Sant Kasturi
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संदेश - संत कस्तुरी
हम अभ्यासी हैं
दिल्ली
20/1/1974
हम नन्हें बालक हैं माँ के बिना दिन को चैन नहीं रात का गुजारा नहीं। भूख लगी हैं तो माँ चाहिए, नहाना है तो माँ चाहिए। किसी की फटकार से छुपने के लिए भी माँ का स्नेहांचल चाहिए। माँ की वात्सल्यमई निर्झरिणी में बहकर हम उससे निर्भय हैं, बेपर्द है। यह तो हुई संसार में पलने के लिए बढ़ने के लिए हमारी आवश्यकता। ऐसे ही जीव, जो माँ (ईश्वर) से बिछड़ गया है, भौतिक आवरण ओढ़ लेने से उसे देख नहीं पा रहा है परन्तु बेचैन है, दुखिया है, माँ के बिना उसे अब क्या करना चाहिए? ‘उसके’ ही (ईश्वर के) स्मरण का अभ्यास। क्योंकि संस्कार रूपी श्रृंखलाओं की जकड़न ही हमारे यहाँ (संसार में) आने का कारण है। इन तमाम संस्कार रूपी श्रृंखलाओं का कारण होता है मन का अयोचित अभ्यास। मन अभ्यास का दास है। जब इसका अभ्यास उल्टी और दुरूह राह पकड़ता है तो हम भोग और दुख रूपी जकड़न से जकड़ते ही चले जाते हैं। जब हमारे मन का अभ्यास सही और सहज राह पकड़ता है तो हम इन तमाम श्रृंखलाओं से मुक्ति पाते हुए सरलता के परम शुद्ध की ओर निरन्तर बढ़ चलते हैं।

तमाम उम्र अभ्यास में ही व्यतीत हो जाती है परन्तु मैंने देखा है कि मनःस्थिति इस तरह की नहीं बन पाती है, इसका क्या कारण है? जहाँ तक मेरी खोज है तो कारण यही मिलता है कि हमारा अभ्यास लक्ष्य-विहीन होता है। कभी कामना की भी तो माँगा, बच्चे ठीक हो जायें, शरीर ठीक हो जाये, अमुक कष्ट दूर हो जाये। इससे कष्ट भी दूर नहीं होते वरन् उल्टे कामना पूर्ण न होने पर हृदयों में ईश्वरीय शक्ति का महत्त्व घट जाता है और हम लक्ष्य से और दूर हो जाते हैं। हम अभ्यासी हैं, साधक हैं, हमारा लक्ष्य केवल ईश्वर प्राप्ति ही होना चाहिए। हाँ हमारे लक्ष्य की पूर्ति में जो बातें बाधक हैं, चाहे वे बीमारी व कष्ट ही हों उन्हें उनके सम्मुख रखते चलें तो वे अवश्य ही कम भी होते हैं और हमें लक्ष्य-प्राप्ति की राह में बढ़ने में सहायता और (ईश्वरीय) शक्ति दोनों ही मिलती है। जब हमारा अभ्यास लक्ष्य–विहीन होता है तब हमें उसकी निकटता की महक तक नहीं मिल पाती है और हम अपने अभ्यास या साधना की श्रृंखला में बद्ध हुए ज्यों के त्यों ही यहाँ से चले जाते हैं। इसलिए हमें वास्ता केवल ‘वास्तविकता’ से रखना चाहिए और अपनी रहनी ऐसी बनानी चाहिए कि पृथ्वी की छायां सूर्य तक न पहुँच सके।

वास्तविक अभ्यास (साधना) द्वारा हम अपने और उसके (साध्य के) बीच की दूरी नापते हुए, उसकी निकटता का आभास पाकर आशान्वित और आनन्दित होते हुए तीव्र गति से उधर ही बढ़ चलते हैं। जब हम दिल्ली या कहीं जाते हैं तो हमें मायलेज द्वारा पता चलता है। इसी प्रकार हृदय में जितना हम ‘मालिक’ का सामीप्य अनुभव करते हैं उसी से हमें यह अन्दाज़ा लगता जाता है कि हम ‘लक्ष्य’ के कितना करीब पहुँच गये हैं अथवा लक्ष्य से हम कितनी दूर हैं। आध्यात्मिक-उन्नति के सारे स्तर (stages) इसी बढ़ती हुई सामीप्यता एवं उसमें एकता के दायरे में आती हैं। आगे यही दायरा टूट जाने पर हम असीम में जा मिलते हैं। सामीप्यता का अनुभव इतना स्वाभाविक होता है कि हममें से प्रत्येक अभ्यासी को इसका अन्दाज़ा लगता जाता है। सामीप्यता की सेंक हमारे अन्तर एवं बाह्य के समस्त मायिक बनावटीपन को बाहर निकालता चलता है और अक्सर हम मिलन की गुदगुदाहट से पुलक उठते हैं। ईश्वर–प्राप्ति की ओर निकटता और मिलन के अंदाज़ का पता हमें उसकी सामीप्यता का अनुभव ही देता है। उसकी सामीप्यता का अनुभव इतना सुखकर होता है कि हम धीरे-धीरे हृदय में उसी सुख को लिए एक गहराई की दशा में बैठते जाते हैं। यह गहराई सँकरी होती जाती है कि पहले तो हम समस्त में उसे देख पाते थे, उसके होने का अंदाज़ पाते थे फिर यह हुआ कि यह गहराई सँकरेपन में बदलने लगी और हम यह पाने लगे कि अब केवल हम और ‘वह’ दो के ही चलने का मार्ग रह गया है। किन्तु मार्ग की सहजता और स्वच्छता बढ़ने लगती है। कभी कहीं भी बेकार विचारों का झाड़-झंखार हमारे लिए बाधक बनने नहीं आता है। वरन् यह हाल हो जाता है कि “चलना रहा नाजुक है, हमन सर बोझ भारी क्या।” सत्य ही ‘वह’ हमारे हृदयों का सारा बोझ उतार कर हमें हल्का कर देता है। इस हल्केपने को हममें से प्रत्येक अनुभव कर पाता है। अब एक विशेषता हम अपने में और पाने लगते हैं कि बाह्य से संकुचित होकर हम अन्तरात्मा के विस्तार में फैलने लगते हैं। परन्तु यह ज़रा सूक्ष्म होता है इसलिए कभी हम अभ्यासियों की आँच से ये ओझल सा रहता है। यही अन्तर का फैलाव बढ़ कर क्रमशः हमें समस्त में फैलाव देता चलता है और भी आगे बढ़ने पर यही स्थिति सर्वव्यापकता में बदलने लगती है। गोया कि अपने प्रिय (ईश्वर) के मिलन की एक विशेषतारूपी कड़ी से हम सम्बन्धित हो जाते हैं। आगे ‘श्री बाबूजी’ ने मुझे लिखा था कि जिस स्तर की लय-अवस्था हमारी होती है उसी मिक़दार में हमें बका़ (परिपक्वता) ईश्वर के दरबार में मिलती है अर्थात् जो चीजें और शक्ति हमें मिलती है उन पर हमें मिल्कियत (mastery) मिलती जाती है। क्या खूब है कि गये थे भिखारी बनकर, सिमटे से हृदय का प्याला लेकर उसके सामने खड़े रहे; उसने माँगना तो छुटाया ही और इतना दिया कि हम दूसरों को भी दे सकें। साथ ही ऐसा आत्म-विश्वास भी हमें अपने अन्दर मिलने लगता है क्योंकि जिस स्तर का ‘उससे’ योग होता जाता है, लय–अवस्था होती जाती है उसी हिसाब से उसकी शक्ति से भी हम सम्बन्धित हो जाते हैं। इष्ट के सामीप्य को पाकर हमारा अंतस स्वतः पुकारता है “वे तो हैं हमारे ही, हमारे ही, हमारे ही, और हम उन्हीं की, उन्हीं की, उन्हीं की हैं।” हमारे अन्तर में स्वतः ही एक दृढ़ता से हम पुलक हो उठते हैं, रोमांचित हो उठते हैं। क्यों? प्रिय के पावन सान्निध्य का आभास हमें मिलने लगता है। यही माप हमारे अन्दर मिलन की तड़प को और बढ़ाती जाती है। हमारे ‘श्री बाबूजी’ का कथन हमारे अंदर चरितार्थ हो उठता है कि “तड़प अपना रास्ता खुद टटोल लेती है।” कैसी अनूठी रहनी हो जाती है कि ‘तुझको’ चाहने वाले, हर चाह से बेजार हो जाते हैं और यही कहना पड़ता है। “प्रियतम तेरी याद में मैं ज़ार-ज़ार रोया हूँ।” लेकिन उधर से ध्वनि आती है, “जब तू रोता है मैं हँसता हूँ, जब तू हँसता था, मैं रोता था।” ऐसा क्यों? क्योंकि जब मैं रोया (तेरी याद में) तब उसे यह प्रसन्नता हुई कि बच्चा माँ (लक्ष्य) के लिए रोयेगा तो मंज़िल खुद दौड़ी आयेगी। जब मैं संसार के अनित्य सुखों की भूल-भुलैया में पड़ा हँसता था खुश होता था, तब ‘वह’ रोया कि सत्य, सहज मार्ग को भूलकर उसका हो, मैं अब उलझन में उलझ गया हूँ। यह तो हुई ‘उससे’ (लक्ष्य) से सामीप्यता की बातें।

अब और आगे बढ़े तो रह रहकर लगने लगता है कि काम करते करते चलते फिरते भी यह विस्मृत हो जाता है कि मैं कहाँ हूँ ? जब होश आता है तो लगता है कि मानो मैं कहीं से लौटी हूँ ? इस बारे में ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने लिखा था यह भूलने की स्थिति (frogetful state) है। धीरे-धीरे जहाँ तक हम कभी-कभी पहुँचने का पता पाते थे वहीं सूक्ष्म रूप से हमारी रहनी होने लगती है। हमें पता लगने लगता है कि यहाँ संसार में रहते हुए भी हम वास्तव में कहीं और रहने लगे हैं। मानो हमने उसकी सामीप्यता के दूसरे चरण में कदम रख दिया है अर्थात् हमें (प्रियतम के) सालोक्य की प्राप्ति हो गयी है। लेकिन दिल्ली तो अभी दूर है। रहने से उसका सालोक्य मिल गया परन्तु प्रिय कैसा है, कब दर्शन होंगे, कब उससे मिलन होगा यह तड़प तो अब और भी उभरती ही आती है। चैन नमस्कार कर जाता है। रात कभी होती नहीं दिन कभी आता नहीं है, रात-दिन का भेद ही समाप्त हो जाता है। सब-कुछ मिटने लगता है। यहाँ तक कि संसार के लोगों की शक्ल भी मिट जाती है। संसार छायावत् की भॉति प्रतीत होने लगता है। हम वास्तविकता की ओर बढ़ रहे हैं इसका यह और प्रमाण हमारे अनुभव में मिलने लगता है। हमारी गति अत्यंत सरल और पवित्र हो जाती है। जिधर से हम निकल आते हैं मानो उधर ही एक पावन धारा बह उठती है और हम स्वयं ऐसा अनुभव कर पाते हैं। शक्ल का बन्धन टूट जाने से समस्त के प्रति मानों घृणा का बीज दग्ध हो जाता है। मानो माया का एक और आवरण उतर गया। हम और ऊपर उठते हैं अर्थात सब हमें अपने से ही प्रिय लगने लगते हैं। जड़-चेतन सबमें एक भाव भासने लगता है। विश्व प्रेम (universal love) का अध्याय खुल जाता है। लेकिन इस स्थिति में पैराव भी तो होना है। क्या होता है कि सालोक्य की स्थिति में बैठने पर हमें प्रत्येक ओर से हर गति से उसकी ही ख़बर मिलने लगती है क्योंकि अब तो प्रियतम (ईश्वर) का अत्यंत सामीप्य, ‘उसका’ लोक ही रहने को मिल गया। सब ओर निर्वाण (मुक्ति / मोक्ष) की सी महक आने लगती है। अब बाह्य का आना-जाना बन्द ही हो गया क्योंकि दृष्टि ‘उसके’ ही पीछे भागने लगी। यह नशा इतना बढ़ा कि धीरे-धीरे यह स्थिति भी विस्मृत होने लगी कि हम उसके ही लोक में रहते हैं। अब मानों हम कुल आँख ही बन गये। अंतस जो पुकारता था कि ‘दर दिवार दरपन भये, जित देखें तित तोय’ अब पुकारने लगा है ‘जिधर देखा, तेरा ही जलवा देखा।’ यही नहीं ऐसा अचंभा हो गया कि सहसा यह सब कुछ एक स्वप्न सा विस्मृत हो गया और प्रत्येक गति में, मति में एवं चित्त में एक अनोखी स्थिरता आ बैठी। आँखे खुली की खुली रह गईं। मृत्यु ने आ दबोचा पर शरीर को। कबीर की वाणी स्मरण आने लगी? मन थिर, चित थिर, थिर भया सकल शरीर, ताके पीछे हरि फिरें कहत कबीर कबीर। ऐसा क्यों नहीं ? जब मृत्यु हो गयी तब हम अनुभव करने लगे कि “अंतस में आवाज़ देकर कोई हमें बुला रहा है।” अपने ही लोक में रहने वाले (हम अपने ही अभ्यासी) की खोज में ‘वह’ निकल पड़ा है। जिस तिस से पता पूछता है वह कहाँ है? वह कहाँ है? यह खबर हम तक (अनुभव के रूप में ) आने लगती है। ऐसा आभास होने लगता है कि प्रियतम (ईश्वर) मुझे खोज रहा है। क्यों? क्योंकि हमारी साधना, हमारा अभ्यास केवल उसे ही प्राप्त करने के लिए था। उनमें ही रत रहने का तो हमने अभ्यास किया है। और एक दिन? ‘वह’ हमें खोज लेता है, तब? सोये से, खोये से, थके से, बेसुध से, बेखुद हुए हम उसके साथ ही चल पड़ते हैं। कहाँ? पता नहीं, चलने का भी होश नहीं, अवगति गति हो जाती है हम अभ्यासियों की। अपूर्व दिव्य-स्थिति, अब हमारे अन्दर अनुभव में आती है कि ‘प्रिय’ की एक टक छवि देखते-देखते हम ‘उनमें’ ही खो (लय हो) जाते हैं। सहसा ‘उनका’ रूप हमारा रूप हो जाता है। दर्पण को स्वयं अपना मुख नहीं दिखाई देता उसी प्रकार ‘सारूप्य’ की प्राप्ति हो जाने पर हम स्वयं को देख पाने में असमर्थ हो जाते हैं। यहाँ तक कि स्वयं अपने ही स्पर्श का अनुभव नहीं होता है। सारूप्यता भी मिल गई और इसमें बका़ (परिपक्वता) भी उनके दरबार से हमें तुरन्त मिलने लगती है। वह तो मिल गया किन्तु मज़ा क्या जब हम खो गये। क्रमशः इस स्थिति में भी इतनी स्वाभाविकता हमारे अन्दर प्रवेश कर जाती है कि हम स्वरूप को ही सहसा विस्मृत कर जाते हैं। जब रूप नहीं तो सारूप्यता का पता कहाँ? ‘मालिक’ तो हमें मुक्ति की ओर लिये चलता है फिर रूप का बन्धन कैसा, चाहे ‘उनका’ ही हो। कोई बोझ आध्यात्मिक गतियों का भी हमारे विचार में ठहर सके इसकी ‘उन्हें’ ही गम्य (आज्ञा होंना) कहाँ। सत्य तो यह है कि किन्हीं दशाओं का लालच लिये ही हम पुनः मर जाते हैं। ‘प्रियतम’ की प्राप्ति में ‘उसको’ पूर्णतया अपना लेने में हम मर मर कर जीते हैं। |

अब सामने हमें एक नवीन अध्याय खुला मिलता है कि हम ऐसा अनुभव करने लगते हैं कि हमारा अन्तर, हमारा अपरोक्ष-मन पिघल पिघलकर विलीन होने लगता है। यहीं से सायुज्यता की दशा का (वास्तविक मिलन) आरम्भ हो जाता है। यद्यपि मैंने संक्षिप्त में केवल हम अभ्यासियों को अपनी उन्नति का पता तौलने के लिए एक छोटा सा हवाला भर दिया है। मुख्य गतियों का द्वार अपनी मनःस्थिति को तौल पाने के लिए। नहीं तो, एक-एक श्रेष्ठ गतियों में जितनी बारीक (सूक्ष्म) स्थितियाँ सामने आती हैं, सबेरे शाम बदलती रहती हैं। उन एक एक के विषय में लिखने के लिए पन्ने भर जायेंगे फिर भी अंत नहीं। ‘मालिक’ की देन ही इतनी है, वह देते हैं और देते ही चले जाते हैं। अंतर हमारी दृष्टि का हो जाता है कि जब हम अपनी नजरें बाह्य-नज़ारों से नहीं चुरा पाते हैं। हमारे ‘श्री बाबूजी’ तो अपनी पावन-प्राण-शक्ति हम सभी के हृदयों में उड़ेलते जाते हैं। अब सायुज्यता (मिलन) की बेला आ गई। ‘वह’ स्वयं अब हमारी बाँह पकड़कर ले चलने लगा है। इस स्थिति में भिदने के साथ ले चलने वाले तथा दिव्य-गतियों के पसारे के लिए हमारी मनःस्थिति केवल दृष्टामात्र की भाँति हो जाती है। इन महान्, दिव्य गतियों, जिसका की हम आनन्द उठा सकें, हमारे अंदर की वह आत्मिक-भोग-शक्ति भी ‘उन्हीं’ में समा जाती है। अब न कुछ देना है न पावना है इसलिए अंतर की चाह की जान निकल जाती है। तड़प, हमें राह देकर स्वयं भी उनमें ही जा मिलती है। हम पाते हैं, कि हमारी (हम की) सीमा टूट गई और कुछ सर्वत्र व्याप्त हो गया। अब ‘श्री बाबूजी’ को हम लिखने लगे कि जिस स्थान का ख्याल आता है तो लगता है हम वहाँ मौजूद हैं। फिर कोई विचार नहीं रहता है। हालत ज्योंकि त्यों प्रशान्त सागर सी बनी रहती है। पूजा जहाँ से प्रारम्भ हुई थी वहीं आकर समाप्त हो गई। ऐसे ही बैठे एक बार मैंने ‘श्री बाबूजी’ से पूछा कि आप सामने हैं। फिर भी मुझे दृष्टिगत नहीं होते, बोलते हैं परन्तु आवाज़ नहीं वरन् ऐसा लगता है कि बहुत दूर से एक मधुर ध्वनि आई और चली गई यह सब क्या है? इस पर जो मधुर स्वर कानों में पड़ा उसका अर्थ था कि रूप कोई हो वह matter स्थूल से ही संबंधित है। मुझे तुम सबको वहाँ ले जाना है जहाँ पर वास्ता केवल असलियत से ही है। इतना मैं कहूँगी कि ऐसा हो तभी सकता है, जबकि हमें कोई ऐसा (सदगुरु) मिल जाये जिसकी धारा अंतिम सत्य (Ultimate Reality) में मिल चुकी हो। तभी हम उसी (सदगुरु रूपी) धारा में मिले हुए, उनकी पावन प्राणाहुति द्वारा समस्त वृत्तियों का अर्ध्वमुख पाये ‘धारा’ में बहते हुए एक दिन उद्गम् (अंतिम सत्य) से अवश्य जा मिलते हैं। कबीर की सरस वाणी में भी यही पाते है कि सदगुरु धारा, निर्मल-धारा वामें वाया खोई रे, कहत ‘कबीर’ सुनो भई सादो तबही वैसा होई रे। यह ध्रुव सत्य है, जहाँ सत्य (वास्तविकता) का पसारा है। अब इसमें पैराव कहाँ तक होगा कौन जाने, जो जाने सो जाने।

मैंने बाल्यकाल से बहुत सी साधनायें साधी हैं, बहुत से योगाभ्यास प्रयोग में लाकर यही सत्य प्रत्यक्ष पाया कि जो समस्त क्रियाओं के बन्धन से परे है वही साधना (ध्यान) मुक्ति–साधना है जो अन्य समस्त साध (इच्छाओं से रहित) हो वही सत्य साधना है जिस धारा में लय होकर पैरने में हम समस्त बंधनों से मुक्ति पाये हुए अपने हृदय को हल्का-फुलका (संस्कारों के साफ हो जाने के कारण) स्वतंत्र सा अनुभव करें, चैन की साँस हो जो (भौतिक) साँस हीन हो, कुल भौतिकता रूपी स्थूलता की कैंचुल स्वतः ही अपने नेत्रों के आगे उतर जाये वही साँचा सदगुरु हैं, उसी वास्तविक–धारा में बहते हुए, पैरते हुए हम एक दिन अपने उद्गम से जा मिलते हैं। यही उसे (ईश्वर को) पाना ही नहीं बल्कि कुछ और भी है। ‘श्री बाबूजी’ के कथनानुसार इस स्थान की बका़ (परिपक्वता) हमें उसके (ईश्वर) दरबार से मिलती है। वही आत्मविश्वास जो ‘उससे’ सामीप्यता की दशा में हमें मिला था वही सालोक्य और सारूप्यता की प्राप्ति हममें बढ़ा, पनपा और अब इसकी भी सीमा टूटकर यह भी असीम में मिल जाता है। सभी कुछ सीमा में प्रारम्भ होकर असीम में जा मिलता है। अब स्वयं को हम unfailing will में पैरा हुआ पाते हुए भी विस्मृत से हो जाते हैं। जब वह अपने काम के लिए हममें चेतना प्रस्फुटित करता है तब हमें अपने में ‘उसकी’ ही असीम शक्ति का बोध होता है। हम सुदृढ़ से, बिना थके, अप्रतिम गति से उठ पड़ते हैं। कार्य की समाप्ति पर मानो पुनः विस्मृत से हो जाते हैं। बस यह इतनी सी चीज़ जो हमारे में शेष रह जाती है वही जीव और ईश्वर का अंतर बनाये रखती है। वही स्वामी और सेवक का अंतर बनाये रखती है। परन्तु क्या अनुपम रहनी होती है, वैसे कहा जाये की कोई रहनी ही नहीं है। आश्चर्य इस बात का होता है कि हमारी बाह्य चेतना जितनी बाह्य कार्यों के लिए आवश्यक होती है वह कभी सोती नहीं वरन् और सजग हो जाती है। कैसे? यह पता नहीं। पैराव कहाँ तक है कौन जाने? जो जाने सो जाने। पहले उसे पाना, फिर जो ‘वह’ जनाये उसे जानते चलना, लेते चलना, पैठते चलना। फिर क्या? सब कुछ राह के बटोही की भाँति छोड़कर चले जाना। अब उनकी देन को केवल साक्षी रूप में देखते चलना। सहसा, वह भी विस्मृत हो जाना। यही केवल तौल है हम अभ्यासियों के लिए अपने को तौलने का।

संदेश - संत कस्तुरी
प्रिसेप्टर
मोदीनगर
2/2/1976
कौन होता है प्रिसेप्टर? कैसा होता है ये प्रिसेप्टर? इसका अर्थ हमारे श्री बाबूजी ने एक बार “गुरु शब्द के अतिरिक्त कुछ हो भी नहीं सकता”, ऐसा कहा था। ‘मालिक’ में लय-अवस्था के किस स्तर पर पहुँचने पर मालिक का यह कथन लागू हो सकता है। तब मैंने यही पाया कि जब हम उन्हें इस आत्मिक दशा की खबर देते हैं कि हम जिधर भी जाते हैं, एक पावन लहर, एक पावन शक्ति समस्त में व्याप्त हो जाती है, तब ‘आप’ ने लिखा था कि जब अभ्यास इस हालत पर पहुँच जाता है, तब उसे काम के लिए permission (अनुमति) दे ही देनी चाहिए। क्योंकि जो शक्ति या धारा वातावरण में फैल रही है वह बेकार न जाये। उसे दूसरों के आत्मिक-हित में काम में लाया जा सके। अभ्यासी की ऐसी मनः स्थिति हो जाने पर जब उसे permission (अनुमति) मिलती है, तब उसे अड़चनें कम मालूम पड़ती हैं। ऐसी मनःस्थिति कब होती है? जब हम ‘उनका’ स्मरण रखते-रखते ‘उनमें’ इतना लय रहने लगते हैं, फिर अपना ख्याल स्मरण दिलाने पर भी नहीं आ पता है। ऐसा क्यों? क्योंकि मालिक ने उसे ऐसा बना कर खड़ा कर दिया कि उसे कुछ होश ही नहीं है। जो जिया ही नहीं वह मरण को क्या समझेगा जो मरण को नहीं समझेगा वह जीवन को क्या पहचान पायेगा? परन्तु जो जीवन और मरण को चरण तले दबा कर आकाश का भी उल्लंघन कर गया, उसे तो उस वास्तविक तत्व की कुछ पहचान हो ही गई है, जो कि तत्व से परे है। उसकी पहचान हो ही नहीं पाती है। तो अब वह क्या करे? अगर कर सकता है तो जो भूले हुए हैं उन्हें उसकी पहचान करवा दे। जो कठिन राह पर चल कर ‘लक्ष्य’ पर नहीं पहुँच पा रहे हैं उन्हें ‘सहज’ सा मार्ग बताकर मालिक से बख़्शी हुई उनकी Transmission power (प्राणाहुति शक्ति) का सहारा देकर उन्हें खुद से छुटा कर उनका दामन पकड़ा दे। प्रेम का मन्त्र उसके हृदय में इस तरह जागृत करें कि उसके अन्दर भी तड़प का बीज पनप उठे। संसार में बेलगाम, बेलौस, सरल, सरस दिव्य ईश्वरीय रहनी में स्वयं रहता हुआ, लोगों को तड़क-भड़क से निकालता हुआ, साँची एवं पावन रहनी से ऐसा सज़ा दे, कि ‘प्रियतम’ उसे (अभ्यासी को) देखकर मुस्करा उठे वह समझ ले कि उनके बन्दे जिन्हें उन्होंने अपनी श्वाँस-श्वाँस से पाला है, अपने प्राणों की आहुति देकर, अपने खालिश हृदय में भी उन्हें याद रखकर तैयार किया है, वह हम ‘उनके’ महान्–जन- कल्याणकारी-पावन –कार्य में सहायक के रूप में ‘उनकी’ मर्जी के माफ़िक कार्य कर रहे हैं, जिन्हें वे प्रिसेप्टर कहते है। हम अपने को निखारते हुए समस्त को निखार लाने के कार्य में सफलता प्राप्त कर सकें, ऐसी दिव्य रहनी अपनावें।

बहुत सी इसकी बारीकियाँ हैं, जो मुझे ‘मालिक’ का काम लगनपूर्वक करते रहने के बहुत बाद में समझ में आई हैं। जब हमें Master (मालिक) ने power (शक्ति) दी और कहा कि तुम काम करो, जब मैंने पहले काम शुरू किया तो मुझे यही लगता था कि मेरे सोचने से power (शक्ति) का जाना अर्थात् transmission (प्राणाहुति शक्ति) तो शुरू हो जाता था, लेकिन मुझे ऐसा लगता था, कि वह power (शक्ति) मेरे अन्दर चारों ओर बिखरी हुई है। वह अभी मेरी नहीं हो पाई है। क्योंकि होता यह है कि कोई भी आत्मिक दशा ‘मालिक’ प्रदान करें या किसी काम के लिए शक्ति हममें उतारे तो मैंने यही पाया कि पहले उसका Force (बल) बहुत होता है, जो अपने चारों ओर व्याप्त मालूम पड़ता है। लेकिन जैसे-जैसे उनका काम ‘उनकी’ हमारी लय-अवस्था गहन होती जाती है, तब हमारे अंदर-बाहर की वह शक्ति हमारे अन्दर समाविष्ट हो कर अत्यंत सूक्ष्मता समस्तं में फैल जाती है। हमारा अंतर जितना रिक्त व सूक्ष्म अवस्था लिये होगा दूसरों की reading (अध्ययन) उतनी ही सूक्ष्मता से हम कर पायेंगे। reading(अध्ययन) जितनी स्वच्छता से होगी, उतना ही काम हम श्रेष्ठ कर पायेंगे।

ऐसा ही दूसरे लोगों में भी मैंने देखा है कि हमारे ‘श्री बाबूजी’ किसी अभ्यासी भाई को permission (अनुमति) देते हैं, तो वह काम तो करता है, लेकिन न उसे अपने काम पर confidence (भरोसा) होता है, न शक्ति पर दृढ़ता होती है। बेचारा बार-बार cleaning (सफ़ाई) करता है, बार-बार transmission (प्राणाहुति) जा रही है, ऐसा ख्याल करता है, बल्कि रहता है, क्योंकि उसे inner (अंतर) में दृढ़ता (faith) नहीं आ पाती है। ऐसा क्यों? क्योंकि वह ‘उनका’ नहीं हो पाया है। उनकी देन को वह अभी अपना नहीं बना पाया है। उनकी दी हुई शक्ति को पी नहीं पाया है। ऐसे ही एक दिन ‘मालिक’ में लय रहते-रहते वह power (शक्ति) चारों ओर से सिमट कर अन्तर में भिद् जाती है। जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक दूसरे लोग, जब भी मुझे preceptor (प्रिसेप्टर) कहते थे तो ऐसा लगता था कि preceptor (प्रिसेप्टर) उनकी power (शक्ति) है। जैसे-जैसे ‘मालिक’ में लय होने लगी, मुझे लगने लगा कि power (शक्ति) समस्त से सिमट कर मुझमें लय हो रही है। तब मैंने लिखा ‘बाबूजी’ को कि आपकी power (शक्ति) मैं पिये जा रही हैं। सच एक दिन ऐसा आया कि मुझे लगा ‘उनकी’ वह शक्ति अब मेरी देख-रेख में है। ‘उन्होंने’ तो तभी दे दी थी लेकिन उसे अपना बनाने में, पीने में समय लगा। सच कहूँ तो जिस समय मुझे अनुभव हुआ कि कुल शक्ति मुझमें समा गई है, तभी से अगर मुझे कोई प्रिसेप्टर कहता था तो गलत न लगता था। लेकिन आश्चर्य की बात तब यह हो गई कि कुछ विशेषता लगना तो दूर रहा, ऐसा लगने लगा कि हृदय बिल्कुल खाली हो गया है। फिर भिखारी हो गया है और पुनः आतुर प्रतीक्षा प्रारम्भ हो गई है। हाँ अब काम का रूप बदल गया है। अभ्यासी की उन्नति के लिए जिधर चाहो जैसा चाहो वैसा ही काम शुरू होने लग गया। Confidience (भरोसा) भी इतना जितना कि उनके काम के लिए आवश्यक था और उनकी दी हुई शक्ति को अपना बनाने के बाद होना चाहिए था, हो गया। इतना ही नहीं अब वह शक्ति मेरी स्वयं की आत्मिक उन्नति में भी सहायक हो गई। उसे कुल पीकर ऐसा लगने लगा कि इससे भी कहीं विस्तृत शक्ति का मैदान मेरे सामने फैला है, पी जाने के लिए।

अगर पहले वाली शक्ति को ही न पी पाते, तो आगे क्या आता? ‘उनकी’ दी हुई शक्ति पर जब अधिकार लगता है तो साथ ही यह भी लगता है, कि अपनी शक्ति के साथ ही वह स्वयं ही हमारे अन्दर समा गये हैं। तभी हमारे परिश्रम का प्रतिफल भी तुरन्त और सफल रूप में हमारे सामने आने लगता है। अपने लिए ऐसा लगने लगता है कि हम कुल मर मिटें, ऐसे आसार हम में पैदा होने लगते हैं। मुझे अच्छी तरह से याद है, जब हमारे ‘श्री बाबूजी’ ने कहा कि मैंने तुम्हें pind brahmand (पिण्ड ब्रह्माण्ड) की mastery (प्रभुत्व) प्रदान की, तब लगा कि असीम की शक्ति मेरे अन्दर एवं बाहर फैली हुई है जिसे अपना बनाना है। लेकिन सत्य यही है कि पिण्ड व ब्रह्माण्ड देश की शक्ति पर वास्तविक mastery (प्रभुत्व) पाने में मुझे तीन वर्ष लगे। mastery (प्रभुत्व) का अर्थ ऐसी रहनी हो जाता है कि शक्ति को यह नहीं मालूम कि वह शक्ति है, इसी प्रकार अपने अन्दर ‘उनकी’ शक्ति ऐसे सहज रूप में प्रवाहित रहती है कि शक्ति रहने का एहसास कभी आ ही नहीं पाता है। लेकिन mastery (प्रभुत्व) होने पर जब भी, हम अभ्यासियों के बीच में बोलते हैं, पूजा में बैठते हैं तो वही हालत स्वतः ही समस्त में फैल जाती है। सामने बैठे हुए अभ्यासी और अन्य लोग उसे महसूस करते हैं, चाहे उसे पूरी तौर पर कह न सकें। सांसारिकता में भी मैंने अनुभव किया है कि जब हम अपना दर्द या बीमारी दूसरों को बताते हैं तो कभी-कभी उस हालत में ऐसे एकाकार हो जाते हैं कि वातावरण में और सुनने वालों पर इसका प्रभाव पड़ता है। इसलिए उनकी दी हुई शक्ति में उनके सहित एकाकार रहें तभी इसकी विशेषता होती है।

प्रिसेप्टर के लिए एक बहुत आवश्यक अंग है- Centres (केन्द्रों) में organization (संगठन) और discipline (अनुशासन) फैलाना। सर्वप्रथम हममें से प्रत्येक को अपने को हर तरह से साम्य और सुव्यवस्थित हालत में रखना चाहिए। अन्तर की सभ्यता, वाणी में मधुरता, सहन-शक्ति और दृश्य में समस्त के प्रति अपनायत को लिये हुए हम कितने भी बड़े centre (केन्द्र) को सुचारु रूप से सुव्यवस्थित बना सकते हैं, इसमें संशय नहीं है। किन्तु ऐसा तभी हो सकता है जब हमारी रहनी में स्वयं मालिक प्रवेश पा जाते हैं, तभी हमारा मन, बुद्धि व कुल अन्तर ऐसा disciplined (अनुशासित) हो जाता है कि दूसरों के दृश्य की प्रतिच्छाया हमारे लिए प्रभावहीन हो जाती है और हमारा अंत-बाहर जो एक समान दशा में फैला रहता है उसकी प्रतिधारा अभ्यासियों को बनाने में बहुत सहायक होती है। हमारी रहनी में कुछ ऐसा भोलापन रहने लगता है कि हमारी हर बात के लिए प्रत्येक दृश्य में मूल्य और आदर होता है। हमारा ‘सहज मार्ग’ एक Practical (व्यवहारिक) आध्यात्मिक संस्था है, इसमें नियम के बंधन से अधिक नेह का मूल्य है। संकुचितपन से दूर विराट हृदयों की कीमत है। सौजन्यतापूर्ण पावन-बंधुत्व का सहारा लेकर इसे सुव्यवस्थित एवं दृढ़ बनाया जा सकता है। जब हमारी रहनी में मालिक समाया हुआ होता है तो हृदय व विचारों का संकुचितपन समाप्त हो जाता है। तभी हमारा organization (संगठन) भी संकुचितपन से दूर व्यापक हो जाता है। हमारा हृदय कुछ ऐसा व्यापक हो जाता कि प्रत्येक हृदय की खबर हृदय को मिल ही जाती है। लेकिन Alertness या सजगता हममें रहनी ही चाहिए। ऐसा किन्हीं centres (केन्द्रों) पर मैंने प्रत्यक्ष पाया भी है कि प्रत्येक अभ्यासी के हृदय प्रिसेप्टर के संकेत मात्र पाने के लिए लालायित रहते हैं। उनके कहने को पूरा करने में अभ्यासियों को बड़ी हार्दिक प्रसन्नता होती है। यदि प्रिसेप्टर की अन्तर की रहनी में पावन प्रियतम ही समाया रहता है तो centres (केन्द्रों) के वातावरण में वही महक फैलती रहती है जो समस्त अभ्यासियों के हृदयों की उन्नति के लिए सहायक होती है। इसलिए हृदय की स्वच्छता, वाणी में मधुरता, यथोचित व्यवहार में पूर्णता किसी भी centres (केन्द्रों) को सुव्यवस्थित बनाने में सहायक होती है। इसलिए हमें सजग रहना चाहिए कि जिस काम के लिए ‘मालिक’ ने हमें तैयार किया है, हमारे हृदय के संकुचितपन से कहीं वह ठिठुरा न रह जाये।

