और यहाँ तक कि यदि गौर करती हूँ और कोशिश करती हूँ तो तबियत परेशान हो जाती है। इसलिये अब इसका ख्याल भी छोड़ना पड़ा। अब ‘आप’ जानें, ‘आप’ का काम जाने। छोटे भाई-बहनों को प्यार। अम्मा ‘आप’ को आशीर्वाद कहती हैं। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-166
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
14/9/1951
आत्मिक-दशा के बारे में मेरा एक पत्र पहुँचा होगा। इधर ३-४ दिन से कुछ ठहराव की सी हालत मालूम पड़ती है, वैसे ठीक तो आप जानें। इधर कई दिनों से हालत कुछ भूल की तरह की और अधिक भौचक्केपन की मिली हुई है। मुर्दावाली अवस्था तो पता नहीं लगती, कि क्या हुई या कुछ मैं समझ शायद ठीक न पाती हूँ। नींद का यह हाल है कि रात भर सपने ही दीखते रहते हैं। यद्यपि याद कुछ नहीं रहते। वैसे करीब छ:-सात महीने में शायद ही कभी एक देख लेती हूँ, तो मालूम नहीं, परन्तु आज कल न जाने क्या हो गया है। एक बार पहले ऐसी ही हालत हुई थी, कि रात भर सपने दीखते थे और दिन भर ख्याल आते रहते थे। सोई अब दिन में उन्हें ख्यालात तो नहीं, हाँ, सपने की भाँति एक आया, एक गया सा कुछ बना रहता है, हटाने से हटते नहीं, इसलिये ‘मालिक’ पर छोड़ दिया है। और क्या आता रहता है, याद नहीं। शायद दिमाग भी न जाने क्यों आजकल कुछ कमज़ोर सा है। पूज्य श्री बाबूजी ! जरा मेहरबानी करके हालत पर एक निगाह अवश्य डाल लीजियेगा, क्योंकि हालत आजकल कोई खास अच्छी नहीं मालूम पड़ती है, परन्तु ये सपने या कुछ ख्यालात वगैरह मुझे परेशान नहीं कर पाते, क्योंकि मैं देखती हूँ कि तबियत को यह छू तक नहीं पाते। कुछ यह है कि जब चाहूँ और अपने को देखूँ तो सब तरफ़ जो कुदरत की धार है, उसमें अपने को बिल्कुल मिला पाती हूँ, परन्तु वैसे कुछ नहीं मालूम पड़ता। यह चीज़ करीब-करीब हर समय ही रहती है, यदि हर समय देखूँ तो।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-167
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
21/9/1951
कृपा-पत्र ‘आप’ का कल पूज्य ताऊजी तथा पूज्य मास्टर साहब जी के लिये आया - सुनकर प्रसन्नता हुई और जो कुछ ताऊजी के लिये आप ने कुकरा में कहा यानि Next World में अपने साथ रखने को कहा, यह पढ़कर तो ‘मालिक’ का धन्यवाद सौ-सौ मुख से भी नहीं दिया जा सकता है। हम सब पर ‘मालिक’ की कितनी अहेतु की कृपा है, इसे देखकर तो हृदय गद्गद् हो जाता है। आप ने मेरे कुछ संस्कार खींच लिये हैं, इसका कुछ आभास ‘मालिक’ की कृपा से मुझे मिल गया था। इसलिये मैंने ‘आप’ से कहा भी था कि श्री बाबूजी, यदि मैं ईश्वर होती तो कम से कम बहुत तकलीफ देह संस्कार परम कृपालु सद्गुरु के पास भोगने को कभी न जाने देती। खैर, ‘आप’ की जैसी मर्ज़ी। परन्तु एक प्रार्थना फिर भी अवश्य है कि जो और जितने संस्कार “Law of Nature” के हिसाब से आप के हिस्से में जायें, वहाँ तक तो लाचारी है, परन्तु उससे एक कण भी अधिक की मेहरबानी न फरमाइयेगा। वैसे ‘आप’ की मेहरबानी का धन्यवाद तो करोड़ जिह्वायें भी करने में असमर्थ हैं। बस केवल ‘मालिक’ की होकर रहूँगी। ‘आप’ को जहाँ तक हो सकेगा अपने में ‘मालिक’ की याद की कमी का कभी मौका न दूँगी। ‘आप’ इस नाचीज़ पर सदैव खुश रहें। इसकी प्रार्थना करती रहूँगी। बस वही मेरा धन्यवाद होगा। परन्तु कृपालु श्री लालाजी ने वास्तव में हमें वह ‘मालिक’ प्रदान किया जो बिल्कुल असम्भव था। वह अनमोल रत्न प्रदान किया, जैसा न हुआ है और न होगा। उनके चरणों में इस गरीबनी का सादर प्रणाम कह दीजियेगा और कह दीजियेगा कि ‘मालिक’ को पूर्णतः प्राप्त करके रहूँगी। चाहे इधर की पृथ्वी उधर हो जाये। परन्तु यह निश्चय अडिग है। वैसे मेरे श्री बाबूजी ! अब तड़प का न जाने क्या हाल हो गया है कि कुछ खास महसूस नहीं हो पाता या यों कह लीजिये कि मुझे अब उसकी पहिचान ही नहीं रह गई है कि यह तड़प है। या भाई, यों कह लीजिये कि वह थोड़ी सी है, जो कम महसूस हो पाती है। अब जो जोश आता है, वह ठंडा होता है, उबाल या उफान भरा नहीं होता है। मुझे भाई, ‘मालिक’ चाहिये, फिर ‘वह’ जैसी मर्ज़ी हो रखे। अब कुछ यह हाल है कि शान्ति की भी शान्ति मालूम पड़ती है। इधर करीब १५-२० दिनों से यही हाल चल रहा है कि २-१ दिन हालत अच्छी बिल्कुल शुद्ध मालूम होती है और २-१ दिन को खराब हो जाती है। अच्छी-बुरी या ऊंची-नीची, यही हालत चल रही है। परन्तु खराब के बाद फिर जो शुद्ध हालत आती है, वह पहले से भी अधिक better या शुद्ध मालूम होती है! अब तो यह हाल है कि जितनी खाली रहूँ, उतनी ही आत्मिक उन्नति मालूम पड़ती है। बस अब यही पहिचान रह गई है।

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-168
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
24/9/1951
आप का कोई पत्र बहुत दिनों से नहीं आया। इस कारण ‘आप’ सब की कुशलता के भी कोई समाचार नहीं मिल सके। मेरा पत्र पहुँचा होगा। अब तो आप के आने के दिन भी नज़दीक आ गये। मेरी तबियत बस कुछ थोड़ी सी खराब है। अब ‘मालिक’ की कृपा से इधर की जो कुछ भी आत्मिक-दशा है, वह लिख रही हूँ।

इधर तारीख २२ से २६ तक अजीब गुमसुम सी रही, परन्तु फिर ठीक हो गई। अक्सर देखती हूँ कि इस गुमसुम के बाद जो कैफ़ियत आती है, वह बड़ी शुद्ध हालत होती है। भाई, अब तो यह हाल हो गया है कि भीतर की दशा और बाहर की दशा में इतनी समानता हो गई है कि अपने को बिल्कुल भूल कर अजीब हल्की विशुद्ध धारा की तरह बहती हुई शक्ल सी महसूस करती हूँ। परन्तु कोई बाह्य शक्ल की तरह नहीं भासती हूँ। एक अजीब कैफ़ियत रहती है, जिसे कैफ़ियत कहना भी बेकार है। क्योंकि यह ‘हालत’ शब्द उससे कहीं भारी लगता है। ऐसा समझ लीजिये कि जैसे बिना अनुभव हुए भी सूक्ष्म वायु हर समय बहती है, इतनी ही हल्की या इससे भी कहीं हल्की है। या यों कह लीजिये कि जैसे भारी नदियाँ, समुन्द्र में जाकर अपना अलग नाम तथा अवयव या रूप को छोड़कर समुन्द्र की लहरों में मिल कर एक हो जाती हैं या इससे भी हल्का समझ लीजिये। ऐसा मालूम पड़ता है कि शरीर के सारे तत्व बह कर बाहर के तत्वों से मिलकर समान रुप से बहने लगे हैं।

मेरे श्री बाबूजी ! न जाने क्या ‘मालिक’ की कृपा है कि ईश्वरीय गूढ़ बातें भी खुद-ब-खुद साफ होने लगी हैं और अधिकतर ठीक होती हैं, क्योंकि पूज्य मास्टर साहब जी से कभी-कभी जब पूछती हूँ तो अक्सर वही निकलती हैं, जो ‘आप’ ने उनके पत्रों में कभी-कभी लिखी हैं। वैसे ‘आप’ जानें। इस दशा के अतिरिक्त जो ऊपर की दशा है, वह अधिकतर जब भीतर देखती हूँ तो वही हालत बहती हुई लगती है। और देखती क्या हूँ, महसूस करते हुए भी महसूस नहीं करती। अब तो बस अथाह समुन्द्र की तरह अपने को अपने भीतर देखने पर मालूम पड़ता है, वह भी गम्भीर शान्त और कुछ अजीब कैफ़ियत लिये हुए। मैंने भाई, अपना हाल जो कुछ भी मालूम हुआ, सो लिख दिया। अब आप जानें, ‘आप’ का काम जाने। अब तो लगाव की chain वगैरह सब भी धार में बहकर एक हो गई है। पूज्य श्री बाबूजी ! अब तो कुछ ऐसी हालत लगती है कि वास्तविक ‘शरणागति’ की प्राप्ति की शुरुआत है और यह भी लगता है कि “सिन्धु में बिन्दु समाय गयो” वाली हालत की शुरुआत है।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-171
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
4/11/1951
पूज्य मास्टर साहब जी द्वारा ‘आप’ का कृपा-पत्र मिला। पढ़कर प्रसन्नता हुई। ‘आप’ को लाभ है, साँस की तकलीफ़ कम है, ईश्वर को बहुत-बहुत धन्यवाद है। सिर में बहुत तकलीफ़ हो जाने के कारण ‘आप’ को शीघ्र पत्र न डाल सकी। अब कभी चक्कर व सिर में बिल्कुल खालीपने की परेशानी सी रह गई है। पुरानी आदत के अनुसार दो-तीन दिन में चली जायेगी। हाँ, इसके कारण ‘मालिक’ की कृपा से आगे बढ़ने का कुछ थोड़ा सा भास पाकर भी ठीक एहसास न कर सकी। खैर, कुछ परवाह नहीं। उसने रहम करके आगे को धक्का दे दिया। ‘उसकी’ इस कृपा के लिये यद्यपि धन्यवाद के लिये कोई शब्द नहीं है, फिर भी बहुत-बहुत धन्यवाद है। आप ने जो यह लिखा कि – “मगर मैं अपने ख्याल को क्या कहूँ कि मुझे किसी जगह पर तृप्ति नहीं होती”। इसके लिये बहुत-बहुत धन्यवाद है और इस गरीबनी की यह प्रार्थना है कि ‘आप’ इस तृप्ति को तब तक पास न फटकने दीजियेगा, जब तक जैसा और जितना ‘आप’ चाहते हैं, उतना न बन जाऊँ। फिर अभी आध्यात्मिक उन्नति की केवल ‘मालिक’ की अहेतु की कृपा से शुरुआत ही प्रारम्भ हुई है। बस अभी तो यही आशीर्वाद तथा मेहरबानी करिये कि उसे पूर्णतया से प्राप्त करने की तड़प की अग्नि बराबर सुलगती रहे और दिन दूनी रात चौगुनी आत्मिक उन्नति बढ़ती ही चली जावे । काबिलयत की जो ‘आप’ ने लिखी, सो भाई, सच तो यह है कि काबिलयत और नालायकी दोनों को तो उसी दिन छोड़ दिया था, जब से यह पूजा प्रारम्भ की थी और आप पहले पहल जब यहाँ आये थे। दूसरे, ‘आप’ मेरी मेहनत के लिये नाहक लिखते हैं, क्योंकि ‘आप’ ही ने तो मुझे सिखाया था कि –“ऐ मेरे ‘मालिक’ बिना तेरी मर्जी के तेरे दर्शन नहीं होते”। और ‘आप’ ही ने यह सिखाया था कि – “एक ही साधे सब सधे, सब साधे सब जाय”। इसीलिये भाई, मैं काबिलयत या मेहनत क्या जानूँ। मुझे तो बस हुजूर ने जो सबक सिखाया था, वही याद रखने की कोशिश रखती हूँ। मेहरबानी सदैव गरीब पर ऐसी ही बनी रही तो इसमें भी सफल हो जाऊँगी। फिर जरा सी यह ‘जीवन-मोक्ष दशा’, अरे ! यदि ‘मालिक’ की कृपा व मर्ज़ी हुई तो ऐसी-ऐसी करोड़ों मोक्ष दशाओं से भी अधिक अपने ‘मालिक’ पर न्योछावर कर दूँगी। क्योंकि भाई, मुझे तो एकमात्र ‘उससे’ ही काम है और उसे ही जानती हूँ। इधर अब आत्मिक-दशा का यह हाल है कि भाई, अब वह हालत जो बहुत पहले मैंने लिखी थी कि – “जीवन में ही मोक्ष का आनन्द मिल रहा है”, वह हालत अब महसूस नहीं हो पाती, बल्कि उस हालत को तो करीब-करीब भूल सी गई हूँ। उसका कैसा क्या अनुभव था इसका भी एहसास मुझे नहीं हो पाता। फैलाव दिखाई पड़ता है, परन्तु न तो यह मालूम पड़ता है कि अपना है, न कुछ ‘मालिक’ ही का। अब मेरा कुछ अजीब हाल चल रहा है। दूसरी दुनिया या ऊपर की दुनिया में तमाम फैलाव हो चुका लगता है, परन्तु इस फैलाव और उस फैलाव की सूरतों में फ़र्क है। कल अपनी हालत कुछ ऐसी दिखाई पड़ी, मानों जैसे मोक्ष आत्माएं Swim करती हैं। शायद उसमें दाखिला सा हुआ है। अब इधर जो हालतें आती हैं, वे पहले की हालतों से बिल्कुल भिन्न होती हैं। अब जो हालतें होती हैं, वह ऊपरी दुनिया की मालूम पड़ती हैं। जो हालतें अब तक जैसी होती थीं, जान-पहिचान अब उससे आगे की दुनिया में होती महसूस होती है। जहाँ पर थी अब तक वहाँ तक अपनी स्थिति हो गई मालूम पड़ती है। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-172
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
10/11/1951
एक पत्र 'आप को लिख चुकी हूँ - उसमें ‘आप’ के पत्र का उत्तर था। आशा है मिला होगा। आशा है, ‘आप’ की तबियत अब ठीक होगी। ‘मालिक’ की कृपा से अब जो कुछ भी अपनी आत्मिक-दशा समझ में आई है, सो लिख रही हूँ।