एक बात यह और आवश्यक है कि कभी ऐसा हो जाता है कि प्रिसेप्टर दूसरे centres (केन्द्रों) को पूजा का समय दे दिया करते हैं, जब कि उस centre (केन्द्र) पर मालिक का बनाया हमारा बन्धु प्रिसेप्टर मौजूद होता है। ऐसा हमें तभी करना चाहिए जब Centre (केन्द्र) का हमारा बन्धु प्रिसेप्टर हमसे सहायता चाहता हो। यदि हमने समय दिया है तो डट कर परिश्रम करके उस centre (केन्द्र) के अभ्यासियों की अन्तर्दशा को निखार भी लाना चाहिए।

सच तो यह है कि उनके हमें अपने कार्य की सहायतार्थ तैयार करने का ध्येय तभी पूरा हो पाता है, जब हम स्वयं विशुद्ध हालत में रमे हुए अपने अभ्यासी-बन्धुओं के हृदय अपने हृदय की तरह ‘उनकी’ शक्ति का सहारा लेकर जितना भी शुद्ध एवं स्वच्छ कर सकते हैं, करें। लेकिन ऐसा हो तभी पाता है, जब हमें उसके सामाने आने पर हृदय में उससे अपनायत हो जाती है। अपनायत से प्यार एवं ऐसा sub-mission (विनम्र) हम अपने को feel (अनुभव) करते हैं कि फिर हमारा काम श्रेष्ठ ही होता है। इसकी Reflection (प्रतिच्छाया) उस (अभ्यासी) पर ऐसी पड़ती है कि sub-mission (विनम्र) रखना अनजाने ही वह सीखने लगता है। जैसे हम sub-mission (विनम्रता) या ‘लय’ अवस्था ‘मालिक’ से धीरे-धीरे सीख पाते हैं। बहुधा जब हमसे यह गलती अनजाने में होने लगती है। कि हम अभ्यासी से कुछ super (श्रेष्ठ) अपने को समझ बैठते हैं। तो एक प्रकार का reservation (संरक्षण) उनसे स्वयं ही शुरू हो जाता है। इसका reflection (प्रतिबिम्ब) उन (अभ्यासियों) पर यह होता है कि वे हमसे खुल नहीं पाते हैं पास बैठे हुए भी दूर रहते हैं। हमारे समक्ष आते ही उनके हृदय एक प्रकार का दबाव feel (अनुभव) करते हैं, जो हमारे काम में भी बाधक सिद्ध होता है और उसके evolution (विकास) में भी बाधक सिद्ध होता है। चाहिए तो यह कि जब ‘मालिक’ ने हमारे लिए अपने ऊपर जन-कल्याण के लिए अपना सब कुछ लुटा देने का मार्मिक बीड़ा उठाया है, कुछ भी reservation (आरक्षण) रखना तो दूर रहा, बल्कि यह ध्रुव-सत्य है कि हमें, तिनके के समान ऊपर उठा कर इस बात को प्रत्यक्ष कर दिया है, कि प्रेम की आँधी चली और तिनका उड़ा आकाश, तिनका तिनके से मिला, तिनका (उनके हम) तिनके (उनके प्रियतम) पास पहुँच गया इसलिये हमें उनके अपने ही अभ्यासियों के प्रति अतुलित स्नेह को हृदय में आदर ही नहीं देना चाहिए बल्कि हमें कुछ सीखना चाहिए। तभी तो हम उनके उस ध्येय में जिसके लिए उन्होंने हमें तैयार किया है, पूर्ण उतर पायेंगे। अपने को ऊँचा मानना इतना गलत नहीं है जितना कि व यह विस्मरण कर देना, हम केवल मात्र अभ्यासी ही हैं। हम उनके पूर्ण रूपेण हो सके, ‘उनमें’ पूर्णतया लय हो सकें इसके सतत् अभ्यास की रहनी उतारने में हम लगे हुए रहे। एक हानि हमारी अनुचित रहनी में यह हो जाती है जो कि हमारी उन्नति में बाधक हो जाती है और अभ्यासियों को उठाने में पूर्ण सहायता दे पाने में भी बाधक रहती है, यह होती है कि प्रथम तो जब हम स्वयं ही व्यापक विचारों में, बातों में एक प्रकार की संकुचितपना और ठोसता बनी रहती है और transmission (प्राणाहुति) देने में एक खिंचाव सा अन्तर में बना रहता है। ऐसा मैंने कई लोगों में स्वयं पाया है। सत्य तो ऐसा है कि हमारा ‘मालिक’ एक कुशल Dancer (नर्तक) की भाँति है। हम सब उनके पैरों में बँधे हुए घुंघुरू हैं। ‘मालिक’ जब मन चाहता है एक कुशल Dancer (नर्तक) की भाँति हम हज़ारों घुंघरुओं में से एक को खनका देता है (यानि) प्रिसेप्टर बना देता है। अब यदि घुंघरू यह समझ बैठे कि यह खनक जो मालिक ने उसे बख्शी थी, यह उसकी खुद की है, तो क्या होता है। कि वह स्वयं की ही आवाज़ पर रीझ जाता है। उसे यह पता तक नहीं चल पाता कि अब वह स्वयं master (मालिक) के स्वर में नहीं बोल रहा है; बेसुरा हो चुका है। इसका परिणाम आगे चल कर यह हो जाता है कि धीरे-धीरे ‘प्रियतम’ ‘मालिक’ के पावन-चरणों में उसकी कसन ढीली होना आरम्भ हो जाती है। एक दिन ढीला होते होते वह इतना लटक आता है कि उनके ही (प्रियतम के) पावन और कोमल-चरण में चुभने लगता है। लेकिन उसे इसका भी पता नहीं चल पाता। बहुधा मैने पाया है कि ‘मालिक’ को इसकी टीसन प्रतीत भी होती है इस रूप में, कि “कहाँ तक हम इन्हें साफ करें”। इससे एक हानि हम और उठाते हैं कि ‘मालिक’ के चरणों से ढीले हो कर बुद्धि का सूक्ष्म-विकास, अन्तर की सतत् स्वच्छता हृदय की मुलायमता हमारे में नहीं उतर पाती इस लिए वाणी की मधुरता का भी हास हो जाता है। परिणामस्वरूप लोग ‘मालिक’ की पावन चीज़ transmission (प्राणाहुति) लेने तो उनके पास जाते हैं, लेकिन उनके हृदय उन्हें अपना नहीं मान पाते हैं। उनकी निगाहों में जहाँ preceptor (प्रिसेप्टर) के लिए हृदयों में विशुद्ध गरिमा, अनन्य-बन्धुत्व के प्यार की स्वच्छता व्यापक सहज ही में होती है, वह उनके हृदयों में पनप नहीं पाती है और धीरे-धीरे कम होते-होते समाप्तप्राय हो जाती है। कारण वही natural (प्राकृतिक) है कि उनके लिये अभ्यासियों के हृदयों में जो अनन्यता व्यापक थी, वह उसी संबंध को लेकर थी, जिससे preceptor (प्रिसेप्टर) ‘मालिक’ के चरणों में दृढ़ता से बँधे हुए उन्हीं के स्वर में बोलते थे। जब स्वर ही बेसुरा हो गया तो कौन पसन्द कर सकेगा?

हम उनकी देन को गलती से जो अपना मान बैठते हैं, ‘उनकी’ कृपा को खुद की कमाई मान कर फूल जाते हैं, तभी से हम अपनी वास्तविक रहनी से फिसलने लगते हैं। हमें हमारी प्रार्थना की अन्तिम पंक्ति सदैव चेतना देती है कि बिना तेरी सहायता तेरी प्राप्ति असम्भव है। उसका दामन कस कर पकड़े रहना ही चाहिए। अर्थात हम उनके कार्य में सहायक रूप में पूर्ण उतरते हुए अपनी आत्मिक-उन्नति की ओर सदैव ही अग्रसर रहें। उसी की धुन में रँगे रहें कि हमारे दोनों पक्ष पूर्ण होते रहें- preceptor (प्रिसेप्टर) का भी, अभ्यासी का भी। एक पंख के सहारे तो पक्षी भी नहीं उड़ सकता है, इसलिए उनका कार्य और उनकी प्राप्ति की खोज में, प्रतीक्षा में व्याकुल हुए हमें अपना यह साधना का दूसरा पक्ष भी पूर्ण कर पाने के लिए ‘लक्ष्य’ में एक हो जाने के लिए ध्यान में लगे हुए ही रहना चाहिए। ध्यान स्वयं ही एक दिन बता देता है कि उसका कार्य पूरा हो गया है। ध्यान भी व्यापक हो जाता है, वास्तविकता को हमारे समक्ष बिखेर कर समा जाता है। हमारी पूजा, ध्यान से प्रारम्भ होती है। ध्यान का अर्थ भी यही है कि हमें यह ध्यान रहे कि हम उनके हैं, क्यों? क्योंकि हम उनके ही थे। अब जो हम थे उसका ही स्मरण हमें ध्यान दिलाता है। धीरे-धीरे जब ध्यान में तल्लीनता बढ़ने लगती है तो वही हालत उनकी प्राणाहुति द्वारा सम्बन्ध के रूप में हृदय में उतरने लगती है मानो हम उन्हीं के सदैव से थे और हैं। यह ‘मालिक’ की देन व कृपा ही है कि उतर कर वह तुरन्त फैलना प्रारम्भ कर देती है। इसका सुन्दर फल हमें यह मिलता है कि हमारी capacity (क्षमता) उसकी देन को अपने में समेट लेने के लिए और बढ़ती जाती है। यही तड़प का रूप बन कर हमारे हृदय में वह राह बनाती चलती है जिसमें सतत्-स्मरण बिछा होता है। हमारी ‘उनके’ पास बढ़ने की राह में आये शूल भी पुष्प बन कर हमारे सामने आते हैं और हम समस्त का अतिक्रमण करते हुए ध्यान में उस याद की ताज़गी पाये हुए कि हम ‘उनके’ थे और उनके हैं, सदैव अपने को ताज़ा व हल्का-फुल्का पाते हैं। सच में ध्यान वह कड़ी है, जो हमें हमारे ‘लक्ष्य’ का, कि हम जहाँ से आये वहीं लौट चले का सतत् स्मरण देती रहती है। कभी हम भूलते हैं तो हमें झटका सा प्रतीत होता है। कभी हम किंचित गहराई से जुड़ कर पुनः थोड़ा बाहर होते हैं तब भी हमें झटका सा प्रतीत होता है जब हमारे मार्ग के सारे झाड़-झंखाड़ साफ़ हो जाते हैं तब हम स्वयं ही हृदय से लेकर लक्ष्य तक एक स्वच्छ ‘सहज-मार्ग’ को प्रत्यक्ष पाने लगते हैं। झटके जो हमें प्रतीत होते थे समाप्त हो जाते हैं। तब हमारी गति बंधन को तोड़कर अप्रतिम हो जाती है। उसके दर्शन की आतुरता में, अत्यंत प्रतीक्षा में, हमारा रोम-रोम आँख बन जाता है। हर आँख उन्हें पी जाना चाहती है, उन्हें अपने में उतार लाने आकुल-व्याकुल रहने लगती है, तब उन्हें उतरना ही पड़ता है। अपने शिशु को अपने हृदय से सटाये रखना ही पड़ता है। इसलिए हमारा पुनीत कर्तव्य है कि हमें जब उन्होंने कृपा करके preceptor (प्रिसेप्टर) बनाया है तो हम उनके काम में पूर्णतया व सफलतापूर्वक हाथ बँटा सकें और ऐसे बने कि स्वयं उठते हुए अपने प्रिय अभ्यासी बंधुओं को उठाने में सहायक बन सकें। मालिक ऐसा ही करें।

संदेश - संत कस्तुरी
सतत् स्मरण
विजयवाड़ा
30/4/1978
अध्यात्म के मार्ग पर प्रगति करने के लिए संतों ने सतत् स्मरण पर विशेष जोर दिया है। कैसे याद करें? अपने प्रियतम को अपनी याद में कैसे भर दें? इस समस्या के एक सरल समाधान की कोशिश में मैंने पाया है कि उनके साक्षात्कार के लिए एक इच्छा उत्पन्न करें। साक्षात्कार की यह इच्छा स्वतः सतत् स्मरण उत्पन्न कर देती है। यह कैसे होता है? यही समस्या सरल हो जाती है। सतत् स्मरण अर्थात् प्रियतम की याद, जिसे हम युगों से भूले हुए थे, हमें इस सत्य का संकेत देती है कि हमने उन्हें एक अतिथि होने से वंचित कर दिया है अथवा हम कह सकते हैं कि वास्तविकता की सुगन्ध की याद जो हम सभी लोगों में पाई जाती है, या वास्तविकता की वह चिंगारी जो हम लोगों में खो गई है, जिस पर सांसारिकता की धूल जम गई है, और जो अभी तक भूला हुआ है, सच्ची याद है। जब हम ‘उन्हें’ याद करते हैं, जो हमारा बहुत ही प्रिय है, जो हमारे हृदय की गहराई में बैठा है, मानव मन को बेचैन किये हुए है, हम अपने हृदय के भीतर उस तक जल्दी से जल्दी पहुँचे, किन्तु मुश्किल यह है कि हृदय में उसका प्रकाश अनेकों आवरणों से ढका और सांसारिक छायों से रँगा हुआ है। मन की इस अंधकारमय दशा में रहने से, जिसमें इतना लम्बा समय बीत गया कि हम स्वयं अपने हृदय में ईश्वरीय प्रकाश की परिभाषा भूल गये। हमें अपने प्रियतम की सौन्दर्यमयी आकृति भी याद नहीं है। यही कारण है कि जब लोग हमसे पूछते है कि वे किस पर ध्यान करें, वे कैसे हैं, आदि तो मेरे पास इसका कोई उत्तर नहीं होता। यह कैसे कहा जाये कि जब मन ‘उनकी’ खोज में बेचैन होने लगता है, तो ‘वे’ अपने मधुर एवं प्यारे रूप की झलक मन के आवरण के भीतर से हमें देते हैं, जो हमें लगातार खुशियों में डुबा देता है। वह, जिसकी यह याद है, स्वयं सतत् संतुलित और अनन्त है। इसलिए हम जैसे-जैसे उसकी याद में डूबते जाते हैं, याद स्वतः सतत् हो जाती है। जब एक योग्य गुरु, अपनी इच्छाशक्ति से हमारे हृदय में दिव्य धारा प्रवाहित करता है केवल तभी उसके प्रति ऐसी याद जागृत होती है, कि हम उस तक पहुँचे जो हमारा मूल है। यही सच्ची याद है। यह सजगता, उन विचारों को जो बाहरी दुनिया में डूबे थे, बाहर खींच लेती है। तभी हम अचानक जीवन के उच्चतम लक्ष्य की ओर जागरूकता अनुभव करने लगते हैं, जिसे हम अब तक भूले हुए थे। भीतर से उनकी याद में डूबे हुए, उन्हें पाने के लिए हम बेचैनी अनुभव करने लगते हैं, किन्तु सत्य यह है कि हमारी सजगता के बावजूद हम लोग पूरी तरह सोये हुए थे और जब ‘श्री बाबूजी महाराज’ की प्राणाहुति शक्ति, हम अपनी चेतना में अनुभव करते हैं, पहले ध्यान में और फिर सतत् रूप में, तब हम जाग जाते हैं।

जब भीतरी आवरण पिघलना आरम्भ कर देता है, और हमारी कोशिश से स्वच्छ होता जाता है, तब हम सतत् स्मरण के द्वारा ध्यान में डूबने लगते हैं। हम यह भी जान जाते हैं कि वे हमारे कितने प्रिय हैं। तब हमारे मन में उन्हें पाने की व्याकुलता होती है और हम कहने लगते हैं- “ओह! हमारे हृदय में कितनी प्यास है कि यह कभी बुझती ही नहीं और मुझे शान्त रहने ही नहीं देती।” ऐसे समय पर ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने मुझे लिखा- “तड़प वह धारा है कि जब हृदय में प्रियतम के लिए उबाल खाती है। तो उन तक पहुँचने के लिए अपना रास्ता खुद बना लेती है।” हम यह भी अनुभव करते हैं कि वे हमारे कितने प्रिय हैं। उन्हें पाने की उत्साह भरी प्यास में संसार की सारी बहुमूल्य वस्तुयें अपना आकर्षण खो देती हैं। सुख, दुख, जीवन, मृत्यु सभी का मूल्य बहुत थोड़ा लगने लगता है। शायद इस पावन दशा में ‘मालिक’ का संगीत गाने लगता है- “ओह! मुझे ‘राम’ नाम का बहुमूल्य हीरा मिल गया।” इस हीरे का विचार हमें किसने दिया? मेरे कृपालु ‘मालिक’ ने यह बहुमूल्य चीज़ हमें दी है और कृपा कर के हमें स्वीकार कर लिया है।

यह उनकी पावन प्राणाहुति है, जो ईश्वर के दिव्य प्रकाश से हमारे मन को प्रकाशित करती है। यही (प्राणाहुति) दिव्य प्रकाश से हमारे अन्तर की आँखों को उन्हें देखने के लिए दिव्य दृष्टि भी देती है, ताकि हम उन्हें अपने हृदय में अनुभव कर सकें। उनसे हमें दूसरा वरदान मिलता है कि हमारी याद का धागा और मेरे ध्यान का प्रवाह अटूट हो जाता है और हमारे अंग-अंग में संतुलन की स्थिति आ जाती है। जब हृदय सदा उनकी उपस्थिति अनुभव करने लगता है, उनकी परम शक्ति के प्रवेश के कारण यह भयमुक्त हो जाता है। स्थिरता और विश्वास स्वतः दृढ़ एवं न समाप्त होने वाला बन जाता है। इसके लिए हमें परिश्रम नहीं करना पड़ता। एक को पा लेने के बाद दूसरी अन्य चीजें अपने आप हृदय में आ जाती हैं।

अब मन की बाहरी ताकत तेजी से क्षय होने लगती है और भीतरी ताकतवर हो जाती है तथा याद में लक्ष्य को भर देती है और हृदय आनन्द से भर जाता है। मैंने एक अद्भुत प्राकृतिक घटना देखी है कि आवरण जो हमारे भीतरी मन पर पड़ा था, और जिसका धुंधलापन हमारी भीतरी दृष्टि को बाधित करके रखता था, अब इतनी तेज़ी से पिघलने लगता है कि हम कहने को बाध्य हो जाते हैं कि “मालिक की दृष्टि एक तलवार है, जो भीतरी मन के आवरण को काट देती है और उसमें प्रवेश कर जाती है।” दूसरी आश्चर्यजनक बात जो मैने देखी, वह यह है कि उनकी अजेय इच्छाशक्ति हमारे हृदय में दिव्य प्रवाह लाने के लिए सदा क्रियाशील रहती है। याद यहाँ पर सतत् हो जाती है। यह केवल सतत् स्मरण है जो ‘मालिक’ द्वारा लाये गए दिव्य प्रवाह को हृदय में रोक सकता है। जब हम ‘मालिक’ के प्रेम में अपने को न्यौछावर कर देते हैं, उनकी तेज और पावन दृष्टि सतत् स्मरण के आवरण को काट देती है और तभी यह याद सतत् हो जाती है।

हम जानते हैं कि हमारी और उनकी याद के सतत् योग के कारण जब कभी हम अपनी कोशिश के बावजूद उन्हें याद नहीं करते, तो भी हमारा हृदय उन्हें याद करता रहता है। तब हमारे हृदय में प्राणाहुति के प्रवाह के लिए द्वार सदा के लिए खुल जाता है। तब मुझे कबीर की वाणी याद आई – “दिव्य गुरु धनुष को अपने हाथ में लेकर जब प्रेम का बाण छोड़ता है, तो वह सारे शरीर में भिद जाता है और हमारे हृदय के अनुभव में आता है।” जब याद सतत् हो जाती है और हम अपने को उसके प्रेम में न्यौछावर कर उसकी आँखों के तारे हो जाते हैं, तो दिव्यता हममें शाश्वत रूप में प्रवाहित होती है। इस अनुभव में विलय हो कर मैंने पाया है कि ‘मालिक’ का वास्तविक स्वभाव हमारे हृदय में साकार रूप लेना आरम्भ कर देता है। दूसरी आश्चर्यजनक बात यह होती है कि जैसे उनका वास्तविक रूप हमारे हृदय में आने लगता है। हम अपने को आकारहीन अनुभव करने लगते हैं। दूसरे शब्दों में हम भूल जाते हैं कि हमारा एक भौतिक शरीर है। ऐसा क्यों होता है? अब मैं समझ सकी हूँ। कहा जाता है कि हमारे हृदय का ईश्वर साक्षात्कार आकारहीन है। एक ‘आकारहीन वस्तु’ कैसे हमारी सीमा में ‘आकार बनकर’ आ सकती है ? इसलिए जैसे-जैसे यह आकार में आता है, हमारे ‘मालिक’ का अनुग्रह हममें आकारहीन हो जाता है। मैंने वास्तव में इस सत्य का अनुभव किया है। मैंने अपने को केवल आकारहीन ही नहीं पाया, बल्कि यह भी पाया है कि मेरी सारी सीमायें टूटकर भीतर फैल गई हैं, जिसे विराट कहा जा सकता है? ‘वे’ अपने में हम लोगों को समेट लेते हैं और उसमें फैलाव कर देते हैं। अब मैं उनका आकारहीन होने का रहस्य भी समझ गई। वे ऐसे हैं, क्योंकि वे अनन्त हैं, सर्वव्यापी हैं, सर्वशक्तिमान हैं। ‘श्री बाबूजी महाराज’ का कथन कितना सत्य है कि यदि ईश्वर का कोई रूप होता, तो वह भी हम लोगों की तरह एक स्थान पर उपस्थित रह सकता था और सर्वव्यापी नहीं होता और न सब के हृदय में पाया ही जाता। सतत् स्मरण में डूबने की दूसरी विशेषता यह है कि हम ‘नेगेशन’ की स्थिति में स्वतः बहाव पाते हैं। जब याद वास्तविकता में विलय होती है, धीरे-धीरे यह हमें वास्तविकता अथवा ईश्वर में गति देता है।

मैंने लिखा है कि जब ‘मालिक’ हमारे हृदय में साकार रूप आरम्भ करने की धारणा बना लेता है और हम आकारहीन हो जाते हैं, तो सतत् स्मरण के कारण एक प्रगाढ़ दशा आती है कि मेरा अपना आकार उस पावन आकार में विलय होना प्रारम्भ कर देता है और अन्त में एक दिन आता है, जब हमारा रूप हमारे जीवन को प्रभावित करता है। जो रूप हममें उभरता है, वह दिव्य गुरु का सारूप्य है। हमारा रूप अलग होने के बजाय रूप वही रहता है। अब अन्तर की दशा गहरी हो जाती है और सूक्ष्म रूप में फैलता जाता है। लगातार लय रहने से हमारे अन्तर की दशा हमसे परे हो जाती है और गहराई के तल में पहुँच जाती है। | अब हमारी दशा हमारी समझ के बाहर हो जाती है। हम अपने जीवन में ही अपने जीवन को छोड़ कर ईश्वरीय दशा में फैलने लगते है। हम न तो दशा में डूबते हैं और न ही उससे बाहर आ सकते हैं। इसी स्तर पर हमारा सतत् स्मरण होता है। यह आवाज़ हमारे हृदय के भीतर से आती है। वह, जो याद करता है, उनमें अपनी याद के साथ डूब जाता है और खो जाता है। अब याद करने पर ऐसा लगता है कि जैसे एक कमल का पत्ता पानी में डुबाकर बाहर निकालने पर सूखा ही रहता है। हृदय की दशा हल्की और सूक्ष्म हो जाती है और सदा वास्तविकता में डूबी रहती है। सतत् स्मरण में डूबने पर भी वह इसे गीला नहीं करता। याद की महक से परे जाने के बाद भी वह ‘मालिक’ में डूबा रहता है, जो सत्य के सागर हैं। इस स्तर पर मैंने पाया कि हमें उस दशा का अनुभव होता है, जिससे हम आगे बढ़ गये हैं और उसके परे चले जाते हैं और ‘मालिक’ की गोद में आनन्द विभोर होकर, हम अधिक से अधिक लय होकर अपने प्रियतम के क्षेत्र में चले जाते हैं। जितना गहरा हम डूबेंगे, उतना ही अनुभव पायेंगे कि हम दिव्यता से कितना सज गये हैं। हम अनुभव करते हैं कि हमारी हर श्वाँस उन्हें स्पर्श कर रही है। हमें लगता है कि वे हमारे इतने निकट हैं कि उनके स्पर्श की उष्णता हममें मिलने की खुशी उत्पन्न कर देती है।

हम दोनों के बीच यह झीना पर्दा कैसा है, जो हमारे साक्षात्कार को बाधित कर रहा है? यह वही द्वि का भाव है। अहंकार का सूक्ष्म आवरण हटाना है। धीरे-धीरे श्री बाबूजी महाराज की इच्छा शक्ति से यह आवरण हटने लगता है। अब ऐसा लगता है कि हम अपने में नंगे खड़े हैं और हमें इसका पता भी नहीं। उन्हें याद करने की याद अब कभी नहीं रहती, क्योंकि अब तक जिन्हें याद किया जा रहा था, अब वे स्वयं प्रकट होना चाहते हैं। उस झीने पर्दे को हटा देने से जो झलक मिलती है, वह हमें ऐसा बना देती है कि हमारी सारी चेतना, पूरी याद तथा उन्हें याद करने की शक्ति सब बिना हमारी जानकारी के उन पर न्यौछावर हो जाती है। हममें उन्हें याद करने की भी शक्ति नहीं रहती। ऐसा शायद इसलिए, कि याद के धागे को वे अपने हाथों से सहारा दिये हुए हैं। वे हमें अपने में समेटते चलते हैं। यह अनुभव होता है कि याद की कड़ी की कोई आवश्यकता नहीं है। हम उसे याद करने की कोशिश करते हैं, जो दूर है। उसे क्या याद करना, जो हमारे निकट खड़ा है। जब दूरी की सीमा टूट जाती है, तब कौन आता है और कौन जाता है? जो चीज़ उनकी है (याद) अचेतन अवस्था में उन्हें समर्पित कर दी गई है। उन्हें पाने का उत्साह, याद का धागा भी उनमें खो गया है। उनके अनन्त का द्वार हम सबके लिए अचानक खुल जाता है, क्योंकि हम दोनों के बीच जो सूक्ष्म आवरण था, हटा लिया गया है। याद का सुसुप्त उत्साह, जिसे ‘मालिक’ की प्राणाहुति शक्ति ने जगा दिया है, पहले सतत् स्मरण की कड़ी स्थापित करता है, और फिर दिव्य वैभव में डुबाकर इसे स्थाई बना देता है। सतत् स्मरण भी ईश्वर–साक्षात्कार में विलय हो गया क्योंकि इसका कार्य पूरा हो गया। ‘श्री बाबूजी महाराज’ का कथन “याद वह है, जो कभी न आये” सत्य हो जाता है। हम वही हो जाते हैं, जो हमें होना चाहिए। मानव, जीवन की सफलता प्राप्त कर लेता है।

संदेश - संत कस्तुरी
एक और केवल एक ही
30/4/1979
एक और केवल एक ही; हम नहीं कह सकते कि वह कौन, कहाँ और कैसा है ?

‘उनसे’ योग करने पर जो भी प्रभाव होता है, कुछ अलग होने का भाव देता है, किन्तु, ‘वे’ वही रहते हैं, जो ‘वे’ हैं। केवल एक वही हैं जो श्रोत हैं और अनन्त हैं। चूंकि हम उनकी शक्ति से उन्हीं के संकल्प में आ गये हैं, इससे साफ है कि वे हमारे अस्तित्व में वास करते हैं हमारा उनसे सम्बन्ध भी एक प्राकृतिक घटना है कि उनके लिए ‘तू’ का सम्बोधन करते हैं और पूरा अस्तित्व ‘उन्हीं’ के रंग में रंग जाता है, किन्तु, जब अलग होते हैं, हम अपने मूल अस्तित्व से दूर होने लगते हैं, जो हमारी वास्तविकता से अलग होने का कारण है। और हमारी आत्मा, बुद्धि और चित्त पर आवरण चढ़ जाता है। हमारे अलग होने का अन्तराल भी हमारे भीतर द्वि होने की शक्ति देता है। एक दिन आता है जब हम अपने को पहचानने लगते हैं, उस रूप को जिसमें अस्तित्व सिकुड़ा हुआ था।

यह भाव तब आता है, जब हम अपने अन्तर को ‘मालिक’ की याद में डुबोये रखते हैं। ऐसा करने के प्रयास को साधना कहते हैं। हमारी शक्ति जो बाहर में बिखर गई है, हमें पुन: वापिस ला कर अपने अन्तर में रखनी होगी।

इस कार्य के लिए हम अपना ध्यान केवल एक और एक ही पर केन्द्रित करते हैं। ऐसा करने में हमें जितनी सफलता मिलती है, हम अनुभव करते हैं कि हमारा ध्यान ठीक लग रहा है। अनेकों से वापिस आने के बाद, हमारा ध्यान एक स्थान पर केन्द्रित हो जाता है और हम अपना लक्ष्य पाने के लिए बेचैन हो जाते हैं। हमारी साधना इस विचार से प्रारम्भ होती है कि ‘वह’ हम में है। इस विचार में एक लम्बी अवधि के लिए तल्लीनता से बने रहना, वास्तविक दशा में परिपक्व एवं परिवर्तित हो जाता है। दूसरे शब्दों में हम यह अनुभव करने लगते हैं कि हम उनके हो गये हैं। उससे हमारा सम्बन्ध हो गया है। आगे चलकर सामीप्यता का यह अनुभव स्थिर हो जाता है। इसका अर्थ है। कि हमारा प्रारम्भिक विचार अनुभव में खिल उठा कि वह हमारा हो गया। तब हम अनुभव करने लगते हैं कि हम उनके हो गये।

हम उन्हें अपना सबसे प्रिय समझते हैं, यद्यपि यह आश्चर्यजनक हो सकता है कि अब भी हमें इस बात का कोई भान नहीं है कि वे ‘कैसे’ व ‘कौन’ हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि उनसे हमारा रिश्ता मौलिक एवं अनिवार्य है, हम ऐसा ही अनुभव करने लगते हैं। यह एक आम अनुभव है कि नये सम्बन्ध बनने से पुराने विचार धुंधले पड़ जाते हैं। पुराने सम्बन्ध यद्यपि भूल जाते हैं, किन्तु मरते नहीं। कभी-कभी वे हमारी चेतना में उठने का प्रयास करते हैं, किन्तु हमारे नये सम्बन्ध उन्हें ऐसा करने से रोकते हैं और उसे डुबोये ही रखते है। इतना होने पर भी, इसमें कोई शक नहीं कि वे बार-बार हमारे लक्ष्य को हममें जगाते रहते हैं, किन्तु हम सदा ऐसा सद्गुरु नहीं पा सकते, जो हमारा मन और हमारी चेतना को अपनी शक्ति से, अपने हाथों पर उठाकर, सभी बाधाओं को दूर करते हुए उसी दिशा में आगे बढ़ाता रहे। अपने संकल्प के द्वारा वे दिव्य धारा को हमारे अस्तित्व के भीतरी भाग में प्रवाहित करते हैं। पूर्ण रूप से सफ़ाई कर उसे शुद्ध बनाते हैं, जिससे हमारा हृदय मूल से वास्तविक सम्बन्ध के अनुभव से नृत्य करने लगता है। यह वही प्राकृतिक घटना है, जो हमें उन्हें एक सच्चा सद्गुरु मानने को प्रेरित करता है। प्राणाहुति की यही दिव्य धारा है, जो श्री बाबूजी महाराज अभ्यासियों के हृदय में प्रवाहित करते हैं। सद्गुरु हमारा है, के अनुभव से यह अनुमान होता है कि हम उनके हो गये हैं और ऐसा हम अनुभव भी करने लगते हैं। यह केवल हमारी कल्पना नहीं है कि हम वास्तव में उनके हो गये। यह केवल समय है, कि जब हमारे और लक्ष्य के वास्तविक सम्बन्ध को हम समझते हैं। हमारे संस्कारों के आवरण अवरोध बनकर राह में खड़े रहते हैं, जो हमारे बोध को रोके रहता है कि वे कैसे हैं। इसीलिए हम बेचैन हो जाते हैं यह जानने के लिए कि ‘वे’ ‘कैसे’ हैं, ‘कहाँ’ हैं और हम उनसे ‘कब’ मिलेंगे? वास्तव में हमारा ध्यान उस अनेकता से खिंच जाता है और उन पर अधिक से अधिक ध्यान लग जाता है, यहाँ तक कि संसार हमारी दृष्टि से ओझल होने लगता हैं भौतिक संसार से ऊपर उठकर और ईश्वर की खोज में बेचैन होकर, हमारा मन उसी के राज्य में भ्रमण करना प्रारम्भ कर देता है। हमारा विस्तृत विचार, सम्बद्ध एवं एकाग्र होने लगता है। बिना विलम्ब के लक्ष्य की प्राप्ति के लिये हमारी बेचैनी अनियंत्रित होने लगती है। उनसे मिलने की हमारी तीव्र इच्छा हमारे मन को सारी शक्ति को प्रयोग में लाने के लिए बाध्य करती है, केवल उन्हें ढूंढने के लिए। धीरे-धीरे उन्हें पाने की बेचैनी, ऐसी गति पकड़ लेती है, कि हमारे अहम् का आवरण ढीला पड़ जाता है, हल्कापन स्थिर हो जाता है, और हमें लगने लगता है कि हमने उन्हें लगभग पा लिया है। अब हमें उनका कौशल मिल गया, एक छोर पर ‘वे’ और दूसरे छोर पर ‘हम’ गहरे ध्यान में डूबे हुए तथा उन पर दृष्टि गड़ाये हुए, उनसे मिलन के विचार में डूबे हुए, हमें कभी-कभी यह भी शक होने लगता है कि क्या हम उनसे कभी अलग भी हुए थे, यदि सत्य कहा जाये तो हम अभी भी उनसे अलग हैं। जब हम इस दशा के घेरे में होते हैं, मालिक का सीधा प्रतिबिम्ब हम तक पहुँचने लगता है और तब हम यह अनुभव करने लगते हैं कि वह हमारा हो गया। जिस क्षण हम ऐसा अनुभव करते हैं, हमें उनकी उपस्थिति अनुभव में आने लगती है और अब केवल हमारा प्रिय हमें दृष्टिगोचर होता रहता है। ‘एक और एक ही’ (ईश्वर) के साक्षात्कार के लिए, सहज मार्ग में हमें जिसकी आवश्यकता पड़ती है, वह है, परिश्रम के साथ साधना का अभ्यास, अपनी दृष्टि को केवल उन्हीं पर गड़ाये हुए। इस प्रकार अतिसामीप्यता की सूक्ष्मतर दशा स्वतः मिलने लगती है, जो हमें जीव और ईश्वर के सम्बन्ध की जानकारी देता है।