यह तो शायद मैं अगले पत्र में लिख चुकी हूँ कि कुछ ऐसा लगता है कि ऊपर की दुनिया में तमाम फैलाव हो गया है और जान-पहचान अब उससे आगे को मालूम पड़ती है। अब न जाने यह क्या है कि अपने को करीब-करीब हर समय कहीं ऊपरी दुनिया में स्थित पाती हूँ। मुझे तो बस ऐसा लगता है कि यहाँ सब काम वगैरह करती हुई भी मैं अब कहीं और ही रहती हूँ, क्योंकि हर समय अपनी स्थिति या मौज़ूदगी हमेशा ऊपरी दुनिया में ही पाती हूँ और वहाँ अपनी स्थिति का जो ख्याल है, बस उसे ही मैं या मेरापन कहा जा सकता है, यद्यपि फिर भी एक प्रकार से अपने को उस मैं या मेरापन से आज़ाद पाती हूँ और कुछ यह भी बात है कि जहाँ पर अपनी स्थिति पाती हूँ, वहाँ से अब जितनी दृष्टि जाती है, सब तरफ तमाम vast और unlimited मैदान पाती हूँ। अब जो हालत आती है, वह स्वछन्द या आज़ाद मालूम पड़ती है। फिर भी इधर दो तीन दिन से या तो सिर की वजह से या कुछ हाल ही है, कि हालत कुछ गुमसुम सी है। शेष आप जानें।

पूज्य श्री बाबूजी ! एक प्रार्थना है, केवल अपना जानकर, जहाँ तक हो सके, इस प्रार्थना को याद रखने की कृपा कीजियेगा। ‘आप’ को याद होगा कि ‘आप’ ने पार साल अम्मा से कहा था कि “अभी छ: वर्ष का तो मैं जुम्मा लेता हूँ कि कहीं जाने का नहीं और आगे ईश्वर जानें”। बस कर जोड़कर ‘आप’ से यही प्रार्थना है कि इसको कृपया भूल न जाइयेगा याद रखियेगा।

छोटे-भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-174
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
21/11/1951
कृपा-पत्र जो आप ने पूज्य मास्टर साहब जी के हाथ भेजा सो मिल गया। पढ़कर प्रसन्नता हुई। ‘आप’ की तबियत का समाचार पाकर सन्तोष हुआ। ‘आपने’ जो कुछ भी लिखा, सो केवल ‘आप’ की ही कृपा है। फिर भी भाई, मुझे तो ‘मालिक’ चाहिये। मैं तो केवल ‘मालिक’ से इतना ही सीखी हूँ। मेरी जो कुछ भी हालत है और ‘मालिक’ की कृपा से जो भी होगी, अब मुझे तो कुछ ऐसा लगता है, कुछ यह भ्रम तो नहीं। परन्तु कुछ ऐसा ही रहता है कि न जाने यह मेरी हालत है, न जाने ‘मालिक’ की। हाँ, यों कह सकते हैं कि पता नहीं किसकी है। सारांश यह है कि हालत तो महसूस होती है, हालत वाला महसूस नहीं होता। भाई, अब तो कुछ ऐसी हालत अपने में आती हुई अनुभव करती हूँ। ऐसा लगता है कि न तो मैं ही रह गई हूँ, और अब तक जो ‘मालिक-मालिक’, ईश्वर-ईश्वर पुकारती आई हूँ, अब वह भी नहीं हो पाता है। अपनी लाचारी भी हो गई है, क्यों कि अब अपना हाथ कुछ काम नहीं देता और यह हालत तो स्वयं ही आती चली जाती है या यों कह लीजिये कि एकाग्रता भी खत्म होती सी जान पड़ती है। कुछ ऐसी हालत लगती है कि या कुछ ऐसा मालूम पड़ता है कि आत्मा आज़ाद रहना चाहती है, क्योंकि जो ख्याल का ख्याल या ध्यान भीतर बाँधे रहती थी, उसमें अब ऐसा लगता है कि आत्मा को शायद बन्धन लगता है या यों कह लीजिये कि आत्मा उस ख्याल या ध्यान के बन्धन से मुक्त कहीं और अपने वास्तविक घर में रहना चाहती है या रहती है। आत्मा भी न जाने मेरी है, ‘मालिक’ की है, न जाने किसकी है। यह केवल अपने ही लिये नहीं, बल्कि सबके लिये यही हाल हो गया है। कुछ यह भी है कि रंच मात्र भी भेद भाव रहित सर्वत्र सब में केवल एक आत्मा ही समान रूप से महसूस होती है।

एक गाँठ के विषय में जो ‘आप’ ने लिखा, सो जिस ‘मालिक’ की कृपा से जन्म जन्मातंरों के हजारों गुंजलकों से बराबर मुक्त होती चली आ रही हूँ फिर उसकी कृपा के आगे बेचारी गाँठ साफ़ होते कितनी देर लगेगी। क्योंकि पूज्य श्री बाबूजी ! मेहनत व अभ्यास से तो जहाँ तक सम्बन्ध है ‘आप’ को कभी कसर है, कहने का अवसर न मिलेगा।

यह दावा भी ‘मालिक’ की अपने ऊपर भी अहेतु की कृपा देखकर ही रखने की हिम्मत है।

इस पत्र के साथ मेरा दूसरा पर्चा है, वह यदि हो सके तो अकेले में सुनियेगा।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-175
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
9/12/1951
मेरा एक पत्र पहुँचा होगा। ‘आप’ का कोई पत्र न आने के कारण ‘आप’ की तबियत का कोई भी समाचार नहीं मिल सका। कृपया अपनी सबकी कुशलता का समाचार शीघ्र दीजियेगा। ईश्वर की कृपा से जो कुछ भी अपनी आत्मिक-दशा समझ में आई है, सो लिख रही हूँ।

‘मालिक’ की तमाम अहेतु की कृपा से गाँठ वगैरह जो ‘आपने’ लिखी थी, अब बिल्कुल साफ़ हो गई है और हालत खुली हुई तथा शुद्धताई पर है। उसकी कृपा से कदम फिर बढ़ता हुआ मालूम पड़ता है। ‘उसका’ बहुत-बहुत धन्यवाद है। करीब आठ-नौ दिन से पीठ भरे में करीब-करीब हर समय रेंगन सी मची रहती है। तमाम गुदगुदी एवं फड़कन सी मची रहती है और अक्सर पीठ में तमाम खुला हुआ तथा खोखला सा लगता है। वैसे तो कभी सामने सीने भर में, कभी माथे व सिर में तथा शरीर के कभी किसी भाग में तथा कभी किसी भाग में यही बात मालूम पड़ती है। पूज्य श्री बाबूजी ! न जाने क्यों मुझ में जो अटल एकाग्रता थी, वह भी खत्म होकर या पिघल कर बाँध तोड़कर समान रुप से बहने लगी है। कोशिश कुछ काम नहीं देती और जाने क्यों अब होती भी नहीं। अब तो भाई, जो है, जैसा है, सो है। ‘मालिक’ की जैसी मर्ज़ी। और एक न जाने क्या बात है कि मृतात्मा कभी-कभी बहुत मालूम पड़ती हैं और बिल्कुल शान्त दिखती हैं। सोते में जो चैतन्य अवस्था रहती है, उसमें भी अक्सर मालूम पड़ती हैं। परन्तु होती उच्च आत्मायें ही हैं। मेरा तो न जाने क्या हाल है कि अपने लिये मुझे न दिन की आवश्यकता रह गई है और न रात की ही। और मेरी हालत को देखते हुए वे मेरे लिये अब नहीं होते। यही हाल मौसमों का हो गया है या यों कहिये कि ‘मालिक’ की कृपा ने मुझे रात-दिन तथा सब ऋतुओं के एहसास से भी बिल्कुल Free कर दिया है। परन्तु यह सब होते हुए भी जरा कृपा करके ‘आप’ देख लीजियेगा कि कहीं अपने पन का आभास तो नहीं बढ़ गया है या शायद और कुछ हो। भाई अब तो हालत का कुछ अजीब नक्शा है। ठीक एहसास होने पर फिर लिखूँगी। हाँ, एक बात यह हो गई है कि कभी-कभी अजीब तरह-तरह की ताकतों का अपने में अनुभव होता है, परन्तु मेरा ख्याल उस तरफ नहीं जाता।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। अम्मा ‘आप’ को आशीर्वाद कहती हैं। इति:-

आपकी दीन-हीन सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-176
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
11/12/1951
मैं एक पत्र लिख चुकी हूँ। आज दूसरा लिख रही हूँ। इत्तफ़ाक से वह पत्र भी अभी यहीं है। अब दोनों पत्र ‘आप’ के पास एक साथ ही पहूँचेगें। ता: ८ से इधर तक जो कुछ भी हाल मालूम हुआ है, सो लिख रही हूँ। आशा है, ‘आप’ की तबियत अब शायद ठीक हो गई हो। अब तो पूज्य श्री बाबूजी ! कृपया मेरी देखभाल करिये। वैसे तो ‘मालिक’ सदैव मेरा ‘मालिक’ ही है। ‘वह’ तो सदैव देख-भाल करता ही है, कर रहा है और करेगा। अब तो भाई, कुछ यह हाल है कि जैसे पहले बाह्य नेत्र सदैव मालिक के ध्यान में हृदय पर टिके रहते थे, फिर अब तक आन्तरिक दृष्टि मालिक के ध्यान में टिकी रहती थी, परन्तु अब यह हालत है कि आन्तरिक दृष्टि भी खत्म हो गई है। यदि कोशिश करूँ तो जी बहुत घबड़ाने लगता है। इसलिये अब उससे भी राम-राम हो गई है और एक न जाने यह क्या बात हो गई है कि ज्यों-ज्यों दिन जाते हैं, त्यों-त्यों यह मालूम पड़ता है कि ‘मालिक’ से शायद दूर, बिल्कुल दूर हो गई हूँ। भाई, अब तो यह हाल हो गया है कि अब तो अपने पास या दूर ‘मालिक’ का कहीं कभी रत्ती भर पता तक नहीं पाती हूँ। अब तो बिल्कुल साफ़ मैदान हो गया है और मज़ा यह है कि फिर भी कोई फ़िक्र नहीं होती, खैर ‘मालिक’ की जैसी मर्ज़ी। यह कमाल भी है कि यदि उसे पास या दूर, कहीं अनुभव करने की कोशिश करती हूँ तो जाने क्या हो जाता है कि तुरन्त मेरा दम घुटने लगता है। इसलिये कोशिश वगैरह भी सब छोड़ दी है। अब तो भाई, वह सपाट मैदान ही ‘मालिक’ है, इसलिये फ़िक्र है कि कहीं अपनापन तो नहीं बढ़ रहा है, क्योंकि अब लय-अवस्था तो ख्याल में भी नहीं आती, क्या करूँ। ‘आप’ जानें ‘आप’ का काम जाने। आप ही देखियेगा कि क्या बात हो गई है। पीठ वाला action अभी बिल्कुल जारी है। कभी-कभी एक हालत ज़रूर अनुभव में आती है। वह तो पूजा आदि से बिल्कुल रहित, आनन्द और बे-आनन्द से रहित, एक कुछ बुरी सी कैफ़ियत आती है। ठीक तरह से मैं अभी उस हालत को नहीं कह सकती हूँ। पूज्य श्री बाबूजी ! मुझे अब अपनी कोई खास उन्नति नहीं मालूम पड़ती है। यद्यपि अवनति तो मेरे पास फटक ही नहीं सकती। कृपया यह लिखियेगा कि मैं क्या करूँ, कुछ समझमें नहीं आता तो रोना आता रहता है। कोई भी अभ्यास नज़र में नहीं गड़ता। अब ‘आप’ ही जानें। जैसी ‘मालिक’ की मर्ज़ी होगी, वैसे रहूँगी।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-177
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
18/12/1951
मेरा एक पत्र पहुँचा होगा। बहुत दिनों से ‘आप’ की तबियत का कोई समाचार नहीं मिला था, परन्तु कल पूज्य ताऊ जी से यह सुनकर कि ‘आप’ कुकरा जा रहे हैं। इससे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि आप अच्छे हैं। अब ‘मालिक’ की कृपा से इधर जो कुछ भी अपनी आध्यात्मिक-दशा समझ में आई है, सो लिख रही हूँ।

न जाने अब क्या हाल है कि ‘लय-अवस्था की दशा’ का तो मुझे इतना भी ज्ञान नहीं रह गया है कि होती कैसी है। याद करने से भी याद नहीं आती है। ‘मालिक’ की याद तो ऐसी मालूम पड़ती है कि उसके ख्याल के ख्याल से भी परे हो चुकी है। या यों कहिये कि उसकी याद और अपनायत ख्याल के भी बंधन से मुक्त होकर स्वतंत्र हो गई हैं। कुछ यह हाल है, पहले हर काम Automatically हुआ करते थे, मुझे उनसे कोई मतलब नहीं था, परन्तु अब तो ऐसा है कि उस Automatically से भी मालिक ने मुझे मुक्त कर दिया है। उस हालत को इतना भूल चुकी हूँ कि ख्याल करने से भी ख्याल में नहीं आ पाती। या यों कहिये कि वह दशा भी ख्याल के बंधन से पूर्णतय: स्वतंत्र हो गई है। भाई, अब तो ऐसी हालत है या इतनी स्वतंत्र हालत है कि कभी-कभी मैं यह समझने लगती हूँ कि कहीं मुझमें अपनापन तो नहीं बढ़ने लगा है। कभी यह भ्रम होने लगता है कि कहीं मेरा ध्यान मालिक के ध्यान के बजाय दुनिया में तो अधिक नहीं आ गया। यद्यपि ऐसा कभी नहीं हो सकता है, क्योंकि “राखनहार है साईयाँ, मारि न सकह कोय”। सच तो यह है कि ऐसा लगता है कि कोई भी दशा मेरे वश की नहीं रह गई है। इसलिये ‘मालिक’ ने शायद उनसे मुझे स्वतंत्रता दे दी है और सच भी है जो अब तक सुना करती थी कि –“आत्मा स्वतंत्र है, न उसे तलवार काट सकती है, न वायु सुखा सकती है, न पानी गीला कर सकता है”। मालिक की कृपा से शायद उसी हालत का आनन्द उठा रही हूँ, वैसे आप जानिये। पीठ का हाल बिल्कुल वही है। बस अब ऐसा अनुभव होता है कि भीतर-भीतर सब खुलाव हो चुका है, बस कुछ ऊपरी शेष है, सो भी सब साफ हो जावेगा। अब मालूम पड़ता है, कुल शरीर में सब कुछ खुल-खुला कर ही दम लेगा।

अम्मा ‘आप’ को आशीर्वाद कहती हैं। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-178
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
27/12/1951
मेरा पत्र मिला होगा। आशा है, ‘आप’ स्वस्थ होंगे। आज दिनभर तो कान ‘पण्डितजी’ ऐसी आवाज़ सुनने को सत्याग्रह कर-कर बैठते थे। पैर पुनः पुनः दफ्तर तक दौड़ जाने को मचल उठते थे। हाथ स्वतः ही आपस में जुड़कर मानों अपनी एकता की दुहाई दे रहे थे। परम सौम्य तथा सुमधुर चेहरे के दर्शन को आँखे लालायित थीं। पलक-पाँवड़े बिछाकर अपने इष्ट के स्वागत में विलीन थी। परन्तु अब रात हो चुकी है। ‘आप’ के आने का समय निकल चुका। इसलिये पत्र लिख रही हूँ। खैर, मुझे लगता है कि Proof और कमज़ोरी के कारण शायद आप नहीं आ सके। सम्भव है हमारी आह की थोड़ी सी गर्मी ‘आपकी’ साँस को अधिक आराम न पहुँचा सकी। खैर, मुझे यह विश्वास है कि ‘आप’ जहाँ भी हैं, मेरे हैं, और रहेंगे। अब तो बसन्त पास ही आ गया है। तब तो अवश्य ही ‘आप’ के दर्शन होंगे।

मेरे श्री बाबूजी ! अब तो यह हाल है कि मुर्दा अवस्था का ही सब ओर निवास है। कुछ यह बात हो गई है कि दशा में से सुहानेपन की बू निकल गई है। न उदासी है, न कुछ ऐसा लगता है कि दशा सूनेपन में खोती सी चली गई है। होशी-बेहोशी कैसी। दशा आती जाती रहती है। और होशी-बेहोशी क्या, कुछ तबियत कहीं गोते लगाते रहती है, परन्तु पाती कुछ नहीं। अब तो कुछ ऐसी दशा है कि हृदय में कुछ लिखा ही नहीं, तो पढूं क्या? मेरे श्री बाबूजी ! कहीं लगाव की डोरी में कमी तो, ढीलापन तो नहीं आ रहा है। यद्यपि इस मन से ऐसी रंच मात्र भी आशा नहीं है और फिर मन का तो यह स्वयं ही न जाने क्या हाल हो गया है, कि देखती हूँ कि मन सब जगह है और कहीं नहीं है, इसलिये कहीं नहीं है। परन्तु सम्भव है कहीं आह दबी रह गई है और यह वही (मन) हो। कुछ ऐसी दशा है कि रुप है नहीं और रंग भी धुल चुका है। भाई, अब तो ऐसी दशा है कि जैसे बुझते हुए दीपक की लौ कभी स्वतः ही तेज़ और फिर मध्यम पड़ जाती है। सम्भालना ‘आप’ ही। मैं तो जैसी हूँ, सामने हाज़िर हूँ। मेरी तो यह दशा है कि जैसे न बिगड़ी हूँ न बनी हूँ। तबियत का हाल इसलिये नहीं दिया कि ठीक ही है और फिर ताऊ जी बता ही देंगे। अम्मा ‘आप’ को आशीर्वाद तथा केसर, बिट्टो प्रणाम कहती हैं। इति:-

सदैव केवल ‘आप’ की ही स्नेह सिक्त सेविका’
कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-179
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
29/12/1951
मेरा एक पत्र पहुँचा होगा। पूज्य मास्टर साहब जी से वहाँ का समाचार मालूम हुआ। ‘आप’ की तबियत कुछ ठीक पढ़कर प्रसन्नता हुई। पूज्य श्री बाबूजी ! मेरी हार्दिक इच्छा है कि आप के दमे की तकलीफ़ आपको हरगिज तकलीफ़ न पहुँचा सके। Dictate का भी पूर्णतया पालन करने में एक क्षण भी नहीं चूकती हूँ, परन्तु फिर भी बिना ‘मालिक’ के सहारे के मैं देखती हूँ कि काम हो ही नहीं सकता। ईश्वर ऐसी कृपा करें कि आप दीर्घ जीवी हों और पेट का हल्का दर्द छोड़कर कोई भी तकलीफ़ (दमा वगैरह) ‘आप’ को तकलीफ़ न पहुँचा सके। वैसे सब ‘मालिक’ की मर्ज़ी पर निर्भर है। अब तारीख २३ से अपना हाल लिख रही हूँ। कुछ यह हाल है कि अपनी तरह जहाँ तक भी अपनी निगाह जाती है, संसार के सब मनुष्य ही क्या, बल्कि जो कुछ भी सामने दिखाई देता है material नष्ट हो गया है। बजाय material के केवल वास्तविकता की एक हालत ही महसूस होती है। वह हालत भी कैसी, जो ‘हालत’ शब्द से परे है, परन्तु फिर भी कहीं वह हालत हो जावेगी, जैसा कि शायद एक बार आप ने लिखा था कि “कुछ नहीं की तह में कुछ ज़रूर है”। और कुछ यह हाल है कि सोते तथा जागते में हर समय चैतन्यता मालूम पड़ती है। जैसा लिख चुकी हूँ कि अपने को हर समय ऊपर की दुनिया में स्थित पाती हूँ और वहाँ की ही हालत में रहती हूँ। वहाँ भी ‘चैतन्य-दशा’ में अपने को स्थित पाती हूँ। यही हाल सोते में का है यानी सोते में भी चैतन्य-अवस्था में ही अपने को वही महसूस करती हूँ। इसी कारण रात या दिन और सोने या जागने का मेरे दैनिक जीवन में कोई विशेष महत्व नहीं रह गया है यानी सब समान रुप से आते जाते हैं और न जाने क्यों अब अपने को इसकी कोई विशेष ज़रूरत भी नहीं मालूम पड़ती है। भाई, एक अजीब हाल है। उस हालत में ख्याल की भी गुजर नहीं।

तारीख २६ की शाम को साढ़े छः बजे केसर की पूजा कराते समय सामने तीन सफेद पर्त, तकिया के गिलाफ के सदृश्य दिखाई पड़े, जो अलग-अलग होकर उड़ से गये और तभी ऐसा मालूम हुआ कि उन्नति आगे बढ़ती जा रही है। पहले मेरा ख्याल हुआ कि केसर आज आगे बढ़ती जा रही है और शायद लाभ उसे काफ़ी हुआ भी, परन्तु बाद को वह कुछ अपनी हालत मालूम पड़ने लगी। भीतर कुछ change भी लगता था। हल्केपन के साथ-साथ आन्तरिक आनन्द बहुत मालूम पड़ता था। अब आप जानें यह क्या था। परन्तु फिर भी श्री बाबूजी ! करीब ४-५ दिन से हालत अच्छी (शुद्ध) नहीं चल रही है। ख्यालात भी सोते में अधिक आते हैं। कोशिश कर रही हूँ, परन्तु कुछ समझ में नहीं आता।

भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-180
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
2/1/1952
ताऊजी के आने की राह देखते-देखते अब पत्र लिखे बिना रहा नहीं जाता, इसलिये लिख रही हूँ। आशा है ‘आप’ की तबियत अब ठीक होगी। कल तो न जाने क्यों ‘उससे’ मिलने की बेचैनी अधिक बढ़ गई थी, परन्तु शाम को जिज्जी के आ जाने से काम के कारण कुछ बेचैनी फिर दब गई। ‘मालिक’ की कृपा से जो कुछ भी आत्मिक-दशा है, सो लिख रही हूँ।

अब तो यह हाल है कि ‘मालिक’ के रोम-रोम में, रग-रग में मैं अपना पता या ठिकाना पाती हूँ।

पूज्य श्री बाबूजी ! अब तो यह दशा है कि पहले तो जब उसकी याद आती थी, तो एकदम कलेजा थाम लेने से कुछ ठीक या कुछ आराम सा हो जाता था, परन्तु अब तो शायद याद कलेजे को चीर कर उसे भी पार कर गई है, क्योंकि अब तो कलेजा-वलेजा थामने से कुछ नहीं होता। वह तो भीतर ही भीतर न जाने कैसा क्या होता रहता है। परन्तु उफान नहीं आने पाता। इसलिये जो कुछ भीतर होता है, उससे जी नहीं घबड़ाता, बल्कि वह मेरा आगे बढ़ने का सहारा हो गया है। मेरे श्री बाबूजी ! अब तो न यह महसूस होता है कि ‘वह’ मुझमें है और पता नहीं मैं ‘उसमें’ हूँ या नहीं हूँ। न मालूम ‘वह’ मुझमें है और न मालूम मैं 'उसमें हूँ। अब तो न जाने क्यों मुझे उसकी याद नहीं आती है, परन्तु जिस हालत में हूँ खुश हूँ। मुझे तो अब दरिया-वरिया वगैरह भी कुछ महसूस नहीं होता है। मैं तो यह महसूस करती हूँ कि ‘मालिक’ में श्रद्धा विश्वास तथा प्रेम के शुद्ध रुप की शुरुआत सम्भव है, अब शुरु हो गई हो। और भाई, यद्यपि मैं तो इन चीज़ों को कुछ नहीं जानती। पूज्य श्री बाबूजी ! मैं तो अब हर चीज से इतनी खाली हो गई हूँ कि मुझे अपने में कुछ महसूस नहीं होता, सिवाय इसके कि जैसे दुनिया के और लोग साधारणतया रहते हैं। अन्तर शायद इतना हो कि यहाँ अब किसी बोझ के लिये स्थान ही न रहा। भाई, पता नहीं मैं क्या चाहती हूँ। मैं क्या करती हूँ, मैं कहाँ रहती हूँ, मालिक जाने।

अब तो वहाँ आने के दिन कम रह गये हैं। अब तो श्री बाबूजी ! मेरा यह हाल है कि दुनियादारी के लोगों के बीच अपने को दुनियादार पाती हूँ, सत्संगियों, में अपने को सत्संगी पाती हूँ और अकेले में कुछ नहीं। तब न जाने मैं क्या रहती हूँ, शायद कोई नहीं।

अम्मा आप को शुभाशीर्वाद कहती हैं। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-182
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
18/1/1952
कृपा-पत्र आपका, जो नारायण दद्दा के हाथ भेजा सो मिल गया। समाचार मालूम हुए। मेरी तो जो कुछ भी हालत है, केवल एकमात्र मालिक की ही कृपा का फल है। उसका धन्यवाद जहाँ तक और जितना भी दिया जावे थोड़ा है। मुझ में लय-अवस्था या मोहब्बत है, यह मुझे नहीं मालूम मालिक ही जाने। मुझे किसी से मतलब भी क्या। मुझे तो बस ‘उसकी’ चाह है, ‘वही’ चाहिये। और सब ‘आप’ जानें, ‘आप’ की मर्ज़ी जाने। मुझे तो यह सब इतना थोड़ा मालूम पड़ता है और वास्तव में है भी कि अब ब्रह्म- विद्या की शुरुआत ही लगती है, बल्कि उस शुरुआत की याद भी भूल सी गई हूँ। मैं तो इतना जानती हूँ कि बड़े दिन की छुट्टियों में आप ने एक दिन पूजा में बैठाल कर कहा था कि हालत में कमजोरी आ गई थी, सो उसे फिर पूरा कर दिया। उससे मुझे लाभ यह हुआ कि तड़प में जो कमजोरी आ गई थी, और जो मेरी कोशिश से भी पूर्ण नहीं हो पाती थी, वह ‘आप’ की केवल एक निगाह फैंक देने से वह कमज़ोरी बिल्कुल दूर हो गई। इधर वहाँ से लौटने पर फिर मेरा सिर और तबियत १२-१३ दिन काफी खराब हो गई थी। जी बहुत घबड़ाता था, सिर में बड़ी परेशानी थी, इसलिये मन कहीं नहीं लगता था। अब बिल्कुल ठीक हूँ। कोई परेशानी नहीं है। तिस पर ‘आप’ ने ऊपर उठाने की खुश खबरी दे दी, बहुत-बहुत धन्यवाद है। ‘मालिक’ की कृपा से जो कुछ भी आत्मिक-दशा समझ में आई, सो लिख रही हूँ।

अब तो भाई, कुछ ऐसा मालूम पड़ता है कि बजाय अपने अन्दर के जो कुछ भी पूजा या ध्यान होता है, सब ‘मालिक’ के अन्दर ही होता है और करने वाला और पूजा क्या है, यह ‘मालिक’ ही जाने, क्योंकि सब एक ख्याल के सदृश्य होता है। या यह कहूँ कि जो कुछ भी पूजा ध्यान होता है, सब ‘मालिक’ के ख्याल के भीतर होता है। भाई, अब तो ईश्वर अंश जीव अविनाशी वाली हालत का नज़ारा दिखलाई देता है। यद्यपि यह सब है वास्तविक ईश्वर-प्राप्ति की हालत के सम्बन्ध में, कुछ यही समझ में आता है। न जाने यह क्या बात है श्री बाबूजी ! कि ऐसी हालत है कि कभी-कभी यहाँ की श्वाँस भी अपने को बहुत भारी और कुछ बुरी प्रतीत होती है। और कुछ यह हाल है कि जैसा मैंने ऊपर लिखा है कि जो भी पूजा-ऊजा होती है, सब ‘मालिक’ के ख्याल के भीतर ही होती है, परन्तु अब तो ऐसा मालूम पड़ता है, वह ख्याल भी कहीं लय हुआ जा रहा है। पूज्य बाबूजी, मुझे तीन दिन से यानी ता: १६ के सबेरे से बस ऐसा लगता है कि अपने ‘मालिक’ के संग में कहीं उड़ी चली जा रही हूं, परन्तु कुछ ऐसा है कि शक्ल महसूस नहीं होती, बल्कि उसे सुस्त या ख्याल कहूँ तो ठीक होगा। पूज्य श्री बाबूजी ! हम सब तो उत्सव के लिये वैसे ही दौड़े आते। ‘आप’ के खास बुलाने की आवश्यकता न थी। खैर, ‘आप’ की मेहरबानी तो अनुपम और अद्वितीय है। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-183
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
7/2/1952
‘मालिक’ की कृपा से हम लोग बड़े आराम से यहाँ पहुँच गये। ‘आप’ के थके हुए शरीर तथा दिमाग को आराम मिल गया होगा। हम लोगों के ये आठ दिन कितने अच्छे जाते हैं। यहाँ आकर तीन-चार दिन बहुत Feel होता है। सबकी तबियत हरी हो जाती है। अब ‘मालिक’ की कृपा से जो कुछ भी आत्मिक-दशा समझ में आई है, सो लिख रही हूँ। भाई,

अब तो ऐसा लगता है कि दूसरी हवा में आ गई हूँ। न जाने क्या बात है कि शक्ल ‘मालिक’ की कतई ख्याल में आती ही नहीं। परन्तु यह ज़रूर हो गया है कि उसकी शक्ल धुंधली परछांई के समान ही रह गई है। मेरा तो अब कुछ यह हाल हो गया है कि ध्यान को ध्यान से खाली कहूँ तो ठीक होगा। बड़ी भीनी-भीनी दशा लगती है। और कुछ यह है कि जैसे पहले आप ने एक बार लिखा था कि अब Spirituality का ‘अ’, ‘आ’ शुरु हुआ है। परन्तु अब तो यह लगता है, आध्यात्मिकता भी खत्म हुई लगती है, क्योंकि मैं देखती हूँ कि मैं उसको इतना भूल चुकी हूँ कि वह मेरे दिमाग में ही नहीं आती। उसकी मुझे बिल्कुल तमीज़ ही नहीं रह गई है। आध्यात्मिकता होती क्या चीज़ है, उसके क्या अर्थ हैं। इसका उत्तर बस मेरे पास इतना ही रह गया है कि भाई, ‘मालिक’ जानें, क्यों कि कृपा करके उसने मुझे इस आध्यात्मिकता की तमीज़ के बन्धन से भी Free कर दिया है। अब तो कुछ यह हाल होता जा रहा है कि आनन्द, आनन्द के रस से खाली होता जान पड़ता है और यही हाल शान्ति का भी हो गया लगता है। शान्ति की भी शान्ति होती प्रतीत होती है।