किसी साधना के फलीभूत होने के लिए यह आवश्यक है कि अपने सामने केवल एक ही लक्ष्य रखें। अपनी साधना की प्रारम्भिक अवस्था में ‘उनको’ पाने के अतिरिक्त कई और इच्छायें भी होती हैं। इसलिए, इस स्थिति में कि हमने अभ्यास करना आरम्भ कर दिया है, हम सच्चे अभ्यासी तुरंत नहीं बनते। हम केवल तभी सच्चे अभ्यासी बनते हैं, जब हम अपने लक्ष्य की चाह में पूरी तरह डूबे रहते हैं, तथा हर चीज़ को भूल जाते हैं। जब हम अभ्यास करते हैं, तब हमारा मन कई अन्य आकर्षणों की ओर मुड़ जाता है। इस बाधा के लिए केवल एक ही उपाय है कि हम अपने लक्ष्य को हमेश याद करते रहें और उसकी ओर बढ़ते रहें। यदि कोई अन्य इच्छा या आकर्षण हमें अपनी ओर खींचता है, तो हमें समझना चाहिए कि इच्छायें और आकर्षण हमारी राह में केवल इसलिए आये कि वे हमारी लक्ष्य प्राप्ति में सहायक हो सकें। दूसरे शब्दों में जब दूसरी वस्तुएँ हमें अपनी ओर आकर्षित करती हैं तब हमें अपना ध्यान उनसे हटाकर लक्ष्य की ओर ले जाना चाहिए। यदि हम इसका अभ्यास लगतार करते रहें, तो ऐसा होता है कि उनका ‘साक्षात्कार’ हमारी सभी इच्छाओं का केन्द्र बन जाता है। यदि हमारा अभ्यास लगातार इस बात के लिए है कि हम अपने प्रियतम (ईश्वर) से मिलें तो एक दिन सभी इच्छायें एवं आकर्षण स्वतः लक्ष्य के साक्षात्कार की ओर मुड़ जायेंगे। हमारा मन वहीं पर रुक जाता है, जहाँ अन्य वस्तुओं की जितनी आवश्यकता होती है उस एक (ईश्वर) से एकता पाने के लिए हमारी बेचैनी उनमें वास करने के लिए उनमे घुल जाती है। प्यार के आँसू से भीगी आँखें अपने में उनकी मौजूदगी देखने लगती हैं, तभी हमारा अभ्यास फलीभूत होता है, क्योंकि हमारा मन उनमें डूबे रहने की तल्लीनता से बाहर नहीं आना चाहता।

यदि हम सहज मार्ग का अभ्यास करते हैं और अपने लक्ष्य के लिए अनुरक्त हैं, तथा अपनी एकमात्र चाह पर दृढ़तापूर्वक टिके हुए हैं तो सद्गुरू का अनुग्रह उनकी खोज की चाह को शिखर तक सफलतापूर्वक पहुँचा देता है। इसी प्रकार, मिशन के कार्य में हमारा लगे रहना भी एक विशेषता (ईश्वरीय ध्यान) है, और यह ध्यान का मतलब भी पूरा करता है। यदि हम ईमानदार बने रहें और दिखावेपन से दूर रहें। यदि हम इन सभी बातों को नहीं समझते हैं या आधारभूत आवश्यकताओं की अवहेलना करते हैं, तो हमें सहजमार्ग से उतना ही मिलेगा, जैसा श्री बाबूजी ने कहा है, “श्रम की केवल मजदूरी”। हमें जो भी कार्य सौंपा जाता है, उसे इस प्रकार हल्के में करना चाहिए कि जिससे हमारे तथा दूसरों के ऊपर ज़रा भी भार न पड़े। यह तभी संभव है जब हम अपने अहम् के दबाव से रहित होकर कार्यों को करें, किन्तु यह भान न रहे कि इसे हम कर रहे हैं और उससे भी बुरा तब होगा, जब यह सोचें कि हम दूसरों के लिए कर रहे हैं। यह हमें तथा दूसरे लोगों को भार तथा दबाव से राहत देगा और एक ऐसा वातावरण पैदा करेगा जो प्राकृतिक होगा, जैसा सहज-मार्ग का है। ईश्वर साक्षात्कार का प्राकृतिक मार्ग संभवतः विकास का सुन्दरतम फल दे सकता है। सच कहा जाये तो यदि हम प्रेम में डूबे हैं और सभी कार्य कर रहे हैं, तो किसी प्रकार के बोझ की समस्या हमारे तथा दूसरों के लिए कभी उत्पन्न नहीं होगी। इसका हल्कापन हमें ऊँचाई तक शीघ्र पहुँचने की शक्ति देता है। हममें आवश्यक सावधानी और बुद्धिमत्ता होनी चाहिए। अपने मिशन की तरक्की के लिए उनका उदाहरण भी समझना चाहिए।

संभवतः यह किसी के निष्कर्ष से बच नहीं सकता कि श्री बाबूजी महाराज कभी नहीं सोचते कि वे गिरी हुई समस्त मानवता को उत्कृष्ट एवं चामत्कारिक दिव्यता प्रदान करने में व्यस्त हैं। उनका यह भी विचार नहीं है कि उन्होंने हम लोगों को बनाया, ढाला और तैयार किया। उसी प्रकार, यदि हम यह विचार न लायें, कि अहम् हमको छु रहा है अथवा किसी छोटे कार्य को कर लेने के पश्चात् सोचने लगें कि हमने बहुत बड़ा काम कर लिया है, आध्यात्मिक उन्नति जिसे उन्होंने अपनी कोशिश से हमें इस योग्य बनाया है, दूसरों पर प्रभाव नहीं छोड़ता और न ही वातावरण में स्वच्छता भरता है। हल्कापन, जो श्री बाबूजी महाराज अभ्यासियों में भरते हैं, इतना पावन एवं सूक्ष्म है कि हमारे मन में अहम् का विचार भी उनके अनुभव में आ जाता है। जैसाकि संत कबीर ने कहा है – “मार्ग इतना नाजुक है कि यदि हम अपने अहम् का भी बोझ लेकर चलें, तो मार्ग तय नहीं कर सकते”। एक लोभी मनुष्य की तरह, अपने खजाने पर ध्यान रखते हुए हमें अपनी आध्यात्मिक दशा को कायम रखने के लिए बहुत सतर्क रहना है, जिसे श्री बाबूजी लगातार अपनी असीम उदारता से बरसाते रहते हैं। तभी हम उनके सम्पूर्ण विश्व में युग परिवर्तन में योगदान करने में सक्षम हो सकते हैं। अपने साथ सभी अभ्यासियों के साथ हमारा व्यवहार ऐसा होना चाहिए कि उनका मनोबल गिरने के बजाय दृढ़ हो, जिसे श्री बाबूजी ने अपने अथक परिश्रम से उन्हें दिया है। हमारा ऐसा प्रयास हमारे और हमारे साथी अभ्यासियों के लिए बहुत सहायक होता है। श्री बाबूजी की सलाह मुझे अच्छी तरह याद है कि चलते समय, हमें अपने को ऐसा रखना है कि साथ चलने वाले किसी की टाँग में टाँग न अड़े। इस प्रकार, उनके लिए कोई ऐसा अवसर नहीं आयेगा कि वे हमें किसी शंका की नज़र से देखें । सहज मार्ग में दूसरों के कार्य में टाँग अड़ाने का अवसर कभी नहीं आना चाहिए। दूसरी ओर हमारा व्यवहार ऐसा होना चाहिए कि कम से कम किसी की सहायता कर सकें या किसी के काम आ सकें। जैसे-जैसे हम उन्नति करते हैं, हमें दूसरों को भी अपने साथ लेना चाहिए। अपने विचारों की सफाई कर उसे पवित्र बनाते हुए, उनकी कमजोरियों को दूर करते हुए, तथा उन्हें सहारा देते हुए, जब आवश्यकता पड़े भाईचारे एवं शुद्ध विचारों के साथ बिना अपना महत्व देते हुए, एक विनीत भाव से रहना चाहिए। अपनी सीमा तोड़कर आध्यात्मिकता में आगे बढ़ने के लिए यही प्राकृतिक एवं प्रभावशाली तरीका है। तब हम पाते हैं कि हमारा कार्य, व्यवहार और जीवन-शैली उसी रंग में रँग जाते हैं, जिसे हम आध्यात्मिक सीढ़ी के हर पायदान पर चाहते हैं। यही एक अभ्यासी का मानक है, जिसने एक और केवल एक ही को अपना लक्ष्य बनाया है। यही हमारा अपनी उन्नति के लिए, तथा दूसरे अभ्यासियों के उत्थान और मिशन के लिए सहयोग है।

श्री बाबूजी महाराज का प्यार और अनुग्रह इसी प्रकार प्रबल श्रोत की तरह हम लोगों पर सदा बरस रहा है। इसमें भीगे रहना ही पर्याप्त नहीं है। हम लोगों को इसमें डूबे रहना है और शव की तरह संसार रूपी सागर में उतराये रहना है। जब हमारा जीवन संसार से विलग हो जाता है, हम एक और केवल उसी एक (ईश्वर) में मिल जाते हैं। हमें पूर्ण समर्पण वैसा ही करना चाहिए, जैसा श्री बाबूजी चाहते हैं। वे ही और केवल वे ही हमारी दृष्टि में रहें, यहाँ तक कि जब दूसरे कामों में व्यस्त रहें, तब भी हमारा लक्ष्य हमारी दृष्टि में रहे। जब कार्य केवल क्रिया बन कर रह जाता है और समर्पण की क्रिया केवल उनकी खुशी के लिए हो जाता है, तब वे हमारे भीतर उतरते हैं और हम अनुभव करते हैं कि वे हमारे हैं। एक सफल साधक का जीवन केवल उन्हें समर्पित होने के लिए होता है। क्योंकि वे जहाँ से प्रारम्भ करते हैं इससे अलग नहीं हैं, जो हम चाहते हैं। जैसा कि श्री बाबूजी ने कहा है- “जो आरम्भ में है, वही अन्त में भी है”। यद्यपि देखने में दो हैं किन्तु वास्तव में एक और एक ही है।

संदेश - संत कस्तुरी
वास्तविकता बोलती है
30/4/1980
आध्यात्मिक दशाओं के रूप में जब अन्तर में वास्तविकता बोलती है तब अनुभूति के रूप में ईश्वरीय भाषा उसे व्यक्त करने के लिये हम में उतरती है। श्री बाबूजी का कथन आज मेरे समक्ष इतना स्पष्ट है कि Feeling is the language of God. जब वास्तविकता बोलती है तब ईश्वरीय भाषा को सुनने वाला हमारा अन्तर ( Real self ) होता है। प्रयत्न अब हमें केवल इतना ही करना है कि हमारे अन्दर वास्तविकता बोल उठे। वास्तविकता तब बोलती है जब बनावटीपन का आवरण उतर जाता है। बनावटीपन का आवरण उसी दिन से उतरना शुरू हो जाता है जिस दिन साक्षात्कार ( Realization ) का लक्ष्य हमारे हृदय में समा जाता है। लक्ष्य प्राप्त करने की चाह से उसके अलग होने का भाव ( Feeling of Separation ) बढ़ने लगता है। जब हम सोचते हैं कि वह हमारा है लेकिन बिछुड़ गया है, हम कब, कैसे, कहाँ उसे पायेंगे; वियोग की यह भावना ( Feeling ) अन्तर्मन में पैदा हो जाती है; तभी से उसे पाने के लिए जो भी बातें बाधक हैं, वे हटने लगती हैं, और वास्तविकता ( Reality ) का मौन सन्देश ‘कभी वह जरूर मिलेगा’, इस रूप में विचार में आता है और कभी हृदय जब मौन हो जाता है तब उसकी सामीप्यता की भावना ( Feeling ) वास्तविकता ( Reality ) का आभास देती है। अभी हमें आभास ही मिलता है, लेकिन वास्तविकता ( Reality ) बोलती नहीं। वह बोलती है तब, जब प्यास इतनी व्यापक हो जाती है कि हम स्वयं उसे पकड़ नहीं पाते कि वह कितनी है और क्यों है। विचार की पहुँच के बाहर निकल जाने के कारण हमें यह लगने लगता है कि हम प्यासे उसके लिए हैं जो हमारे अन्दर मौजूद है किन्तु जो मौजूद है और हमें मिलता नहीं। हमें मिलता इसलिए नहीं है कि हमारा होते हुए भी हमने उसे नज़रंदाज़ कर दिया अर्थात् पहचानना छोड दिया। वह आता है कष्ट में, व्यथा में, ‘हाय राम’ के रूप में हमारे मुख से बोलता है और हम कष्ट सहन करें उसमें हमें सहारा देता है, लेकिन फिर भी हम उसका स्वागत नहीं करते। हमारा हर पल उस समय उसका स्वागत करने लग जाता है जब हम उसको पाने की चाह का लक्ष्य बना लेते हैं। पहले लक्ष्य हम बनाते हैं इसलिए व्यथा और शीघ्रता हम में उत्पन्न ( Create ) होती है। लेकिन जब उत्पन्न ( Create ) हुई यह स्थिति वास्तविकता में बदल जाती है, तब अन्तर्मन हर समय उसे पुकारता है। हर पल बिछोह की घड़ियाँ बड़ी होती महसूस होती हैं और कैसा आश्चर्य होता है कि वास्तविकता ( Reality ) यानी वास्तविक लक्ष्य हममें प्रकट हो गया है। वह वास्तविकता ( Reality ) खुद बोलती है, अन्तर्मन इस अनुभूति में, उसके पाने की अनुभूति में या उसकी सामीप्यता की अनुभूति में मग्न रहने लगता है फिर भी वास्तविकता ( Reality ) हमें चैन यूँ नहीं लेने देती क्योंकि यह वास्तविकता ( Reality ) की मात्र छाया ( Reflection ) अथवा सौन्दर्य है। जिसका वह सौन्दर्य है उसे वास्तविकता ( Reality ) के केन्द्र में पहुँचा कर प्रिय के आगमन का अन्दाज़ा देती है। जिससे हमारा मन उसकी ओर खिंचता हुआ अपनी सारी अस्वाभाविकता को त्यागता हुआ वास्तविक ( Real ) यानी ईश्वर का होने का अन्दाज़ पाने लगता है अथवा यूँ कहें उस वास्तविक ( Real ) की आवाज़ वास्तविक मैं ( Real Self ) को अपने में इस तरह भुला देती है उससे उसके होने की अनुभूति भी मिलती रहे और उसका साक्षात्कार अथवा सामना अभी होना है, जैसी पीड़ा या तड़प का अन्दाज़ देती रहती है।

जब मालिक हम में व्यापक हो उठता है तभी हमें इसका पता चल पाता है कि न तो हमारा रूप वास्तविक ( Real ) था और न वह रस वास्तविक ( Real ) था जो अनुभूति के रूप में हमें अब तक मिलता रहा क्योंकि जिसकी भाषा अनुभूति के रूप में हम में उतरती रही जब वह स्वयं हममें प्रकट हुआ तब उसकी भाषा की आवश्यकता भी जाती रही। अब वह बोलता है और वही सुनता है, हम तो केवल साक्षीभूत हैं यह अनुभूति भी इसलिए रहती है कि श्री बाबूजी महाराज को हमें इससे भी परे अन्तिम सत्य (Ultimate Reality) में लय करना है। अब वास्तविकता ( Reality ) शान्त ( Silent ) हो जाती है। सुनने वाला और अनुभूति रूपी भाषा सब कुछ असल के ही न्यौछावर हो जाते हैं या लय हो जाते हैं। अब श्री बाबूजी महाराज का संकल्प जो अन्तिम सत्य ( Ultimate Reality ) तक पहुँचाने का है वही साक्षीभूत होकर हमारे होश को जागृति देता हुआ यह अन्दाज़ देता है कि हम कहाँ रम रहे हैं। वास्तविकता ( Reality ) का अन्त ( End ) हो जाता है या यूँ कहें कि वास्तविकता ( Reality ) वास्तविक ( Real ) सत्य में लय हो जाती है, और वास्तविक मैं ( Real Self ) मालिक ( Master ) के उस श्रेष्ठ संकल्प में कि हम अनन्त ( Ultimate ) में पहुँच चुके हैं, उसमें लय हो जाता है।

हम अभ्यासियों का प्रयास यही होना चाहिए कि हममें वास्तविकता ( Reality ) बोल उठे । मालिक ( Master ) हमारे हैं इस एक भाव को लेकर जब तक हमारे अन्तर में यह लगने ही न लगे कि वह हमारे हैं तब तक उसमें लगे रहना चाहिए। तभी इस भाव की वास्तविकता ( Reality ) इस अनुभूति में प्रकट हो जायेगी कि वह हमारे हैं। इसके पश्चात् उससे मिलने की अनुभूति जो एक दूसरे से सम्बन्धित ( Connected ) है, सब हममें उतरने लगते हैं पहले वह भाव हममें वास्तविक ( Real ) अनुभूति लाता है कि वह हमारे हो गये हैं, लेकिन इसका अन्त उस अनुभूति में होता है जबकि वह हममें प्रकट हो जाते हैं।

हम स्वयं को छुएँ, देखें तो ऐसा ही लगता है मानो मालिक ( Master ) को ही छू रहे हैं, देख रहे हैं । वास्तविकता इस प्रकार बोलती है ( Thus Speaks Reality ) ।

संदेश - संत कस्तुरी
विश्वास
बंगलौर
14/9/1986
विश्वास किया नहीं जाता, यह स्वतः उत्पन्न होता है। जब गुरु में लय होने के रूप में हम ईश्वर में लय हो जाते हैं, हमारे अन्दर ऐसी दृढ़ता आ जाती है, जो केवल हमसे सम्बन्धित नहीं रहती, बल्कि ईश्वरीय शक्ति, जो हममें व्याप्त है, से भी सम्बन्धित रहती है। हम इसे अपने से सम्बन्धित नहीं रख सकते, क्योंकि हम अपने ‘स्व’ को ढूंढ़ नहीं सकते और जब हम अपने ‘स्व’ को ढूंढने में असफल हो जाते हैं, तब हम इसे किसके साथ जोड़ें? मैंने इसे ही विश्वास की सच्ची परिभाषा तय किया है। जब हमारे ‘स्व’ में सुधार आ जाता है और भीतर से जाग जाता है, तब हम अहम् से बिल्कुल अलग हो जाते हैं।

‘श्री बाबूजी महाराज’ में लय रहते हुए मैंने अनुभव किया है कि ‘स्व’ का सुधरा हुआ अस्तित्व, नाम और रूप के परे हो जाता है। यह वही अस्तित्व है जो ईश्वर का अंश है और उसे जीव कहते हैं। हमारे समर्थ सद्गुरु का प्रेम ऐसा है कि यदि हम एक कदम आगे बढ़ते हैं, तो ये दस कदम हमारी ओर बढ़ाते हैं। उनकी दिव्य प्राणाहुति हमारे हृदय में, हमारे विश्वास को वास्तविक अनुभव से भर देती है और हम कहते हैं- “सुरत सुहागिन है पनिहारिन, भई ठाढ़े बिन डोर रे।“ हम कह सकते हैं कि विश्वास, योग की ओर पहला कदम है और जब सुरत को योग का आशीर्वाद मिलता है, विश्वास भी लय हो जाता है और खो जाता है।

उपनिषद् हमें याद दिलाता है, “ऐ! सृष्टि में चारों ओर विचरण करने वाले लोगों, यदि तुम कोई इच्छा करते हो, तो भूमा के साक्षात्कार की इच्छा करो, जो की अन्तिम सत्य है।“ हम ऐसी इच्छा कैसे कर सकते हैं? हम केवल उसी की इच्छा कर सकते हैं जिसकी उपस्थिति का साया किसी भी रूप में हमने अनुभव किया हो। यह केवल हमारे ‘मालिक’ की पावन प्राणाहुति है, जो हमारे हृदय को अनन्त की इच्छा से भर देती है। यह इच्छा प्रगति कर आकर्षण बन जाती और आकर्षण स्वतः उसे पाने की तडप बन जाता है। बिना सद्गुरु के अनुग्रह के यह पूरी तरह हमारी पहँच के परे है कि हम अपने हृदय से उससे योग स्थापित कर सकें। केवल इच्छा करने से यह नहीं हो सकता, क्योंकि अनन्त इच्छा के परे है। यह केवल ‘मालिक’ की दिव्य शक्ति है, जो हमें उसके साथ योग कराने में सक्षम है और तब हम यह अनुभव करते है कि वह हमारा है और उसकी पावन उपस्थिति से हमारा पूरा हृदय पवित्र हो जाता है। एक और अनुभव होता है कि हमारे शरीर का कण-कण पुकारने लगता है- “वास्तव में ईश्वर-साक्षात्कार कितना सरल है”। न बुझने वाली प्यास पुकारती है – “ऐ मेरे मालिक! और दो और दो”। यह पुकार हमारे सारे ‘स्व’ में व्याप्त हो जाती है। हृदय जाग उठता है और एक स्वाभाविक विश्वास से सजग हो जाता है कि कुछ और बाकी है, जो हमारा है और इसे पाने के लिए अनजाने में हमारे अन्तरतम में एक तीव्र तड़प भभक उठती है।

उनकी दिव्य इच्छा, कि सारा समाज ईश्वर–साक्षात्कार के योग्य बने प्राकृतिक रूप में मानव-हृदय में अपनी इच्छाशक्ति से उतारना आरम्भ कर देते हैं। ईश्वर चाहता है कि प्रकृति अपनी सृष्टि को सुन्दर देखे - एक बहुत बड़ा सत्य है। इस धरती पर संतो का लगातार आगमन इसी इच्छा के अनुसार होता है। समय ने मनुष्य को ईश्वर से इतना दूर कर दिया है कि वह अपने अस्तित्व का विचार भी भूल गया है। ऐसे संकट काल में “श्री बाबू महाराज” का धरती पर अवतरण का एक यह भी कारण है कि उनका सूक्ष्म संकल्प, कि मनुष्य अन्तिम सत्य का साक्षात्कार करे तथा ईश्वरीय शक्ति पर उनका (श्री बाबूजी महाराज) पूर्ण प्रभुत्व इस साक्षात्कार में काम आये। ‘मालिक’ एक दर्पण है, जिनमें हम सभी को लय होना है, ताकि हम ईश्वर साक्षात्कार कर सकें। ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने मुझे लिखा था कि बिना ईश्वर में लय हुए भूमा का द्वार नहीं खुलता। इस सम्बन्ध में मैंने अनुभव किया है कि जब अनन्त के साक्षात्कार का आनन्द भी स्वतः समर्पित हो जाता है, तब अनन्त के साक्षात्कार की चाह या इसमें विश्वास भी आगे नहीं बढ़ता। विश्वास कैसे आये, जब विश्वास और इसका आधार दो अलग-अलग चीजें हो जाती हैं? तब मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को लिखा- “ईश्वर–साक्षात्कार की यह प्यास अब बुझ गई है। विश्वास और प्रेम का कोई चिन्ह नहीं है, और न ही मैं अपने में कोई भक्ति पाती हूँ। कृपया बतायें कि मैं क्या करूँ”? उनका उत्तर था – “हम किसी की खोज में निकले हैं और इसके लिए जो ज़रूरी था, लय हो गया और अपने में खो गया। अब लक्ष्य आ गया है। हमने जो कुछ अनुभव किया था, हमें उत्तराधिकार में मिला था, वह भी लय हो गया और लक्ष्य में स्वतः खो गया”। मैंने अनुभव किया कि यद्यपि अनन्त हमारा हो गया, किन्तु, एक आश्चर्यजनक बात कहने से मैं अपने को रोक नहीं सकती। अनन्त के साक्षात्कार के लिए इच्छा उत्पन्न करना भी असम्भव था। क्या आश्चर्य है कि अब वह सम्भव हो गया है। आज यह हमारे लिए आदेशात्मक हो गया है कि मैं इसका रहस्य खोलू, कि ऐसा क्यों? जब भी मैंने अनुभव किया कि वहाँ केवल एक ही इच्छा थी और वह चारों ओर थी। यह ‘मालिक’ की अपनी मर्जी थी कि सारा मानव समाज ईश्वर साक्षात्कार करे। एक दिन श्री बाबूजी की महत् इच्छा शक्ति ने अपने अनन्त अनुग्रह के साथ हमें अपनी इच्छा से उस साम्राज्य में प्रवेश दे दिया। वहाँ गति नहीं थी, कोई सागर नही था, केवल तैरने का अनुभव था। वहाँ न ही विश्वास था, न ही भक्ति थी, किन्तु कोई इच्छा हमें अपने में समेटे हुए थी, अभ्यास इसके पूर्व ही समाप्त हो गया था। अब बचा हुआ अनुभव भी ‘मालिक’ में लय होना आरम्भ हो गया था।

जब ध्यान का धागा भी ‘मालिक’ में लय हो गया, तब साक्षात्कार के फल की मधुरता मेरे हृदय में फैल गई। साक्षात्कार प्राप्त कर लेने के बाद शक्ति और गति की बौछार अपने आप होने लगी। जब तक ‘मालिक’ हृदय में कैद नहीं हो जाते, मुक्ति का आनन्द अनुभव नहीं किया जा सकता और जब तक मुक्ति के आनन्द को समर्पित नहीं किया जाता, ईश्वर का अनुभव हृदय में नहीं होता। ऐसा अनुभव हुआ कि शरीर का अंग-अंग जो भौतिक रूप में एक-दूसरे से जुड़े हुए थे, सभी टूट कर बिखर गये हैं और उसके बाद? - अंग अंग को मुक्ति मिल गई।

इसके बाद हमारे जीवन के अस्तित्व को कायम रखने के लिए ‘मालिक’ हर कण को पुनः जोड़ देते हैं, और हमें रूपान्तरित तथा दिव्य हस्ती की तरह खड़ा कर देते हैं। तब लय के वरदान से दर्शन (साक्षात्कार) होता है। हम अपने इस विलयन को एक साक्षी बन कर देखते हैं। यदि कोई मुझसे प्रश्न करे कि मैं किसका साक्षी हूँ और किस प्रकार का विश्वास हममें है, तो मैं उससे क्या कह सकती हैं या दिखा सकती हूँ क्योंकि लय का वरदान मिलने के बाद, अन्तिम सत्य का द्वार खुल जाता है। ‘मालिक’ ने हमारे साथ क्या आश्चर्य किया है? हर चीज़ को सुधार कर और सुन्दर बनाकर उन्होंने कोई ऐसा चिन्ह नहीं छोड़ा है, जिससे पता चल सके कि किसको सुधारा गया है और किसे सुन्दर बनाया गया है। सब चीज़ों का आशीर्वाद मिलने के बाद दिव्य विश्वास ने हमें ही लूट लिया है। अब मैं विश्वास कहाँ से लाऊँ? और कोई हमें क्या दे सकता है, जो कभी दिया नहीं जा सकता? जब दिव्य लय-अवस्था भी ‘मालिक’ में लय हो जाती है, तब कौन जानता है कि विश्वास कहाँ लय हो गया। जो रहस्य कहा जाता था, अब अध्यात्म के क्षेत्र में रह गया है, क्योंकि ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने अध्यात्म को सारे मानव समाज के लिए उपलब्ध करा दिया है। इसके बाद भी अपने पावन प्राणाहुति द्वारा अध्यात्म के मार्ग को सबके लिए प्राकृतिक और सहज बना दिया है। श्री बाबूजी का कथन सत्य है कि प्रकृति के पास कोई भेद-भाव नहीं होता और न ही कोई रहस्य होता है। जो कुछ होता है, वह हमारा आवरण होता है। समर्थ सद्गुरु अपनी दिव्य इच्छा शक्ति से इस आवरण को फाड़ देते हैं, जो हमारे भीतर केन्द्रित रहता है तब ईश्वर हमारी दृष्टि में आता है और वहीं रहता है। विश्वास के रहने का स्थान भी अब चला गया है। हमें ईश्वर में निवास देने के बाद विश्वास भी लय हो गया और गायब हो गया।

संदेश - संत कस्तुरी
सहज मार्ग प्रार्थना का महत्व
विजयवाड़ा
19/9/1986
आज मैं सहज मार्ग साधना के एक महत्वपूर्ण पहलू पर आप से चर्चा करना चाहूँगी। हमारी प्रार्थना “हे नाथ ! तू ही मनुष्य जीवन का ध्येय है” में कुछ अभ्यासी प्रश्न करते हैं कि शब्द ‘हे नाथ’ का प्रयोग क्यों हुआ और ‘हे ईश्वर’ का क्यों नहीं ? इसके पहले मैंने इस बात पर कभी विचार नहीं किया था।

श्री बाबूजी महाराज ने कहा है और लिखा भी है कि “सहज-मार्ग पद्धति” तथा “प्रार्थना” ऊपर से उतरी है, यह मानव निर्मित नहीं है। इस सत्य से यह भी सिद्ध होता है कि यदि ‘वे’ ऐसा करते तो ‘वे’, “श्री लालाजी साहब” को सम्बोधित करते। यह सही है कि शब्द “हे नाथ” केवल ऊपर से नहीं उतरा है, बल्कि श्री बाबूजी महाराज के लिए प्रयोग किया गया है। ऐसा इसलिए क्योंकि प्रकृति यह सत्य जानती थी कि केवल श्री बाबूजी महाराज भूमा की पूर्ण शक्ति लेकर अवतरित हुए हैं।

इसका दूसरा प्रमाण भी है। हम ईश्वर–साक्षात्कार को अपने जीवन का लक्ष्य मानते हैं। साधु-संतों ने भी मानव जाति के लिए इसी प्रकार ईश्वर साक्षात्कार का लक्ष्य दिया है। किन्तु ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने हमें अनन्त (भूमा) की प्राप्ति का लक्ष्य दिया है। इसलिए हमें ज्ञात होना चाहिए कि उन्होंने हमें ईश्वर–साक्षात्कार लक्ष्य क्यों नहीं दिया। सर्वप्रथम हमें यह जानना है कि ईश्वर क्या है ? उसकी व्याख्या करने के लिए, हम इतना ही कह सकते हैं कि प्रथम क्षोभ से सृष्टि बनी, और इसके लिए जो शक्ति भूमा से अलग हुई, वही ईश्वर है। भूमा तथा ईश्वर के बीच जो शक्ति थी, उसे चंचल या निःशब्द नहीं कह सकते। हम इसे चंचल नहीं कह सकते, क्योंकि मानव जीवन का लक्ष्य ईश्वर साक्षात्कार करना था न कि भूमा की प्राप्ति। कोई नहीं कह सकता कि वहाँ शान्ति थी या नहीं। किन्तु, जब श्री बाबूजी ने हमें भूमा की प्राप्ति का लक्ष्य दिया, तब अपने मार्ग पर आगे बढ़ते हुए मैंने श्री बाबूजी को लिखा कि ईश्वर जो कुछ हो, मैंने उसे देखा है। श्री बाबूजी महाराज ने मुझे लिखा - कि केवल ईश्वर को देखना पर्याप्त नहीं है, हमें उसका साक्षात्कार करना है।

ईश्वर का साक्षात्कार का अर्थ होता है पूरी शक्ति के साथ ईश्वर का साक्षात्कार। जब ऐसा होता है और इसके पश्चात् जब कोई ईश्वर साक्षात्कार के बारे में बात करता है, यह अर्थहीन लगता है क्योंकि तब श्री बाबूजी महाराज उसी अर्थ में प्रकट होते हैं, जैसा हमारी प्रार्थना में प्रयोग किया गया है, “हे नाथ ! तू ही मनुष्य जीवन का ध्येय है।” उसके बाद जब हम उनके समक्ष खड़े होते हैं और वहाँ किसी को नहीं पाते हैं, तब गुरु की भूमिका प्रारम्भ होती है। उस समय उनका संकल्प कि हमें भूमा का साक्षात्कार करना है, पुनः अभ्यासी में क्षोभ (विचार) उत्पन्न होता है कि हमें भूमा का साक्षात्कार चाहिए। एक स्पन्दन का अनुभव होता है जैसा श्री बाबूजी महाराज ने कहा है, और लगता है कि भूमा तथा ईश्वर के बीच निश्चय ही कोई स्पन्दन है। वही स्पन्दन, भूमा से साक्षात्कार के लिए श्री बाबूजी महाराज के संकल्प में लय हो जाता है और हमारा अपना संकल्प उनमें लय हो जाता है और हम कहते हैं कि हम तैर रहे हैं। यहीं से अभ्यासियों के लिए श्री बाबूजी महाराज का भूमा की शक्ति के साथ कर्तव्य प्रारम्भ हो जाता है। इस दशा को प्राप्त करने के पूर्व गुरु की कृपा एवं निर्देश सदा कार्य करता रहता है। किन्तु यह दशा प्राप्त कर लेने के बाद कृपा एवं शक्ति का कोई स्थान नहीं रहता क्योंकि सृष्टि की उत्पत्ति की शक्ति केवल ईश्वर तक सीमित रहती है। वे हमें निर्माणकर्ता तक ले जाना चाहते हैं। इसलिए उन्हें विशेष कार्य करना पड़ता है। भूमा तथा ईश्वर के बीच न कोई शक्ति है न कोई कृपा। तब गुरु को अभ्यासी को भूमा तक ले जाने के लिए स्वयं कार्य करना पड़ता है।

इसलिए, शब्द ‘हे नाथ’ प्रार्थना में केवल श्री बाबूजी महाराज के लिए ऊपर से उतरा है। यह न तो श्री लालाजी के लिए है और न ही ईश्वर के लिए। इस प्रकार यह प्रार्थना “हे नाथ ! तू ही मनुष्य जीवन का ध्येय है।” श्री बाबूजी के लिए कहा गया है और यह कहना कि “बिना तेरी सहायता, तेरी प्राप्ति असम्भव है” समाप्त हो जाता है।

अन्त में मैं आप सब की भावनाओं पर जोर देकर कहती हूँ। कि अपनी कमियों तथा बुराइयों को अनदेखा करते हुए हमें अपने मार्ग पर दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ते रहना चाहिए। हम सब मिलकर श्री बाबूजी से प्रार्थना करते हैं कि वे हमें आध्यात्मिकता की ऊँचाइयों तक ले जायें।

संदेश - संत कस्तुरी
ईश्वर का मानव रूप
विजयवाड़ा
20/9/1986
यह कैसा आश्चर्य है कि श्री बाबूजी महाराज के रूप में ईश्वर धरती पर अवतरित हुआ। मानव रूप केवल इसलिए आवश्यक था क्योंकि अनारक्षित ईश्वर से सम्पर्क असम्भव है, ठीक उसी प्रकार जैसे बिना ढके हुए विद्युत के प्रवाह का छूना असम्भव है। तब यह कैसे सम्भव था कि हम अपनी भौतिक आँखों से ईश्वर को देखें। केवल भौतिक शरीर में ही हम अपनी आँखों से ईश्वर को देख सकते है।

एक और सत्य उजागर हुआ कि ऐसे अवसर पर, हमें ईश्वर का दर्शन पाने के लिए, एक दिव्य दृष्टि भी हमारी भौतिक आँखों में प्रवेश करती हैं। यह ईश्वर का वरदान है, अन्यथा हममें वह खिंचाव नहीं होता, जो ईश्वर की ओर प्रेरित करता। भौतिक दृष्टि की क्षमता केवल भौतिक आकर्षण तक सीमित रहती है। इसी कारण, जब ईश्वर का धरती पर अवतरण होता है, ईश्वर मानवों के लाभ के लिए निश्चित रूप से कृपा करता है, ताकि लोग दिव्य पुरुष की ओर आकर्षित हो सके।

इससे यह साफ है कि श्री बाबूजी का शुभ अवतरण, उनमें व्याप्त दिव्यता की ओर समस्त मानव समाज को आकर्षित करने के लिए आवश्यक था। जब उनसे पहली मुलाकात हुई, मुझे ऐसा लगा कि ईश्वर मानव रूप में स्वयं खड़ा है। जब मैं होश में आई, तब मुझे अनुभव हुआ कि मैं स्वयं को खो गई थी। तब मेरी समझ में आया कि ईश्वर-दर्शन हेतु दिव्य-दृष्टि आवश्यक है। उनका व्यक्तित्व, दिव्यता एवं सादगी का मिश्रण था। यहाँ तक कि आज भी उनकी अलौकिक शक्ति, मधुर वाणी एवं हृदयग्राही रूप मेरे समक्ष आ जाता है। मेरा हृदय उनमें पूरी तरह डूबा हुआ लगता है मानो ईश्वर रूप में अभी भी वे धरती हैं। यही कारण था कि उनके दर्शन के पश्चात् अन्य कुछ देखने की क्षमता एवं उत्सुकता उसी दिव्य रूप में लय हो गयी। यह और बात है कि मेरी भौतिक आँखें केवल उनका बाह्य रूप देख सकी। मैंने इस सत्य को मान लिया कि मैं और वे एक हो गये हैं। उनमें मिलने की कड़ी का पता मुझे नहीं चल सका। अपने हृदय की गहराइयों में, उनको देखने के बाद, मैंने अपने आपको उन्हें समर्पित कर दिया। इसे उनकी कृपा की एक कड़ी कहा जा सकता है। समर्पण की यह क्रमिकता भी एक दिन समाप्त हो गई, जब मुझे मेरा भी कुछ पता नहीं चला और यह भौचक्कापन मुझे पहचानने में भी असमर्थ हो गया। अब मैं कह सकती हूँ कि मुझे दर्शन नहीं मिला, किन्तु केवल उनकी कृपा के कारण मैं उनके प्यार को नहीं पहचान सकी। मैं नहीं जानती कि उनका दर्शन, उनका प्यार या सशक्त तार या प्रवाह अथवा पूर्ण संतुलन या पुनः शक्तिहीन शक्ति, ऐसी शक्ति जिससे अनुभव की शक्ति छीन ली गई हो और तब इस स्थिति की क्षमता आई हो। उनके दर्शन के फलस्वरूप मुझे भौतिक सुखों से छुटकारा मिल गया। उसके बाद अनन्त का अनुभव प्राप्त हुआ तथा प्राणाहुति और श्रोत तक पहुँची। मैं कह सकती हूँ कि श्री बाबूजी महाराज की कृपा से वह शक्ति जहाँ से मानव को प्राणाहुति मिलती है अनन्त दिव्य शक्ति की ओर हमें आगे बढ़ाती है।

अब यह प्रश्न उठता है कि आखिर क्यों मानव रूप में ईश्वर इस धरती पर अवतरित हुआ? इस कारण मैं फिर कह सकती हूँ कि इस धरती पर अवतरण के पश्चात् दुनिया में सभी रहने वालों के विचारों को सही दिशा दे सकें और अपनी प्राणाहुति शक्ति द्वारा उनमें दिव्य शक्ति भरकर उनका कायाकल्प कर सकें। हम अनुभव करते हैं कि मानसिक शक्ति का क्रमिक प्रयोग करते हुए हमारी मानसिक शक्ति कम हो जाती है और एक दिन हम थक कर उदास हो जाते हैं। यदि यह शक्ति जिसे हम ख़र्च करते रहते हैं, लगातार इसकी पूर्ति होती रहे तो हम पाँच तत्वों के क्षेत्र से परे होकर सदा के लिए भीतर से मज़बूत हो सकते हैं।

इस धरती पर अवतरण के पश्चात् श्री बाबूजी ने सहज मार्ग पद्धति द्वारा सारे मानव हृदय को अपनी प्राणाहुति शक्ति के दिव्य ज्योति से भर दिया है। हज़ारों अभ्यासी, जो इनके सम्पर्क में आये हैं, इस प्राकृतिक घटना के साक्षी हैं। हृदय पर प्राणाहुति देकर, अभ्यासियों को एकाग्रता से आत्मा पर ध्यान लगाने की क्षमता दी। उनके द्वारा दिया गया यह दिव्य योग हमें आध्यात्मिक शक्ति से भर दिया है और उन्होंने मानव के अस्तित्व को न्यायसंगत बना दिया है। सभी अभ्यासी इस बात के साक्षी हैं, कि जिस क्षण वे श्री बाबूजी को याद करते हैं, उन्हें तीव्र प्राणाहुति का अनुभव होता है। उनके अवतरण के बारे में यही कहा जा सकता है कि अनन्त शक्ति के साथ ‘वे’ मानव रूप में ईश्वर हैं। केवल इतना ही नहीं, सहज मार्ग साधना के उच्चतम स्तर तक पहुँचने पर मुझे जो आश्चर्यजनक बात लगी, वह यह कि ‘भूमा’ ही इस रूप में अवतरित हुआ है और सम्पूर्ण में व्याप्त हो गया है। उन्होंने स्वयं वातावरण का विष पीकर इसे दिव्य अमृत से भर दिया। उन्होंने भौतिक अन्धकार को दूर कर, पूरी धरती को दिव्य ज्योति से प्रकाशित कर दिया है और वे एक दिन सारे मानव मनो तथा हृदय को दिव्यता से भर देंगे। उनके पावन चरणों ने इस सृष्टि को दिव्य जवाहरात, मोतियों, प्यार एवं ज्ञान से ओत-प्रोत कर दिया है। प्रकृति की मुस्कान उनकी प्राकृतिक मुस्कान से ओत-प्रोत होकर भक्ति को जन्म दिया है। आकाश उनके सिर को छूकर ज्ञान से ज्योतिर्मय हो गया है। इस धरती पर ऐसे दिव्य अवतरण के फलस्वरूप मानवजाति, उनकी दिव्यता का वरदान, भक्ति और प्यार पाकर पूर्ण सन्तोष पा लिया है, जिससे आध्यात्मिक गरीबी और दुख दूर हो गये और मानव हृदय साक्षात्कार की प्रेरणा से भर गया। उनका मंगलमय अवतरण मानव के लिए उसे वापिस घर लौटने का सन्देश है। एक और विशेषता है, कि उनके आगमन ने सृष्टि को दिव्य समृद्धि से भर दिया है। उनके जाने का दुख इससे अलग नहीं होता क्योंकि उनका मंगलमय आगमन, जब तक उनका सकल्प पूरा नहीं हो जाता, पृथ्वी पर दिव्य प्रकाश फैलाता रहेगा। श्री बाबूजी महाराज का वरदान मानव मन को दिव्य वातावरण में अनवरत रखेगा तथा मानव समाज को गौरवपूर्ण बनाता रहेगा।

हे मालिक (श्री बाबूजी), धरती ने आपका मंगलमय अवतरण पूर्णतः देख लिया है। आने वाले दिनों में हम लोग आप का सन्देश धरती से आकाश तक फैलाते रहेंगे। आप की दिव्य अभिव्यक्ति, जो एक मानव रूप में है, सारे वातावरण में एक गहरी छाप इस प्रकार छोड़ गयी है, कि वे अभ्यासी, जिन्हें आपके दर्शन का सौभाग्य नहीं मिला, भी आपको सूक्ष्म रूप में देखने का सौभाग्य प्राप्त कर लेंगे।

तब उन्हें इस बात का कोई दुख नहीं रहेगा कि उन्होंने अपने ‘मालिक’ श्री बाबूजी महाराज का दर्शन नहीं किया। हमें आज भी इसका प्रमाण मिलता है। और ऐसा क्यों न हो, जब दिव्य प्रभा मानव रूप में प्रत्यक्ष है, जो समाप्त होने के लिए कभी नहीं मुरझाता। यहाँ तक कि जब जीवन का पर्दा गिर जाता है, तब भी, क्यों कि सत्य कभी नहीं मरता (सत्य अविनाशी है), भले कुछ समय के लिए आँखों से ओझल हो जाये। अपने श्री बाबूजी महाराज से प्रार्थना है कि मानव हृदय के आवरण को हटाते हुए उनका दिव्य अवतरण युगों-युगों तक मानव मन को आकर्षित करते हुए दिव्यता की ओर बढ़ाता रहे।

संदेश - संत कस्तुरी
भाईचारे का अभ्यास
विजयवाड़ा
21/7/1987
मैं खुश हूँ कि यहाँ आप के बीच हूँ और साधना के विषय में अपना विचार आपके विचार के साथ रखूगी। ‘श्री बाबूजी महाराज’ द्वारा स्थापित मिशन के हम सभी भक्त एवं योग्य अभ्यासी हैं। ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने अपने दिव्य चरणों में हमें लाकर हमें भाईचारे का पाठ पढ़ाया है और वे आशा करते हैं कि हम सब इसे जीवन के अभ्यास में लायें।

भाईचारे का अभ्यास, जैसा ‘उन्होंने’ दिखाया है आपस के प्रेम और आदर पर आधारित है। उन्होंने हमारे हृदय में प्रेम और भक्ति का बीज बोया है और मुझे यह कहते हुए खुशी होती है कि मैं इस बीज को आप लोगों के हृदय में उच्च रूप में प्रकाशित पाती हूँ। जहाँ मैं जाती हूँ, मुझे ऐसा ही परिणाम मिलता है। आज आप लोगों से मेरा विनम्र निवेदन है कि बिना किसी भेद-भाव के, अभ्यासी अथवा जो अभ्यासी नहीं है, नये एवं पुराने लोगों में प्रेम और भक्ति के इस प्रकाश को फैलायें।

‘श्री बाबूजी महाराज’ ने कहा है – “मैं शिष्य नहीं, गुरु बनाता हूँ।” इसका यह सीधा-सा अर्थ है कि उन्होंने हमें इस बात के लिए सक्षम बनाया है कि हम प्यार और अपनापन सभी लोगों में बाँट सकें। श्री बाबूजी का यह अर्थ नहीं है कि वे केवल शक्ति के स्वामी है, बल्कि प्रेम और अपनेपन के भी मालिक हैं। दिव्य शक्ति का मालिक ‘वह’ है और केवल ‘वही’ है। सम्पूर्ण सृष्टि का केवल वही ‘अकेला’ दिव्य शक्ति का ‘मालिक’ है और यही कारण है कि मानव के व्यापक प्रेम का दृश्य ‘उसके’ समक्ष है।

इसलिए, भाईचारे को बढ़ावा देने के लिए मैं सलाह देती हूँ कि लोग दूसरे लोगों के साथ आदर और प्रेम से मिलें। वास्तव में यह सहज-मार्ग अभ्यासी की पहिचान होनी चाहिए।

मुझे यह कहने में खुशी होती है कि मैं आप सभी लोगों में पाती हूँ कि आपके सामने ‘श्री बाबूजी महाराज’ जीवन के लक्ष्य हैं, एक दढ संकल्प हैं, भक्ति हैं और आप में बाधारहित आगे बढ़ते रहने की कामना है। यह तभी संभव है, जब सेन्टर-इन-चार्ज तथा प्रिसेप्टर लोग श्री बाबूजी में लय रहें। श्री बाबूजी महाराज ने कई बार कहा है कि बिना लय-अवस्था के आध्यात्मिकता का द्वार नहीं खुलता। यहाँ इस सेन्टर पर मैं देखती हूँ कि सभी अभ्यासी श्री बाबूजी के आज्ञाकारी हैं और इसलिए वह दिन अवश्य आयेगा कि सभी लोग श्री बाबूजी महाराज में लय हो जायेंगे।

मैं निश्चिंत हूँ चूँकि श्री बाबूजी महाराज आप में हैं, आपके साथ हैं और आपके समक्ष हैं। आप केवल अपना लक्ष्य ही प्राप्त नहीं करेंगे, बल्कि पूरे मानव समाज का ज्ञानवर्धन कर उनको साधना के लिए प्रेरित करेंगे। आप लोग सहज-मार्ग के भावी प्रकाश दीप हैं। सतर्कता के लिए मैं यह कहना चाहूँगी कि यह सब तभी होगा, जब आप लोग पूर्ण हृदय तथा एकाग्रता से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहें, जैसा कि आप लोग कर रहे हैं बिना किसी अन्य विचार के और किसी दूसरी ओर मुड़े हुए।

संदेश - संत कस्तुरी
जीवित गुरु
विजयवाड़ा
22/7/1987
कल शाम की चर्चा में मैंने इस बात पर ज़ोर दिया था कि प्रेम और भक्ति का महत्व तथा लोगों को आदर तथा विश्व बन्धुत्व का विकास हमारे लक्ष्य प्राप्ति की एक आवश्यक शर्त है, जैसा कि श्री बाबूजी ने कहा है। उसी कोशिश के सिलसिले में तथा आप लोगों के प्रति मेरे प्यार के कारण मैं अपना कर्तव्य समझती हूँ कि आज मैं श्री बाबूजी के भौतिक रूप के अनस्तित्व के बारे में अपना दृष्टिकोण रखूं। जीवित गुरु के बारे में मुझसे कई बार प्रश्न पूछे गये। दूसरे शब्दों में आध्यात्मिक प्रतिनिधि अथवा स्थानापन्न दिव्य गुरु की भूमिका कौन निभाता है?

जैसा कि हम अपने धर्म ग्रन्थों से जानते हैं कि श्री राम मानवरूप में अवतरित हुए। कौशल्या ने उन्हें ब्रह्म रूप में देखा था। ठीक उसी प्रकार देवकी के पुत्र के रूप में श्री कृष्ण का अवतरण हुआ, देवकी ने भी उन्हें ब्रह्म रूप में देखा था। अवतारों के ये ब्रह्म-रूप अविनाशी तथा नित्य होते हैं। केवल उनका भौतिक शरीर पाँच तत्वों में सम्मिलित होता है, जो महासमाधि के बाद नष्ट हो जाता है।

‘श्री बाबूजी महाराज’ भूमा की शक्ति के साथ एक दिव्य महापुरुष हैं, उनका एक मानव रूप था। मुझे यह कहते हुए खुशी और गर्व होता है कि जैसा मैंने अपनी पुस्तक ‘दिव्य देश के दर्शन में’ लिखा है कि श्री बाबूजी के पावन चरणों में आने के पूर्व मैंने सभी अवतारों का ब्रह्म-स्वरूप शीघ्रता से क्रम में देखा था, श्री राम, श्रीकृष्ण तथा श्री बाबूजी महाराज का। 19 अप्रैल, 1983 को श्री बाबूजी महाराज ने महासमाधि ले ली। किन्तु वे सदा यहाँ उपस्थित हैं। उन्होंने स्वयं कहा है – “मेरा अस्तित्व नित्य है।”

वे प्रायः कहा करते थे – “लोग मुझे देखने आते हैं, किन्तु वास्तव में मुझे देख नहीं पाते।” इसका क्या अर्थ है? यह स्पष्ट है, उनके कथन के अनुसार कि वे भौतिक शरीर से परे हैं, जिन्हें आध्यात्मिक दृष्टि से ही देखा जा सकता है, न कि भौतिक आँखों से। यह मेरे कहने का मतलब है या मेरी व्याख्या है, किन्तु यह एक सत्य है, जिसे आप सभी लोगों ने अनुभव किया है और व्यक्त किया है। वे अभी भी एक जीवित गुरु हैं। इस बात पर ज़ोर देने की ज़रूरत नहीं कि अवतारी पुरुष मृत्यु के बन्धन से परे होते हैं।

अब प्रश्न उठता है कि आध्यात्मिक प्रतिनिधि के कर्तव्य का। शब्द प्रतिनिधि संकेत करता है कि प्रतिनिधि वह है, जो दूसरों के समक्ष अपने गुरु का प्रतिनिधित्व करे। इस प्रकार, एक आध्यात्मिक प्रतिनिधि का कार्य है कि वह अभ्यासियों को साक्षात्कार में सहायता दे, जो उनका लक्ष्य है। उसे अभ्यासियों के मन में प्रेम, भक्ति और मालिक के प्रति समर्पण का प्रोत्साहन दे, जिनका वह प्रतिनिधित्व करता है तथा उसकी दिव्य शक्ति सभी मानव जाति की आध्यात्मिक उन्नति के लिए सर्वत्र फैला दे। इसके अतिरिक्त मिशन के प्रेसीडेन्ट होने के नाते सभी कार्यों को इस प्रकार प्रबन्ध और संगठित करे कि सभी केन्द्रों का वातावरण, मिशन तथा अभ्यासियों के विकास में सहायक हो। उसे प्रेम और श्रद्धा का विस्तार करना चाहिए तथा भय एवं घृणा को हतोत्साह।

श्री रामचन्द्र मिशन में, सृष्टि के दिव्य गुरु श्री बाबूजी महाराज के हज़ारों प्रतिनिधि हो सकते हैं जब तक उनका संकल्प (मानव जाति का आध्यात्मिक उत्थान) पूरा न हो, किन्तु उनमें कोई भी उनका स्थान नहीं ले सकता, जैसा कि वे हैं। `श्री लालाजी ने भी कहा है – “उनका स्थान कोई नहीं ले सकता।” एक बार श्री लालाजी ने श्री बाबूजी से कहा था – “तुम अपने स्थान पर किसी अधिकारी को उत्पन्न नहीं कर सकते क्योंकि तुम्हें स्वयं तुम्हारी शक्ति का पता नहीं है।” इसके अतिरिक्त अध्यात्म भी उत्तराधिकार का विषय नहीं है, जैसा अन्य भौतिक विषयों में होता है।

एक बात और मैं जोड़ सकती हूँ कि हमारे सहज मार्ग में गुरु प्रथा का कोई स्थान नहीं है। श्री बाबूजी महाराज अपने लिए ‘गुरु’ का सम्बोधन कभी पसन्द नहीं करते थे, वे गुरुरहित विश्व-बन्धुत्व का विकास करना चाहते थे। गुरु प्रथा शिष्य एवं गुरु के मध्य दूरी उत्पन्न करता है जब कि गुरु किसी ध्येय की प्राप्ति के लिए केवल कौशल का अभ्यास करने को कहता है, और शिष्य इस अभ्यास को स्वतंत्रतापूर्वक करता है। शब्द सद्गुरु, जो ईश्वर साक्षात्कार के कौशल को जानता है और शक्ति भी रखता है, श्री बाबूजी के लिए उपयुक्त नहीं बैठता। वे इसके अर्थ के परे हैं। वे अनन्त शक्ति के मालिक हैं, और अभ्यासियों को अनन्त सत्य तक ले जाने के लिए धरती पर उतरे हैं।

उपसंहार में मैं यही कहना चाहूँगी कि भाइयों और बहनों, आपको मालिक पर अपनी दृष्टि गड़ाये रखनी चाहिए। आपके जीवन का लक्ष्य आपके सामने है और सहज मार्ग पद्धति आपको लक्ष्य तक पहँचने में सहायता दे रही है।

संदेश - संत कस्तुरी
ईश्वर-साक्षात्कार और भूमा-साक्षात्कार
विजयवाड़ा
23/11/1987
इसका अन्तर समझने के लिए पहले हमें ईश्वर और भूमा में अन्तर समझना चाहिए। सृष्टि की उत्पत्ति के लिए सर्वप्रथम क्षोभ हुआ अथवा शक्ति के सागर में उथल-पुथल हुई। सृष्टि की उत्पत्ति के लिए जितनी शक्ति की आवश्यकता थी, उतनी शक्ति केन्द्र से अलग हुई और इसे कहा गया ‘ईश्वर’ और वह स्रोत जिससे सृष्टि की शक्ति अलग हुई अनन्त शक्ति का केन्द्र, अर्थात् भूमा कहा गया। चूंकि ईश्वरीय शक्ति, सृष्टि की उत्पत्ति के लिए थी, उसमें कम्पन एवं क्रिया थी, अनन्त (भूमा) में कोई स्पन्दन नहीं था। दूसरे शब्दों में ईश्वरीय शक्ति क्रियाशील थी, किन्तु भूमा की शक्ति निष्क्रिय है। इस अन्तर के कारण ईश्वर–साक्षात्कार में ध्यान करते समय अभ्यासी को यह अनुभव होता है कि कोई शक्ति उसे ऊपर खींच रही है, किन्तु ईश्वर-साक्षात्कार के बाद कोई खिंचाव नहीं रहता, बल्कि तैरना होता है जैसा श्री बाबूजी महाराज ने कहा है वहाँ गति है। उस तैरने की अवस्था में कोई स्वयं प्रवेश नहीं पा सकता, क्योंकि उसका अपना कोई संकल्प नहीं होता, किन्तु श्री बाबूजी महाराज का एक संकल्प है और वे ईश्वर और भूमा की दूरी तक अभ्यासी को तैराते हुए ले जाते हैं। यही ईश्वर और भूमा में अन्तर है।

साक्षात्कार का अर्थ है सद्गुरु श्री बाबूजी महाराज के प्रति हमारी दैवी प्रेरणा। आप अपने को उनके सामने खोलते जाइये। जितना आप अपने को खोलेंगे, उन्हें आप के भीतर प्रवेश करने का उतना ही स्थान मिलेगा। जब आप अपने को उनके सामने खोलेंगे, तो वे भी अपने को आप के सामने खोलेंगे और तब आपको उनका दैविक सौन्दर्य मिलेगा तथा दैविक गुण आपके अन्तर में फैलेगा। इसे साक्षात्कार कहते है। इसके तीन स्तर है:-

पहला, वे हर मानव में मिलते हैं। फिर वे सर्वशक्तिमान लगते हैं, और तब वे सभी लोगों में व्याप्त लगते हैं। जब यह तीसरी अवस्था प्राप्त होती है और सब ईश्वरीय शक्ति में लय हो जाता है, तब यह ईश्वर–साक्षात्कार होता है। इस स्थिति में ‘मैं’, ‘तू’ में लय हो जाता है। ‘मैं’ जो वास्तव में ‘तू’ से अलग है, दोनों को एक में मिलाना ही हमारी साधना है। ‘मैं’ और ‘तू’ में अलगाव तभी होता है जब हम ‘मैं’ पना को जोड़ देते हैं। इसका अर्थ है जब मैं प्रभुत्व की दशा में रहता है, तभी वह ‘तू’ से अलग रहता है। श्री बाबूजी महाराज ने कहा है “पना को हटा दो और तब केवल ‘मैं’ बचा रह जाता है जो ‘तू’ का एक अखण्ड भाग है”। इस प्रकार हम ईश्वर–साक्षात्कार कर सकते हैं।

संदेश - संत कस्तुरी
क्रोध
विजयवाड़ा
23/11/1987
एक बार दो अभ्यासी आपस में बहस कर रहे थे और उनमें से एक क्रोधित हो गया, जब कि चिल्ला दोनों रहे थे। श्री बाबूजी महाराज चुपचाप बाहर आये। कुछ देर चुप रहने के बाद पूछा कि कौन और कब क्रोधित हुआ? तब दोनों ने समझ लिया कि श्री बाबूजी महाराज सब सुन रहे थे। उनमें से एक ने कहा कि दूसरे ने ऐसा कहा और वह क्रोधित हो गया। श्री बाबूजी महाराज ने कहा – “नहीं, यदि मेरे पास क्रोध नहीं है, तो दूसरों को कैसे दे सकता हूँ? जब वह क्रोधित हो गया, तो तुमने भी वही किया, इसलिए तुम्हें यह कहने का कोई हक नहीं कि उसके पास क्रोध है और तुम्हारे पास क्रोध नहीं है।” यदि सुनने वाला शान्त रहे, तो जो क्रोध में बोल रहा है, स्वतः शान्त हो जायेगा। आख़िर वह कब तक बोलता रहेगा, यदि उसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। वह भी अपनी गलती समझ लेता और दोहरा भार अनुभव करता, एक तो यह कि उसने मित्रवत् बात नहीं की और दूसरा यह कि उसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। अतः यह सब व्यावहारिक है।

श्री बाबूजी महाराज बहुत कम बोलते थे। वे चुपचाप बैठे रहते थे, किन्तु सभी ओर से चौकस रहते थे। श्री बाबूजी महाराज ने कहा है – “क्रोध आवश्यक है, क्योंकि यह उत्तेजना का प्रतिफल है। किसी व्यक्ति में क्रोध के न होने का अर्थ है उसमें उत्तेजना का अभाव और यह आध्यात्मिक उन्नति में बाधक हो सकता है, क्योंकि उस हालत में अभ्यासी अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उत्तेजित नहीं होगा, किन्तु इसका प्रयोग गलत ढंग से नहीं होना चाहिए।” क्रोध में उत्तेजना शक्ति लिए होती है, जो ठीक नहीं है, किन्तु बिना शक्ति के उत्तेजना आध्यात्मिक उन्नति में सहायक होती है।
संदेश - संत कस्तुरी
धाम क्या है?
विजयवाड़ा
23/11/1987
धाम क्या है? धाम का अर्थ होता है जहाँ ईश्वर या गुरु वास करता है। श्री बाबूजी महाराज के अनुसार ईश्वर या गुरु के रहने का सर्वोत्तम स्थान हमारा हृदय है और इसे धाम कहा जा सकता है, यदि वे हमेशा वहाँ रहता हो। जब तक उनके आने जाने का क्रम बना रहता है हम लोग केवल इसकी कोशिश करते हैं। आरम्भ में हम अपने अन्तर में उनकी उपस्थिति ध्यान में पाते हैं, उसके बाद नहीं। यह केवल हमारा अभ्यास है। धीरे-धीरे जब हम आगे बढ़ते हैं, यह दशा (अभ्यासी के हृदय में श्री बाबूजी की उपस्थिति) स्थिर हो जाती है और जब हम अनुभव करने लगते हैं कि वे हमारे हृदय में बैठ गये हैं, तो उनकी शक्ति स्वतः लगातार चौबीसों घंटे कार्य करती रहती है। आप भले ही सांसारिक कार्यों में व्यस्त रहें, किन्तु उनकी शक्ति कार्य करती रहती है। तब हमें कोई प्रयास नहीं करना पड़ता। इस दशा को पाने में श्री बाबूजी सहायता करते हैं। जैसाकि पद्धति में है कि जब हम सांसारिक कार्यों में व्यस्त रहते हैं या ध्यान के समय अपनी आँखें खोल देते हैं और बाहरी दुनिया को देखने लगते हैं, तब भी हम पाते है कि श्री बाबूजी महाराज हमारे सामने हैं और उनका अनुग्रह हमारे अंतर और बाहर में भर रहा है। जब भी हम ध्यान में बैठते हैं, हमें लगता है कि वे हमारे हृदय में बैठे हुए हैं और पूरा हृदय उनके अनुग्रह अथवा दैवी शक्ति में डूबा हुआ है। श्री बाबूजी महाराज ने कहा है – “बहुत से अभ्यासी आँखें कुछ देर के लिए बन्द कर ध्यान में बैठते हैं यह समझ कर कि यह उनकी दिनचर्या है और उसमें वे स्वाद का अनुभव करना चाहते हैं, किन्तु आध्यात्मिक रूप में यह केवल स्वाद के लिए नहीं है”। उन्होंने कहा है कि दस या बीस मिनट के बाद जब आप ध्यान से उठते हैं, कृपया ध्यान के भाव में ही रहें और अपना सांसारिक कार्य करते रहें। उन्होंने कहा है – “यदि मैं किसी को बुलाता हूँ और उसे देखता नहीं या उसे ध्यान में नहीं बैठाता, तब वह शिकायत करता है कि मैंने उसे बुलाया और स्वागत नहीं किया, किन्तु, लोग मेरे बारे में नहीं सोचते। वे ध्यान में मुझे बुलाते हैं और मुझे दिन भर के लिए अकेला छोड़ देते हैं, मेरे साथ रहने की कोशिश नहीं करते”। इसीलिए हमारा अभ्यास केवल यह होना चाहिए कि जब हमने उन्हें बुलाया है, तब उनके साथ हमेशा रहना चाहिए, उन्हें कभी अकेला नहीं छोड़ना चाहिए। जब भी कभी अलगाव महसूस हो एक निश्चय होना चाहिए कि “मैं आप के साथ हूँ, आप मेरे हृदय के स्वामी हैं। मैं आप के कदमों में हूँ”। इस प्रकार ध्यान का भाव कभी हटना नहीं चाहिए। यदि इरादा दृढ़ हो तो कोई भी कार्य किसी समय भी किया जा सकता है। आप ध्यान मत करो, बल्कि ध्यान के भाव में रहो। हमारी कोशिश यही होनी चाहिए कि जिसे हमने आमंत्रित किया है और जो हमारे भीतर है, जब तक हो सके, हम उसके साथ रहें। आप अपना कार्य करते रहें, किन्तु यह ध्यान रहे कि ‘वे’ आप की नज़रों के सामने हैं और आप को देख रहे हैं। वास्तव में, केवल यही हमारा अभ्यास है और एक दिन आप अपनी कोशिश में अवश्य सफल होंगे।

श्री बाबूजी महाराज ने कहा है “आप (अभ्यासी) एक उच्च स्तर पर होंगे और क्रिया के बंधन से मुक्त रहेंगे”। वास्तव में यह स्थिति तब आयेगी, जब आपका अपना घर एक आश्रम बन जायेगा। अभ्यासियों को आश्रम की ललक होती है, क्योंकि तब तक उनका हृदय अथवा घर आश्रम नहीं होता। जिस दिन ऐसा हो जायेगा, आपको आश्रम या किसी स्थान में अन्तर नहीं लगेगा। एक बार मैंने श्री बाबूजी महाराज को लिखा था – “पहले मुझे शाहजहाँपुर आने की बड़ी उत्सुकता रहती थी, किन्तु अब ऐसा लगता है कि यह स्थान शाहजहाँपुर से अलग नहीं है”। श्री बाबूजी का उत्तर था, “तुम रेल भाड़े में कंजूसी मत करो, यहाँ आती रहो”। इस प्रकार अभ्यासियों के घर और हृदय एक धाम में रूपान्तरित हो सकते हैं और श्री बाबूजी का सपना वास्तविकता में बदल सकता है।

संदेश - संत कस्तुरी
ध्यान में नियमित रहें
विजयवाड़ा
23/11/1987
ध्यान में नियमित रहें। सहज-मार्ग पद्धति का आधार है ध्यान में नियमित रूप से बैठना। चूंकि हमने सिटिंग ली है और ध्यान करना आरम्भ कर दिया है, हमारा सबसे पहला कर्तव्य है कि हम ध्यान में नियमित रूप से बैठे। हम अपने घरेलू और सांसारिक कार्यों में भले ही व्यस्त रहें, किन्तु 10-20 मिनट तक हम ध्यान में बैठ सकते हैं। नियमित रूप से ध्यान करने से हम बार-बार उन्हें याद करते हैं, अन्यथा हम उन्हें भूल सकते हैं और अभ्यास भी छोड़ सकते हैं। इसलिए, यह आवश्यक है कि जब तक हमारा हृदय ध्यान के भाव में पूरी तरह डूब नहीं जाता, हमें नियमित रूप से ध्यान में बैठने का प्रयत्न करना चाहिए। यह इसलिए भी ज़रूरी है कि ऐसे अभ्यासी, जो नियमित नहीं हैं, हमेशा इस संकेत की प्रतीक्षा करते रहते हैं कि कब प्रिसेप्टर कहे बस इसलिए मेरी सलाह है कि जो लोग नियमित नहीं हैं वे नियमित होने का प्रयास करें।

एक बार एक अभ्यासी ने श्री बाबूजी महाराज से पूछा कि जब विवाह आदि कार्यों में व्यस्त रहते हैं, तब नियमित रूप से ध्यान में कैसे बैठ सकते हैं? श्री बाबूजी महाराज ने कहा, “तब तुम बहुत थक जाते होगे और यह अवश्य चाहते होंगे कि १० मिनट के लिए तुम आराम कर लो। यदि तुम आराम करने के बजाय ध्यान में बैठ जाओ, तो तुम्हे आराम मिल जायेगा और थकावट भी दूर हो जाएगी। आराम करने की इच्छा भी चली जायेगी। काम में खोई हुई तुम्हारी ताकत पुनः वापिस आ जायेगी। यह तुम्हारी सोच को, शक्ति के श्रोत की ओर मोड़ देगी।”

संदेश - संत कस्तुरी
केवल अपना लक्ष्य
विजयवाड़ा
23/11/1987
अभ्यासियों को केवल अपने लक्ष्य से ही सम्बन्ध रखना चाहिए। उन्हें अपना समय सांसारिक गप-शप में नहीं गँवाना चाहिए, खासकर जब वह ईर्ष्या, घृणा एवं उत्तेजक बातों से प्रेरित हो। ऐसे समय में सहनशीलता के साथ शान्ति से अपने लक्ष्य की प्राप्ति में संलग्न रहना चाहिए। यही आप लोगों का मुख्य कर्तव्य होना चाहिए।

आप लोग शाहजहाँपुर जा रहे हैं। वहाँ आप को सचेत रहना है, क्योंकि हो सकता है, वहाँ कोई श्री चारी जी या मेरे विरुद्ध कुछ बोले। इसके लिए आप को क्रोधित होना या बहस करना नहीं चाहिए, क्योंकि वे लोग आज मार्ग से भटके हुए हैं, किन्तु कल वे अपनी भूल सुधार लेंगे। बहुत से लोग ऐसे हैं, जो अभ्यासी नहीं हैं। वे यह भी नहीं जानते कि श्री बाबूजी महाराज कौन हैं ?