पूज्य श्री बाबूजी ! न जाने क्यों मैं जी भर कर ‘मालिक’ की भक्ति नहीं कर पाती। जितना चाहिये, उतना प्रेम ‘उससे’ नहीं कर पाती। कोशिश तो अवश्य चालू किये रहूँगी और ‘मालिक’ कभी न कभी मुझे कामयाब भी अवश्य करेगा, इसमें कोई शक नहीं। परन्तु मेरी यह शिकायत है, अवश्य है कि ‘आपने’ जो पाँच रुपये दिये थे, सो मेरे पास रखे हैं। जब उसे ज़रूरत होगी, तो दे दूँगी। मेरी तो ‘मालिक’ से यही प्रार्थना है कि रोज़ व रोज़ उन्नति बढ़ती ही जावे। पूर्णतया से ‘वह’ मुझे मिल जावे, बस यही इच्छा है।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-184
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
10/2/1952
अभी हरि दद्दा से वहाँ के समाचार मालूम हुए। आपकी तबियत ठीक जान कर बहुत खुशी हुई। ‘मालिक’ की कृपा से जो कुछ भी आत्मिक-दशा समझ में आई सो लिख रही हूँ। न जाने क्या बात है कि अब अपना फैलाव खत्म हो गया लगता है। मेरी निगाह तो जहाँ तक भी जाती है, सब एक सा लगता है। अब तो हालत जो पूजा के शुरु में थी, उसी हालत की फिर शुरुआत लगती है। ऐसा लगता है कि अभ्यास शुरु से आरम्भ किया है। अन्तर केवल इतना लगता है कि अब झाड़-झंखाड़ से रहित केवल स्वाभाविक ही हालत हो गई लगती है और अभ्यास वगैरह भी एक स्वाभाविक ही हो गया लगता है। मैं देखती हूँ कि हालत में, हर बात में, हर चीज़ में स्वभावतः ही स्वाभाविकपन आ गया है। शायद यही या ऐसा ही हाल फैलाव का हो गया लगता है। और यही नहीं, बल्कि हर चीज़ में एक स्वाभाविक झलक दिखाई पड़ती है। यद्यपि इस झलक में कोई खास रोशनी वगैरह से मेरा मतलब नहीं है, परन्तु कहीं यह स्वाभाविक नूर या रोशनी हो जावेगी। पूज्य मेरे श्री बाबूजी ! न जाने क्यों कुछ ऐसा मालूम पड़ता है, सब तरफ़ कुछ वास्तविकता की ही झलक महसूस होती है, या यह है कि चारों ओर वास्तविकता की ही महक महसूस होती है। पूज्य श्री बाबूजी ! मुझे तो ‘मालिक’ चाहिये। जैसे भी हो, केवल एक ही चाह है और ‘मालिक’ की मेहरबानी से मुझे पूर्ण विश्वास है कि एक दिन वह आवेगा ज़रूर, जब मेरी चाह पूरी होगी। अब एक हालत ‘आपको’ लिखे दे रही हूँ, क्षमा करियेगा। इधर एक अर्से से मुझे न जाने क्या हो गया है कि मेरा ध्येय क्या है, मैं क्या चाहती हूँ, इसकी तमीज़ मुझमें बिल्कुल रह ही नहीं गई है। मुझे यह सब कुछ बिल्कुल भूल गया है। मेरी यह सब कुछ समझ में ही नहीं आता। ‘मालिक’ से निस्बत या सम्बन्ध वगैरह तक की तमीज़ नहीं रह गई है। बस इतना ही ज़रूर शेष है कि तबियत को न जाने क्यों ‘उसके’ सिवाय अच्छा तो कुछ लगता ही नहीं है, वरना मैं हाथ जोड़कर कहती हूँ कि मैं बिल्कुल बेतमीज़ हो गई हूँ और तारीफ़ यह है कि इन सब की तरफ़ कोई ख्याल ही नहीं जा रहा है और न इसमें मेरा कोई खास मतलब ही है। भाई, यह सब आप ही जानें। मैं तो बिल्कुल ना समझ हूँ। ‘मालिक’ की जैसी मर्ज़ी हो रखें। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-185
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
14/2/1952
कृपा-पत्र आपके दो आये, समाचार मालूम हुए। ‘आप’ की तबियत ठीक रहे, आप स्वस्थ रहें, ईश्वर से मेरी यही प्रार्थना है। ‘आप’ ने लिखा है कि –“वाकई में कस्तूरी के लिये मेरा काम अब शुरु हुआ है”। परन्तु पूज्य श्री बाबूजी ! मैं तो यही कहती हूँ कि जो कुछ भी मुझे मिला है, बस ‘मालिक’ ने ही दिया है, उसी की मेहरबानी से मिला है, और ‘वही’ दे रहा है, और आगे भी वही देगा। आपने जो सुखदेवानन्द, शिवानन्द तथा नारदानन्द के विषय में लिखा है, तो यद्यपि यह सन्यासी हैं, परन्तु न जाने क्यों इन्होंने अपना अपमान स्वयं कर लिया है, क्यों कि यह परमहंस, पारिव्राजकाचार्य के Titles इन्होंने अपने नाम के आगे लगा लिये हैं, या यदि किसी ने लगाये हैं तो इन्होंने स्वीकार कर लिये हैं क्योंकि शायद छोटे को बड़ा Title देना या बड़ों को छोटा Title देना यह दोनों अपमाजनक हैं। खैर, मुझे क्या, ‘मालिक’ जानें। बस ‘आपकी’ कृपा गरीबनी पर सदैव बढ़ती ही बनी रहे, यही प्रार्थना है। Initiated members के लिये ईश्वर से हमारी प्रार्थना है और उसकी कृपा से ज़रूर कोई न कोई Solution अवश्य निकलेगा, जिससे सब का भला होगा। अब ‘मालिक’ की कृपा से जो कुछ आत्मिक-दशा समझ में आई है, सो लिख रही हूँ।

न जाने क्यों तमाम अर्से के बाद इधर उदासी की हालत कुछ थोड़ी सी ही बदले रूप में फिर आने लगी है। कभी कभी सब तरफ़ शायद समाधि अवस्था ही फैली हुई लगती है। कुछ ऐसा लगता है कि जिसको समासम की अवस्था कहते हैं। उस वास्तविक समासम अवस्था की शुरुआत हो गई महसूस होती है या यह कहिये कि इसमें भी स्वाभाविकपना आ गया महसूस होता है। भाई एक तो यह न जाने क्या बात है कि जैसा मैं एक बार लिख चुकी हूँ कि “मालिक से क्या निस्बत है, मुझे इसका भी पता नहीं रहा”, परन्तु इधर तो यह हालत देखती हूँ कि सच पूछा जावे तो मुझे अपने शरीर की निस्बत तक का पता नहीं और भाई, जब हाल यह है कि शरीर ही न रहा, खत्म हो चुका तो उसका सम्बन्ध कहाँ रहे। शिवानन्द, सुखदेवानन्द, आदि के विषय में मैंने कुछ निन्दा के ख्याल से नहीं लिखा है। वैसे अपना एक छोटा सा ख्याल मात्र ही कहा है। वैसे वे सन्यासी हैं, हम गृहस्थों के आदर-पात्र हैं। पूज्य श्री बाबूजी, कभी-कभी ऐसी हालत आती है, ‘मालिक’ से कुछ ऐसी Light मिलने लगती है कि बिल्कुल कुदरती तौर पर चाहे कुछ भी बात हो, उस समय सब सुलझती चली जाती है। यद्यपि उस समय न कोई ख्याल का ही भार अपने ऊपर लगता है, न कुछ। बस Heart बिल्कुल खाली होता है। फिर उसमें न जानें क्या रोशनी सी मिलने लगती है।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-186
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
19/2/1952
आपके दो पत्र और आये। एक तो जो रोहन भाई साहब के हाथ आपने ताऊजी के लिये भेजा और उससे पहले डाक द्वारा आया। उसमें हुजूर ने लिखा है कि मेरी कुण्डलिनी साफ़ होने लगी है। यह केवल ‘मालिक’ की ही मेहरबानी हो रही है। जहाँ-जहाँ भी Spirituality के पारस की झलक या निगाह पड़ती है, वह जगह फिर कंचन होकर ही मानेगी। यह पारस तो मैंने उदाहरणार्थ ऐसे ही लिख दिया, वरना ‘आप’ तो जो हैं, सो हैं। जैसे भी हैं, ला-जवाब हैं। आपने अपने नुक्स पूछे हैं, परन्तु मैं तो यह कहूँगी कि यदि अभ्यासी में केवल विश्वास ही दृढ़ हो जावे तो वह यह देखेगा कि उसके नुक्स स्वत: ही डर कर भागने लगेंगे कि कहीं आपकी निगाह न पड़ जावे, जो तुरन्त ही भस्म हो जावे। फिर मोहब्बत की तो बात ही निराली होगी। पूज्य श्री बाबूजी ! ‘मालिक’ की कृपा से एक छोटा सा अपना अनुभव मात्र लिख रही हूँ, वरना मैं तो थोड़ी सी बुद्धि वाली जैसी हूँ, ‘आपके’ सामने हूँ। कुछ ऐसा देखती हूँ कि ज्यों-ज्यों मनुष्य ईश्वर से दूर होता जाता है, उसकी बुद्धि वैसे ही वैसे संकुचित होती जाती है। मामूली सी मोटी बात उसकी समझ में नहीं आती और बेकार बहस करके वह समझता है कि मैंने उस पर विजय प्राप्त कर ली है। परन्तु वास्तविक बात तो यही है कि, खैर, ‘आप’ तो मिसाल को भी मिसाल देने वाले हैं। मैं मास्टर साहब जी को देखती हूँ, बाजी बात वह ऐसी कहते हैं, और समझते हैं जो एक Philosopher की समझ से परे होती है। यदि अभ्यासी ‘मालिक’ के प्रेम की Philosophy अच्छी पढ़ ले और उसमें भी कमाल कर दे तो वह जो करेगा, जो कहेगा और जो समझेगा, वह लाजवाब होगा। मामूली ज़रा सी बात है, ‘आप’ श्री कबीर का पद तुरन्त ही कितनी अच्छी तरह समझ जाते हैं और बड़े-बड़े प्रोफेसरों की समझ में वे पद नहीं आते। इसके माने यही है कि उनकी विद्या Limited है, उनके दिमाग की पहुँच Limited है और आपकी चीज़ अथाह है, Unlimited ‘मालिक’ की कृपा से जो कुछ आत्मिक-दशा समझ में आई है, सो लिख रही हूँ।

भाई, अब कुछ ऐसी हालत हो गई है कि लिखते हुए कुछ संकोच होता है, शायद यह Etiquette के विरुद्ध पड़ती है, परन्तु ‘मालिक’ के आगे मैं उतनी ही स्वतन्त्र हूँ क्योंकि बच्चा माँ के सन्मुख बिल्कुल स्वतंत्र होता है। कुछ यह है कि ईश्वर वगैरह कुछ मेरी निगाह में नहीं ठहरता है। यह सब पीछे छूट गया लगता है। मुझे तो बस ऐसा लगता है कि ‘मालिक’ मुझे बराबर ऊँचा खींचे लिये जा रहा है। भाई, यह सब उसकी ही शान है और उसकी ही मेहरबानी है। न जाने क्यों उदासीपन कभी-कभी गाढ़े रुप में आने लगती है। कभी-कभी ऐसा मालूम पड़ता है कि कुछ बादल की तरह मेरे पास उमड़ता चला आता है। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-187
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
24/2/1952
कृपा-पत्र आपका पूज्य मास्टर साहब के लिये आया। समाचार ज्ञात हुआ। दद्दा से यह भी मालूम हुआ कि ६-७ दिन हुए आपकी साँस कुछ-कुछ खराब होने लगी थी और ईश्वर की कृपा से दब गई। उसका बहुत-बहुत धन्यवाद है। ‘मालिक’ की कृपा से जो कुछ भी थोड़ी बहुत आत्मिक-दशा मालूम हुई, सो लिख रही हूँ।

इधर न जाने क्यों उदासीपन की दशा गाढ़ी आती है। कभी-कभी न जाने क्यों तबियत में उचाटपन बहुत बढ़ जाता है। तबियत बड़ी बेचैन रहती है। न जाने क्यों दिन भर ऐसी तबियत चलती रहती है कि दिन भर छाती कूटा करूँ। परन्तु कूटने से भी आराम नहीं मिलता है। तबियत ‘मालिक’ के प्रेम में डूबना चाहती है, परन्तु मुझसे उतनी हो नहीं पाती। कैसे करूँ, क्या करूँ, न जाने ‘मालिक’ पर मैंने अपना सर्वस्व न्योछावर किया है या नहीं। न जाने वह कैसा है, कहाँ है, कुछ समझ में नहीं आता। न मैं ईश्वर को जानू, न मैं परमेश्वर को जानूँ और भाई, न मैं यह जानूँ कि किसे जानती हूँ। कभी-कभी यह हालत बहुत बढ़ जाती है। परन्तु न जाने कैसे फिर जहाँ की तहाँ आ जाती हूँ। अब यदि आप कहें तो Congress वाला Working फिर शुरु किया जाये। कुछ तो शुरु कर दिया है। आज कल तो अजीब भूली-भटकी सी हालत रहती है।