एक बार जब श्री बाबूजी महाराज बैठे थे, कुछ लोग आये और कहा कि केवल कुछ लोग ही सहज मार्ग में विश्वास रखते हैं और यह केवल दिखावा है। बहुत से ऐसे महात्मा हैं, जो लोगों को लूट रहे हैं। इस टिप्पणी पर श्री बाबूजी शान्त रहे और मुस्कुराते हुए बोले “हाँ-हाँ, ऐसा है।” लेकिन कुछ अभ्यासियों को क्रोध आ गया। जब वे लोग (जो अभ्यासी नहीं थे) चले गये, श्री बाबूजी महाराज ने उन अभ्यासियों से कहा कि वे परीक्षा में फेल हो गये। उन लोगों (जो अभ्यासी नहीं थे) ने मुझे तुम्हारी नज़रों से नहीं देखा, इसलिए उनकी क्या गलती है ? यदि वे तुम्हारी नज़रों से देखते तब वे मुझे देख सकते थे, उसी प्रकार जैसे तुम देखते हो। तुम लोगों ने अपना समय बर्बाद किया, तुम फेल हो गये हो।

इसी प्रकार आश्रम में भी कोई ऐसा हो सकता है जो आशा के विपरीत व्यवहार करे और आप को उनका सामना करना पड़े। किन्तु, आप क्रोधित न हों, उनसे बहस न करें। आप ध्यान लगायें और इसी के बारे में चर्चा करें, जिसके लिए आप वहाँ जा रहे हैं।

मैं आपको सलाह देती हूँ कि आप केवल अपने लक्ष्य से मतलब रखें, क्योंकि कुछ अभ्यासी वहाँ गये थे और उनके अशिष्ट व्यवहार की शिकायत की थी, इसलिए आप वहाँ बन्द आँखें एवं खुले हृदय के साथ जायें, तब आप को आध्यात्मिक लाभ मिलेगा।
संदेश - संत कस्तुरी
वेद, उपनिषद और ध्यान
विजयवाड़ा
23/11/1987
वेद और शास्त्र जैसे अनेक धार्मिक ग्रन्थ हैं। इसके बारे में श्री बाबूजी महाराज ने कहा है – “जहाँ वेद समाप्त होता है, वहाँ से धर्म आरम्भ होता है। जहाँ धर्म समाप्त होता है, वहाँ से अध्यात्म प्रारम्भ होता है।” ‘नेति-नेति’ अर्थात् जो कुछ भी लिखा गया है सब कुछ नहीं है। इसके आगे बढ़ो। इससे भी अधिक बहुत कुछ है। इसका अर्थ है कि ये धार्मिक ग्रन्थ केवल एक नींव रखते हैं, एक अच्छे समाज के निर्माण के लिए, एक ठोस आधार, जहाँ अच्छे और उदार लोग रह सकें और आगे अनन्त ईश्वरीय क्षेत्र में प्रवेश करने की आकांक्षा कर सकें। यही वह स्थान है, जहाँ ध्यान का महत्त्वपूर्ण कार्य प्रारम्भ होता है।

इन ग्रन्थों में ध्यान का उल्लेख मिलता है और उसी आधार पर यह कहा जा सकता है कि किसी ऋषि का विचार था कि प्राणाहुति संभव है, परन्तु किसी ने इसकी प्राप्ति नहीं की।

दहर विद्या (इच्छा शक्ति से किसी पदार्थ को नष्ट करने की शक्ति) का उल्लेख छन्दोपनिषद् में मिलता है। यह शक्ति संस्कारों को नष्ट करने के प्रयोग में आती है। लोगों का यह मानना था कि दहर विद्या से जीवित एवं कार्यरत व्यक्तियों के संस्कारों को नष्ट कर, उन्हें ईश्वर की ओर ले जाया जा सके, किन्तु प्रत्यक्ष रूप में कोई इसे करके दिखा न सका। यदि ऐसा संकेत था, तो इसका विस्तार किया जा सकता था और देखा जा सकता था कि आध्यात्मिक क्षेत्र में कोई इस दशा तक उन्नति कर सकता है, किन्तु, कोई इसे अकेला कैसे कर सकता था ? बिना सद्गुरु की कृपा के कोई कुछ नहीं कर सकता।

संदेश - संत कस्तुरी
वॉलन्टियर्स
विजयवाड़ा
23/11/1987
किसी आध्यात्मिक आयोजन में कई अभ्यासी वॉलन्टियर्स का कार्य करते हैं। उन्हें तीन खण्डों में विभाजित किया जा सकता है।
  1. वे जो केवल अपनी प्रशंसा के लिए कार्य करते हैं। वे सदा ऐसे अवसर की ताक में रहते हैं कि श्री बाबूजी महाराज उन्हें कार्य करते देखें और उनकी तारीफ करें।
  2. वे, जो अपना कर्म समझकर कार्य करते हैं और अपने कार्य में बिना लेन-देन के व्यस्त रहते हैं।
  3. वे, जो श्री बाबूजी महाराज की याद में कार्य करते हैं और कार्य करते समय उसी विचार में डूबे रहते हैं।
जहाँ तक उनके कार्य के पारितोषिक का प्रश्न है, प्रथम श्रेणी के अभ्यासी, श्री बाबूजी महाराज से केवल प्रशंसा पाते हैं, जो बिना किसी आध्यात्मिक प्रगति के उनके अहम् को संतुष्ट करता है। जो दूसरी श्रेणी में आते हैं केवल लोगों द्वारा प्रशंसा पाते हैं कि वे परिश्रमी कार्यकर्ता हैं। लेकिन जो तीसरी श्रेणी में हैं, श्री बाबूजी महाराज के अनुसार वास्तव में उत्तम श्रेणी के कार्यकर्ता होते हैं। वे श्री बाबूजी महाराज के सतत् स्मरण और ‘उनकी’ नज़रों में रहते हैं। उन्हें पूरा आध्यात्मिक लाभ मिलता है। इसलिए प्रत्येक उत्सव में कार्यरत सभी वॉलन्टियर्स से मैं कहती हूँ कि वे देखें कि इन तीनों में से किस श्रेणी में वे आते हैं। उन्हें इस सन्दर्भ में सदा सजग रहना चाहिए। कोई भी उन्हें (बाबूजी को) धोखा नहीं दे सकता, जो अति सूक्ष्म, पावन, सहज एवं सर्वव्यापी हैं। जब भी हम उनके सामने बैठते या कार्य करते हैं, हमें उनकी याद में रहना चाहिए। यह हमारी आध्यात्मिक उन्नति में सहायक होता है, क्योंकि वे हमारी त्रुटियों को दूर कर देते हैं।

श्री बाबूजी महाराज प्रत्येक को परिपूर्ण मानव में रूपान्तरण करने के लिए ही इस धरती पर अवतरित हुए हैं, इसीलिए उनकी प्रेम भरी दृष्टि लगातार हम लोगों पर लगी रहती है और हमारे अन्तर को दिव्यता से सजाती रहती है। वे केवल हमारे भौतिक शरीर को ही नहीं देखते, बल्कि समय-समय पर, जितनी आवश्यकता होती है, उतना ही प्रेम एव आध्यात्मिक सहायता की वर्षा हम लोगों पर करते रहते हैं इसलिए, हम लोगों को सदा सजग रहना चाहिए।

संदेश - संत कस्तुरी
मानव-जीवन में इच्छा
विजयवाड़ा
23/11/1987
श्री बाबूजी महाराज ने एक बार कहा था कि उपनिषद् में यह उल्लेख है- “ऐ! धरती पर भ्रमण करने वाले मानव, यदि तुम्हारी कोई इच्छा है, तो अनन्त को पाने की इच्छा करो”। इसका अर्थ है कि किसी ने देखा था कि ईश्वर–साक्षात्कार के बाद भी कुछ है, तभी यह संकेत दिया गया था कि यदि तुम्हारी इच्छा है, तो बड़ी उपलब्धि की इच्छा करो।

वास्तव में केवल इच्छा से हम ईश्वर–साक्षात्कार नहीं कर सकते। श्री बाबूजी महाराज ने कहा है- “केवल तुम्हारी इच्छा से सद्गुरु भी नहीं मिल सकता”। ऐसा इसलिए कि तुम उसी की इच्छा कर सकते हो, जो तुम्हारे विचारों में है, जिसे तुमने देखा है, खाया है, या चखा है। तुम उसकी इच्छा या आकांक्षा नहीं कर सकते, जिसके कार्य और प्रेम की जानकारी तुमको नहीं है। ईश्वर या गुरु आकांक्षा के परे है क्योंकि जिस स्थिति में वह रहता है, उस स्थिति में पहुँचे बिना कोई उसे जान नहीं सकता। इसलिए सद्गुरु को भी केवल इच्छा से पाया या जाना नहीं जा सकता। दूसरे, ‘वह’ अपनी इच्छा से स्वयं झुकता है, जब मानवमात्र में ऊपर उठने के लिए, उसके प्रति तीव्र प्रेम जागता है और जिसके लिए वह धरती पर अवतरित हुआ है।

श्री बाबूजी महाराज ने मिशन की प्रार्थना में भी ईश्वर–साक्षात्कार की इच्छा के बारे में नहीं लिखा है। बल्कि इसके लिए उन्होंने केवल इतना लिखा है कि “बिना तेरी सहायता, तेरी प्राप्ति असम्भव है।”

सहज-मार्ग एवं मिशन की प्रार्थना की मुख्य बातें क्या हैं? श्री बाबूजी महाराज ने लिखा है कि सहज-मार्ग एवं मिशन की प्रार्थना ऊपर से उतरी है, और यह किसी दिमाग की उपज नहीं है। यह वैसा ही लिखा गया है जैसा ऊपर से उतरा है। विजयवाड़ा आते समय मुझे एक विचार आया कि ‘नाथ’ शब्द ईश्वर के लिए नहीं लिखा गया है। पहले मेरा विचार था कि श्री बाबूजी महाराज ने यह शब्द श्री लालाजी साहब के लिये लिखा था, किन्तु, जब उन्होंने कहा कि यह ऊपर से उतरा है, इसीलिए यह स्पष्ट है कि यह श्री लालाजी साहब के लिए नहीं लिखा गया है अन्यथा श्री लालाजी साहब इसका संकेत देते।

एकाएक विचार आया कि हम लोग, जो धरती पर रह रहे हैं, श्री बाबूजी महाराज को भली प्रकार न समझ सके और न रख सके, जो इतनी ऊँची शक्ति से अवतरित हुए हैं। प्रार्थना में धरती पर रहने वाले लोगों के लिए, अनन्त की ओर से यह संकेत है कि ऐ मालिक! (श्री बाबूजी महाराज) तु ही मनुष्य जीवन का ध्येय है। वर्तमान में न ‘राम’ हैं, न ‘कृष्ण’ हैं, न ‘ईश्वर’ है बल्कि तुम ही उसके रूप में अवतरित हुए हो और तुम ही जीवन का ध्येय हो। “हमारी इच्छायें हमारी उन्नति में बाधक हैं, तू ही हमारा एकमात्र स्वामी और इष्ट है, बिना तेरी सहायता, तेरी प्राप्ति असम्भव है।” इसका अर्थ है ‘तुम’ ही हमारे एकमात्र स्वामी हो, जो हमारी इच्छाओं से हमें मुक्त कर अपने बंधन में ले जा सकते हो।

आराध्य का अर्थ होता है, जिससे हम सर्वाधिक प्रेम करते हैं। ‘तुम्हारे’ (श्री बाबूजी) पास मानव मात्र के लिए अथाह प्रेम है और केवल उन्हीं के लिए तुम धरती पर अवतरित हुए हो। प्रार्थना में यह भी संकेत है कि ‘तुम’ ही हमें लक्ष्य तक पहुँचा सकते हो। इसका अर्थ है, बिना तुम्हारी प्राणाहुति के लोग तुम्हारा साक्षात्कार नहीं कर सकते।

इसलिए मैं आप लोगों को ज़ोर देकर कहती हूँ कि यदि श्री बाबूजी महाराज, हम लोगों को प्राणाहुति का आशीर्वाद नहीं देते और हमारे प्रति इतना विनीत नहीं होते, तो उन्हें कोई नहीं जान सकता था और न ‘उनके’ सम्पर्क में आ सकता था, क्योंकि वे इतने सहज हैं कि कोई यह भी नहीं कह सकता कि ‘वे’ ऐसे विशिष्ट व्यक्ति हैं। हम प्रायः कहते हैं, “उनकी सादगी ही उनकी दिव्यता का पर्दा है”। उन्होंने सदा इस बात पर जोर दिया है कि प्रेम को बढ़ाया जाये। आखिर ‘वे’ एक संकल्प लेकर अवतरित हुए हैं कि वे मानव मात्र को अनन्त तक ले जायेंगे। बिना विश्वप्रेम और विश्व बन्धुत्व के उनका संकल्प वास्तविकता में रूपान्तरण के लिए पूरा नहीं होगा।

अब मैं आप लोगों से सहज-मार्ग की सादगी और स्वाभाविकता के बारे में कहना चाहूँगी। यदि आप दिन भर ध्यान के भाव में रहते हैं, तो आप को यह प्रतिफल अवश्य मिलेगा कि आप आन्तरिक हल्कापन और प्रसन्नता अनुभव करें, किन्तु आप नहीं कह सकते कि आप ने स्वयं कुछ किया है अथवा उसके लिए कोशिश की है। सहज-मार्ग इतना प्राकृतिक है, कि आप सबको को किसी क्रिया का भार महसूस नहीं होता है। यदि आप रामायण या गीता का पाठ करते हैं या कोई और धार्मिक अनुष्ठान करते हैं, तो आपको कुछ करने का दबाव महसूस होता है, किन्तु ध्यान करने में ऐसा नहीं होता। इसमें हम केवल अपने लक्ष्य से सम्बद्ध रहते हैं। इसकी प्रकृति एक अद्भुत सौन्दर्य है। यह प्राकृतिक है और इसीलिए शक्तिशाली और शक्ति प्रदान करने वाली है।

संदेश - संत कस्तुरी
सहजमार्ग का अनूठापन
10/2/1989
अनोखी है सहज-मार्ग पद्धति और अद्भुत है इसकी कार्य प्रणाली। सद्गुरु श्री बाबू जी अपनी इच्छा-शक्ति द्वारा ईश्वरीय-शक्ति का प्रवाह अभ्यासी के हृदयों में देकर, उन्हें शुद्ध करते हुये ध्यान से ईश्वर को पाने की क्षमता-युक्त बना देते हैं। अपूर्व है उस दिव्य धारा की कार्य-क्षमता। ‘बाबूजी’ के कथनानुसार इसका नाम “सहज-मार्ग” रखा नहीं गया है वरन् ऊपर से उतरा है। तो जो नाम रखा नहीं गया, वह तो हमेशा से था, हमेशा है और सदैव रहेगा। इतना ही नहीं इसकी दिव्य-स्वाभाविकता का तो पता तब लगा जब ‘श्री बाबू जी’ ने लिखा “मैंने कोई मार्ग नहीं चलाया है बल्कि ईश्वर को पाने का रास्ता यही है।“ अनुभव ने इसे सिद्ध भी कर दिया है। श्री रामचन्द्र मिशन के एम्बलेम की मध्य-धारा को ही ‘सहज-मार्ग’ इंगित किया गया है तो आदि ध्यान द्वारा आदि-शक्ति (Ultimate) से जो सहज धारा प्रवाहित हुइ वही सहज-मार्ग है। अब जब हमें ‘वतन’ अर्थात् अन्तिम सत्य को वापस लौटना है तो पूर्ण-शक्ति (भूमा) के ध्यान की उस सहज-मार्ग धारा में ही पुनः प्रवेश पाना होता है। ईश्वर का साक्षात्कार मानव जीवन का एकमात्र लक्ष्य है। भले ही कालांतर के प्रभाव से हम इसे भूले हुए हैं। इसे प्राप्त करने का आदि एवं सहज साधन यही हो सकता है कि जिसे पाना है उसे ध्यान में बसा लो जब हमें ‘उसे’ पाना ही है तो क्रमशः यह साधन (ध्यान) साधना का रूप सहज ही ले लेता है। अर्थात फिर जी में ऐसी लौ लग जाती है कि साध्य को पाने के अतिरिक्त और कोई साध (इच्छा) नहीं रह जाती है। अभ्यास ‘अ+भ्यास’ में बदल जाता है अर्थात् सहज-मार्ग साधना । ध्यान रखने का अभ्यास कि “ईश्वर हृदय में मौजूद है का आभास भी हमें अंतर में मिलने लगता है। चलते, फिरते, काम करते ऐसा आभास होने लगता है कि हमारे अंतर में साथ मिलने लगता है। हृदय जब से ईश्वरीय-अनुभूति को पाने लगता है तो रहनी बहिर्मुख से स्वतः ही ‘मालिक’ के समक्ष खोल कर फैला देता है कि हम जो हैं, जैसे हैं तम्हारे हैं। मानो आत्म-निवेदन स्वतः ही प्रारम्भ हो जाता है। फिर निवदेन के मध्य आवरण कैसे ठहर सकता है ? अतः आत्म-निवेदन स्वीकार हो जाता है और कृपा-स्वरूप ईश्वरीय - नजदीकी की सेंक अंतर में पिघलन शुरू कर देता है क्रमशः यह पिघलन इसकी (आंतरिक) गहराई को भी छूने लगती है और अंतर में पड़ी ठोसता को पिघलाते हुए हमारे होने के एहसास अर्थात् अहं को भी तेजी से पिघलाना प्रारंभ कर देती है। यह सहज-मार्ग पद्धति की विशेषता भी है और सहजता भी है जो क्रिया से परे ईश्वरीय - अनुभूति ( Reality ) पर आधारित है। कैसा आश्चर्य हो जाता है तब, जब विचारों की गहराई में डूबा स्मरण हृदय में उतरकर कुल में फैल जाता है। तब स्थिति-प्रज्ञ की अवस्था में भी स्थित (लय) हुआ हृदय साक्षात्कार पाने को तड़प उठता है। यही तड़प हृदय का मंथन करती हुई हमारे कुल सिस्टम को पावन बना कर ‘मालिक’ या सद्गुरु की दिव्य छवि को हमारे कण-कण में उतार लाती है और हम विभोर हुए खो जाते हैं कभी न लौटने के लिए। कौन कह सकेगा ‘सहज-मार्ग’ पद्धति की विशेषता और उसके सिरमौर अधिष्ठाता श्री बाबू जी की अद्भुत प्राणाहुति-शक्ति की कार्य-क्षमता के विषय में। यह स्वाभाविक राह है अन्तिम-सत्य तक पहुँचाने की और इसकी गूढ़ एवं गहन विशेषता का पता, जब हम श्री बाबू जी की प्यार भरी निहारन एवं दृष्टि में विलीन हो जाते हैं, तब ही लगता है। अनुभूति भी यही बोलती है कि हमारा सहज-मार्ग कोई पद्धति या तरीका नहीं है बल्कि अंतिम सत्य का आँचल मानो हमारे समक्ष बिखर गया है जिसे श्री बाबू जी धरती पर उतार लाये हैं।

दिव्य आदि-शक्ति युक्त दिव्य-विभूति के रूप में हमने श्री रामचन्द्र मिशन के अधिष्ठाता श्री रामचन्द्र जी महाराज, शाहजहाँपर यू०पी० को पाया। सहज-मार्ग पद्धति के प्राण-स्वरूप यह दिव्य-विभूति जिसे हम प्यार से "श्रीबाबूजी” कहते है। मानो भूमा की गोदी के लाल के समान, पृथ्वी के प्रांगण में खेलते प्राणियों के हृदयों को आध्यात्मिक-गतियों रूपी हीरे-मोती से पुन: सजाने के लिए आ गया है। मानव-मात्र के प्रति विनम्र ( Submissive ) होते हुए श्री बाबू जी महाराज मानो भूमा का दिव्य जागरण संदेश लेकर आये हैं जो दिव्य-संदेश लाता है वही हमें वहाँ तक पहुँचाने की सामर्थ - शक्ति एवं क्षमता भी रखता है। हृदय में ईश्वरीय-प्रकाश मौजद मान कर उसमें डूबे रहने का प्रयास और जिसका प्रकाश है उस ईश्वर का साक्षात्कार पाना है। इस लक्ष्य को लिए हुए जब मैंने ध्यान का प्रारंभ किया तो कुछ दिन बाद ही पाया कि ध्यान में सद्गुरु श्री बाबू जी महाराज ही आने लगे हैं। ध्यान में ‘उनके’ आते ही मानो पावन प्राणाहुति-शक्ति में मन डूबा-डूबा रहने लगा। तबसे फिर बाह्य दृष्टि में भी समक्ष में ‘वे’ ही रहने लगे और हृदय में भी ध्यान करते समय ‘वे’ ही प्रत्यक्ष हो उठे। क्रमशः बाह्य-दृष्टि जब - जब उन्हें स्वयं में भर चुकी तो मानों पलकों में समेट कर ‘उन्हें’ अंतर में उतार लाई, परन्तु उसी समय से लगा कि ‘वे’ अंतर में प्रत्यक्ष हो उठे हैं और तबसे ही बाह्य-दृष्टि मानों खोई - खोई रहने लगी। कभी तो ऐसा प्रतीत हुआ कि बाह्य-दृष्टि में मानो ‘मैं’ नहीं रह गई हूँ। वह दृष्टि क्या देखती है इस बात का पता मुझे नहीं। तब मुझे याद आया सूफी संतो का कथन कि “अपने तसव्वुर से पीछा छुड़ाना चाहते हो तो ‘पीर’ के तसव्वुर में डूब जाओ।“ कितना नाजुक है ‘उनका’ तसव्वुर या ध्यान जो हमारे में इस दशा को उतार लाता है कि, “या में द्वै न समाय।“ पुनः यह दशा भी ‘उनमें’ लय हो जाती है। परन्तु लय-अवस्था हम सदगुरु श्री बाबू जी महाराज के ध्यान से ‘उनके’ दिव्य विराट-रूप में ही मिलती जाती है। क्योंकि लय हम दिव्यता में ही हो सकते हैं। उनमें पाई लय-अवस्था भी ईश्वर-साक्षात्कार देने के पश्चात् ‘उनमें’ ही समा जाती है। उनका दिव्य संकल्प ‘भूमा’ तक पहुँचा देने के लिए निगेशन और फिर निगेशन का भी निगेशन दे कर भूमा के देश (सेंटर रीजन) में ले जाता है। श्री बाबू जी के ध्यान में एक अद्भुत दशा मैंने पाई कि मंज़िल तक पहुँचने तक बराबर ही ऐसा लगता रहा कि ‘उनका’ दिव्य-तेज ही हमें ‘उनमें’ लय या फना हो जाने को मजबूर कर रहा है।

‘उनके’ ध्यान का कार्य यही होता है कि मस्तिष्क ( Mind ) का मंथन करके इसे दिव्य-माइंड ( Divine Mind ) के रूप में निखार लाता है और महा मस्तिष्क ( Big Mind ) से योग दे देता है। तबसे ही विचार के दबाव से भी परे रह कर, अभ्यासी संसार के कार्यों का सहज ही अभ्यास करता रहता है तभी अभ्यासी यह लिखता है कि “ऐसी दशा है कि मानों गुण, गुण में ही बर्त हैं” और अभ्यासी जीवन-मुक्त दशा में स्वच्छन्द विचरते रहते हैं।

सहज-मार्ग के अभ्यासी को यह लगता है कि ‘उनकी’ अर्थात् श्री बाबू जी की प्यार भरी दृष्टि उसे निहार रही है, ‘उनकी’ प्यार भरी थपकियाँ उसे अनजाने में ही थपथपा कर उसके अंतर में अपने दिव्य तेज का प्रसारण कर उसे आध्यात्मिक-पथ में तेजोमय बना रही है। मानो कह रही है कि “कहीं मत मुडो, कहीं मत रुको, लक्ष्य की ओर टकटकी लगाये रहो।“ साथ में ईश्वरीय अनुभूति के प्रसाद से अंतःकरण भरा-भरा रहने लगता है। अनोखे हैं हमारे दिव्य श्री बाबू जी महाराज। अनोखी है ‘उनकी’ कृपा-दृष्टि और अलौकिक है मानव-मात्र के लिए ‘उनका’ प्यार। ‘उनकी’ यह सहज-मार्ग पद्धति अपने अनोखेपन की मिसाल है।

संदेश - संत कस्तुरी
सन्देश
29/3/1989
एक बार एक अभ्यासी ने अपने स्थान पर रहने वालों के लिए एक सन्देश के लिए कहा। मैंने कहा – “सहज-मार्ग स्वयं में एक संदेश है।“ दिव्य लोक में जगाने के लिए सारी मानवता के लिए यह संदेश है। यह नित्य है। अपनी बहन का, अपने भाइयों और बहनों के लिए वास्तविक एवं मूल्यवान् संदेश यही हो सकता है कि वर्तमान युग स्वयं ही ‘श्री बाबूजी महाराज’ की भक्ति में, उनके चरणों में समर्पित है। इसी प्रकार हम सब भी ‘उनके’ पावन चरणों में समर्पित हो जायें। ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने कहा है कि आत्म - निवेदन ही समर्पण का मूल है। समय के पास आत्मा नहीं होती, इसीलिए उसे समर्पण की आवश्यकता नहीं है। किन्तु, हम मानव लोगों की आत्मा होती है, इसीलिए, साक्षात्कार का लक्ष्य हमारे जीवन के लिए बहुमूल्य है। चूंकि हमारी आत्मा है, हमें समर्पण के लिए निवेदन को प्रस्तावित करना है। इसलिए हम अभ्यासियों को निवेदन के भाव में सच्चे रूप में रहने का अभ्यास करना चाहिए, इस सीमा तक कि जब भी हम ‘उन्हें’ याद करें, हम उनसे अलग होने का भाव भूल जायें और यह याद रखें कि ‘वे’ हमारे हैं। इस लगाव के भाव में इतना तल्लीन रहना चाहिए, कि जैसे हम उनके सामने बैठे हैं। कार्य करते या चलते-फिरते समय जब भी हम ‘उन्हें’ याद करें, हमें ऐसा लगे कि हम उनके सामने खड़े हैं, अपने हृदय को इस दशा में डुबोये हुए, जो दिव्य दशा ‘उनकी याद की दशा’ को प्रेरित करता है, किन्तु हम केवल दिमाग से ‘उनका’ रूप या ‘उनकी’ भौतिक उपस्थिति अपने विचार में लाते हैं और शिकायत करते हैं कि हमारा ध्यान, हमारे विचारों के बार-बार उठने से बाधित होता है।

ईश्वरीय-सन्देश अपने साथ सहज-मार्ग लाया है और विशिष्ट विभूति का धरती पर अवतरण हुआ है। अब हमें केवल यह याद रखना है कि हम ‘उनकी’ सन्तान हैं। ‘उनका’ दिव्य हाथ सदा हमारे सिर पर रहता है। वास्तविक उपलब्धि उस दिन होगी, जब हम प्रफुल्लित हो कर कहेंगे कि दिव्य स्पर्श का अनुभव हमें हुआ है। यह, वह शुभ दिन होगा जब हम यह शिकायत करना बन्द कर देंगे कि हमारा ध्यान विचारों के बहाव के कारण बाधित होता है। ऐसे अनुभव के अशीर्वाद से हर अभ्यासी जो सच्चे रूप में लगन के साथ ‘सहज-मार्ग’ में आया है लक्ष्य प्राप्ति में तेज़ी से उन्नति करता है। श्री बाबूजी महाराज हमारे दुख और पाप पिघलाकर, अपनी गोद में ले लेते हैं।

संदेश - संत कस्तुरी
उनकी याद में
तिरुपति
29/3/1989
अपनी पिछली मुलाकात के बाद मैंने लिखित रूप में एक सन्देश दिया था कि अपनी साधना में, जीवन का लक्ष्य प्राप्त करने में सतत् स्मरण कितना लाभदायक है। इसी विषय के संदर्भ में मैं आपको अपना अनुभव बताना चाहूंगी कि अध्यात्म के मार्ग में, विभिन्न दशाओं के अनुभव में सतत् स्मरण एक आधार का कार्य करता है।

जब अभ्यासी ध्यान की सीमा पार कर लेता है, तब कहा जा सकता है कि सतत् स्मरण का स्तर पूरा हो गया। यह दर्शाता है कि हमारा दैनिक ध्यान, प्रार्थना, सफाई इत्यादि सब मिलकर हमारी याद को सतत् बना देते हैं। यही कारण है कि जब मैं इस दशा में थी, तब श्री बाबूजी महाराज ने मुझे लिखा था – “अब तुम्हें ध्यान में बैठने की आवश्यकता नहीं है।” तब मैंने भी अनुभव किया कि ध्यान, प्रार्थना और सफ़ाई भी कोई प्रभाव हम पर नहीं छोड़ रहे हैं और यह सत्य भी है कि ये दैनिक अभ्यास ही धीरे-धीरे हमारी याद को सतत् बना देता है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि हम ध्यान करने से अलग हो जायें अथवा उसके बाद ध्यान हमारे लिए उपयोगी नहीं है। इसका अर्थ है कि अब तक के अभ्यास के द्वारा हमने जो कुछ पाया, वह हमें दिव्यता में डुबाये रखता है। दूसरे शब्दों में मैं कह सकती हैं कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ की कृपा से अभ्यासी स्वतः सूक्ष्मावस्था में रहने लगता है। उस समय से उन्नति की गति इतनी, तीव्र हो जाती है कि दशा में परिवर्तन या ताजगी, यदि हमें न जगाये तो हमें यह ज्ञान नहीं होता कि किस दशा में, कब और कहाँ हम जागें।

सच कहा जाये, तो हमारी आध्यात्मिक दशा इसी स्थान से प्रारम्भ होती है। दूसरे शब्दों में, यह वह स्थिति है जब कोई अपनी आध्यात्मिक दशा का अनुभव, जिस दशा से वह गुजर रहा है, लिखने की क्षमता प्राप्त करता है। तब मैंने अनुभव किया कि अपनी आध्यात्मिक दशा के बारे में जो कुछ मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को लिखा, वह हमारे मन और हृदय की स्वच्छता की व्याख्या थी। यही वह स्थिति है, जब ‘मालिक’ के अवतरण का प्यार अथवा आध्यात्मिक धारा का प्रवाह होने लगता है। तब हम धर्म और लगाव के क्षेत्र को पार कर लेते हैं। श्री बाबूजी महाराज ने कहा है – “जहाँ धर्म समाप्त होता है, अध्यात्म प्रारम्भ होता है।”

शायद इसीलिए हम पाते हैं कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ का प्रेम शान्त, असीम और गहरा है, क्योंकि वह दिव्य है। इसके बाद हम अन्तर में पिघलने और डूबने का अनुभव प्राप्त करने लगते हैं। यह अनुभव हमें तब भी मिल सकता है, जब हम अपने मन को अपने हृदय से जोड़ दें, अन्यथा यह अनुभव प्राप्त नहीं होता, क्योंकि यह प्राकृतिक प्रेम के साथ अन्तर में फैलता है और लगता है कि हम श्री बाबूजी महाराज के साथ गहरे में डूबे हुए हैं। मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ के लिए ‘स्वीकृति’ शब्द का प्रयोग कभी नहीं किया, बल्कि हमारे सामने ‘उन्होंने’ जो कुछ उजागर किया, मैंने उसी प्रकार उन्हें लिखा कि मैंने ‘उन्हें’ ऐसा पाया। ‘स्वीकृति’ में मस्तिष्क का प्रयोग होता है, किन्तु यहाँ “देखा और अनुभव किया” न ही स्वीकृति है और न ही अस्वीकृति। श्री बाबूजी महाराज ने स्वयं कहा है – “वास्तविकता स्वयं बोलती है। किसी के द्वारा स्वीकृति का प्रश्न ही नहीं उठता।” इसलिए, जब और जो कुछ मैंने देखा, मैंने उन्हें लिख दिया।

इससे यह प्रकट होता है कि धर्म में केवल आसक्ति है, इसलिए, यदि कोई लक्ष्य हमारे सामने नहीं है, तो केवल धार्मिक क्रियाओं से बँधे रहते हैं और आगे कोई उन्नति नहीं कर पाते हैं। जब हम अध्यात्म में आते हैं, उन्नति का एक महत्त्वपूर्ण चिन्ह हम यह पाते हैं कि केवल अभ्यासियों के साथ ही नहीं, सभी मानव जाति के साथ, बिना जात-पाँत, बिना भेद-भाव के बन्धुत्व का अनुभव होने लगता है। यह सभी के साथ प्राकृतिक रूप में होता है। हमें इसे स्वीकृति के साथ विकसित करने की आवश्यकता नहीं पड़ती, यह स्थाई होता है। हम भी उस बन्धुत्व से अलग नहीं हो सकते।

एक और सच्चाई मैं आपके सामने रखना चाहती हैं कि हर एक विचार में ‘मालिक’ को देखना, जो धर्म के अन्तिम स्थिति में निहित है, भी अध्यात्म में पिघल जाता है और केवल सब के साथ बन्धुत्व का भाव रह जाता है।

अब वास्तविकता के सम्बन्ध में प्रश्न उठता है, जो केवल परमात्मा का क्षेत्र है और आत्मा के क्षेत्र के परे है। इसका ज्ञान मुझे तभी मिला, जब मैंने “श्री बाबूजी” को लिखा – जब मैं अपनी दशा के बारे में आप को लिखने का प्रयत्न करती हूँ, लेखनी हमारी आध्यात्मिक दशा वर्णन करने में हिचकिचाती है, बल्कि ऐसा लगता है कि मैं ‘आप’ को कुछ ‘सत्य’ के बारे में लिख रही हैं और वह सत्य केवल यही है कि ‘आप’ का असली चेहरा मेरे सामने फैला है, जिसे हमारी भौतिक एवं आन्तरिक आँखें नहीं देख सकतीं, बल्कि केवल मन की आँखें देख सकती हैं। मन स्वयं एक आँख है जो दोनों से परे हैं।

इस स्थिति में भी मैं कहूंगी कि अभ्यासी को पुनः “श्री बाबूजी महाराज” का आशीर्वाद मिलता है, जब वे हमें सतर्कता की शक्ति तुरंत दे देते हैं और इसी के सहारे अभ्यासी केवल वर्तमान नहीं, बल्कि आने वाली दशा को भी देख सकने में समर्थ होता है।

अध्यात्म के क्षेत्र में, मैंने हमेशा अनुभव किया है कि हर कदम पर आत्मा हमें जगाती है और सतर्क करती है, उस तथ्य के बारे में कि वही भौतिक रूप जिसमें वे रहते हैं, ‘श्री बाबूजी महाराज’ की कृपा से अब स्वतंत्रता के लिए परिपक्व हो गया है। दूसरे शब्दों में यह दर्शाता है कि परमात्मा से योग करने का समय अब आ गया है। मैं पुनः कह सकती हूँ कि ऐसी दशा का अनुभव करने के पश्चात् मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को लिखा – “जब भी दृष्टि अन्तर में जाती है, तो ऐसा लगता है कि अन्तर खुशी के मारे उछल रहा है।” तब ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने लिखा - “यह आत्मा के नृत्य की दशा है, जो अपनी स्वतन्त्रता का सन्देश दे रही है।”

वास्तविकता के क्षेत्र में प्रवेश करने के बाद मैंने पाया कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ का असीमित एवं अतुल्य प्यार सारी मानवता के लिए है। तब मुझे लगा कि सभी लोगों में प्रेम केवल उनसे ही मिलता है और वे सभी से प्रेम करते हैं।
संदेश - संत कस्तुरी
साधना
विजयवाड़ा
30/3/1989
साधना का आधार और साक्षात्कार का लक्ष्य जब ईश्वर होता है, यह बढ़ता है, फैलता है और मनचाहा फल देता है, क्योंकि यह लगातार ईश्वरीय शक्ति से जुड़ा रहता है। तब, एक दिन अवश्य आता है, जब हम अपने लक्ष्य को सफलतापूर्वक प्राप्त कर लेते हैं। किन्तु, जब साधना का आधार अहं के पसन्द और नापसन्द का प्रतिबिम्ब बन जाता है, तब यह मूर्ति-पूजा का रूप ले लेता है। श्री बाबूजी महाराज ने कहा है “मूर्ति पूजा” में लोग मूर्ति की पूजा नहीं करते, बल्कि अपने ‘अहम् और स्व’ की पूजा करते हैं, क्योंकि वे स्वयं तय करते हैं कि किसकी पूजा करें, किसकी नहीं। चूंकि आधार हमने तय किया है और यह हमारी चाहत है, समय आने पर यह और भी ठोस हो जाता है और मूर्ति-पूजा को जन्म देता है।

मैंने किसी को कहते नहीं सुना है कि उसने ‘राम को राम’ और ‘कृष्ण को कृष्ण’ की तरह अपनाया है। किसी को कभी यह कहते हुए नहीं सुना है कि ‘राम और कृष्ण’ सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान हैं। मैंने यह भी किसी को कहते हुए नहीं सुना है कि हमने ‘हनुमान या भरत’ को ‘राम’ की तरह अपनाया है। यह केवल इसलिए कि भक्त ‘राम’ के अस्तित्व तक ही जीवित रहते हैं, जिसका अर्थ है कि ‘राम और कृष्ण’ उनके आधार हैं।

जब कोई कहता है कि उसने सरस्वती, लक्ष्मी, शिव या किसी और शक्ति को अपना आराध्य बनाया है, तब यह कहा जा सकता है कि उसने स्वयं अपनी साधना का आधार बनाया है। अब वह सरस्वती, लक्ष्मी, शिव या उसी प्रकार की कोई शक्ति कौन है ? वे केवल वही हैं और केवल उतना ही काम कर सकते हैं, जितनी शक्ति, उतने ही कार्य के लिए उन्हें मिली है। उनकी वह शक्ति न तो बढ़ सकती है, न ही घट सकती है। जब कोई ऐसी दी गई सीमित शक्ति को अपनी साधना के रूप में अपनाता है तो वह (भक्त) पिघलने के बजाय धीरे-धीरे ठोस और अधिक ठोस होता जाता है। इस सम्बन्ध में मैंने लोगों को देखा है कि लोग इस दृढ़ता तक जाते हैं कि जिस मूर्ति या चित्र को उन्होंने आरम्भ में अपना आधार बनाया था, यदि उसी देवता या शक्ति का दूसरा रूप उनके सामने रखा जाये तो वे अपनाने या पहचानने से इंकार कर देते हैं। वास्तव में इसी कारण वे अपने मन और व्यवहार में अन्य लोगों के प्रति घृणा, इर्ष्या, क्रोध, शत्रुता आदि जमा लेते हैं।

आज मैं ‘श्री बाबूजी महाराज’ का कथन याद दिलाती हूँ कि ‘राम और कृष्ण’ को अवतार कहने का प्रश्न कहाँ है, जबकि ‘वे’ ईश्वरीय शक्ति लेकर आये थे ? किन्तु, जब भक्त लोग अपनी वास्तविकता को भूलकर केवल निर्दिष्ट चित्र या मूर्ति में अनुरक्त रहते हैं, तब भी साधना धीरे-धीरे मूर्ति पूजा की ओर मुड़ जाती है। इस प्रकार की दासता इस सीमा तक बढ़ जाती है कि वे अपने आराध्य को अपने जैसा एक साधारण मानव समझ बैठते हैं और उन्हें नियमित रूप से स्नान, भोजन और विश्राम कराते हैं।

एक बार ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने मुझे लिखा है - “देखो, मानव मन और विवेक की ठोसता की सीमा और क्या हो सकती है कि वे ‘श्रीराम और श्रीकृष्ण’ की सर्वव्यापकता और सर्वशक्तिमान होना भूल जाते हैं और केवल साधारण चित्र एवं मूर्ति होने में ही विश्वास रखते हैं।

मैं एक और उदाहरण देती हूँ, जब एक अभ्यासी ‘श्री बाबूजी महाराज’ के पास आया और कहा – “मालिक, जब भी मैं मन्दिर जाता हूँ, मैं उनमें ‘आपकी’ उपस्थिति समझ कर ही उन चित्रों और मूर्तियों के सामने झुकता हूँ और प्रार्थना करता हूँ।” ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने उत्तर में कहा – “जो तुम चाहते हो करो, किन्तु मेरे लिए कृपा कर मुझे मूर्ति की तरह मत बैठाओ और न पूजा करो। मैं केवल मानवता में प्रेम फैलाने के लिए आया हूँ। अगर कर सको तो सिर्फ इतना करो।” मीरा ने यह कह कर बताया- “जिसको मैं देखती हूँ, उसमें श्याम का रूप पाती हूँ।” हनुमान ने अपना सीना चीर कर दिखाया था कि ‘वह’ हर एक के हृदय में निवास करता है। इसी प्रकार सूरदास ने भी लिखा है – “आप मुझसे अलग होकर जा रहे हो, मुझे असहाय छोड़कर, किन्तु जब मैं मरूँगा, तभी तुम मेरे हृदय से जा पाओगे।”

मुझे अभी भी याद है, श्री बाबूजी ने कहा था – “तुम मेरे सामने बैठी हो, फिर भी मैं तुम्हें नहीं देख सकता और जब मैं तुम्हें अपने अन्तर और वातावरण में देखने की कोशिश करता हूँ तब मुझे लगता है कि तुम सर्वव्यापी हो।”

सच कहा जाय तो उनका वास्तविक रूप भौतिक रूप से परे है। हमें अपनी पहचान को भूलकर ‘श्री बाबूजी महाराज’ के वास्तविक रूप में लय रहकर उस शुभ एवं भाग्यशाली क्षण को आगे देखना है। इसके अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं है। यह भी एक दैवी प्रेरणा है कि यदि आप उन्हें कुर्सी पर बैठे हुए रूप को अपने हृदय में लाते हैं और उन्हें उसी रूप में देखने का अभ्यास करते हैं, तो आपका अभ्यास बन्धन और सीमा का द्वार पार करने में समर्थ नहीं हो सकेगा और आप ‘श्री बाबूजी महाराज’ को कभी नहीं समझ पायेंगे, ‘जिन्हें’ समर्थ गुरू श्री लालाजी महाराज ने हम लोगों के बीच लाया है। | हम लोग ‘श्री बाबूजी महाराज’ के कथन की गहराई पर ध्यान नहीं देते, बल्कि हम अपने दिमाग से उसकी व्याख्या करते हैं और चाहते हैं कि ‘उनका’ वही कथन सदा वास्तविकता का कोई रहस्य लिए हुए है। उदाहरण के लिए उन्होंने कहा है – “हमें साधना और उसका अभ्यास करना चाहिए केवल इसलिए कि ‘ईश्वर’ हम सबके भीतर है, किन्तु हम सब उसके भीतर नहीं हैं।” उसी प्रकार ‘श्री बाबूजी महाराज’ एक विशिष्ट विभूति इस धरती पर अवतरित हुए हैं और ‘अपने’ संकल्प से सभी लोगों में लय हैं। यदि हम भी अपने अभ्यास में सफल होकर उनमें लय रहें, तब उनका साक्षात्कार हो जायेगा और ठीक उसी के पश्चात् हम उनकी वास्तविकता के क्षेत्र में प्रवेश करने में समर्थ हो सकेंगे। वे अपने संकल्प में तैराते हुए हमें भूमा तक ले जायेंगे और तब वे खुशी से प्रफुल्लित हो जायेंगे।

अभ्यासियों का यह पावन कर्तव्य है कि अपने परम प्रिय ‘श्री बाबूजी महाराज’ की खुशी के लिए, हमें ‘जीवित-मृत’ होने के लिए अथक परिश्रम करना चाहिए और उनमें लय हो जाना चाहिए।

संदेश - संत कस्तुरी
सहजमार्ग संदेश
तिरुपति
9/4/1990
आरम्भ में ही मैं यह साफ़ कर देना चाहती हूँ कि प्रायः लोग प्रवचन एवं सन्देश का एक ही अर्थ समझते हैं, किन्तु इन दोनों में एक महत्त्वपूर्ण अन्तर है। वास्तव में प्रवचन वह है, जो विषय के सम्बन्ध में सुनने वालों के मस्तिष्क में सभी प्रकार की शंकाओं का निवारण करता है। अध्यात्म के क्षेत्र में सन्देश वह है, जो वास्तविकता के रहस्य को उजागर करता है। वास्तविकता कभी बोलती नहीं, बल्कि उस माध्यम से, जो धरती पर अवतरित हुआ है, अपने को प्रकट करती है। शाहजहाँपुर के श्री रामचन्द्रजी महाराज मिशन के संस्थापक अध्यक्ष ने सहज-मार्ग के रूप में दिव्यता का अनवरत प्रवाह लाये हैं। सहज मार्ग मिशन की आत्मा है तथा सत्य का स्वरूप है। यहाँ कुछ सिखाया नहीं जाता, बल्कि यदि वह सजग है तो सब कुछ प्राकृतिक रूप में स्वयं ही सीखता है। सहज मार्ग भूमा का सन्देश है तथा मानव समाज को भूमा के लक्ष्य तक पहुँचने का एक सत्य निमंत्रण है। अनन्त न तो एकत्रित किया जा सकता है, न बाँधा जा सकता है। तब वे अपने बच्चों को अपना सन्देश कैसे दे सकते हैं ? अर्थात् मानव समाज का अपने पावन एवं स्थाई घर को वापिस आने के लिए कैसे याद दिला सकते हैं ? इसलिए यह दिव्य सन्देश देने के लिए ही श्री बाबूजी महाराज धरती पर अवतरित हुए हैं।

सहज-मार्ग पद्धति के द्वारा वे अपनी दिव्य एवं प्रबल इच्छा शक्ति, प्राणाहुति के द्वारा इच्छुक लोगों के हृदय में प्रवाहित करते हैं। श्री बाबूजी महाराज को जब लगता है कि कोई उन्हें याद कर रहा है, ‘वे’ दुखद समाज को अपनी गोद में लेने के लिए इच्छुक हो जाते हैं। ‘वे’ ईश्वर की याद को इस प्रकार पुनर्जीवित कर देते हैं कि हम लोग उनके साक्षात्कार के लिए बेचैन हो उठते हैं। वास्तव में हृदय उनकी याद में इतना बेचैन हो जाता है कि वर्णन नहीं किया जा सकता। जब हृदय उनकी याद में डूब जाता है, तब उनकी निकटता की ऊष्णता अन्तर में लगातार अनुभव में आने लगती है। उनके निकटता के अनुभव के फलस्वरूप, उसी क्षण से, अंधकार, आवरण संस्कार एवं सभी बाधायें पिघलने लगती हैं, और हम अपने विचारों में एक अभूतपूर्व परिवर्तन अनुभव करने लगते हैं। इस प्रकार हमारे विचारों में एक परिवर्तन आ जाता है। पहले हम जिन बुरे विचारों को एक लम्बी अवधि तक अपने में रख पाने में सक्षम होते थे, अब वे कभी नहीं उभरते। यह कथन कि “जैसी मिट्टी होती है, वैसी ही उपज होती है”, सत्य हो जाता है। उसके बाद जो भी विचार उत्पन्न होता है, वह केवल हमारी आध्यात्मिक उन्नति, प्रेम का विस्तार एवं अपने साथियों में श्रद्धा से सम्बन्धित होता है। इस प्रकार बन्धुत्व का अनुभव जो सहज मार्ग का सन्देश है, दूसरे लोगों में स्वतः फैलने लगता है। यह जागृति एक से दूसरे लोगों में स्वाभाविक रूप में फैलने लगती है कि हमें अनवरत शान्ति एवं ईश्वर-साक्षात्कार मिले। तब लगता है कि मानव समाज के लिए श्री बाबूजी महाराज ने सहज-मार्ग का जो सन्देश दिया है, वह धरती पर मानव समाज में फैलने लगता है। प्राणाहुति के द्वारा सहज-मार्ग का सन्देश मानव हृदय को स्पर्श करता है, और हम उनकी प्राणाहुति का आवेग अनुभव करते हैं। इन सब बातों के अनुभव से हमें स्वतः उनके प्रति श्रद्धा होने लगती है।

श्री बाबू जी महाराज की प्राणाहुति शक्ति के कार्य का फल यह होता है कि हर एक के अन्तर में सुषुप्त चेतना जागृत हो जाती है और तब यह स्वतः अपने को ईश्वर में, जिसका वह अंश है, स्थित पाता है। उसी दशा से हमारी दिव्य चेतना जागृत हो जाती है, अर्थात् हृदय में प्रकाश पर ध्यान लगाने से वह प्रत्यक्ष रूप में हमारे सामने आ जाता है। श्री बाबूजी महाराज ने कहा है – “सहज-मार्ग पद्धति एक व्यावहारिक प्रणाली है, जो क्रिया के बन्धन से मुक्त है।“ जब हम हृदय में ईश्वरीय प्रकाश और ईश्वर की निकटता अनुभव करने लगते हैं, दैवी सुगन्ध स्वत: माइण्ड रीजन से हृदय क्षेत्र तक, उसके बाद पिण्ड देश से ब्रह्माण्ड मण्डल तक और फिर ईश्वरीय प्रदेश तक फैल जाती है। इस फैलाव का अनुभव जब हम में भर जाता है, हम अनजाने में अहम् के आवरण से बाहर आ जाते हैं और मुक्त आत्मा की सुखद स्थिति में डूब जाते हैं। इस प्रकार सहज-मार्ग मानव समाज के लिए ईश्वर का वह सन्देश है, जो समस्त मानव जाति को असीमित विराट् हृदय में धीरे-धीरे समेट लेता है।

इस पद्धति में श्री बाबूजी महाराज की प्रेम भरी दृष्टि और देख-रेख में हम जो भी अनुभव करते हैं जुबानी या लिखित रूप में उसका वर्णन कर सकते हैं। किन्तु, ईश्वरीय सन्देश, ईश्वरीय सन्देश है और इसे सहज-मार्ग साधना के अभ्यास से ही जाना जा सकता है।

संदेश - संत कस्तुरी
सहजमार्ग संदेश
तिरुपति
9/4/1990
आरम्भ में ही मैं यह साफ़ कर देना चाहती हूँ कि प्रायः लोग प्रवचन एवं सन्देश का एक ही अर्थ समझते हैं, किन्तु इन दोनों में एक महत्त्वपूर्ण अन्तर है। वास्तव में प्रवचन वह है, जो विषय के सम्बन्ध में सुनने वालों के मस्तिष्क में सभी प्रकार की शंकाओं का निवारण करता है। अध्यात्म के क्षेत्र में सन्देश वह है, जो वास्तविकता के रहस्य को उजागर करता है। वास्तविकता कभी बोलती नहीं, बल्कि उस माध्यम से, जो धरती पर अवतरित हुआ है, अपने को प्रकट करती है। शाहजहाँपुर के श्री रामचन्द्रजी महाराज मिशन के संस्थापक अध्यक्ष ने सहज-मार्ग के रूप में दिव्यता का अनवरत प्रवाह लाये हैं। सहज मार्ग मिशन की आत्मा है तथा सत्य का स्वरूप है। यहाँ कुछ सिखाया नहीं जाता, बल्कि यदि वह सजग है तो सब कुछ प्राकृतिक रूप में स्वयं ही सीखता है। सहज मार्ग भूमा का सन्देश है तथा मानव समाज को भूमा के लक्ष्य तक पहुँचने का एक सत्य निमंत्रण है। अनन्त न तो एकत्रित किया जा सकता है, न बाँधा जा सकता है। तब वे अपने बच्चों को अपना सन्देश कैसे दे सकते हैं ? अर्थात् मानव समाज का अपने पावन एवं स्थाई घर को वापिस आने के लिए कैसे याद दिला सकते हैं ? इसलिए यह दिव्य सन्देश देने के लिए ही श्री बाबूजी महाराज धरती पर अवतरित हुए हैं। 

सहज-मार्ग पद्धति के द्वारा वे अपनी दिव्य एवं प्रबल इच्छा शक्ति, प्राणाहुति के द्वारा इच्छुक लोगों के हृदय में प्रवाहित करते हैं। श्री बाबूजी महाराज को जब लगता है कि कोई उन्हें याद कर रहा है, ‘वे’ दुखद समाज को अपनी गोद में लेने के लिए इच्छुक हो जाते हैं। ‘वे’ ईश्वर की याद को इस प्रकार पुनर्जीवित कर देते हैं कि हम लोग उनके साक्षात्कार के लिए बेचैन हो उठते हैं। वास्तव में हृदय उनकी याद में इतना बेचैन हो जाता है कि वर्णन नहीं किया जा सकता। जब हृदय उनकी याद में डूब जाता है, तब उनकी निकटता की ऊष्णता अन्तर में लगातार अनुभव में आने लगती है। उनके निकटता के अनुभव के फलस्वरूप, उसी क्षण से, अंधकार, आवरण, संस्कार एवं सभी बाधायें पिघलने लगती हैं, और हम अपने विचारों में एक अभूतपूर्व परिवर्तन अनुभव करने लगते हैं। इस प्रकार हमारे विचारों में एक परिवर्तन आ जाता है। पहले हम जिन बुरे विचारों को एक लम्बी अवधि तक अपने में रख पाने में सक्षम होते थे, अब वे कभी नहीं उभरते। यह कथन कि “जैसी मिट्टी होती है, वैसी ही उपज होती है”, सत्य हो जाता है। उसके बाद जो भी विचार उत्पन्न होता है, वह केवल हमारी आध्यात्मिक उन्नति, प्रेम का विस्तार एवं अपने साथियों में श्रद्धा से सम्बन्धित होता है। इस प्रकार बन्धुत्व का अनुभव जो सहज मार्ग का सन्देश है, दूसरे लोगों में स्वतः फैलने लगता है। यह जागृति एक से दूसरे लोगों में स्वाभाविक रूप में फैलने लगती है कि हमें अनवरत शान्ति एवं ईश्वर-साक्षात्कार मिले। तब लगता है कि मानव समाज के लिए श्री बाबूजी महाराज ने सहज-मार्ग का जो सन्देश दिया है, वह धरती पर मानव समाज में फैलने लगता है। प्राणाहुति के द्वारा सहज-मार्ग का सन्देश मानव हृदय को स्पर्श करता है, और हम उनकी प्राणाहुति का आवेग अनुभव करते हैं। इन सब बातों के अनुभव से हमें स्वतः उनके प्रति श्रद्धा होने लगती है। 

श्री बाबूजी महाराज की प्राणाहुति शक्ति के कार्य का फल यह होता है कि हर एक के अन्तर में सुषुप्त चेतना जागृत हो जाती है और तब यह स्वतः अपने को ईश्वर में, जिसका वह अंश है, स्थित पाता है। उसी दशा से हमारी दिव्य चेतना जागृत हो जाती है, अर्थात् हृदय में प्रकाश पर ध्यान लगाने से वह प्रत्यक्ष रूप में हमारे सामने आ जाता है। श्री बाबूजी महाराज ने कहा है – “सहज-मार्ग पद्धति एक व्यावहारिक प्रणाली है, जो क्रिया के बन्धन से मुक्त है।” जब हम हृदय में ईश्वरीय प्रकाश और ईश्वर की निकटता अनुभव करने लगते हैं, दैवी सुगन्ध स्वत: माइण्ड रीजन से हृदय क्षेत्र तक, उसके बाद पिण्ड देश से ब्रह्माण्ड मण्डल तक और फिर ईश्वरीय प्रदेश तक फैल जाती है। इस फैलाव का अनुभव जब हम में भर जाता है, हम अनजाने में अहम् के आवरण से बाहर आ जाते हैं और मुक्त आत्मा की सुखद स्थिति में डूब जाते हैं। इस प्रकार सहज-मार्ग मानव समाज के लिए ईश्वर का वह सन्देश है, जो समस्त मानव जाति को असीमित विराट् हृदय में धीरे-धीरे समेट लेता है। 

इस पद्धति में श्री बाबूजी महाराज की प्रेम भरी दृष्टि और देख-रेख में हम जो भी अनुभव करते हैं जुबानी या लिखित रूप में उसका वर्णन कर सकते हैं। किन्तु, ईश्वरीय सन्देश, ईश्वरीय सन्देश है और इसे सहज-मार्ग साधना के अभ्यास से ही जाना जा सकता है।
संदेश - संत कस्तुरी
मानव-मात्र का मोक्ष
कोयम्बटूर
9/4/1990
श्री रामचन्द्र मिशन न तो प्राचीन है न ही आधुनिक, क्योंकि एक अवतार जब धरती पर आता है, उसका एक विशेष प्रयोजन होता है जिसे हम लोग ‘मिशन’ कहते हैं। इस सिलसिले में ‘श्री राम’ का अवतरण दानवों के नाश के लिए हुआ था तथा ‘श्री कृष्ण’ दुष्टों को समाप्त कर एक अच्छा साम्राज्य स्थापित करने के लिए धरती पर आये थे। जब उनके अवतरण का अभिप्राय पूरा हो गया, वे धरती से विदा हो गये। मैंने भी इन बातों पर काफी विचार किया है। आरम्भ में मैं भी मूर्ति-पूजा किया करती थी। साधु-सन्तों से मैंने ‘श्री राम’ व ‘श्री कृष्ण’ के बारे में बहुत कुछ सुना और अनुभव किया, किन्तु इससे मेरी जिज्ञासा की पूर्ति नहीं हुई। अतएव, मैंने उनसे पूछा – “स्वामी जी ! मेरा यह अनुभव मेरी पूजा के फलस्वरूप है। इससे अधिक पाने के लिए मुझे क्या करना चाहिए ?” क्योंकि उनका अनुभव परिपक्व था। उन्होंने उत्तर में कहा “ये अनुभव भी बहुत उच्च है।“ साधारणतः यह भी लोगों को नहीं मिलता है। जब मेरे हृदय में प्रबल जिज्ञासा हुई, तब मैंने स्वीकार किया कि “ये स्वयं में महान् हैं।“ श्री कृष्ण की पूजा करते हुए मैने ‘उनकी’ सामीप्यता का अनुभव किया, किन्तु मुझे बार-बार इस निकटता के बारे में सोचना पड़ा। ‘श्री बाबूजी महाराज’ से मिलने के दो दिन पहले मैं अपने आँगन में बैठी थी और ऊपर आकाश की ओर देख रही थी। अचानक आकाश में एक अद्भुत प्रकाश दिखाई दिया। उस प्रकाश में एक आकृति दिखी, जो ‘श्री राम’ की थी, जिन्हें मैं देखती रही और पूजती रही। तब वह प्रकाश लुप्त हो गया। इसके पश्चात् प्रकाश पुनः दृष्टिगोचर हुआ और उस प्रकाश में ‘श्री कृष्ण’ का स्वरूप उपस्थित हुआ, किन्तु यह भी अधिक देर तक नहीं रहा। इसके पश्चात् एक दिव्य संत की आकृति आकाश में उभरी, ऊँचाई मे कुछ कम तथा दिखने में दुबले-पतले। जब मैं ‘श्री बाबूजी महाराज’ से मिली, तब मैं समझी कि उस दिन आकाश में जो आकृति मैंने देखी थी, वह ‘इन्हीं’ की थी। यह देख कर मेरा हृदय नाच उठा, मानों मैं दीर्घकाल से ‘इन्हीं’ की प्रतीक्षा कर रही थी। साथ ही मेरी आँखें बन्द हो गईं और मैं ध्यान में खो गई। आनन्द की यह स्थिति बिना किसी कमी के बनी रही। मेरे पिताजी, जो एक वकील थे, एक दिन कचहरी से आने के बाद हम लोगों से उन्होंने कहा – “एक राजयोगी श्री रामचन्द्र जी महाराज कल हमारे घर पधारने वाले हैं और लोग उन्हें 'बाबूजी' कह कर सम्बोधित करते हैं।“ यह सुन कर मेरी माताजी को कोई खुशी नहीं हुई, क्योंकि पिताजी प्रायः इस प्रकार की बातें किया करते थे। इसके बावजूद हम लोगों में उत्साह भरी एक जिज्ञासा जगी कि कल जब ‘श्री बाबूजी’ आयेंगे तो उनकी उपस्थिति कैसी होगी, इत्यादि। दूसरे दिन मेरे पिताजी एक शिक्षक श्री ईश्वर सहाय जी के घर से ‘श्री बाबूजी’ को लेकर आ गये। दरवाजे पर से ही पिता जी ऊँचे स्वर में बोल पड़े – “देखों मैं श्री बाबूजी को ले आया।“ हम सभी लोग बाहर की ओर दौड़ पड़े। मेरे पिताजी, श्री ईश्वर सहाय एवं श्री बाबूजी महाराज बिल्कुल साधारण भेष-भूषा में खड़े थे। ‘श्री बाबूजी महाराज’ को देखते ही मैं समझ गई कि ये वही व्यक्ति हैं, जिन्हें मैंने कल आकाश में देखा था। मैं प्रफुल्लित होकर उन्हें देखती रही। जब भी कोई विशिष्ट विभूति धरती पर अवतरित होती है, लोगों में विश्वास एवं सन्तोष का अनुभव होता है। ‘श्री बाबूजी महाराज’ के आने के पूर्व हमें भी कुछ ऐसा ही अनुभव हुआ और ‘श्री बाबूजी’ के दर्शन के पश्चात् ऐसा अनुभव हुआ कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ मानव-मात्र को मोक्ष प्रदान करने हेतु पधारे हैं। अब तक हम लोग श्री बाबूजी महाराज के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे और न ही किसी ने उनके बारे में बताया था। जब मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को प्रणाम किया, तो मेरे मुख से स्वतः निकला – “इतने दिनों की प्रतीक्षा के बाद ‘आप’ आज मिले ?” जब मैंने कहा – मैं भी आशा कर रही थी, तब वह कारण समझ में आया कि ‘श्री राम’ एवं ‘श्री कृष्ण’ के बाद ‘श्री बाबूजी’ की आकृति क्यों दृष्टिगोचर हुई थी। वे (श्री राम व श्री कृष्ण) यहाँ कुछ विशेष कार्य के लिए आये थे, दानवों का नाश, इत्यादि, किन्तु ‘श्री बाबूजी महाराज’ समस्त मानव के उद्धार के लिए आये हैं। ‘वे’ हम लोगों को कुछ देने के लिए आये हैं। उनके पधारने का उल्लास एक क्षण को भी उनसे अलग होने नहीं देता था। श्री ईश्वर सहाय ने उद्घोषणा की- “बिटिया! अम्मा सहित तुम सब लोग यहाँ बैठ जाओ।“ हम लोग बैठ गये। तब श्री ईश्वर सहाय ने कहा- “श्री बाबूजी महाराज” तुम सभी लोगों को प्राणाहुति देंगे।“ मेरी माँ कुछ आश्चर्यचकित हुईं और कहा – “पहले ये बतायें ये प्राणाहुति क्या चीज़ है ?” श्री ईश्वर सहाय ने खुलासा किया – “अम्मा ! तुम्हारी अब तक की सारी पूजायें तुम्हारे प्रयास से हुई हैं। यही बात बिटिया के साथ भी हुई है, किन्तु जब मैंने श्री बाबूजी द्वारा लाई गई सहज-मार्ग पद्धति अपनाई, तब मुझे इस प्राणाहुति का अर्थ मालूम हुआ - हम लोग ईश्वर की खोज बाह्य में करते हैं, जबकि ‘ये’ ही सब कुछ हैं और सब कुछ इनमें है। हम लोग अपने भीतर ईश्वर की खोज कदाचित् ही करते हैं, किन्तु, ‘श्री बाबूजी महाराज’ की प्राणाहुति द्वारा हमारे हृदय में दिव्य शक्ति प्रविष्ट की जाती है और उनकी सहायता से हम अनुभव करते हैं कि ईश्वर हमारे भीतर है।“ तब ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने कहा- “अपने विचार में कुछ आने से पूर्व यह निश्चित रूप में जान लो कि ईश्वर तुम्हारे भीतर है। वह तुम्हारा है। तुम्हारी सारी त्रुटियों के बावजूद वह तुमसे दूर नहीं हो सकता। वह सदा तुम्हारे भीतर है। जब तुम उसे याद करते हो तुम्हें ‘उसकी’ सारी खुशियाँ प्राप्त होती हैं। जब तुम ध्यान में बैठते हो, तुम मन में उसका विचार करते हो कि ईश्वर तुम्हारे भीतर है। जैसा कि हम सब लोग जानते हैं कि आरम्भ में ध्यान अविश्वसनीय होता है। सभी प्रकार के विचार बाधा पहुँचाते हैं, यहाँ तक कि हमारी पूर्व पूजाओं के विचार भी उत्पन्न होते हैं, किन्तु बाद में बँट जाते हैं। जब तुम यह विचार बार-बार करोगे कि ईश्वर तुम्हारे भीतर हैं, यह मन को अच्छा लगेगा, क्योंकि जब मन कुछ चाहता है, तब वही चाही हुई वस्तु मन को खुशी देती है। मन बार-बार उसी चीज को याद करता है।“ उस दिन एक प्राणाहुति देने के पश्चात् ‘श्री बाबूजी’ चले गये। तब श्री ईश्वर सहाय ने कहा – “यह अच्छा होगा कि आप लोग कल हमारे घर पधारें।“ दूसरे दिन हम सभी लोग उनके घर गये। पहली प्राणाहुति में मुझे जो आनन्द मिला, उसे मैं नहीं भूल सकती। बचपन से लगभग २० वर्षों तक (मैं छ: साल की उम्र से पूजा करती आ रही हूँ) मुझे पूजा में वह आनन्द नहीं मिला, जो पूजा मैं करती आ रही थी। जब ‘श्री बाबूजी महाराज’ द्वारा दी गई प्राणाहुति की तीन बैठकें पूरी हो गईं, तब मुझे लगा कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ सदा हमें अपनी याद में रखते हैं।

आज यह सब कहने का हमारा तात्पर्य यह है कि कई लोग प्रश्न करते हैं कि जब संसार में अनेकों विधियाँ हैं, तो सहज मार्ग की आवश्यकता क्यों हुई ? आवश्यकता पड़ती हैं, क्योंकि वे सब विधियाँ हम सब वर्षों से करते आ रहे हैं। जब मैं मूर्ति-पूजा करती थी, तो जब भी मैं मन्दिर जाती, पूजा का विचार मेरे मन में नहीं रहता था, बल्कि उस मूल शक्ति की ओर रहता था जो उस मूर्ति में प्रवाहित है। आज मैं आप लोगों से इसलिए कह रही हूँ क्योंकि आप सभी लोग किसी न किसी प्रकार की मूर्ति पूजा करते हैं। मूर्ति-पूजा अच्छी चीज़ है, क्योंकि इससे ईश्वर की याद आती है। हमें किसने बनाया, किसने हमें इस धरती पर भेजा और हमारे भीतर कौन रहता है ? इसलिए हम किसी न किसी रूप में पूजा करते हैं, किन्तु, जब यही पूजा हम पूरी तरह समझ कर करें, तब उसके प्रतिफल की सीमा नहीं मापी जा सकती। जब मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ से कहा – “बाबूजी ! मूर्ति पूजा करते समय भी मैं मूर्ति की ओर नहीं देखती थी।“ तब ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने कहा- “बहुत अच्छा ! जब तुम मूर्ति की ओर नहीं देख रही हो, तब समय आ गया है कि मूर्ति पर पड़ा पर्दा हट गया है और उसके भीतर क्या है तुम देख रही हो। यह और भी अच्छा होगा कि तुम वास्तविकता को अपने विचार में रखो और इसे अपनी आदत बना लो, क्योंकि चिन्तन करने से तुम स्वयं को समझ सकोगी। मूर्ति ईश्वर की आकृति नहीं है। ये जितनी भी मूर्तियाँ बनाई गई हैं, ईश्वर को बिना देखे ही बनाई गई हैं। किसी ने भी ईश्वर का उस रूप में दर्शन नहीं किया है, जिस रूप में मूर्ति बनाई गई है। अतएव, बजाय किसी के द्वारा बनाई गई मूर्ति का ध्यान करने के हमारा ध्यान ईश्वर की ओर होना चाहिए जो हमारे भीतर है और हमारा है, ऐसा करना कुछ अच्छा होगा।“

यदि मानव-निर्मित मूर्तियों पर से ध्यान हटा कर, आप उस पर, जो वास्तविक और दिव्य है, पर ध्यान लगायें, तो सात दिनों के भीतर आपको भी उसी आनन्द का अनुभव होगा जो मैंने अनुभव किया है। यह अवश्य होगा, यदि आज नहीं तो कल, कल नहीं तो दूसरे दिन, किन्तु होगा अवश्य। जैसा मैंने पहले कहा है कि जब मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को अपनी आँखों से देखा, मुझे ऐसा ही अनुभव हुआ। अब वह समय आ गया है कि हम वापिस अपने घर को लौट चलें। इसका तरीका और शक्ति का प्रारम्भ हो चुका है। उस क्षण से अब तक मैंने सिर्फ उन्हें ही ध्यान में रखा है। आरम्भ में ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने कहा था - “अपने अनुभवों को एक डायरी में लिखो।“ फिर उन्होंने कहा - “इसे अपनी डायरी में मत लिखो, बल्कि पत्र द्वारा अपने अनुभवों को मुझे बताओ।“ मैंने उन्हें पत्र लिखना प्रारम्भ कर दिया। ‘वे’ यह भी चाहते थे कि ‘उनके’ पत्र और मेरे पत्र प्रकाशित हों, और ऐसा हुआ भी।

जब भी मैंने ‘श्री बाबूजी’ को पत्र लिखा ‘उन्होंने’ उत्तर दिया – “बिटिया ! मैं खुश हूँ कि तुम एक कदम आगे बढ़ गई हो और आशा है कल और भी आगे बढ़ोगी।“ आज वह समय हमारे सामने है और यह उस समय की पुकार है। हमें दिव्यता, जो हमारा हक है और हमारा है, के लिए किसी के पीछे नहीं जाना चाहिए। जब हम ईश्वर का ध्यान करते हैं, जो हमारे भीतर है, समय आ गया है कि प्राणाहुति की वर्षा हमें वास्तविकता की ओर ले जायेगी, जिससे हम अलग हुए थे। ऐसा समय कभी नहीं आया। अपनी युवावस्था से ही मैं अनेक साधु-संतों के सम्पर्क में रहीं और कई बार इनसे ज्ञानवर्धन भी हुआ, किन्तु किसी ने कभी नहीं कहा और न करके दिखाया कि ऐसा करने से तुम ऐसी हो जाओगी। आज सहज मार्ग ने मुझे ऐसा सजाया है, क्योंकि यह पूर्णतः प्राकृतिक है। जब आप इसका अभ्यास करते हैं, प्रारम्भ में आप ध्यान से जूझते हैं, किन्तु धीरे-धीरे कुछ दिन बीत जाने पर आप को वही ध्यान अच्छा लगने लगता है। जब भी समय मिलता है, आप ध्यान में बैठते हैं। यह केवल मेरा विचार नहीं है, बल्कि सामूहिक रूप में अन्य अभ्यासियों के भी विचार हैं। यह किसी भी अभ्यासी के लिए सम्भव नहीं है। कि उसे ध्यान में अच्छा नहीं लगा और उसे ध्यान में आनन्द नहीं मिला। जानते हैं क्यों? जब हम लगातार ध्यान करते हैं, हमें लगातार ईश्वर की कृपा मिलती रहती है। ध्यान से देखा जाये तो ‘वह’ जो हमें लेने आया है, ‘उसे’ मार्ग का भी पता है। मैंने कई बार लोगों को कहते सुना है - “प्राणाहुति बेकार है। जो पूजा हम पहले करते थे, वही अच्छी था। लेकिन उन्हीं लोगों से लगभग १० दिन बाद हमने यह भी सुना है, ‘बाबूजी महाराज’ पिछले १० दिनों से ध्यान नहीं लग रहा है। मन को कुछ अच्छा नहीं लगता है।“