अम्मा ‘आप’ को आशीर्वाद कहती हैं। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-188
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
2/3/1952
यहाँ सब अच्छी तरह हैं। आशा है ‘आप’ भी अच्छी तरह से होंगे। मेरा एक पत्र पहुँचा होगा। आजकल कुछ ऐसी हालत रहती है कि मैं बिल्कुल खोई-खोई सी रहती हूँ। परन्तु फिर भी कुछ चैन नहीं, यह क्यों? नहीं मालूम, शायद कुछ खफ्त या पागलपन सवार है। कुछ खीझ भी शायद बढ़ गई है, परन्तु बन्दगी साथ में है। यह ‘मालिक’ की शायद इच्छा है कि यह बेचैनी हद तक नहीं पहुँचने पाती है। न जाने कैसा ब्रेक लग जाता है। और बीच-बीच में दो एक दिन तो कुछ-कुछ ही रहती है, परन्तु फिर बढ़ जाती है। लगातार नहीं रहती है। कुछ समझ में नहीं आता कि यह क्या हाल है। मैं शायद ‘मालिक’ से प्रेम नहीं बढ़ा पाती हूँ , इसलिये हो सकता है। शायद इसी कारण कभी-कभी Heart के स्थान पर बार-बार दर्द सा उठता है, लेकिन धीमा सा। कुछ चिन्ता न करियेगा। पूज्य श्री बाबूजी! न जाने क्यों इस खफ्त में हाय-हाय थोड़ी सी ही देर करने में कुछ मज़ा अवश्य है, परन्तु मैं तो उस मज़े को भी नहीं जानती हूँ। हाँ, यह ज़रूर है कि इस हाय-हाय के बाद उचाटपन शान्त सा हो जाता है, और उदासी हालत (यानी एब आरे से बेखबर) भी नहीं महसूस होती है। परन्तु यह बेचैनी वाली दशा न जाने क्यों लगातार नहीं रहने पाती है। इधर अब कभी-कभी तो पूजा करने के बाद न जाने क्यों उस कमरे या जगह का पूरा वायुमंडल ही बदल जाता है। कुछ अजीब, गंभीर (अविचल शान्ति) सी कैफ़ियत हो जाती है।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। पत्रोत्तर दीजियेगा। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-189
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
4/3/1952
यहाँ सब कुशल पूर्वक हैं। मेरा एक पत्र पहुँचा होगा। ‘मालिक’ की कृपा से जो कुछ भी आत्मिक-दशा मालूम हुई है, सो लिख रही हूँ। न जाने क्या बात है कि ‘मालिक’ से मुझे कोई प्रेम, निस्बत वगैरह कुछ नहीं मालूम पड़ती है। शायद इसीलिये न जाने क्यों अधिकतर मेरी तबियत उचाट रहती है। यदि यह कहूँ कि पूजा तक से तबियत ऊबी या उखड़ी सी रहती है। यदि यह कहूँ कि उसकी याद से भी तबियत उकताई सी रहती है या भरी रहती है, परन्तु चैन फिर भी नहीं। अब न जाने उदासीपन बढ़ता जाता है, तबियत हर समय शान्त तथा स्थाई एक सी रहने लगी है कि वैसे चाहे जो कुछ भी हो, चाहे किसी बात पर गुस्सा कभी आ जाये, कभी यदि कहीं दर्द के कारण या चाहे तबियत वैसे ही परेशान हो, परन्तु भीतर ज़रा भी ख्याल करने से वहाँ तो हर समय समुन्द्र की भाँति गम्भीर हालत ही पाती हूँ और अब कुछ यह देखती हूँ कि जो कुछ भी ‘मालिक’ का ध्यान, ख्याल या याद वगैरह है, वह सब ‘मालिक’ के सूक्ष्म रुप में ही होता है या सब सूक्ष्म रुप ही रह गया है। अब फैलाव तो बिल्कुल फ़र्क ढंग से मालूम पड़ता है। वायु के सदृश्य सर्वत्र फैले हुए, सर्वव्यापी, ईश्वर ‘मालिक’ में उसी (वायु) के ढंग से अपना फैलाव दिखाई देता है। अब पहले की तरह अपना अलग फैलाव कहीं नहीं रह गया है। अब तो ऐसा गुप्त व भीतरी फैलाव है, जिसे फैलाव कहना भी बेकार है। ‘मालिक’ की असीम कृपा से सर्वव्यापकता की वास्तविक दशा का दृश्य दिखाई देता है। सुना है, ईश्वर सर्वव्यापी है, परन्तु ‘मालिक’ की कृपा से वही हालत अब अपने अनुभव में अपनी आँखों से देख ली। यही हाल लय-अवस्था का होता दिखाई पड़ रहा है। फैलाव भी कैसा है कि जिसमें न कोई रुप है, न रंग है, बस असीमित, अरुप वायु के सदृश्य सब हो गया लगता है। फैलाव को अब यदि लय-अवस्था का रुप दे दिया जावे या लय-अवस्था को फैलाव कह दिया जावे या अब दोनों अवस्थायें Combined हो गई, कह दिया जावे, तो ठीक होगा, परन्तु फिर भी मैं अभी अगले पत्र की तरह कुछ कुछ पागलपन के वन में ही विचर रही हूँ। पूज्य श्री बाबूजी ! अब तो अजीब हालत है। अब तो यह हाल है कि जैसे आत्मा, परमात्मा का साक्षात्कार हो गया लगता है। बल्कि शायद इससे भी कुछ अधिक हो (यानी एकता हो गई सी समझिये) “ईश्वर अंश जीव अविनाशी” की दशा में मुझे तो ऐसा लगता है कि जीव ने ईश्वर की पहिचान कर अब अपना अलहदापन छोड़ कर अपनी वास्तविक दशा को प्राप्त हो गया लगता है। परन्तु फिर भी देखती हूँ कि अहंता अभी किसी न किसी रुप में, किसी न किसी कोने में शेष है। यद्यपि स्थूलता से उसका भी कोई मतलब नहीं रह गया है। अब न जाने क्या बात है कि ज्यों-ज्यों दिन बीतते हैं, बन्दगी बढ़ती जाती है। ऐसे चाहे मालूम पड़े या न पड़े परन्तु अपने पर अधिक ही पाती हूँ। कल से Heart की तरफ़ जाने पसली में, न जाने पीठ में या जाने कहाँ दर्द उठा है, परन्तु आज काफ़ी ठीक है। आशा है, कल तक ठीक हो जायेगा। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-191
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
6/3/1952
कृपा-पत्र आप का कल आया। समाचार मालूम हुए। मालिक की कृपा से जो कुछ भी आत्मिक-दशा है, सो लिख रही हूँ। भाई, मेरे लिये तो Outer World Vision तो खत्म हो गया है। मेरा तो यह हाल है कि मुझे अब कहीं कुछ दिखाई तक नहीं देता है, कुछ महसूस ही नहीं होता है। मेरा तो Outer तथा Inner Vision दोनों ही खत्म हो गये हैं। मैं नहीं जानती कि मैं कौन हूँ, कहाँ हूँ और किस जगह पड़ी हूँ। अपना-पराया क्या, मुझे तो शायद आँखों से कुछ दीखता ही नहीं है। पूज्य श्री बाबूजी ! न जाने क्या बात है कि आँखों में रोशनी है, मगर देखने की तमीज़ ही नहीं रह गई है। कुछ बुद्धि है, मगर समझने की तमीज़ ही शेष नहीं रह गई है। दुनिया है, मगर मुझे उसकी भी तमीज़ नहीं रह गई है। कान सुनते हैं, मुँह कुछ बोलता है, शरीर काम करता हुआ भागा-भागा फिरता है, परन्तु सब कुछ अनजाने में होता है। मैं तो न जाने किस Vision में खो गई हूँ। न जाने मेरी तो कुछ ऐसी हालत है, कि मैं तो हर दम हाय-हाय करती हुई कलपती रहूँ, परन्तु वाह रे निगरानी करने वाले ‘मालिक’ की रस्सी एकदम ढीली नहीं होती। रस्सी जरा धीरे-धीरे ढ़ीली होती है, परन्तु फिर तनी रहती है, जिससे हालत ज़ब्त के बाहर नहीं होने पाती। यदि कहीं पूरी तौर से रस्सी ढीली कर दी जावे तो मज़ा आ जावे, परन्तु ‘मालिक’ की जैसी मर्ज़ी। न जाने कैसे और क्या खा आती हूँ , मुझे कुछ नहीं मालूम। फिर न जाने कब सो जाती हूँ, परन्तु इस सोने में मुझे कुछ चैन नहीं, यद्यपि नींद भी कम हो गई है। जी चाहता है कि दिन भर पूजा के कमरे में बैठी रहूँ। परन्तु लिहाज़ ऐसा नहीं करने देता है। खाली होते ही थोड़ी-थोड़ी देर को कमरे में बैठ आती हूँ। वहाँ जो कुछ करना होता है, सो कर आती हूँ। मैं दूसरे-तीसरे दिन पत्र अवश्य डालती रहूँगी। जैसा ‘आपने’ लिखा है, उसी के अनुसार सब करूँगी। हालत क्या है, कुछ पागलपन सवार है, परन्तु फिर भी ‘मालिक’ का अनेकों बार धन्यवाद है कि आपस के रीति-व्यवहार में कोई अन्तर नहीं पड़ता। न जाने कैसे काम उसी तरह ठीक-ठाक होते रहते हैं। न किसी पर हालत प्रगट होती है। यह बड़ा अच्छा है। आपने उदासी की हालत के बारे में पूछा, सो सुस्ती से मतलब बिल्कुल नहीं है। बस तबियत सब तरफ से उचाट हो गई है। काम सब ठीक होते हैं, मगर दिलचस्पी किसी में नहीं रह गई है। फ़र्ज पूरी तौर से होते हैं, मगर रिश्ता कोई नहीं रह गया है और जब खुद अपनी तमीज़ ही खत्म हो चुकी है। जैसा कि ऊपर लिख चुकी हूँ कि “मैं कौन हूँ, कहाँ हूँ” इसकी ही खबर न रही तो यह सब कहाँ से आये। दर्द Heart की ओर धीमा-धीमा बराबर रहता है। हाँ, रात में कुछ बढ़ जाता है, क्योंकि उसकी याद नहीं हो पाती। कोई फ़िक्र न कीजियेगा। सब ठीक हो जायेगा। कृपया इस दर्द को ठीक होने की दुआ न करने लगियेगा। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-192
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
9/3/1952
आशा है मेरा पत्र पहुँचा होगा। अम्मा और बड़े भईया कल आ गये। बड़े भईया को ‘आपके’ पत्रों से काफी सहारा हो गया है। पूज्य ताऊजी भी काफ़ी अच्छे हैं, परन्तु अभी कुछ जुकाम, खाँसी है। मेरा दर्द भी काफ़ी ठीक है, आज तो बहुत ही कम है, कल तक बिल्कुल ठीक हो जावेगा। ‘आप’ बिल्कुल फ़िक्र न कीजियेगा, बिल्कुल ठीक हूँ। ‘मालिक’ की कृपा से जो कुछ भी आत्मिक-दशा है, सो लिख रही हूँ।

भाई, मैं तो अपने को तथा सब कुछ भूल गई हूँ। पूजा के कमरे में जाती हूँ , वहाँ क्या करती हूँ यह नहीं मालूम। किसके लिये, क्यों हाय-हाय करती हूँ, इसका भी पता नहीं, और कौन करता है, इसका भी पता नहीं। भाई मेरा तो यह हाल है कि न अपने को जानूँ न ‘मालिक’ को ही जानूँ, दोनों ही गायब हैं, न कुछ पूजा या प्रेम भी जानूँ। अब तो यह हाल है कि खुद और खुदा दोनों ही न रहे। यह सब न जाने क्या हो गया है। यद्यपि न मैं हूँ न तू ही रहा, वाली दशा है, परन्तु मैं तो इस हालत से भी बेखबर रहती हूँ। पूज्य ‘बाबूजी’ न जाने क्यों कभी-कभी क्या अब तो अक्सर तबियत इतनी उचाट हो जाती है कि घर से कहीं भाग जाने को जी तड़फड़ाने लगता है। परन्तु जब किसी तरह जी नहीं बहलता, तो फिर बस एक क्षण पूजा घर में ही जाकर कुछ देर बैठ आती हूँ। फिर कुछ देर कितना ही पुकारूँ, परन्तु सच तो यह है कि मुझे अब ‘उसकी’ (मालिक) भी तमीज़ शेष नहीं रह गई है। अब तो न ध्येय रहा और न ध्येयक ही, दोनों समाप्त हो गये, परन्तु निगाह न जाने कहाँ खो गई है। पूज्य “श्री बाबूजी” सच तो यह है कि मैं “उसे” खोजने निकली थी, परन्तु हाल यह हुआ कि “उसे” खोजते-खोजते मैं खुद ही खो गई हूँ। अब तो सब ‘उसके’ ही हाथ में है, जब चाहेगा, सो मुझे ढूँढ़ लेगा। ‘वह’ भी मुझे शायद खोज रहा होगा क्योंकि मेरी लाचारी ‘उसे’ पता लग गई होगी। आज से कभी-कभी भीतर ही भीतर बड़ी खुशी सी मालूम पड़ती है। अब तो सब ‘उसके’ हाथ में है, जैसे चाहे रखे। मैं खो गई हूँ, धीरे-धीरे यह भी भूलती जा रही हूँ। परन्तु मेरा मन कहीं नहीं लगता, घर से निकल जाने को तबियत चाहती रहती है। बस न जाने कहाँ भागी-भागी फिरूँ, ऐसा ही जी होता है, परन्तु ‘मालिक’ की लगाम ऐसा करने नहीं देती। न जाने क्यों मेरी तो नींद और भूख सब हर गई है, परन्तु यह न समझियेगा कि बिल्कुल छूट गयी है। मेरा तो अब यह हाल हो गया है कि काम सब होते हैं, मगर दिलचस्पी किसी में नहीं रह गई है। संसार वही है, मगर मेरे लिये तो केवल फ़र्ज अदायगी रह गई है। फिर भी ‘मालिक’ की कृपा से, न जाने कैसे, कमी या गलती मुझसे किसी काम में नहीं होने पाती है। अम्मा ‘आपको’ आशीर्वाद कहती हैं, तथा केसर, बिट्टो ‘आपको’ प्रणाम कहती हैं। छोटे भाई-बहनों को प्यार। इतिः-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-193
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
11/3/1952
आशा है मेरा पत्र पहुँचा होगा। यहाँ सब अच्छी तरह से हैं, आशा है वहाँ भी सब अच्छी तरह से होंगे। ‘मालिक’ की कृपा से आजकल जो कुछ भी आत्मिक-दशा समझ में आई है, सो लिख रही हूँ।

अब तो भाई पूजा के कमरे में से घंटो निकलने की तबियत ही नहीं चाहती है, मगर ऐसा हो नहीं पाता है। कुछ यह हाल हो गया है कि अपना शरीर, प्राण तथा अन्तरात्मा सब कुछ ‘मालिक’ ही हो गया है। जिस्म भी ‘वही’ है, जान भी ‘वही’ है तथा आत्मा भी ‘वही’ है। जब उचाटपन में तबियत कहीं नहीं लगती है, तो पूजा के कमरे में पड़े-पड़े अक्सर मेरी बेहोशी की सी हालत हो जाती है। अब तो केवल पुकार करने के लिये ‘मालिक’ अलग कह लिया जावे वह भी बिना ‘उसके’ ध्यान (शक्ल का) के, वरना सब कुछ ‘वही’ हो गया है। पूज्य “श्री बाबूजी” मेरी तो वह हालत हो गई है जो एक बदहवाश, बेहोश आदमी की होती है। अन्तर इतना है कि, इस बेहोशी में भी अन्तरात्मा के मन से ‘मालिक-मालिक’ की ही आवाज उठा करती है। वह बेचैनी वाली दशा शायद पहले से बढ़ी हुई ही है। अब तो यह है कि ‘मालिक’ ही मेरा होश है, ‘वही’ शरीर है, तथा आत्मा, दिल है। पूज्य “श्री बाबूजी” मैंने जो पहले वास्तविकता (Reality) की दशा के बारे में लिखा था, वह दशा भी तथा उसकी याद तक भी खत्म हो चुकी है। मैं तो भाई निराकार और निर्गुण सी रह गई हूँ। बीच-बीच में कभी-कभी खुशी की हालत भी चालू रहती है।