आज ‘श्री बाबूजी महाराज’ की यह सहज-मार्ग साधना सब के लिए एक अच्छा सन्देश है। क्योंकि आज जब अपने घरेलू काम-काज में भोजन बनाते समय या बच्चों को तैयार करते समय इत्यादि अपने मन में यह विचार रखती हैं कि आप जो कुछ भी कर रही हैं, केवल अपने मालिक को खुश रखने के लिए कर रही हैं। खाना बनाते समय सदा यह विचार रखें – “मैं यह भोजन बना रही हूँ, केवल ‘उन्हें’ (मालिक को) खुश करने के लिए।“ जब हम अपना दैनिक कार्य करते हैं और मालिक को याद करते रहते हैं, जो हमारे भीतर है, तो कार्य केवल पूरा ही नहीं होता, बल्कि उसका फल भी हमें मिलता है। आपका बनाया हुआ भोजन भी स्वादिष्ट होता है। आप को यह विचार भी नहीं आयेगा कि आपका समय बेकार गया, क्योंकि आप अपने लिए कुछ नहीं करते। भोजन का स्वाद इसलिए बढ़ा, क्योंकि आपका ध्यान जो अपने भीतर ‘मालिक’ में लगा था, वह भोजन में प्रविष्ट हो गया । इसलिए कुछ भी करने के पूर्व यह विचार कर लें कि ‘मालिक’ आपके भीतर है। ऐसा करने से धीरे-धीरे यह सतत् और स्थाई हो जायेगा और आप को बार-बार विचार करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।

दूसरा पहलू है सफ़ाई । साधारणतः लोग स्नान कर पूजा करते हैं, किन्तु ऐसे विचारों का संकेत मात्र भी नहीं मिलता कि हम क्या करें कि ‘मालिक’ खुश हो और हम ‘उसे’ पा लें। ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने कहा है “बिटिया! सफ़ाई बहुत ज़रूरी है।“ जानते हैं क्यों ? हम अपने भीतर छिपी त्रुटियों एवं बुराइयों को नहीं जानते है और इसीलिए हमें दिव्यता नहीं मिलती है। इसलिए जब हम अपनी इच्छा-शक्ति से सफाई करते हैं, सभी अशुद्धियाँ एवं त्रुटियाँ जो हमारे मन, हृदय और विचारों में थी, ‘मालिक’ की दैवी शक्ति से दूर हो जाती है, धीरे-धीरे, जैसा ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने कहा है कि आदमी आदमी बन जाता है और जब सत्संग में भाग लेता है तो वह अभ्यासी बन जाता है। यही अभ्यास है और अभ्यासी होने का सही अर्थ है। ‘श्री बाबूजी महाराज’ द्वारा प्राणाहुति प्राप्त करने के फलस्वरूप ऐसा लगता है कि ‘मालिक’ सदा हमारे समक्ष उपस्थित है। जब हम अनुभव करते हैं कि ‘वह’ हमारे समाने है, हृदय दिव्य प्राणाहुति में डूबा रहता है। यह अकेला नहीं होता, बल्कि हमारी साधना लगातार हमारे बीच रहती हैं अपने परिवार में रहते हुए तथा अपना दैनिक कार्य करते हुए अपनी साधना द्वारा जो हमें सुख मिलता है, उसकी व्याख्या नहीं की जा सकती। मुझे ऐसी आशा नहीं थी कि ऐसा होगा।

इसके बाद दिव्य प्राणाहुति है। ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने कहा है “थोड़ा आगे बढ़ने पर अभ्यासी को आगे बढ़ने का आभास होने लगता है, साथ ही दैवी कृपा भी मूल से मिलने लगती है।“ आगे चलकर हम पूर्ण रूप से दिव्यता को गले लगा लेते हैं। वह सांसारिक तत्वों से नहीं जोड़ता। ‘श्री बाबूजी महाराज’ कहते हैं – “हृदय का प्रत्येक स्थान ईश्वरीय शक्ति का केन्द्र है।“ इसका अर्थ पूर्णतया समझ में नहीं आता, किन्तु, जब आप उसका कार्य करते हैं, तब आप अनुभव करते हैं कि दिव्यता हृदय में प्रवेश कर रही है। एक प्रिसेप्टर होने के नाते हम अभ्यासी का हृदय ‘मालिक’ से जोड़ देते हैं और प्रार्थना करते हैं कि ‘उनकी’ दैवी कृपा वहाँ प्रवाहित हो। तत्काल प्राणाहुति की धारा प्रवाहित होने लगती है। अभ्यासी को आगे बढ़ने के लिए सभी आवश्यक तत्व उसके हृदय में उपस्थित हो जाते हैं और उसे आगे बढ़ने के लिए सभी कुछ प्राप्त हो जाता है। ये सभी चीजें सहज-मार्ग में निहित हैं।

एक बात और है जो इन सब चीज़ों से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। वह यह है कि हम लोगों को सदा उनकी नज़र में रहना है। श्री ईश्वर सहाय ने कहा – “सीखने के लिए अभी बहुत कुछ बाकी है।“ लेकिन यदि आप उनकी दृष्टि जब खो देते हैं, तब, कब, कैसे और किसके सहारे ‘वे’ आप तक पहुँचेंगे। यदि आप ‘श्री बाबूजी’ के साथ मेरे पत्राचार का अध्ययन करेंगे, आप ‘उन्हें’ इसका जिक्र कई बार करते देखेंगे। आप कुछ आराम का अनुभव करेंगे, क्योंकि यह आप में गति की परिपक्वता का द्योतक है। इसे आप विश्राम का अनुभव कह सकते हैं। मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को एक पत्र में लिखा – “श्री बाबूजी महाराज, जब भी मुझे ‘आपकी’ याद आती है, मुझे ऐसा लगता है, कि मैं शाहजहाँपुर में आपके समक्ष खड़ी हूँ ‘आप’ अपनी कुर्सी पर बैठे हैं और हुक्का पी रहे हैं।“ इस पत्र के उन तक पहुँने के पहले ही ‘उनका’ उत्तर आ गया। उन्होंने श्री ईश्वर सहाय के द्वारा पत्र भेजा जिसमें लिखा था – “इन दिनों जब मैं तुमें याद करता हूँ, मैं अपने को तुम्हारे सामने खड़ा पाता हूँ।“ हर हालत में, हर शब्द और काम में, ‘उनकी’ दृष्टि कभी ओझल नहीं होती। यहाँ तक कि सोते हुए में भी उनकी दृष्टि लगातार हमारी त्रुटियों को दूर करती रहती है और समुचित तरीके से हमें बंधनों से छुड़ाती रहती है। यदि हम अपने आप में सुधार नहीं करते, तब भी उनकी कृपा लगातार काम करती रहती है। जब तक कि सारी बुराइयाँ दूर नहीं हो जाती। एक दिन मुझे बहुत क्रोध आया। उस क्रोध में मैं अपनी आध्यात्मिक दशा का सारा आनन्द खो बैठी। मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को पत्र लिखा श्री बाबूजी महाराज, कृपया आशीर्वाद दें कि ऐसा फिर कभी न हो, क्योंकि इसके बिना आनन्द नहीं मिल सकता। ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने उत्तर में लिखा – “यह कोई बड़ी बात नहीं है। कभी-कभी क्रोध की आवश्यकता पड़ती है और यह ठीक भी है, किन्तु, हृदय से क्रोधित मत होना।“ ऐसा कैसे हो सकता है ? जब क्रोध की आवश्यकता होती है तो हृदय से क्रोधित कैसे न हों ? इतने वर्षों में आज यह बात मेरी समझ में आ गई। शब्द आप शक्ति के साथ बोल लेंगे, किन्तु, क्रोध हृदय में लेशमात्र भी न रहे। आज तक मैंने इतने प्यार के साथ कभी किसी को नहीं पाया। मैं आप के समक्ष वही सन्देश लाई हूँ, क्योंकि हम जानते हैं या नहीं और अनजाने में हम सब एक दूसरे से आपस में सम्बन्धित हैं। मैं सोचती हूँ - यह मेरा घर है या किसी दूसरे का घर है, किन्तु हम सब का घर केवल एक ही है और उसका स्वामी भी एक ही है। वह सब के हृदय में वास करता है। मुझे पूरा विश्वास है कि आप सब लोग इस सहज मार्ग पर विचार करेंगे, क्योंकि हम अपना काम करते हुए, बच्चों की देखभाल करते हुए, इत्यादि, यदि हम इस साधना को करें, जिससे इतनी खुशी मिलती है, तब मैं कहती हूँ, इससे अच्छी और कोई साधना नहीं है। साधारणतः हम अपनी हर पूजा को साधना कहते हैं मैं भी यह सब करती थी। रामायण पढ़ना, महाभारत पढ़ना, ईश्वर के बारे में कहानियाँ पढ़ना ये सभी साधनायें हैं। तब साधना का अर्थ क्या होता है ? मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को लिखा – “ईश्वर साक्षात्कार के अतिरिक्त जब कोई विचार मन में आता है, तो वह ठहरता नहीं है।“ तब मैं साधना का अर्थ समझी। जब कोई ईश्वर साक्षात्कार का संकल्प हृदय में कर लेता है, तो कोई अन्य विचार उसके मन में नहीं आ सकता है। साधना का यही सही अर्थ है, किन्तु यह इस प्रकार भी हो सकता है, जब आप कोई काम कर रहे होते हैं, तब आपको ऐसा लगता है कि कोई आपको याद कर रहा है। और आप अपने काम में व्यस्त है। सभी लोग जो बड़े कार्यक्रमों में, शादी-ब्याह, इत्यादि में व्यस्त रहते हैं, कहते हैं कि “सभी कार्य खुशी-खुशी सम्पन्न हो गये और ऐसा लगा कि, थकावट कभी आई ही नहीं।“

हम सभी एक परिवार हैं। जब भी संभव हो, परिवार के सभी सदस्य एक स्थान पर एकत्रित हों। जब तक यह शरीर चले, जब तक मैं आने की स्थिति में रहूँ, मेरा प्रयास केवल यही रहेगा, ‘वह’ जिसने इस शुभ सन्देश से कृपा की है, यदि आप सभी लोग वैसे ही बन जायें, जैसे ‘वह’ चाहता है, तो मेरा यहाँ आना सफल हो जायेगा और यही आपके जीवन की भी सफलता होगी।
संदेश - संत कस्तुरी
अभ्यासी कौन है
विजयवाड़ा
4/5/1990
मैं अपना विचार प्रकट करना चाहती हूँ, कि अभ्यासी कौन है? आपको कुछ परेशानी महसूस हो सकती है, क्योंकि आप लोगों में अधिकतर वरिष्ठ और पुराने अभ्यासी हैं और अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं। आप अनुभव कर सकते हैं कि यह आपके लिए उपयुक्त नहीं होगा। किन्तु, ऐसा नहीं है, श्री बाबूजी के साथ एक लम्बी अवधि तक रहने के कारण एवं अपने लम्बे अनुभव के आधार पर मैं यह कह सकती हैं कि सहज-मार्ग पद्धति के अभ्यासी की भूमिका बहुत ही गतिशील और महत्त्वपूर्ण है। जब कोई एक स्तर को पार कर दूसरे पर जाता है, तो उसे एक नया अनुभव होता है। इसीलिए वह किसी स्तर पर यह नहीं कह सकता कि वह योग्य और परिपक्व हो गया है और अब उसे कुछ और सीखने की आवश्यकता नहीं है। हम लोग अभी भी असीमित अनन्त के साक्षात्कार के लिए एक विद्यार्थी की तरह हैं। वास्तव में एक अभ्यासी भक्ति का साकार रूप है, यदि भक्ति की कमी है, तो वह अभ्यासी नहीं है।

अब, भक्ति क्या है और इसका विकास कैसे किया जा सकता है? जब भी शब्द ‘भक्ति’ दिमाग में आता है, ऐसा लगता है कि यह हमारे अन्तर की गहराई में अपने आराध्य श्री बाबूजी से जुड़ा हुआ है। गहराई की विशेषता से मेरा यह मतलब है कि हमारे मन, विचार और हृदय में किसी और के लिए कोई स्थान नहीं है, सिवाय मेरे आराध्य श्री बाबूजी के। यदि विचार और कार्य में केवल आराध्य हमारा प्रीतम है तो हदय उनकी स्वयं की उपस्थिति का अनुभव करता है और सदा ध्यानावस्था में रहता है। दिमाग में भी कोई अन्य स्थान नहीं पा सकता, चाहे वह कितना ही प्यारा और निकट क्यों न हो?

जब अभ्यासी लक्ष्य को बार-बार याद करता है, तो विश्वास का बीज उसमें फैल जाता है, इस अभ्यास को करने में कोई तभी सफल होता है, जब मन स्वतः ईश्वर से प्रेम करने लगता है जब हमें एकमात्र किसी के लिए तड़प होती है, तब हमारे मन में कुछ नहीं होता जो अपने प्रीतम को समर्पित करें, सिवाय स्वयं या अपने अहम् के। स्वयं के समर्पण की यह दशा और कुछ नहीं, बल्कि स्वयं को भूलने का एक स्थायी निमंत्रण है।

जब विश्वास गहरा हो जाता है, तो यह समझना चाहिए कि निमंत्रण स्वीकार हो गया। ऐसी स्थिति में हमारे अन्तर और बाह्य में कुछ नहीं रहता, सिवाय सद्गुरु श्री बाबूजी महाराज के ध्यान में डूबे रहने की दशा के। तब, अभ्यासी उनसे इस गहराई से जुड़ा रहता है। कि विचार को किसी दूसरी ओर मुड़ने की सम्भावना ही नहीं रहती। जब वह इस स्थिति को प्राप्त करता है, तब उसका दृढ़ विश्वास सद्गुरु में लय हो जाता है। अब जीवन का लक्ष्य सद्गुरु का साक्षात्कार हो जाता है। वह ईश्वरीय अनुग्रह में लगातार डूबा रहता है।

आन्तरिक ईश्वर खुशी का अनुभव उसके अहम् को पिघलाकर बाहर फेंक देता है। जब हम तेजी से ‘अहम् शून्य’ होने लगते हैं, हम अपने अन्तर में गूढ़ भक्ति का प्रवाह अनुभव करते हैं। हमें इस दशा का अनुभव स्वभावतः होता है और तब हम कह सकते हैं, “हम उनके हो गये हैं।” आगे की स्थिति में जीव और आत्मा भी उनमें समर्पित हो जाती हैं। तब अटूट भक्ति उनमे एकता का अनुभव प्रदान करती है। और यह हमारे लक्ष्य की ओर सुदृढ़ करता है। सहज मार्ग में अभ्यासी की उन्नति का यही प्राकृतिक तरीका है। यदि अभ्यासी गहरे ध्यान में डूबता है तो, यह क्रम अन्तर में प्राकृतिक रूप में चलता रहता है।

अभ्यासी की उन्नति के लिए एक और पूर्व शर्त है, जैसा कि श्री बाबूजी ने जोर देकर कहा है, कि जिस गुरु या पथ-प्रदर्शक को हम इस कार्य के लिए चुनें, उच्चतम स्तर का सक्षम एवं व्यावहारिक उपलब्धि वाला हो। उनके अपने शब्दों में “न्याय के साथ गुरु का चयन करो और पानी छान कर पियो।” कोई भी, विवेक और अनुभव से उनके लिए निर्णय ले सकता है। उन्होंने कहा है, “वह ऐसा होना चाहिए कि उसका दिव्य आकर्षण हमें अपनी ओर खींचे और उसे गुरु मानने के लिए कोई दबाव न हो।” ऐसा विशिष्ट व्यक्ति न तो स्वतः जन्म लेता है और न ही उसे बनाया जा सकता है, बल्कि ईश्वर स्वयं अवतरित होता है। वर्तमान युग, प्रकृति की पुकार पर, मानव की आधात्मिक उन्नति के लिए और सृष्टि की स्वच्छता एवं सुन्दरता के लिए, आकाश सहित ऐसे विशिष्ट व्यक्ति के अवतरण के लिए बेचैन था। तब श्री बाबूजी महाराज, एक विशिष्ट विभूति के रूप में अवतरित हुए और सारा संसार उनके दिव्य प्रकाश से आलोकित और ज्योतिर्मय हो उठा। हमे इस बात की जानकारी है कि वर्तमान युग, परिवर्तन के लिए और उनके गौरव से रूपान्तरण के लिए, उनकी ओर देख रहा है। सहज मार्ग के अन्तर्गत हम अभ्यासी लगातार ध्यान से उनके साक्षात्कार के लिए आगे बढ़ रहे हैं।

वास्तव में मानव समाज के लिए वह शुभ घड़ी दुर्लभ ही आती है, जब ‘श्री बाबूजी महाराज’ का विराट् संकल्प उनके विराट स्वरूप के द्वारा धरती पर दिव्य प्राणाहुति प्रवाहित होती है। उनकी ही दिव्य प्राणाहुति की धारा में हमें अपने अभ्यास के उच्चतम स्तर तक पहुँचना है अर्थात् अटूट भक्ति, और तब हम उनके पूर्ण साक्षात्कार के योग्य बन जाते हैं।

  1. श्रद्धा
  2. भक्ति
  3. लय

श्रद्धा अन्तर में सादगी उत्पन्न करती है। सादगी, जब इसे अन्तर में भक्ति का प्रवाह मिलता है, यह सम्पूर्ण अंग–विन्यास में फैल जाता है। यदि आप सजग हैं, तो आप उस सादगी के फैलाव को अपनी वाणी, दृष्टि ओर जीवन शैली में अनुभव कर सकते हैं। जब अभ्यासी के अंग-विन्यास में सादगी का आधिपत्य हो जाता है, तब श्रद्धा प्राकृतिक दशा में लय हो जाती है, अर्थात् भक्ति में। तब भक्ति हृदय में, प्रवाहित होती है और धीरे-धीरे उनके विराट् में फैल जाती है।

जब अभ्यासी के रोम-रोम में भक्ति भर जाती है, तब सादगी का विकास होता है। इसलिए, ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने कहा है भक्ति कोई बनावटी क्रिया नहीं है, इसका विकास प्राकृतिक रूप में ईश्वर में गहन विश्वास एवं लक्ष्य की प्राप्ति की दृढ़ता के कारण होता है। सादगी की दिव्य दशा आपके अन्तर और बाह्य जीवन में ईश्वरीय संतुलन का विकास करता है। इस दशा में हम विशुद्ध वास्तविकता का अपने अन्तर और बाह्य जीवन में अनुभव पाते हैं। इस दशा से ही हमें प्राकृतिक रूप में प्रेरणा मिलती है, न कि अपने अनुभव से। ऐसी दशा का आशीर्वाद मिलने के पश्चात् अगली दशा का अनुभव मस्तिष्क का कार्य नहीं है, बल्कि दशा स्वयं अपनी स्थिति को हममें उद्घाटीत करती है। इसलिए हमें सजग रहना चाहिए कि हम श्री बाबूजी महाराज के रूप में सादगी की विशुद्धता का दर्शन कर सकें। इस प्रकार, सादगी को हम प्राकृतिक दशा का जामा (apron) कह सकते हैं। इस दशा का आशीर्वाद प्राप्त कर लेने के बाद अभ्यासी अपने आप को श्री बाबूजी के प्यार में डूबा हुआ अनुभव करने लगता है। दूसरे शब्दों में ऐसी दशा मिल जाने के बाद इस बात का ज्ञान हो जाता है कि “यह कौन जान सकता है कि यह प्रेम कितना गहरा है।” यह इतना गहरा और प्रबल है कि हम अपने फैलाव व डूबे रहने के कारण उनमें लय होने के द्वार पर अपने को पाते हैं।

अब हम देखते हैं कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ में लय-अवस्था सभी ओर से व्याप्त है और भक्ति भी उनमें लय हो गयी है। तब ऐसा लगता है कि विशिष्ट व्यक्ति हमारा अपना हो गया है और बाद में उनके सर्वव्यापी रूप में लय-अवस्था प्रारम्भ हो गई है। यह उनके सर्वशक्तिमान रूप में फैलने लगी है। उनमें डूबे रहने और उनके लय रहने के फलस्वरूप, जब हम अहं शून्य हो जाते हैं, तब श्री बाबूजी महाराज के साक्षात्कार का शुभ आशीर्वाद मिलता है। इस प्रकार, अपनी आत्मा भी मूल रूप में उनमें लय हो जाती है और उनके पूर्ण साक्षात्कार का फल मिल जाता है। जब अभ्यासी अपने आराध्य में डूब जाता है, तब क्या बच जाता है केवल उनका दिव्य गौरव, और कुछ नहीं।

मैं केवल सच्चाई एवं दृढ़ता से ही नहीं चाहती हैं बल्कि भरपूर कोशिश करती हूँ कि सहज-मार्ग के अभ्यासी इस योग्य बन जायें कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ के उदार अनुग्रह की वर्षा होती रहे और वे अपने लक्ष्य को प्राप्त करें। मेरा दृढ़ विश्वास है और मैंने हमेशा ज़ोर भी दिया है और आज भी आप लोगों से ज़ोर देकर कह रही हूँ कि ऐसा योग्य अभ्यासी केवल वही हो सकता है, जिसने अपनी दृष्टि दृढ़तापूर्वक ‘श्री बाबूजी’ पर गड़ा रखी है। तब नज़र के सामने कुछ नहीं बचता सिवाय शून्य के और वह भी लय हो जाता है।

भाइयों और बहनों ! यह हमारा परम कर्तव्य है और हम लोगों के लिए गर्व की बात है कि हम दिल से श्री बाबूजी के इस शुभ युग का लाभ उठायें और सच्चाई तथा ईमानदारी से अपने ध्यान की पद्धति का अभ्यास करें।

मैं आश्वस्त हूँ कि मूल श्रोत (भूमा) अभ्यासियों के हृदयों को अपने दिव्य अनुग्रह की लगातार वर्षा से अवश्य ही आलोकित करेगा और उन्हें लक्ष्य तक ले जायेगा। श्री बाबूजी के साथ अटूट सम्बन्ध सफलता के लिए निश्चित है। मेरे कहने का अर्थ यह काफी होगा कि यदि आप अपने हृदय में तड़प पैदा नहीं कर सकते तो तड़प स्वयं आपके हृदय को रूपांतरित कर देगी।

आपके लक्ष्य की प्राप्ति के लिए श्री बाबूजी आपको अधिक से अधिक आशीर्वाद दें।

संदेश - संत कस्तुरी
किस पर निर्भर करें
विजयवाड़ा
4/5/1990
इस प्रश्न का बार-बार उठना केवल इस बात का संकेत है कि आपको दो प्रश्नों के उत्तर चाहिए।
  1. आप के मानव-स्वभाव को सर्वप्रथम किसने याद किया?
  2. हमें अनन्त की ओर ले जाने के लिए इस धरती पर कौन अवतरित हुआ ?

आप को स्वतः उत्तर मिल जायेगा कि वह कोई और नहीं, बल्कि, ‘श्री बाबूजी महाराज’ हैं, एक विशिष्ट विभूति, जो ‘सहज-मार्ग’ के अन्तर्गत अपनी दिव्य प्राणाहुति द्वारा वर्तमान युग को आलोकित और गौरवान्वित कर रहे हैं। इसलिए ‘वे’ अनन्त हैं।

ऐसी विशिष्ट विभूति के लिए, जो वास्तविकता का साकार रूप है, यदि कोई बार-बार प्रश्न करता है और जिसका विश्वास डोल गया है, तब यह निष्कर्ष निकलता है कि उसकी दृष्टि से वास्तविकता धीरे-धीरे ओझल हो जायेगी।

ऐसा प्रश्न किसी के मन में तभी उठता है, जब कोई और उसके मन में आता है। यदि हम केवल वास्तविकता को (ईश्वर प्राप्ति को) अपने समक्ष रखें, तो मन में ऐसा प्रश्न कभी नहीं उठेगा। ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने कहा है - यदि ‘आप’ (विशिष्ट विभूति) यहाँ हैं, ‘मैं’ (अभ्यासी का अहम्) कभी बीच में नहीं आ सकता। उन्होंने यह भी कहा है – ‘आप’ (विशिष्ट विभूति) पर निर्भरता इसका उत्तर है। और ‘मैं’ प्रश्न है, जो ‘आप’ से अलग करता है।

इसलिए, मेरा नम्र निवेदन है कि आप लोग ‘मैं’ को ‘आप’ के साथ रखें, तब सहज-मार्ग के अन्तर्गत आपका आध्यात्मिक पथ सहज हो जायेगा।

संदेश - संत कस्तुरी
अवतरण क्यों ?
विजयवाड़ा
4/5/1990
आज ईश्वरीय-रहस्य हमारे सामने है। अवतार या दिव्य-पुरुष का ब्रह्म-रूप में प्रकट होना इस बात का सूचक है कि यह एक भण्डार–घर है, जहाँ उद्गम की शक्ति प्रकृति का कार्य करने के लिए एकत्रित रहती है। प्रकृति के पास इसको रखने की कोई क्षमता नहीं होती। वहाँ केवल ईश्वरीय-धारा का प्रवाह है। जब ‘वह’ दिव्य-पुरुष के रूप में अवतरित होता है, वही इस प्रभुत्व को वश में रखता है और प्रकृति के कार्य के लिए तथा मानवता का उत्थान अपनी इच्छानुसार करने के लिए, इस शक्ति का प्रयोग करता है। ब्रह्म-रूप अथवा सत्यपद के भण्डार को श्री बाबूजी की पुस्तकों में ध्रुव-पद कहा गया है। यह माइण्ड रीजन ( mind region ) है। एम्बलम में सत्य पद के नीचे ईश्वरीय-शक्ति का प्रवाह सहज-मार्ग धारा के रूप में दर्शाया गया है, जो वास्तव में दिव्य-पुरुष श्री बाबूजी महाराज का हृदय क्षेत्र है। यही कारण है कि हृदय-क्षेत्र की यात्रा करते समय हर क्षण ऐसा प्रतीत होता है कि हमें ‘उनका’ दैवी-स्पर्श और उनके हृदय का प्रेम मिल रहा है।

ऐसी उन्नत दशा के होते हुए भी, यह सत्य है कि स्रोत से प्रवाहित शक्ति का नग्न रूप में स्पर्श का अनुभव नहीं हो सकता। इसलिए शक्ति को अभ्यासी में प्रवाहित करने के पूर्व इसे लयबद्ध किया जाता है।

श्री बाबूजी महाराज सर्वप्रथम शक्ति के श्रोत को अपने मन में लेते हैं और फिर उसे हृदय में प्रवाहित करते हैं। तब वे अपनी इच्छा पर एक पर्दा डालते हैं, ताकि उनकी प्राणाहुति अभ्यासी द्वारा ग्रहण की जा सके। इसलिए हम कह सकते हैं कि दैविक शक्ति, श्री बाबूजी महाराज की इच्छाशक्ति से, समुचित रूप से ढकी अवस्था में ही अभ्यासी के हृदय में प्रवाहित की जाती है।

धीरे-धीरे प्राणाहुति मिलने के बाद जब हम हृदय-क्षेत्र में पहुँचते हैं, तब हम उनकी कृपा से शक्ति को पचाने में सक्षम हो जाते हैं। तब हम उनके मस्तिष्क में रहना प्रारम्भ कर देते हैं और उनकी शक्ति का स्पर्श करने में सक्षम हो जाते हैं। ईश्वर–साक्षात्कार के पश्चात् अभ्यासी उनके संकल्प के आधार पर केंद्रीय क्षेत्र में तैरने लगता है। इसलिए स्रोत से दैविक-शक्ति का प्रवाह सहन करने की क्षमता के लिए हमें उनके संकल्प की नाव में सदा रहना होगा। फिर भी हम वास्तविकता के श्रोत का मुख नहीं देख सकते। इससे यह अधिक साफ़ हो जाता है कि श्री बाबू महाराज ने आवश्यकता के अनुसार कई आध्यात्मिक क्षेत्र बनाये हैं, जैसे माइण्ड रीजन, हृदय क्षेत्र एवं केन्द्रीय क्षेत्र।

माइण्ड रीजन हमेशा हमे उनके दिव्य मानव रूप की याद दिलाता रहता है कि वे धरती पर अवतरित हुए हैं और भूमा की शक्ति उनके पास है। यदि ऐसा नहीं होता, तो विशिष्ट व्यक्ति को यह भान नहीं होता कि उसकी शक्ति अनन्त है। इसी कारण जब कोई श्री बाबूजी महाराज को याद दिलाता है कि वे सब कुछ कर सकते हैं, तभी वे सादगी के साथ कहते हैं, “हाँ, मैं सारी सृष्टि को रूपान्तरित कर सकता हूँ”, किन्तु उसी क्षण शायद श्री लालाजी साहब की सावधानी के कारण, जैसा कि वे कहा करते थे- “नहीं मैं सृष्टि को नष्ट करने के लिए नहीं बल्कि उसे सजाने के लिए अवतरित हुआ हूँ।”

यदि श्री बाबूजी महाराज मानव रूप में अवतरित नहीं होते और प्रकृति का कार्य करने के लिए संकल्प नहीं लेते, तो धरती पर शक्ति का अनवरत प्रवाह सम्भव नहीं होता और श्री बाबूजी महाराज के चरण स्पर्श का शुभ अवसर प्राप्त नहीं होता। यह उनके अवतरण के ही कारण हुआ कि धरती पर मानव समाज को उनके चरण स्पर्श का शुभ आशीर्वाद प्राप्त हुआ और अनन्त श्रोत से दिव्य शक्ति का प्रवाह भी। यह आज उपलब्ध है और आगे भी ऐसे ही रहेगा जब तक उनका संकल्प पूरा नहीं हो जाता | अनन्त की शक्ति के साथ उनकी उपस्थिति मानव समाज को असीमित भविष्य तक उनके उच्चतम लक्ष्य की प्राप्ति की प्रेरणा देता रहेगा।

संदेश - संत कस्तुरी
शक्ति, अनुग्रह और प्राणाहुति
विजयवाड़ा
4/5/1990
शक्ति, अनुग्रह और प्राणाहुति सब एक दूसरे से अलग हैं।

शक्ति :- शक्ति का अर्थ है ईश्वरीय शक्ति, जैसा कि यह मूल श्रोत से प्रवाहित होती है। अपने नग्न रूप में मानवों के लिए यह असहनीय होती है और इसे कोई छू भी नहीं सकता। ‘उनमें’ लय हो कर उनके आशीर्वाद से ही यह प्राप्त होती है। दूसरे शब्दों में, ‘उनमें’ लय होने के पश्चात् ही हम ‘उनकी’ शक्ति का आवेग अनुभव कर सकते है। केवल यही नहीं, हम यह भी अनुभव करते हैं कि शक्ति, जो प्रवाहित हो रही है, हमारी अपनी है। ऐसी स्थिति में हृदय का अनुभव और खुशी को हम अनुग्रह नहीं कहते, बल्कि केवल यह कहते हैं कि हमें शक्ति मिल रही है।

अनुग्रह :- अनुग्रह का अर्थ है, वह शक्ति जो ‘मालिक’ श्री बाबूजी महाराज अपनी खुशी से अभ्यासियों को आशीर्वाद के रूप में देते हैं। यह इच्छा-शक्ति के बंधन से स्वतंत्र होती है।

प्राणाहुति :- इसका अर्थ है श्री बाबूजी की इच्छा-शक्ति की सीमा के भीतर ‘उनकी’ शक्ति का प्रवाह, जिसे हम प्राप्त करते हैं।

‘श्री बाबूजी महाराज’ अपनी खुशी से अभ्यासियों पर अनुग्रह करते हैं। यद्यपि हमें नहीं मालूम कि ‘वे’ कब और कैसे खुश होते हैं, किन्तु हम अपने हृदय में इस आवेग का अनुभव करते हैं कि हमें अनुग्रह मिल रहा है। इसलिए लोगों की ‘उनमें’ अटूट भक्ति होनी चाहिए। अपनी भक्ति के द्वारा जब हम उनमें डूबे होते हैं, हमें उनके अनुग्रह की वर्षा का अनुभव होता है और तब प्राणाहुति तुच्छ अथवा अनुग्रह से छोटा जान पड़ती है। जब कोई सहज मार्ग साधना अपनाता है और ईश्वर–साक्षात्कार उसका लक्ष्य होता है, वह तीन सिटिंग लेता है, तब श्री बाबूजी की इच्छा के अन्तर्गत उसे प्राणाहुति शक्ति दी जाती है। श्री बाबूजी महाराज प्रिसेप्टर के द्वारा प्राणाहुति देते हैं या यदि अभ्यासी उनकी याद में है, तो श्री बाबूजी से प्राणाहुति स्वतः मिलती है।

संदेश - संत कस्तुरी
प्रेम और लगाव
विजयवाड़ा
9/4/1991
साधारणतः अभ्यासी लोग ‘लगाव’ और ‘प्रेम’ को एक ही अर्थ में लेते हैं। ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने कहा है कि ‘लगाव’ केवल सांसारिक रिश्तों से होता है और 'प्रेम' केवल साक्षात्कार के लक्ष्य से।

हमारा लगाव हमारी पसन्द और खुशी देने वाली वस्तुओं से होता है, किन्तु हमारी इच्छायें तृप्त नहीं होती और बढ़ती ही जाती हैं। मोह मनुष्य के लिए हानिकारक है, जो मनुष्य को पीछे की ओर धकेलता है और मूल दशा से दूर करता है। दूसरी ओर प्रेम उमंग से भर देता है, तथा उत्साह, जागृति बन्धुत्व, शान्ति और पवित्रता को फैलाता हुआ सूक्ष्म वातावरण में ले जाता है। बन्धुत्व का विचार मानव-बन्धन से प्रभावित नहीं होता और न ही पसन्द और नापसन्द का दास होता है। इस सम्बन्ध में मैं अपना अनुभव बताती हूँ। मैं पहली बार ‘श्री बाबूजी महाराज’ के पास गई और उनके प्रति मेरे प्रेम से मैं अभिभूत हो रही थी। मेरा हृदय भारी था और वहाँ से हटने की इच्छा नहीं थी और न उनका घर छोड़कर वापिस आने की इच्छा थी। यह केवल मेरा लगाव था, प्रेम नहीं। घर आने पर मेरा मन श्री बाबूजी महाराज के विचार से भरपूर था और हमें ‘उनकी’ याद आ रही थी। उनके स्नेह की गहराई और उनसे बिछुड़ना मुझे प्रभावित कर गया। ये विचार मेरे मन में घूमने लगे और ऐसा लगा कि ‘वे’ मेरे सामने हैं। यह मेरे हृदय में ‘श्री बाबूजी महाराज’ के साथ एक दैवी प्रेरणा थी जो समय आने पर मुझमें उत्पन्न हुई। इसके फलस्वरूप मेरी आँखों ने उनके ईश्वरीय वैभव को देखा और मेरे मन में एक गहरी छाप छोड़ गया। मैं अन्तर्मुखी हो गई। भौतिक संसार का मोह समाप्त हो गया। ‘श्री बाबूजी महाराज’ की सर्वव्यापकता हमारे निकट आ गई। मेरे हृदय को उनके सूक्ष्म अस्तित्व का अनूठा अनुभव हुआ। एक दिन मैं बिस्तर से उठी और ज़मीन पर अपना पैर रखा, किन्तु मुझे धरती का स्पर्श अनुभव नहीं हुआ। मुझे अनुभव हुआ कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने मुझे सांसारिक लगाव से ऊपर उठा दिया है। जब मैं दूसरी बार शाहजहाँपुर गई, मैं ‘श्री बाबूजी महाराज’ के प्रभाव में आ गई और कछ दिनों के बाद मेरा ‘उनसे’ लगाव हो गया। कमरे के बाहर बरामदे में ‘वे’ कुर्सी पर बैठे रहते थे। कभी-कभी वे अपने घर के अहाते में टहला भी करते थे। सदा ‘उन्हें’ देखते रहने और साथ रहने की लालसा होती थी। मैंने देखा कि मेरे स्वभाव में एक बदलाव आ गया है। ‘वे’ हमारे हृदय में सूक्ष्म रूप से रहते थे। उनके परिवार के सदस्यों, रिश्तेदारों, तथा मित्रों के साथ मेरा कोई खास लगाव नहीं था। ‘श्री बाबूजी महाराज’ की उपस्थिति से मेरा हृदय भर गया था।