‘ईश्वर’ से यही प्रार्थना है कि ‘वह’ कृपा करके क्लोरोफार्म के प्रभाव को खत्म कर दें और ‘आपकी’ Rememberance पुन: तीव्र हो जावे। बेचैनी वाली दशा में बेहोशी की हालत बढ़ी हुई लगती है। छोटे भाई-बहनों को प्यार। अम्मा ‘आपको’ आशीर्वाद कहती हैं तथा केसर, बिट्टो प्रणाम कहती हैं। होली आप सबको बहुत-बहुत मुबारक हो। आज यानी तारीख १३ से कुछ दशा बदली हुई सी लग रही है, परन्तु अभी-अभी बदली और कभी फिर वैसी ही लगती है। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-194
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
18/3/1952
बहुत दिनों से ‘आपका’ कोई पत्र नहीं आया, इसलिये वहाँ का कोई समाचार नहीं मिला। कृपया अपनी कुशलता के समाचार दीजियेगा। अम्मा और बड़े भईया आज गये हैं। केसर, दो दिन को फूलो जिज्जी वगैरह आई थीं, उनके साथ कल चली गई। वह भी यहाँ ‘आपके’ पत्र का बहुत रास्ता देख रही थी। ताऊजी की तबियत अभी बिल्कुल ठीक तो नहीं हुई है। भाई ठीक तो ‘आप’ जानें, परन्तु मुझे उनमें ‘मालिक’ की कृपा से कुछ ‘तरी’ के लिये जो लिखा था, सो कुछ पैदा हुई लगती है।

मेरी आत्मिक उन्नति तो इधर ४-५ दिन से न जाने क्यों कुछ ठप सी या मन्द पड़ गई लगती है, इसी कारण उचाटपन फिर बढ़ गया है। उधर दो दिन तो स्वप्न में करीब ३ घंटे या ४ घण्टे रोते ही बीतते थे परन्तु इधर तो वह स्वप्न वगैरह भी खत्म हो गये हैं। और यही नहीं बल्कि कभी-कभी तो अब अक्सर याद करने की भी तबियत नहीं चाहती है। क्या करूँ, कुछ समझ में नहीं आता है। ‘आप’ ही कृपया कुछ बतलाइये। क्योंकि बेकार करने के लिये ‘मालिक’ ने मुझे एक क्षण भी नहीं दिया है, इसलिये जहाँ तक हो उत्तर शीघ्र दीजियेगा। हालत आज कल कुछ ऐसी ही चल रही है, कोई खास अच्छी तबियत नहीं मालूम पड़ती है। बेहोशी वाली हालत भी अनजाने में ही अधिकतर रहती है, बस यही एक हालत मेरे पास रह गई है, जो अब अनजाने में हुई जा रही है। या मुझे अब उससे भी बदहवासी हुई जा रही है। खैर, ‘मालिक’ की जैसी मर्ज़ी। पूज्य श्री बाबूजी, उचाटपन तबियत में काफ़ी है। केसर आपसे नमस्ते कहती है। चलते-चलते आपसे नमस्ते लिखने को कह गई है। अम्मा आपको आशीर्वाद कह गई हैं। पत्रोत्तर शीघ्र दीजियेगा। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-195
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
19/3/1952
कृपा-पत्र ‘आपका’ कल पूज्य मास्टर साहब जी के लिये आया था, सुनकर प्रसन्नता हुई। भतीजी होने की ‘आप’ सबको बहुत बधाई है। जैसा कि कहा जाता है, नव वर्ष में लक्ष्मी मुबारक हो। ‘मालिक' की कृपा से जो कुछ भी आत्मिक-दशा है, सो लिख रही हूँ।

पूज्य “श्री बाबूजी” मुझे तो हर समय अधीरता ही घेरे रहती है। कल जो मैंने "आपको" पत्र डाला था, उसमें हालत ठप होने के बारे में लिखा था। परन्तु मेरी समझ से इधर फूलो जिज्जी वगैरह आई और फिर जाने की हलचल में मुझे बहुत कम अवकाश एकान्त बैठने को मिल सका, शायद इसी कारण वैसा मालूम पड़ता होगा। मेरे “श्री बाबूजी” ऐसी हालत चल रही है कि जिसे शायद मैं प्रेम नहीं कह सकती हूँ क्योंकि यदि प्रेम कहा जावे तो दुई आती है और मेरा हाल तो यह हो गया है, मेरी तो सारी सुधि-बुधि खो गई है। न मुझे अपनी सुधि है, न ‘उसकी’ ही, फिर समझ में नहीं आता कि क्या हालत है। न मालूम क्यों मुझे एकान्त में जाने की तड़प हर समय रहती है, परन्तु किस्मत ऐसी है कि कम से कम समय एकान्त के लिये मिल पाता है। क्योंकि घर में न अम्मा हैं, न केसर है, पूज्य ताऊजी की तबियत अभी कुछ खराब होने के कारण अधिकतर घर में ही रहते हैं, इसलिए लिहाज और काम कभी-कभी अब मुझे नागवार से मालूम होते हैं, खैर, ‘मालिक’ की जैसी मर्ज़ी। यदि मैं लड़का होती तो ‘आप’ निश्चय ही मुझे वहीं पाते। तबियत वहाँ आने को कभी इतनी तड़पने लगती है, परन्तु मजबूरी है। दिल हर समय तड़पता और रोता रहता है। पूज्य “श्री बाबूजी” आपसे मेरी प्रार्थना है कि ‘आप’ हालत का खूब पूरी तौर से मुझे आनन्द बस लें लेने दें, मेरी तबियत बहुत तड़पती है। ‘आप’ अन्दाज से न डरें, अधिक हो जावे तो हो जाने दीजिये, क्योंकि तबियत को रास (दशा काबू में रहना) कभी काफी बुरी मालूम होती है। बस कृपया पूरी तौर से छोड़ दीजिये, तब मुझे बहुत अच्छा लगेगा। समझ लीजियेगा, पोती होने की खुशी में ‘मैंने’ एक भिखारिन को यह दान दिया है। ‘उसका’ प्रेम तो शायद मुझमें न हो, कह नहीं सकती या यह भी कहा जा सकता है कि मुझे उसकी (यानी प्रेम की) तमीज़ ही शेष नहीं रह गई है, और भाई प्रेम की क्या कहूँ जब मुझे खुद ‘उसकी’ ही तमीज नहीं रह गई है। शरीर का सम्बन्ध तो कब का खत्म हो चुका, क्योंकि अब तो यह हाल शायद कहा जा सकता है या हो गया है कि शरीर को छोड़कर, क्योंकि लाचारी है, दिल और आत्मा ‘उसके’ ही नज़र होकर, अलहदगी खत्म करके वहीं जम के रह गई है। यद्यपि शरीर भी इससे बरी नहीं है। भाई क्या करूँ, कैसे करूँ, कहाँ जाऊँ, कुछ समझ में नहीं आता है। बेहोशी से भी बेहोशी हो गई है। पूज्य ‘बाबूजी’ मुझे न तो अब त्याग की परवाह है, न वैराग्य से मतलब है। मैं तो त्याग को भी त्याग चुकी हूँ, वैराग्य से भी वैराग्य प्राप्त कर चुकी हूँ। मुझे तो सब ओर से बेहोशी हो गई है। यद्यपि ‘मालिक’ की कृपा से सब कुछ खत्म हो चुका है, परन्तु फिर भी कुछ शेष है, परन्तु मैं तो उस कुछ को भी नहीं जानती हूँ। मैं तो बस इतना जानती हूँ कि मेरा ‘मालिक’ सब कुछ जानता है, क्योंकि मेरी कलई ‘उस’ पर खुल चुकी है। परन्तु फिर भी हालत पहले से तो कुछ कम ही है। छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-196
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
22/3/1952
कृपा-पत्र ‘आपका’ परसों आया। समाचार मालूम हुए। मेरा एक पत्र पहुँचा होगा। ‘मालिक’ की कृपा से जो आत्मिक-दशा है, सो लिख रही हूँ। जो ‘आपने’ दशा में थोड़ा परिवर्तन किया है और लिखा है, वह मैं डायरी में लिख चुकी थी कि ‘आपका’ पत्र आ गया – ‘आपका’ बहुत-बहुत धन्यवाद है।

भाई, मुझे तो अब न जाने क्या हो गया है कि मीराबाई के पद तथा और कुछ भी जिसमें कुछ ईश्वर का प्रेम टपकता है वे पद न गा ही सकती हूँ और न पढ़ ही सकती हूँ। बातें तक नहीं सुन सकती। पूज्य ताऊजी जब सत्संग में सबको कुछ बताने लगते हैं, तो मुझे एक मिनट भी सुनना दुश्वार हो जाता है। जी में कुछ घबड़ाहट सी पैदा हो जाती है। यहाँ तक कि वहाँ का वायुमण्डल भी बाद में कुछ भारी सा प्रतीत होता है। यद्यपि और सबको वह बहुत अच्छा लगता है। फिर बताइये मैं किसी को क्या बता सकती हूँ। खैर, हाँ इतना अवश्य है, मैं यदि अपने काम में लगी रहूँ, तो कोई हर्ज नहीं होता है। न जाने क्यों अब हालत में खुशी बेढब मालूम पड़ती है। आन्तरिक खुशी इतनी कि जैसे बेचैनी होती है। कभी-कभी अपने में से तमाम किरणें फूटती हुई लगती हैं। इधर ३-४ दिन से नाभि में और उसके आस-पास कुछ गड़बड़ सी होती है। सफाई के कारण हल्कापन भी लगता है और कभी-कभी कुछ धीमा सा दर्द हो जाता है। खुशी की भी हालत ऐसी है कि जी चाहता है दिन भर हृदय पकड़े खुश होती रहूँ। कभी-कभी बेहोशी कैसी जो हर समय मेरी हालत चल रही है, उसमें भी भौंचक्केपन में तमाम फैलाव ही फैलाव सा लगता है, परन्तु यह भौचक्कापन कुछ अजीब कैफ़ियत लिये हुए मालूम पड़ता है। भाई, आजकल तो कुछ ऐसी हालत है कि समझ में नहीं आता कि खुश होती रहूँ या रोती और तड़पती रहूँ। अब तो यह हाल है कि दुनिया की परवाह तो कब की छूट चुकी है, परन्तु अब तो न ‘दीन’ की परवाह है, न दुनिया की चाह है। ‘दीन’ और दुनिया दोनों को ही खो बैठी हूँ और मज़ा यह है कि यह सब क्या हो गया इसकी भी परवाह नहीं। अब तो यह हाल हो गया है कि चाह भी चाहना में जलकर झुलस चुकी है। जहाँ से आई थी, ‘जिसने’ दी थी, वहीं और ‘उसके’ पास ही चली गयी है। भाई, ‘उसकी’ चीज़ ‘उसके’ ही सुपुर्द हो गई, अब ‘वह’ जाने, "उसका” काम जाने। जो कुछ भी लय-अवस्था, त्याग, वैराग्य और जो कुछ भी ‘उसकी’ कृपा से था, सबका यही हाल हो गया है। ‘उसकी’ चीजें ‘उसकी’ ही नज़र हो गई, यह बहुत अच्छा हुआ। मेरे पास तो बस एक आग ही शेष है, जो अन्तर में लगी हुई है। सब झुलसाती चली जावेगी। पूज्य “श्री बाबूजी” ‘मालिक’ की अपार मेहरबानी से ‘उसके’ प्रति जो मनुष्य का कर्तव्य है, बस वही कुछ-कुछ पूरा हो सकता है। अब ‘उसकी’ चीज़ में मेरी बेईमानी की नियत (यानी अपना पन) साफ हो गई। अब ‘उसकी’ चीज़ें ‘उसके’ सुपुर्द हो गई। अब ‘उसकी’ जो मौज हो, वह करे। ‘मालिक’ का हजार-हजार धन्यवाद है। भाई, अब तो हालत में एक निराला आनन्द है। अबकी से “आपने हालत क्या बदली है, आनन्द का कोष” ही खोलकर रख दिया है। भाई, सारा शरीर हर समय आनन्द से भरा रहता है। कभी-कभी तो इतना हो जाता है, कि लगता है कि दिल और शरीर वगैरह को तोड़कर बाहर निकल जायेगा। और ‘मलिक’ की कृपा से घर भर में भी यह बात मालूम पड़ती है। पूज्य ‘श्री बाबूजी’ आजकल की बड़ी अलमस्त, बड़ी आनन्दमय दशा है कि कुछ कह नहीं सकती हूँ। अभी तक मेरी ऐसी दशा कभी नहीं आ पायी। भाई, अब तो मैं एक “अलमस्त फकीर” की तरह हो गई हूँ। कभी-कभी आनन्द के कारण थोड़ी देर को शरीर थरथराने सा लगता है, मगर भाई, ‘मालिक’ की कृपा से कोई भी दशा control के बाहर नहीं जाने पाती। यदि चली जावे तो मज़ा आ जावे। छोटे भाई-बहनों को प्यार। छोटी बच्ची के छोटे चाचा जी (सर्वेश) तो बहुत ही खुश होंगे। इति:- कभी-कभी ऐसा लगता है कि मैं वायु के सदृश्य होकर बराबर उड़ी चली जा रही हूँ।

आपकी दीन-हीन, सर्व साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-198
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
24/3/1952
कृपा-पत्र ‘आपका’ दद्दा के हाथों अभी-अभी मिला। ‘आपकी’ इस गरीबनी पर इतनी - अपार कृपा का बहुत-बहुत धन्यवाद है। जो कुछ भी मिला है, सब ‘मालिक’ की कृपा से ही मिला है और कोई चीज़ ऐसी नहीं जो ‘वह’ मुझे देने को तैयार नहीं। पूज्य "श्री बाबूजी” ! मेरी ज़रा समझ कम है, इसलिये ‘आपने’ जो लिखा था कि यदि ‘सिखाने वाला’ और सीखने वाला पास-पास हो तो पूरा सरुर इस हालत का देने में आसानी रहती है, क्योंकि दूर से अन्दाज़ नहीं पड़ता, यद्यपि मुझे पूर्ण विश्वास था, और रहेगा कि सचमुच ‘देनेवाला’ लाजवाब है। ‘आप’ कृपया नीचे को हरगिज़ न लावें। जैसा कि ‘आपने’ लिखा है, आजकल की हालत, उस हालत से कई गुणा अच्छी है। पूज्य “श्री बाबूजी” वास्तव में तो हालत मुझे कोई भी ‘मालिक’ से अधिक प्यारी नहीं है। मैं कुछ नहीं बस जैसा कि ‘आपने’ एक बार लिखा था और अब भी लिखा है, बस वही मैं हूँ और उस की जी, जान से कोशिश करूँगी कि कदम सदैव ऊपर को ही बढ़ता जावे। पूज्य समर्थ “श्री लालाजी” को धन्यवाद कौन दे सकता है, उनकी मेहरबानी तो अपार है। ‘उन्होंने’ हम लोगों पर अपार कृपा करके ‘आपको दिया है’। बस पूर्ण रुप से ‘मालिक’ को प्राप्त करने की कोशिश ही ‘उनका’ कुछ थोड़ा सा धन्यवाद दे सकता है। पूज्य ‘श्री बाबूजी’ मुझे आनन्द-वानन्द कुछ नहीं चाहिये, मुझे तो बस ‘मालिक’ ही चाहिये। मुझे यह नुकसान ज़रूर रहा कि ‘आप’ [B] मुकाम पर पहुँचाना चाहते थे, अब कुछ देरी हो गई। परन्तु ‘मालिक’ की मेहरबानी ज़रूर सब कुछ ठीक कर लेगी। ‘आपकी’ जो मर्ज़ी हो, ‘आप’ वैसा ही किया करें। क्योंकि मेरी भी खुशी हमेशा ‘आपकी’ खुशी में ही है। ‘आप’ की मर्ज़ी के खिलाफ करोड़ों आनन्दों का भी सुख मुझे कदापि सुखी नहीं कर सकता, बस "आपकी” जब मर्ज़ी हो मुझे बढ़ाते चलिये। मेरे लिखने पर कुछ ध्यान न दीजियेगा। सचमुच मैं लिख भी चुकी हूँ कि जब आगे का stage आता है, तो सफ़ाई और सादगी बढ़ी हुई हमेशा मालूम पड़ती है। ‘मालिक’ की कृपा से जो आत्मिक-दशा समझ में आई है, सो लिख रही हूँ।

भाई, अब तो ऐसा लगता है कि ‘उस’ ओर देखते-देखते नज़र ही खत्म होने लगी है, रोशनी ही खत्म होने लगी है। ‘उसी’ को सोचते-सोचते देखती हूँ कि ख्याल भी खत्म हो जाता है। या यों कह लीजिये कि और कुछ सोचने की आवश्यकता ही नहीं रह गई है। होश उस तरफ़ रखते-रखते अब होश भी जाता रहा, सब ओर से बेहोशी हो गई है। अब तो भाई, बिल्कुल ‘उसके’ हवाले हो गई हूँ जैसे रखेगा, वैसे ही रहूँगी। अब तो कुछ यह हालत है, कि

“जहाँ बैठारे तित ही बैठूँ, जो देवे सोई खाऊँ, तथा जो पहिरावे, सोई पहिरूँ, बेचे तो बिक जाउँ, मैं तो गिरधर के घर जाऊँ”।
क्योंकि भाई, सिवाय ‘मालिक’ के अब ऐसे अपाहिज को रखेगा भी कौन? यह तो बस एक ‘वही’, ‘उसी’ का घर है, जो सबकी सम्भाल करता है और जिसका घर सदैव सबके लिये खुला है। भाई, अब तो हालत विदेह-हो गई है। न जाने क्या बात है कि ऐसा लगता है कि मुझमें तरी कम होती जा रही है, परन्तु हालत बहुत अच्छी है। शेष फिर लिखूँगी, क्योंकि किसी तरह जल्दी से जल्दी यह पत्र ‘आपके’ पास पहुँच जावे, यही फ़िक्र है। छोटे भाई-बहनों को प्यार। इतिः-

आपकी दीन-हीन, सर्व साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-199
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
25/3/1952
कृपा-पत्र ‘आपका’ आज मिला। उत्तर तुरन्त ही लिखकर ड़लवा दिया है। अब पता लगा दद्दा से कि वे सबेरे की Train से ही शाहजहाँपुर जा रहें हैं, इसलिये जल्दी में यह छोटा सा पत्र ‘आपको’ लिख रही हूँ।

कृपया ‘आप’ सदैव वही करें जो ‘आप’ चाहें, मैं उस समय उभार में वैसा लिख गई थी। मेरी हमेशा वही मनशा है, जो ‘आपकी’ है। ‘आप’ पशोपेश में पड़ गये, मेरी ज़रा सी नासमझी के कारण, इसके लिये ‘मालिक’ से मेरी प्रार्थना है कि फिर ऐसी गलती मुझसे न हो। पूज्य “श्री बाबूजी” आपकी कृपा और मुहब्बत ने ही मुझे खरीद लिया है। ‘आपका’ तथा पूज्य समर्थ “श्री लालाजी” को कोई कैसे धन्यवाद दे सकता है, बस इसका ज़र्रा-ज़र्रा ‘मालिक’ का ही हो जावे, तभी कुछ धन्यवाद अदा हो सकता है। पूज्य “श्री बाबूजी” मुझे न तो किसी हालत से प्रेम है न किसी की चाह है, मुझे तो बस जो है वो केवल ‘एक’ से ही है। आप हरगिज़ नीचे न लावें, क्योंकि मेरा तो जैसा ‘आपने’ लिखा था और फिर लिखा है, कदम बस आगे ही बढ़ेगा, इसमें सन्देह नहीं, बस ‘आपकी’ तो मुझ गरीब भिखारिनी पर जो कृपा है वह तो कही ही नहीं जा सकती। हालत में सादगी और सफ़ाई उभार के बाद हमेशा आती है, वही हाल ‘मालिक’ की कृपा से अब है।

भाभी का बुखार अब कम है, सुनकर कुछ सन्तोष हुआ। आशा है मेरा पत्र परसों ‘आपको’ मिल ही जावेगा। छोटे भाई बहनों को प्यार। ‘आपने’ तो मुझे हर चीज़ बराबर देने की कृपा की है और देने को तैयार हैं, बहुत-बहुत धन्यवाद है और इसमें सन्देह भी नहीं है। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-200
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
26/3/1952
आशा है, मेरे दो पत्र मिल गये होंगे। पूज्य ताऊजी के पत्र से यह पढ़कर बहुत फ़िक्र हो गई कि होली में ‘आपकी’ साँस फिर उखड़ आई थी और खाँसी अब भी है। दिल का दर्द भी कई बार उठा, न जाने क्या बात है कि ‘आपको’ साँस की तकलीफ़ क्यों अब भी उखड़ ही आती है। क्या किया जावे, कुछ समझ में नहीं आता, जिससे कम से कम ‘आपकी’ यह तकलीफ़ चली जाती। यद्यपि यदि ‘मालिक’ की कृपा शामिल रही, तो जल्दी attack नहीं हो सकते और आगे भी कोशिश बराबर होती ही रहेगी, परन्तु ‘उसकी’ ही कृपा का आसरा है, करने वाला भी ‘वही’ है, इसमें सन्देह नहीं।

पूज्य “श्री बाबूजी” आपका कृपा-पत्र पढ़कर तो आँख ही खुल गई कि सिवाय ‘उसके’ और ऐसी और इतनी कृपा कौन कर सकता है। सीखने वाला तो बस मस्त रहता है, परन्तु सिखाना काम वाकई बड़ा कठिन होता है। यद्यपि यह अवश्य है कि समर्थ सद्गुरु की शरण के सहारे तो मुश्किल चीज़ कोई रह ही नहीं जाती। कितनी systematic तरीके से ‘आप’ मुझ गरीब पर मेहरबान हो रहे हैं देखकर कभी-कभी तबियत अवाक हो जाती है। बस मेरे “श्री बाबूजी” मेरी एक प्रार्थना यह ज़रूर है कि यद्यपि ऐसा अब होगा नहीं (यानी ऐसा ‘आपको’ पत्र नहीं लिखूँगी) कि ‘आप’ मेरे लिखे की ओर विशेष ध्यान न देकर, जैसा ठीक समझा करें, वैसा ही किया करें और मैं भी इसी में ही हमेशा बहुत खुश रही हूँ और हमेशा रहूँगी। कृपया अब ‘अपनी’ तबियत का हाल अवश्य दीजियेगा। ‘ईश्वर’ ‘आपको’ अच्छा रखे, यही सदैव ‘उससे’ हमारी प्रार्थना है। निगरानी की कितनी विशेष महानता है, यह मैं नहीं समझती थी, बस इतना जानती थी कि यह भी ‘मालिक’ की कोई महान कृपा है। पूज्य “श्री बाबूजी” धर्म-धर्म तो सब चिल्लाते हैं, धर्म का इतना मर्मज्ञ कि “सीखने वाले को ऊपर से नीचे उतारना धर्म आज्ञा नहीं देता”, और कोई नहीं है। ‘आपने’ लिखा है कि मैं हिन्दी लिखने का कुछ अभ्यास करूँगा, यह बड़ी कृपा है। परन्तु ‘आप’ उर्दू में तो लिख ही देते हैं, उससे ज़रूरी बातें मैं लिख ही लेती हूँ। उर्दू में ‘आपको’ लिखना फिर भी आसान है, परन्तु हिन्दी में आपको कठिनता भी होगी। मेरा काम भी निकल ही आता है, इसीलिये यदि ‘आप’ चाहें तो यह परेशानी न उठावें। वैसे कुछ भी लिखना ‘आपके’ लिये कितना कठिन होता है, परन्तु क्या करूँ लाचारी है। यदि मैं लड़का होती तो चाहे कितनी भी मुश्किल होती, उर्दू ज़रूर सीखकर ‘आपकी’ वह तकलीफ़ बचा ही लेती। चाहती मैं अब भी हूँ कि कुछ पढ़ ही लिया करूँ, खैर जो उसकी मर्ज़ी होगी। वैसे अब भी यदि ‘आपके’ पास रहती होती तो English और हिन्दी तो लिख ही लेती, खैर देखा जायेगा। ‘मालिक’ का धन्यवाद है कि पूज्य ताऊजी में तरी पैदा हो गई, इसलिये मज़ा भी उनको आने लगा।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-201
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
27/3/1952
मेरे पत्र आपको मिले होंगे। ‘आपको’ एक पत्र लिख चुकी थी, परन्तु उसमें हालत नहीं लिखी, इसलिये अभी यह दूसरा पत्र लिख रही हूँ।

अब तो भाई, यह हाल हो गया है कि यदि चुपचाप शान्त बैठ जाऊँ और आँखें तो खुली ही रहती हैं, तो पलकों को यह याद ही भूल जाती है, कि उनका काम खुलना-मुंदना है, बस जड़बत से हो जाते हैं। और भाई, मुझे तो यह मालूम ही नहीं होता है कि क्या होता है, क्या नहीं, कुछ ख्याल ही नहीं रह गया है। जैसा मैंने लिखा था कि ख्याल भी जाता रहा, वही हालत हो गई है। न जाने क्या बात है कि मुझे तो अब कुछ होश ही नहीं रह गया है, क्या होता है, क्या नहीं, मैं कुछ नहीं जानती हूँ। यहाँ तक कि न मुझे पूजा का होश है, न शायद ‘मालिक’ का ही है, परन्तु फिर भी देखती हूँ कि भीतर मुझे शायद ‘उसके’ बगैर चैन भी नहीं है। वाकई में यह अब समझ में आया कि चैन जो कभी कभी मुझे बुरा लगता था, वह कितना मुबारक है, नहीं तो अब तक मेरी सारी चेतना लुप्त हो गई होती, फिर आगे, उन्नति का सवाल ही कहाँ रह जाता है? ‘मालिक’' का बहुत-बहुत धन्यवाद है, परन्तु अनुभव इस हालत का ‘उसकी’ कृपा से मुझे पूरा है, क्योंकि वैसे तो जैसे बिना होश के सब हो जाता है, परन्तु २-३ मिनट को कभी इतना ज्ञान तक जाता रहता है कि उस समय यदि कौर मुँह में हो तो, यह समझ में नहीं आता कि इसका क्या करूँ, चबाऊँ थूक दूँ या ऐसे ही रखा रहने दूँ, इसका ज्ञान ही नहीं रहता है। ऐसी हालत में कोई लाख ईश्वर-ईश्वर पुकारा करे, ‘मालिक’ की रट लगाया करे, परन्तु मुझे यह कुछ नहीं मालूम पड़ता कि यह न जाने क्या कह रहा है? परन्तु ‘मालिक’ की कृपा से २-३ मिनट से अधिक चेतना बिल्कुल लुप्त नहीं होने पाती है। नहीं तो भाई, यह सूरत होती कि जब कोई नहलाता तब नहा लेती, कपड़ा पहिनाता तो पहिन लेती, खिलाता तब जाने खाती या क्या करती, मैं नहीं जानती। बिल्कुल दूसरे पर आश्रित हो जाती, खैर, मैं तो भाई, ‘उस’ पर आश्रित हूँ, जैसी उसकी मर्ज़ी हो करे। ‘उसका’ बहुत-बहुत धन्यवाद है। मेरे पूज्य “श्री बाबूजी” कल से बहुत शुद्ध हालत लगती है। कुछ यह हाल है कि हर समय ‘भौंचक्केपने की गाढ़ी सी दशा’ रहती महसूस होती है। और एक अब ऐसी हालत आती है कि जैसे पानी में से तरी और ठंडक निकाल दी जावे तो फिर जो शेष रहता है या यों कह लीजिये कि किसी चीज़ में से सार निकाल कर फिर जो शेष रहता है कुछ वैसी ही हालत आती है।

पूज्य ‘श्री बाबूजी’, एक working को बहुत तबियत चाहती है, कि जमीनदारी हरगिज़ abolish न होने पावे, सो कुछ तो शुरु कर ही दिया, परन्तु आपकी आज्ञा का इन्तज़ार है। दूसरे संसार की पृथ्वी में यदि भंडार से ईश्वरीय धार की धारें गिरती हुई ख्याल बाधूँ तो शायद जल्दी हो जावे, जैसा आप लिखेंगे, वही होगा।

बड़े भईया का पत्र आया था। chemistry practical लिखा है कि मेरी समझ से अच्छा हुआ है, वैसे कोई कुछ कह नहीं सकता है। फिज़िक्स Practical ता.३१ को है। केसर ने आप को प्रणाम लिखा है। पढ़ाई में खूब जुटी हुई है, क्योंकि ता.१ से उनके Papers हैं।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। इतिः-

आपकी दीन-हीन, सर्व साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-202
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
30/3/1952
कृपा-पत्र आपका आया, समाचार मालूम हुए। सुनकर खुशी हुई और ‘मालिक’ का बहुत बहुत धन्यवाद है। भाभी की तबियत भी ठीक सुनकर बहुत खुशी हुई। मेरा पत्र पहुँचा होगा। अब ‘मालिक’ की कृपा से जो आत्मिक-दशा समझ में आई है, सो लिख रही हूँ।

अब बेहोशी वाली हालत का कुछ यह हाल है कि जब अपनी हालत से होश आता है, तब यह बेहोशी की हालत महसूस होती है, वरना नहीं होती है। अब मेरी कुछ और दशा हो गई है, क्योंकि जब उस हालत से होश आता है, तभी बेहोशी की हालत और उसी में ही भौंचक्केपन की गाढ़ी दशा महसूस होती है। दुनिया से तो मैं बिल्कुल अपने को सोता हुआ ही पाती हूँ बल्कि यों कहिये कि यह तो स्वाभाविक हो गई है, या यह तो मेरी अब प्रकृति ही बन गई है। यहाँ की हर बात, हर काम मुझसे ऐसे होते समझ लिये जायें, जैसे स्वपन में मनुष्य तमाम काम करता है, सबसे बातचीत करता है, बस इससे अधिक और कुछ नहीं। अन्तर इतना है कि उस स्वप्न में अपना (यानी मैं का) ख्याल ज़रूर रहता है, और इस स्वप्न में इसका कहीं पता नहीं रहता है। इधर तीन-चार दिन से पीठ में रीढ़ की गुरियों में फिर फड़कन और गुदगुदापन सा रहता है। पूज्य “श्री बाबूजी” न जाने अब यह क्या बात है कि सारे शरीर में गुदगुदापन भरा मालूम पड़ता है। हालत भी पहले से बिल्कुल भिन्न महसूस होती है। पहले दशा आँखों के सामने महसूस होती थी और अब तो शायद सोती हुई अवस्था (या मुर्देपन की अवस्था) में भी जो कुछ चैतन्य अवस्था रहती है, उसमें महसूस होती है। और ऐसा लगता है कि बहुत दूर से, बहुत हल्के तौर पर या यों कह लीजिये कि स्वभावतयः ही महसूस होती है। यही नहीं, अब यदि गौर करूँ तो, भाई, न जाने क्यों सारे शरीर के प्रत्येक रोम-रोम में वही कुछ सिरसिराहट और गुदगुदापन महसूस होता है। कुछ ऐसा लगता है कि वह बेहोशी वाली दशा तो मेरी प्रकृति ही बन गई है। तबियत अब इससे परे कहीं रहती है, और न जाने क्यों कुछ ऐसा हो गया है कि अपनी आदत के अनुसार अब जब इस बात का ख्याल आता है कि सब कुछ (यानी शरीर का ज़र्रा-ज़र्रा और जो कुछ भी है) केवल ‘वही’ है, ‘उसी’ का है, तो अब यह समझ में ही नहीं आता या इसका कुछ ध्यान ही नहीं रहता कि यह सब कुछ चीज़ क्या है? अब तो भाई यही है कि ‘उसी’ को सोचते-सोचते ख्याल ही जाता रहा। अब जो ‘उसकी’ मर्ज़ी हो करे। अब वह बेचैनी तो जाती रही, परन्तु न जाने क्यों अक्सर बैठे- बैठे बहुत रोने की तबियत चाहती है। मेरी हालत अब कुछ अजीब सी ही चल रही है।

पूज्य “श्री बाबूजी” ता.१५ अप्रैल को उत्सव आ रहा है, यदि मर्ज़ी हो तो ‘आप’ जब मन हो तब पधारने की कृपा करें। माया, छाया, उमेश व भईया को भी लेते आने की कृपा कीजियेगा। ‘आपको’ सफ़र में तकलीफ़ होती है इसलिए बुलाने की हिम्मत नहीं पड़ती है। ‘आप’ जैसा चाहें, वैसा करियेगा। छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-203
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
2/4/1952
मेरा पत्र पहुँचा होगा। आशा है ‘आपकी’ तबियत अब ठीक होगी। अब उत्सव आ रहा है, परन्तु मैं देखती हूँ कि मेरे लिये तो सदैव उत्सव ही उत्सव है। जहाँ चन्द्रमा है, चाँदनी भी वहीं है, जहाँ सूरज है, प्रकाश भी वहीं है, इसलिये जहाँ ‘मालिक’ है, उत्सव भी वहीं है। अभ्यासी का तो बस ‘मालिक’ ही उत्सव है, उसे उसी से काम है। यद्यपि दिन तो अवश्य ही महत्वपूर्ण है और रहेगा। ‘मालिक’ की कृपा से जो भी आत्मिक-दशा समझ में आई है, सो लिख रही हूँ।

भाई, आजकल तो आत्मा और परमात्मा के संयोग की सी दशा है। परन्तु मुझे तो न आत्मा से मतलब है, न परमात्मा से काम है, मुझे तो बस ऐसी दशा लगती है कि “आली प्रभु के मिलन में अंग-अंग अनुराग”। परन्तु यहाँ अनुराग वगैरह तो मैं कुछ जानती नहीं, क्योंकि जब अपनी ही खबर न रही, फिर अनुराग को कौन पहिचाने? पूज्य श्री बाबू जी फिर मुझे ऐसा लगता है कि मेरा तो बिछोह कभी हुआ ही नहीं। मुझे यह याद ही नहीं पड़ता कि मैं ‘उससे’ कभी खाली और अलग रही हूँ, यह असम्भव है। इधर तो अब यह हाल है कि दिन रोते ही बीतते हैं। कभी-कभी ज़ोर से रोने को तबियत चाहती है, सिसकी बंध जाती है, परन्तु कारण कुछ नहीं मालूम। खैर, मुझे बस ‘उससे’ ही काम है। भाई, ऐसा लगता है कि अंग-अंग में कुछ भर गया है, रोम-रोम में कुछ समा गया है। परन्तु अनुभव में इतना ही आता है या ऐसा लगता है कि वह तमाम खुशी तो जो होती थी, सो खत्म हो गई। अब शरीर के भीतर बाहर रोम-रोम में सिहरन तथा मीठी सी गुदगुदी सी मालूम पड़ती है। तमाम रोने के बाद या ज्यों-ज्यों रोती हूँ, उसके बाद यह दशा अधिक और शुद्ध तथा स्वाभाविक रुप में मालूम पड़ती है।

और पूज्य श्री बाबूजी, न जाने कब से मेरी यह हालत तो अब बिल्कुल स्वाभाविक ही हो गई है, कि जैसे कोई हाथ कहे, तो हाथ स्वाभाविक तौर पर खुद उठ जायेगा वरना मुझे यह कुछ महसूस नहीं होता कि यह हाथ ही उठा है। पेट में या शरीर में कहीं भी दर्द हो तो यदि धीमे-धीमे हो तो बहुत हल्के तौर पर यह होता है कि इस जगह दर्द होता है, परन्तु जब ज़ोर से उठता है, तब ठीक ठिकाने का (कि पेट में है या हाथ में है) पता लगता है। यही नहीं, यदि मैं यह ख्याल बाँध कर कहूँ कि यह हाथ है तो भी कहते-कहते हाथ का ख्याल तो भूल ही जाता है और यह बात अब कोई नई नहीं मालूम पड़ती, बल्कि ऐसा लगता है कि यह तो कुदरतन थी ही। कभी-कभी दिन में तबियत उचाट बहुत होती है। परन्तु पहले से कम है। हालत अक्सर बड़ी नीरस सी आती है।

छोटे भाई-बहनों को प्यार। केसर ने आपको प्रणाम लिखा है। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-204
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
6/4/1952
कल मनीआर्डर के फार्म में वहाँ के समाचार मालूम हुए। सुनकर अफ़सोस हुआ। कृपया ‘आप’ अपनी तबियत को न बुझनें दें, क्योंकि ‘आप’ से तो हम लोगों को जिला मिलती है। फिर यदि दो-तीन ही आदमी काम करने वाले हैं, उनमें पूरी Activity है, तो फिर तो कोई चिन्ता नहीं, क्योंकि कहा जाता है कि काम करने वाले का एक-एक रोयाँ एक-एक मनुष्य के बराबर की शक्ति का होता है। मिशन को तो ‘मालिक’ की कृपा ने ही सदैव जिला दी है और सदैव देता रहेगा। फिर ‘आपने’ मुझे बताया था कि तबियत को निराश कभी नहीं होने देना चाहिये। अब ‘मालिक’ की कृपा से जो आत्मिक-दशा समझ में आई है, सो लिख रही हूँ।

कुछ ऐसा लगता है कि मुझे यह भी याद नहीं रहता कि मेरी बेहोशी की हालत रहती है और कुछ यह है कि एकाध सेकण्ड को जैसे ही याद आती है, बस फिर गड़प सी हो जाती है। जब याद आती है, उस सेकण्ड बस इतना भास होता है कि कहीं से आई हूँ, जैसे डूबा हुआ मनुष्य या यों कहिये कि मुर्दे में एक क्षण को कुछ चैतन्यता सी आती है, परन्तु उस चैतन्यता को चैतन्यता कहना बेकार है। जैसे कोई गहरी नींद से जागकर ऊँघते से में ही “हूं, हाँ” कर देता है, उस सेकण्ड बस ऐसी ही मेरी हालत हो जाती है। कुछ बुरा सा भी लगता है। यदि १०-१५ मिनट उस हालत में लग जायें, बस सोई तबियत बड़ी उचाट होने लगती है। भाई, न जाने क्या बात है, मुझे तो अब ऐसा लगता है कि किसी भी समय अपने आपे में नहीं रहती हूँ, सदैव आपे से बाहर कहीं दूर रहती हूँ। बस वही मुझे अच्छा लगता है, बल्कि अच्छा क्या यदि मैं यह कहूँ कि वहाँ न अच्छा लगता है, न बुरा, परन्तु फिर भी तबियत वहीं लगी रहती है, इसलिये यह कहा जा सकता है कि वहाँ अच्छा लगता है। जो कुछ भी करती हूँ, जो कुछ भी बोलती हूँ, सब आपे से बाहर ही काम होता है। ‘मालिक’ ने मुझे सही और गलत यानी यह ठीक है, यह ठीक नहीं है, सोचने से भी छुटकारा दे दिया है। अब ‘वह’ जाने, ‘उसका’ काम जाने। भाई, ऐसी हालत लगती है कि जहाँ से Soul आई है, वहीं लय सी होने लगी है। जहाँ से सब रुह रवाँ हैं, वहीं स्थित होकर लय सी होने लगी है। वहाँ हालत में ऐसी रंगीनी लगती है जिसमें से रंगीलापन निकल गया है। हर समय तबियत बिल्कुल सरल Innocent सी बनी रहती है। भाई, पहले कभी मैंने लिखा था कि हर चीज़ से रोशनी निकलती महसूस होती है, परन्तु अब तो भाई सूरत कुछ और हो गई है। अब तो सब में ऐसा अंधेरा लगता है कि, जिसमें उजेला तो है ही नहीं, परन्तु अंधेरा भी नहीं कहा जा सकता है। सब चीज में यहाँ तक कि सूरज और चन्द्रमा तक में भी मुझे उजेला नहीं महसूस होता है। बस आज कल कुछ यही हाल मेरा चल रहा है। प्रणाम करती हूँ, परन्तु यह सुधि नहीं रहती कि किसे कर रही हूँ, यहाँ तक कि यह भी सुधि नहीं रहती कि प्रणाम कह रही हूँ, या क्या कर रही हूँ। छोटे भाई-बहनों को प्यार ! इतिः-

आपकी दीन-हीन सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी
अनंत यात्रा
संत कस्तूरी के पत्र
पत्र-संख्या-206
परम् पूज्य तथा श्रद्धेय श्री बाबूजी, के चरणों में मेरा सादर प्रणाम स्वीकृत हो।
लखीमपुर
4/1/1952
आशा है, मेरा पत्र पहुंचा होगा। यहाँ सब अच्छी तरह से हैं। आशा है ‘आप’ भी अच्छी तरह से होंगे। इधर बहुत दिनों से ‘आपका’ कोई पत्र नहीं आया-सो कभी-कभी कुछ फिक्र सी हो जाती है। पूज्य मास्टर साहब जी के यहाँ हमारे मिशन का उत्सव ता. 13 को है, सबको आशा है कि शायद ‘आप’ आ जावें, सुनकर प्रसन्नता हुई। यदि ‘आप’ कृपा करके आवें तो माया, छाया के इम्तहान यदि न होते हों, तो उन्हें भी साथ लेते आइयेगा। भइया तथा उमेश को भी लेते आइयेगा। बड़े दद्दा संग होंगे, ‘आपको’ कोई तकलीफ नहीं होने पावेगी। माता जी तथा बिब्बो और प्रतिभा को भी लेते आइयेगा। यहाँ नुमायश लगी हुई है, सबके संग ही मैं भी जाऊंगी। पूज्य ‘श्री बाबूजी’ जैसी ‘आपको’ सुविधा हो, तकलीफ़ न हो, वैसे ही ‘आप’ करियेगा। ‘मालिक’ की कृपा से जो कुछ भी आत्मिकदशा समझ में आई है, सो लिख रही हूँ।

भाई, मुझे तो ऐसा लगता है कि सुषुप्ति अवस्था में मन हर समय सोया रहता है, और ऐसा लगता है कि तम में घुसकर खो गया है। या यह कह लीजिये कि मैं सदैव आपे से बाहर ही कहीं, न जाने कहाँ खोई रहती हूँ। परन्तु ऐसा है कि इस सुषुप्ति या तम में चैतन्यता की कुछ रोशनी जरूर पड़ती रहती है, जिससे शरीर निश्चेष्ट नहीं होने पाता है, नहीं तो भाई शरीर कब का निश्चेष्ट हो गया होता। मैं तमावस्था में ही हर समय सोयी रहती। अब कुछ ऐसा है कि सुषुप्ति की उस चैतन्यता में ही दशा अनुभव में आती है। परन्तु अब तो यह ऐसी स्वाभाविक हो गई है, कि जैसे रोज़मर्रा की आदत पड़ जाती है। अब तो मुझे इस दशा से भी बेखबरी हो गई है। जब इस चैतन्यता के प्रभाव से याद आती है, तो यह दशा मालूम पड़ती है। परन्तु अब तो इसकी याद भी बहुत कम कभी-कभी ही आती है। वरना यह भी भूल गई हूँ।

पूज्य ‘श्री बाबूजी’ आपका एक पत्र अभी-अभी आया-पढ़कर खुशी हुई। ‘आप’ कहते हैं कि “मैं गाफिल रहा।“ परन्तु मेरा कहना यही है, कि पग-पग पर ‘आप’ की कृपा ही ने रोशनी दी है और सदैव देगी, इसमें सन्देह नहीं, जिसके कारण ही जो कुछ भी थोड़ी सी भी आत्मिक दशा का आरम्भ है, वह केवल ‘आपकी’ उस महान् कृपा का ही फल है। कहा जाता है कि ‘आफताब’ की किरणें पड़ने से रेते का ज़र्रा-ज़र्रा भी सच्चे मोती की चमक की तरह मालूम पड़ने लगता है। बस यही बात है, और कुछ नहीं। परन्तु भाई, मेरी निगाह तो उस ‘आफ़ताब’ में ही गड़कर विलीन हो गई। मुझे तो ‘उसी’ से काम हैं, और रहेगा। इधर कुछ दिनों से मुझे महसूस होता था कि ‘आपकी’ तबियत ठीक नहीं है और इसीलिये पत्र का बड़ी बेचैनी से इन्तज़ार था कि कहीं से कोई खबर मिल जाती। न जाने क्या कारण है कि मेरी प्रार्थना तथा कुछ सेवा आपको ‘आराम’ नहीं पहुंचा पाती है। मुझे कोई कुछ बता दे, मैं सब करने को तैयार हूँ। अब ‘आप’ सफ़र न करें। जब अच्छे हो जावें, तो जून में अवश्य आवें। ‘आपने’ एक बारे कहा था कि अण्डे से लाभ होता है, सोई कृपया खावें और खुश्की दूर करने को अधिक घी खाना लाभ करेगा। तब अंडे का बढ़िया शोरबा बनाना सीखने की मैं भी कोशिश करूंगी। ‘ईश्वर’ आप को जल्दी से अच्छा कर दे। पूज्य ताऊ जी के लिये भी जो ‘आपने’ लिखा है, पूरी कोशिश करूंगी। छोटे भाई-बहनों को प्यार। इति:-

आपकी दीन-हीन, सर्व-साधन विहीना,
पुत्री-कस्तूरी