आगे चलकर यह स्थिति स्थिर नही रही, बल्कि प्रगतिशील हो गई। ‘उनकी’ याद ने मेरे अन्तरतम को छू लिया और बोध अलौकिक हो गया। ऐसा लगा कि उनसे मेरा सम्बन्ध कई जन्मों का है। स्थिति विरोधाभासी थी। एक ओर दिव्य लगाव सदा के लिए घुल गया और दूसरी ओर उनकी दिव्यता का साक्षात्कार पहुँच के बाहर लगा। इसीलिए उनकी गोद में जाने के लिए प्रेम का बीज मेरे हृदय में पड़ गया। संत कबीर की वाणी है – “प्रेम न बाड़ी उपजै, प्रेम न हाट बिकाय।“ प्रेम का बीज केवल हृदय में ही बोया जा सकता है। यह सत्य मेरे अनुभव में बैठता है।

एक अभ्यासी ‘श्री बाबूजी महाराज’ को तभी समझ सकता है, जब उसके ‘स्व’ का वास्तविकता में विलय हो जाता है, जो प्रेम का बीज बोने के लिए एक पूर्व शर्त है, प्रेम अंकुरित होने के लिए अभ्यासियों के हृदय बहुत ही उपयुक्त क्षेत्र हैं। कबीर ने कहा है कि जहाँ साक्षात्कार के लिए प्रेम उमड़ता है, अनन्त से अनुग्रह की वर्षा होती है।

प्राणाहुति का प्रवाह मेरे हृदय में लगातार होता रहता है, जिससे हमारे शरीर का कण-कण दैवी आनन्द के क्षेत्र में डूबा रहता है, चाहे हमें इसकी चेतना हो अथवा नहीं। इस प्रकार प्रेम की सुगन्ध चारों ओर फैलती रहती है। आध्यात्मिक कार्य वास्तव में तभी आरम्भ होता है, जब हमारे हृदय में प्रेम का बीज अंकुरित होता है। ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने कहा है – “अभ्यासी ध्यान के अभ्यास का दास नहीं है, बल्कि वह ईश्वर की सृष्टि का प्रतिनिधि है, जो ईश्वरीय कार्य करने में सहायक होता है।“

यह मेरी विनम्र प्रार्थना है कि आप सभी अभ्यासी अपने हृदय में प्रेम का बीज अंकुरित होने के लिए तीव्र तड़प पैदा करें और अनन्त का साक्षात्कार करने के लिए ‘श्री बाबूजी महाराज’ का आशीर्वाद पायें।

संदेश - संत कस्तुरी
प्रगति के लिए निर्देश
विजयवाड़ा
10/4/1991
समय-समय पर, कई स्थानों पर होने वाले सत्संगों में जो मैंने देखा है, आज उसी पर मैं बात करूंगी। अभ्यासियों ने व्यक्त किया है किः-
  1. ऐसे अवसरों पर ध्यान में हमें अच्छा लगा।
  2. अन्य अवसरों पर ऐसा अनुभव नहीं हुआ।
  3. उनकी प्रगति धीरे लगती थी।
  4. अध्यात्म की उन स्थितियों के बारे में जानना चाहते हैं, जिनसे वे गुज़रे हैं अर्थात् जिन बिन्दुओं को पार किया है तथा जिन क्षेत्रों से गुजरे हैं।

मुझे विश्वास है कि जैसा ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने बताया है, उस प्रकार यदि ध्यान किया जाये, तो लक्ष्य प्राप्ति निश्चित है। विस्तार में जाने के बजाय लक्ष्य प्राप्ति में तीव्रता से प्रगति करने के लिए जो पूर्व-शर्ते हैं, मैं उन्हें बताती हूँ।

अनन्त के साक्षात्कार को पूर्ण लक्ष्य मानते हुए सहज मार्ग के अन्तर्गत ध्यान करने का यह अभिप्राय नहीं है कि हम अपने भौतिक जीवन की अवहेलना करें, बल्कि सांसारिक कार्यों को भी आवश्यकता के अनुसार हमें करना चाहिए। मुक्ति अथवा बंधन से स्वतंत्रता तभी मिल सकती है जब आप जीवन में सभी ज़िम्मेवारियों को निभाते रहें। अच्छे या बुरे सभी कार्यों को इस प्रकार करें मानो वे ईश्वरीय आदेश हैं। धर्म के मार्ग पर चलते हुए आप ‘श्री बाबूजी महाराज’ को याद करें, उनकी आज्ञा का पालन करें और आपने कर्तव्यों को कर्तव्य समझ कर करें। आप के सभी कर्मों के लिए आपका जीवन यापन, परिवार का पोषण और व्यक्तिगत आवश्यकताओं को पूरा करना जरूरी है। अपने कार्यों में सफलता के लिए प्रयत्नशील रहें। महिलायें भी जीवन में अपना कार्य करती हैं। वे कार्यालयों में काम करते हुए भी अपनी घरेलू जिम्मेवारियाँ निभाती हैं। उनके सहयोग बिना सामाजिक कार्य पूरे नहीं होते। भारत में महिलाओं का विशेष स्थान है। संक्षेप में आप अपने कर्तव्यों पर पूरी तरह समर्पित रहें।

इसी प्रकार, जब आप अपने घर में या कहीं और किसी अवसर पर ध्यान करते हैं, आप साधना में पूरी तरह प्रेम और भक्ति के साथ ‘श्री बाबूजी महाराज’ की याद में तल्लीन रहते हैं, ताकि ईश्वरीय शक्ति की बूंद-बूंद आपकी प्रगति में प्रयोग होती रहे। उनमें अटूट विश्वास तथा उनके प्रति भक्ति आपको भौतिकता से परे ले जाती है। सूक्ष्म शरीर और हृदय उनके अनुग्रह को आत्मसात् करते हैं और ‘उनकी’ शक्ति आध्यात्मिकता में ग्रहण कर लेते हैं। हृदय के बोध को बढ़ाने की आवश्यकता है, जिसके बिना सूक्ष्म दैवी प्रेरणा की पहिचान नहीं हो सकती। श्री बाबूजी महाराज ने कहा है- सामीप्यता साधना में प्रगति की पहली महत्त्वपूर्ण पहचान है।
  1. हमारे हृदय में ईश्वरीय प्रकाश की उपस्थिति प्रगति के प्रारम्भिक स्तर का संकेत है।
  2. धीरे-धीरे पहले भौतिक रूप में हल्का होने का अनुभव होता है।
  3. समय आने पर यह चेतना को हल्केपन के अनुभव को स्थान देता है। बाहरी दुनिया की सजगता खो कर आप अलौकिक वातावरण में निमग्न हो जाते हैं।
  4. हृदय में ‘श्री बाबूजी महाराज’ की उपस्थिति जान पड़ती है।
  5. अब आपको हृदय की खुशी का आशीर्वाद मिल जाता है।

हृदय में इन बदलावों को अनुभव करने के लिए आप को सजग रहना चाहिए। इसलिए ध्यान ऐसा होना चाहिए, जैसा निर्धारित है। आप उनके अनुग्रह के अधिकारी हैं। अपनी क्षमता को बढ़ायें ताकि उनकी आध्यात्मिक शक्ति और उनका वरदान आप प्राप्त कर सकें

हृदय में इन बदलावों को अनुभव करने के लिए आप को सजग रहना चाहिए। इसलिए ध्यान ऐसा होना चाहिए, जैसा निर्धारित है। आप उनके अनुग्रह के अधिकारी हैं। अपनी क्षमता को बढ़ायें ताकि उनकी आध्यात्मिक शक्ति और उनका वरदान आप प्राप्त कर सकें।

अभ्यासी इस भ्रम में दुखी रहते हैं कि उनकी प्रगति तीव्रता से नहीं हो रही है। ;|fi वे एक नहीं कई प्रिसेप्टर्स से बार-बार सिटिंग लेते हैं और कई बार ग्रुप सिटिंग में भी बैठते हैं। इसका अर्थ है उन अभ्यासियों में ग्रहणशीलता की कमी है। ध्यान में अभ्यासी को जो कुछ मिलता है, उसे अपने में आत्मसात् कर लेना चाहिए। हृदय की प्यास अभ्यासी में प्रतिबिम्बित होती है। जब प्रिसेप्टर इसे पहचान लेता है, वह अभ्यासी को सिटिंग देने के लिए बेचैन हो जाता है। जब भिखारी का कटोरा ऊपर तक भरा रहता है, तब कोई दानी उसे और क्या दे? इसलिए अभ्यासी को अपनी क्षमता बढ़ानी चाहिए, ताकि वह ‘मालिक’ का दिया हुआ अनुग्रह अपने में पूरी तरह आत्मसात् कर सके। ग्रहणशीलता जितनी अधिक होगी, आध्यात्मिक उन्नति उतनी ही ज्यादा होगी।

आपको बताया गया है कि प्राणाहुति हृदय पर दी जाती है। प्रगति का संकेत मिलने पर आपको अपने विचारों द्वारा इसे फैलाना चाहिए। आपको अनुभव करना चाहिए कि दिव्य शक्ति आपके अंग-अंग में व्याप्त हो रही है और उसे दिव्य तथा पवित्र बना रही है। आपको अपना आध्यात्मिक अनुभव अपने व्यवहार द्वारा लोगों में फैलाना चाहिए। सहज मार्ग जीवन के उच्चतम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए ही केवल नहीं है, बल्कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ के साये में जीवन बिताना भी है। दिव्य चेतना आपके अंग-अंग में आत्मसात होनी चाहिए। आत्मनिरीक्षण आपको यह बतायेगा कि पिछले दिनों आपकी दशा क्या थी? आपके जीवन और व्यवहार में कितना सुधार हुआ तथा बहिर्मुखी से अन्तर्मुखी होने में आपका कितना रूपान्तरण हुआ।

जीवन की दशा में बदलाव आ सकता है। परिस्थितियों पर चिन्तन करना छोड़ दें। उत्साहहीन कभी न हों। अपने को कभी अकेला न समझें। ‘श्री बाबूजी महाराज’ की देख-रेख में रहकर आप सदा सुखी रहेंगे। जीवन का उच्चतम लक्ष्य प्राप्त करने का दृढ़ संकल्प इस साधना में पहला कदम है। आप को इस मार्ग से किसी भी हालत में कभी नहीं हटना है। जीवन में जो भी परिस्थितियाँ आयें परिवार, रिश्तेदार अथवा समाज के प्रभाव का ख्याल न करते हुए ‘श्री बाबूजी महाराज’ पर निष्ठापूर्वक निर्भर रहें और कोई भी विषम परिस्थिति आपका हाथ उनके हाथों से न छुड़ा सके।

संदेश - संत कस्तुरी
आध्यात्मिक यात्रा
विजयवाड़ा
10/4/1991
साधारण बात-चीत में ‘दूरी’ का अर्थ दो स्थानों के बीच का अन्तर होता है। दूरी के अनुसार हमारा निशाना होता है। जो यात्रा के आरम्भ के बाद, जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते हैं, यह संकुचित होता जाता है और गंतव्य तक पहुंचने पर यह शून्य रह जाता है। अध्यात्म में शब्द ‘दूरी’ का अर्थ दूसरा होता है। यहाँ स्थान सम्बन्धी अन्तर नहीं होता, बल्कि गुरु के भौतिक शरीर और उनके दिव्य रूप से सम्बन्धित होता है। भौतिक शरीर हम भौतिक आँखों से देख सकते हैं, किन्तु दिव्य रूप आन्तरिक आँखों से ही देख सकते हैं।

जब कोई गुरु के चरणों में पहुँचता है, वह समझता है कि उसके और गुरु के बीच दूरी समाप्त हो गई। गुरु परम्परा में यह संभव हो सकता है। जहाँ गुरु केवल परिपाटी के रूप में लिया जाता है। अध्यात्म, जो गुरु परम्परा से मुक्त है, में यह धारणा नहीं चलती। ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने मुझसे कहा है कि अध्यात्म में दूरी या अन्तर वास्तव में तब आरम्भ होता है, जब हम गुरु से मिलते हैं। ऐसे दिव्य अस्तित्व की परख भौतिक आँखों से उसका भौतिक रूप देखने के बाद हमें दैवी प्रेरणा तब मिलती है, जब हम अनन्त के साक्षात्कार की यात्रा में प्रगति करते हैं।

जब हम ‘श्री बाबूजी महाराज’ द्वारा निर्धारित ध्यान का अभ्यास लगातार करते हैं, हमारे हृदय में उनकी दिव्य शक्ति हमारी रहनी को रूपान्तरित कर हमें अन्तर्मुखी बना देती है। धीरे-धीरे हम अपने हृदय में रूपान्तरण का चिन्ह अनुभव करने लगते हैं अर्थात् हमारे हृदय में ‘श्री बाबूजी महाराज’ की उपस्थिति। हमने उनका भौतिक रूप देखा है और अब हम ‘उनकी’ दिव्यता का प्रभाव अनुभव करते हैं। जब हम उनका प्रवचन सुनते हैं, यह केवल उनके स्वर की बौद्धिक प्रशंसा नहीं होती और न ही उनकी सलाह की गहराई से संतोष होता है, बल्कि उनके प्रेम भरे स्वर से सूक्ष्म अनुभव होता है। हम समझते हैं कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ के चरणों में केवल पहुँचने से हम अपने लक्ष्य पर नहीं पहुँच जाते, बल्कि यह गुरु तक पहुँचने की यात्रा की केवल शुरुआत है।

इस दूरी को तय करने के लिए या अपने लक्ष्य अनन्त का साक्षात्कार पाने के लिए, हमें विभिन्न आध्यात्मिक स्तरों को पार करना होता है, जैसे ‘श्री बाबूजी महाराज’ की कृपा से भौतिक, सूक्ष्म और कारण शरीर का घुलना तथा आत्मा का परमात्मा में विलय होना।

‘उनकी’ याद में डूबे रहने से तथा गुरु दर्शन में आन्तरिक खुशी को न्योछावर करने से, हमारे भौतिक, सूक्ष्म और कारण शरीर के घुलने का क्रम जारी हो जाता है तथा हम चेतना की सीमा को पार कर लेते हैं और तब हमें आन्तरिक दृष्टि के साथ उनका आशीर्वाद मिलता है। भौतिक रूप में देखने की खुशी जो हमें अनुभव हुई थी उसकी जगह अब सूक्ष्म दर्शन ने ले ली है। अब हमें इस बात का पूरा अनुभव हो गया है कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ का कथन कि “ध्यान में गहरे जाओ” का अर्थ क्या है ? अब भौतिक शरीर कारण रूप में लय होने लगता है। आगे चलकर ध्यान में केवल कारण शरीर ही डूबा रहता है। अब अभ्यासी जैसे-जैसे गहराई में जाता है, लय-अवस्था अपना प्रभाव डालती है कि अभ्यासी अपनी आत्मा की ओर आकर्षित हो और आत्मा भी उसे अपनी ओर खींचती है। इस स्तर पर अभ्यासी अनुभव करता है कि उनके पावन चरणों तक पहुँचने में उसने कितनी प्रगति की तथा सद्गुरु के चरणों तक पहुँने का महत्व भी समझ गया।

ध्यान सूक्ष्म हो जाता है और डूबे रहने का अनुभव भी क्षीण हो जाता है, क्योंकि हम 'श्री बाबूजी महाराज' को याद करते हैं तथा हमारा कारण शरीर तथा आत्मा उनमें लय हो जाती है। दोनों के बीच की दूरी की पहचान लुप्त हो जाती है, साथ ही स्थान का अनुभव, समय और गुरु भी लुप्त हो जाते हैं।

अब अभ्यासी और गुरु के रिश्ते का पहला पड़ाव समाप्त हो जाता है। शिष्य और सद्गुरु के रिश्ते का दूसरा स्तर अब आरम्भ होता है अर्थात् आत्मा का परमात्मा में लय होने के बाद का रिश्ता। अन्तर की दृष्टि से ‘श्री बाबूजी महाराज’ के वास्तविक रूप की झलक देखने से अभ्यासी प्रफुल्लित हो जाता है और नृत्य करने लगता है। जब मैंने अपने अन्तर की इस दशा के बारे में ‘श्री बाबूजी महाराज’ को लिखा तो उन्होंने उत्तर दिया कि इस दशा का वास्तविक वर्णन ‘आत्मा का नृत्य’ है। आगे उन्होंने लिखा है कि साक्षात्कार की स्थिति दैवी सन्देश देती है कि आत्मा स्वतंत्र हो गई है। नृत्य की दशा धीरे-धीरे अन्तर में दिव्य दशा का फैलाव तीव्र कर देता है और अभ्यासी का अंग-अंग दिव्यता से प्रकाशित, पवित्र तथा ज्योतिर्मय हो उठता है। इसका फल आत्मा का परमात्मा में लय होना होता है।

अभ्यासी को पता लगता है कि गुरु का कार्य ‘आत्मा की मुक्ति’ अब पूरा हो गया है। अनन्त तक की आगे की यात्रा केवल ऐसे व्यक्ति के निर्देशन में हो सकती है, जिसे ईश्वरीय शक्ति प्राप्त हो और जो मानव समाज को ईश्वरीय राज्य में ले जाने के लिए धरती पर अवतरित हुआ हो। ऐसा सद्गुरु कोई और नहीं, केवल ‘श्री बाबूजी महाराज’ हैं।

अभ्यासी एक शिष्य की तरह सद्गुरु के चरणों में गिर जाता है। वह सद्गुरु की दृष्टि में आ जाता है और सद्गुरु की कृपा से वह एक सच्चा साधक अथवा शिष्य के रूप में रूपान्तरित हो जाता है। ‘श्री बाबूजी महाराज’ का कथन कि “गुरु बनाया नहीं जाता बल्कि घटनावश मिल जाता है“ सत्य हो जाता है। सद्गुरु ओर शिष्य के बीच का रिश्ता अनूठा होता है, इस अर्थ में कि सद्गुरु सब कुछ जानता है किन्तु भक्ति और हृदय पुकारता है कि “बिना भक्ति तारो, तब तारिबो तिहारो है” अर्थात् यदि बिना भक्ति के आप मुक्ति देते हैं. तब मैं समझंगा कि यह आपकी उदारता है।

सद्गुरु का प्रेम शिष्य के हृदय में उड़ेलना आरम्भ होता है ताकि साक्षात्कार की प्यास जाग्रत हो जाये। धीरे-धीरे प्यास, जो युगों से निष्क्रिय थी जाग जाती है और वहाँ कोई अनुभव नहीं रह जाता, सिवाय इसके कि वह और सदगुरु आमने-सामने हैं। ऐसी दशा प्राप्त करने के बाद एक संत ने कहा है – “न मैं किसी को देख रहा हूँ न आप मुझे दूसरों को देखने दे रहे हैं।“

इस स्तर पर प्रेम में लचीलापन नहीं रहता। ‘श्री बाबूजी महाराज’ शिष्य पर दिव्य शक्ति की वर्षा करते हैं और अपनी उदार मुस्कान के साथ उसे ईश्वर के क्षेत्र में ले आते हैं, ऐसे मानो सद्गुरु के रूप में उन्होंने अपना संकल्प पूरा कर लिया है। किन्तु शिष्य बेचारा क्या करे वह भूल जाता है कि वह कहाँ है, ईश्वर के सामने अथवा कहीं और। वह अपने को एक गतिविहीन स्थिति में पाता है अबोध तथा सादगी की स्थिति में इस सत्य के कारण कि वह दिव्य विभूति के निकट और उनकी निगरानी में ले आया गया है। ऐसी कल्पना से परे की स्थिति में सद्गुरु का महत्वपूर्ण औचित्य उसके समक्ष प्रकट होता है। वह सद्गुरु को ईश्वर समझ लेता है और अपने को उन्हें समर्पित कर देता है। ‘श्री बाबूजी महाराज’ का अबोध, उदार तथा मुस्कुराता चेहरा यह अनोखा रहस्य प्रकट करता है कि यही ईश्वर साक्षात्कार है। उसके बाद वे शिष्य को अपने में विलय कर लेते हैं, और ईश्वर में डुबाकर लय-अवस्था का आशीर्वाद देते हैं। ‘श्री बाबूजी महाराज’ के संकल्प के अनुसार शिष्य अन्त तक दिव्यता में झूलता रहता है।

संदेश - संत कस्तुरी
ध्यान का वास्तविक अर्थ
विजयवाड़ा
2/3/1993
साप्ताहिक सत्संग में या कभी उत्सव में, जब अभ्यासी लोग मेरे पास आते हैं तो अधिकांश लोगों की यह शिकायत रहती है कि उनका मन ध्यान में ठीक प्रकार से नहीं लग पाता। यह विचारों की श्रृंखला से बाधित रहता है। हर बार हमने उन्हें इसका तरीका बताया, इसकी आवश्यकता बताई और यह भी बताया कि उसे ठीक तरह से किया जाये, जैसा श्री बाबूजी महाराज ने बताया है। आज फिर मैं आप लोगों को अपनी सहज-मार्ग साधना का एक महत्त्वपूर्ण पहलू बताती हूँ, जो इसका आधार है। मुझे विश्वास है कि एक बार यह समझ लेंगे कि हमारी साधना का आधार क्या है, तो आप लोगों को निश्चित रूप से यह ज्ञात हो जायेगा कि आप का लक्ष्य क्या है और श्री बाबूजी महाराज आप से क्या सहयोग चाहते हैं ?

ध्यान का वास्तविक अर्थ है ईश्वर को सतत् याद करने का प्रयास। श्री बाबूजी के शब्दों में आप केवल इतना याद रखें कि ईश्वर आपके भीतर है, किन्तु आप उसके भीतर नहीं हैं। यह साधारण छोटी सी हमारी लापरवाही हममें अध्यात्म की आवश्यकता को जन्म देती है। यदि कोई हमसे पूछे कि क्यों और कैसे मानव को अध्यात्म की आवश्यकता पड़ती है ? मेरा एक वाक्य में उत्तर होगा- “जब तक हम उसके साथ रहना आरम्भ न कर दें”।

ईश्वर जानता है कि ‘वह’ हर मानव के भीतर है, सभी प्राणियों के हृदय में है—छोटा-बड़ा, धनी-निर्धन, पावन या पापी जो भी उसकी पूजा करता है, उसको नकारता या जो उससे घृणा करता है, वे सभी उसी से प्रकाशित हैं। जहाँ तक उसकी उपस्थिति का प्रश्न है, उसकी केवल एक ही स्थिति है, ‘सर्वव्यापकता’, बिना किसी भेद-भाव के। यही ईश्वर का सिद्धान्त है। यह उसकी और उसकी सृष्टि की अभिव्यक्ति है। जब हम मानव इस नित्य सत्य को भूल जाते हैं, कि वह हमारे भीतर है, हम उससे अलग हो जाते हैं, जो हमारे होने का आधार है। फलस्वरूप, यह याद रखने के बजाय, हम अपनी सारी शक्ति और प्रयास अपनी भौतिक सुख-समृद्धि की ओर लगा देते हैं। आध्यात्मिक लक्ष्य को पूरी तरह से नकारते हुए, हम अपना क्षेत्र खुद ही बना लेते हैं और इस प्रकार अनजाने में अपने और ‘उसमें’ एक अन्तर बना लेते हैं। उस अन्तर को मिटाने के लिए ही हमे अध्यात्म और साधना की आवश्यकता पड़ती है।

वास्तव में श्री बाबूजी महाराज की उपस्थिति के द्वारा प्रकृति ने अपनी कृपा और सहानुभूति का आशीर्वाद सम्पूर्ण सृष्टि को, खासकर मानव जाति को दिया है, एक अनूठा और अतुलनीय साधन, अर्थात् ‘सहज-मार्ग’। भौतिकता का अन्धकारमय आवरण हटाने और अपने घर वापिस जाने के लिए ही प्रकृति ने यह आशीर्वाद दिया है। किन्तु, जैसा कहा जाता है, “गलती करना मानव स्वभाव है”, हम अपने अभ्यास के समय फिर वही गलती करते हैं। साधना के आधार को भूल जाते हैं कि “ईश्वर हमारे भीतर है” और अनन्त के साक्षात्कार को मन में नहीं जमा पाते। फिर, तीव्र इच्छा का तो कहना ही क्या ? ऐसा इसीलिये होता है, क्योंकि हम अपने अन्तर को लक्ष्य से सम्बद्ध रखने में विफल हो जाते हैं और पूजा को बाहर छोड़ देते हैं।

श्री बाबूजी महाराज अभ्यासियों से आशा करते हैं कि वे अपने दिमाग में यह याद रखें कि ईश्वर उनके हृदय में हैं और उन्हें सीखना चाहिए कि उनके साथ जुड़े हुए कैसे रह सकते हैं ? इसका अर्थ केवल यह है कि उन्होंने सहज मार्ग साधना को वास्तविकता का आधार दिया है, इसलिए हमें अपनी विचार शक्ति को उस ओर मोड़ देना चाहिए कि ईश्वर हमारे हृदय में है और हमें उसी हालत में रहना चाहिए। बार-बार और लगातार कोशिश करने से जब यह विचार दृढ़ हो जाता है, तब यह प्रभाव तुरंत पड़ता है, कि हमारा विचार, जो इधर-उधर भटकता रहता था, धीरे-धीरे स्थिर हो जाता है और समय आने पर मूल स्रोत से जुड़ जाता है।

दूसरे, जब हम दिव्यता या वास्तविकता को अपनी साधना का आधार बना लेते हैं, दिव्य शक्ति भी हमारी कोशिश में सहायता करती है ;|fi हमें इसकी जानकारी नहीं होती। किन्तु मैं कह सकती हूँ, तब एक वृत्त बन जाता है, जो ध्यान में आप की रक्षा करते हुए सभी अनचाहे विचारों को बाहर फेंकता रहता है।

पहला लाभ, जो हमें मिलता है, विचार की शुद्धता, इस निश्चय के साथ कि दिव्यता हमारे हृदय में है। तब शीघ्रता से हम दैवी शक्ति का कवच, दैवी शक्ति के स्पर्श के साथ पहन लेते हैं और वास्तविकता का अनुभव बढ़ने लगता है। एक सहज विचार कि ईश्वर हमारे भीतर है, संकल्प में रूपान्तरित हो जाता है।

हमारा मन और विचार स्वाभाविक रूप से संकल्प के साथ जुड़ जाता है और यह अभ्यासी को समर्थ बनाता है कि वह “ईश्वर हमारे अन्तर में है” का विचार सँभाल कर रखें। धीर-धीरे सांसारिक कार्यों से हमारा लगाव, हमारे ईश्वर की निकटता के अनुभव को बाधित नहीं करता।

अब आप अनुभव करेंगे कि आप का मन, ईश्वर की सामीप्यता की आनन्दमयी स्थिति में डूबा रहने लगा है। जैसा आप सभी लोग जानते हैं कि यह मोक्ष का प्रथम पायदान है। हमारी साधना में यह एक ऊँची अवस्था है।

यहाँ आप पूछ सकते हैं कि जब श्री बाबूजी ने कहा कि हृदय में दिव्य प्रकाश की कल्पना के साथ ध्यान शुरू करो, तब यह ऊपर कही गयी विधि क्यों ?

मैंने श्री बाबूजी महाराज को लिखा था कि मैंने ध्यान प्रारम्भ करने के केवल दो दिन बाद ही अपने हृदय में प्रकाश की उपस्थिति अनुभव की थी। उसके बाद, केवल इस विचार को सँभाल कर रखने में मुझे अन्तर में बड़ी खुशी मिल रही थी कि ईश्वर मेरे भीतर है। तब श्री बाबूजी महाराज ने मुझे लिखा था - मैं कहता हूँ, दिव्य प्रकाश की उपस्थिति की कल्पना के साथ ध्यान प्रारम्भ करो, जब वहाँ अँधेरा था, और अँधेरा इसलिये था कि तुमने दिव्य शक्ति का प्राकृतिक रूप में चमकते प्रकाश से अपने को अलग कर लिया था और एक लम्बा अंतर पैदा कर लिया था। अब, जब तुम्हारे अन्तर में उसकी उपस्थिति का अनुभव होने लगा है, तुम्हें चाहिए कि तुम्हारा हृदय उसकी निकटता के अनुभव में डूबा रहे। तुम्हारे ध्यान के अभ्यास के फलस्वरूप, उसका यह उपहार का आशीर्वाद तुम्हें मिला है और इसीलिए तुम्हारे ध्यान का आधार, उनके निकटतम होने की आन्तरिक खुशी होना चाहिए।

अब आगे, उनकी (श्री बाबूजी महाराज की) सामीप्यता के अनुभव की सेंक धीरे-धीरे सारी ठोसता को पिघला देती है, जो हमारे और ईश्वर के बीच बाधा बन कर खड़ी थी। तब आप जान पायेंगे कि दो तरीके, पहला, पिघलने और बाधाओं की सफाई का, और दूसरा, भक्ति बढ़ाने का तरीका जो निकटता के अनुभव के फलस्वरूप हमारे मन में जमा हुआ है, दोनों साथ-साथ चलने लगते हैं। भक्ति में उन्नति के साथ अभ्यासी को आवश्यक दिव्य शक्ति का आशीर्वाद भी मिलता है, जो न केवल अनन्त के साक्षात्कार को मन में दृढ़ बना देता है, बल्कि साक्षात्कार के लिए इसमें तड़प भी पैदा करता है।

इस स्तर पर ध्यान का अभ्यास, केवल लक्ष्य की प्राप्ति का कौशल (साधना) खो देता है, और वास्तविक साधना की विशेषता प्राप्त कर लेता है। साधना शब्द का वास्तविक अर्थ समझने के लिए हम इसे ‘साध’ और ‘ना’ में विच्छेदित कर सकते हैं। ‘साध’ का अर्थ है साक्षात्कार के लिए विशेष और तीव्र इच्छा और ‘ना’ का अर्थ है, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। तब, कोई दूसरी इच्छा नहीं रहती है।

इस प्रकार, अपने मन को एक सही दिशा देकर और अपने विचार को एक सही आधार देकर, आप अपनी शिकायत शीघ्र ही दूर कर सकते है, कि आपका ध्यान ठीक से नहीं लग रहा है अथवा भटकते हुए विचार आपके ध्यान को बाधित करते हैं अब आप की शिकायत दूसरा रूप ले लेती है, कि अब आप का मन और विचार पूरी तरह लक्ष्य में लीन रहता है और सिवाय श्री बाबूजी महाराज के, उन्हें किसी और दिशा में मोड़ने में आप असमर्थ हैं।

इसलिए, मैं आप सभी लोगों से प्रार्थना करती हूँ कि वास्तविकता को आधार बनाकर आप लोग हमेशा ध्यान का अभ्यास करें। श्री बाबूजी माहाराज ने मानव समाज को यह प्रकट कर दिया है कि सहज-मार्ग साधना की पूरी पद्धति ऊपर से उतरी है और यह प्रकृति का वरदान है। हम यह भी जानते हैं कि सहज मार्ग की हमारी पद्धति ‘राजयोग’ का एक संशोधित रूप है। ध्यान में आपको बार-बार यह प्रयास करना है कि दिमाग में यह याद रहे कि ईश्वर आपके भीतर है और आपको उसके साथ रहना है।

यहाँ एक बात पर मैं जोर देना चाहती हूँ कि, जब कोई आध्यात्मिक स्थिति पर पहुँचता है, तो उसे अपनी साधना के तह में एक स्वाभाविक परिवर्तन का अनुभव होता है। परिवर्तन यह होता है कि अपने अन्तर में दिव्यता की उपस्थिति के बजाय श्री बाबूजी महाराज (दिव्यता का मानव रूप) केवल आपके अन्तर में ही नहीं, बल्कि आपके चारों तरफ उपस्थित है। अब आप पुनः पद्धति के सौन्दर्य को देखने लगते हैं, ;|fi आप उनकी उपस्थिति अनुभव करते हैं, आप का दिमाग उनके दर्शन में नहीं उलझता है। यह केवल उस अनुभव में डूबने की दशा पाता है, और इसीलिए जब मैंने श्री बाबूजी महाराज को लिखा “बाबूजी ! निकटता की सेंक के साथ, जो भी मुझे आंतरिक खुशी मिलती है, मन इसमें पूरी तरह डूबा हुआ लगता है और इससे बाहर आना कठिन हो जाता है”। उन्होंने मुझे लिखा- “यह लय-अवस्था की शुरुआत है”।

इससे श्री बाबूजी महाराज का कथन सिद्ध होता है कि मालिक को देखना हमारा उद्देश्य नहीं है, बल्कि उनके दर्शन और उपस्थिति से कुछ प्राप्त करना है, जब वे हमारे अन्तर में प्रकट होते हैं, ध्यान के समय अथवा ध्यान के बाद।

जब श्री बाबूजी महाराज अपने अभ्यासी बच्चों को इस स्थिति में पाते हैं, वे मुस्कुराते हैं और उसकी झलक हमें अंतर में मिल जाती है।

मैं श्री बाबूजी महाराज से हृदय से यह प्रार्थना करती हूँ कि वे इस आध्यात्मिक उन्नति का आशीर्वाद सभी को दें और आप लोगों को भी उनकी यह दिव्य मुस्कान देखने की इच्छा हो।

संदेश - संत कस्तुरी
लय–अवस्था की सार्थकता
विजयवाड़ा
2/9/1993
अपनी पिछली बातों में मैंने इस बात पर ज़ोर दिया था कि सहज मार्ग साधना का अभ्यास एक सही मार्ग के रूप में और एक उचित समझ के साथ किया जाये। मैंने यह भी बताया था कि भूमा के साक्षात्कार को लक्ष्य बनाते हुए आप लय-अवस्था कैसे प्राप्त करेंगे। आज मैं आपको हमारी संस्था में लय-अवस्था की सार्थकता के बारे में बताऊँगी।

श्री बाबूजी महाराज ने हमें लिखा था कि लय-अवस्था शुरू होने के बाद अभ्यासी ‘जीवित-मृत’ की दशा में रहना प्रारम्भ कर देता है। इसका अर्थ है कि यद्यपि वह एक जीवित प्राणी की भाँति रहता है, फिर भी वह अपने विचारों और कर्मों से अचेत रहता है, क्योंकि वह उनमें पूरी तरह डूबा हुआ है। उन्होंने फिर मुझे लिखा कि जब तक लय-अवस्था पूरी नहीं हो जाती, कारण (श्री बाबूजी महाराज द्वारा अभ्यासी की याद) और दशा (उसमें दिव्य शक्ति की लगातार उपस्थिति से दशा में परिवर्तन) दोनों साथ-साथ चलते हैं। जब लय- अवस्था पूरी हो जाती है, तब अभ्यासी को “नेगेशन से नेगेशन” की दशा का आशीर्वाद मिलता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि वह जिनमें डूबा रहता है, और फिर भूल जाता है कि वो किसमें डूबा हुआ था।

श्री बाबूजी महाराज ने कहा है – “लय–अवस्था तुम्हारे लिए दिव्यता का द्वारा खोल देती है।“ यहाँ यह बताने की ज़रूरत नहीं है। कि ध्यान में लय-अवस्था नहीं होती। ध्यान, आध्यात्मिक यात्रा में केवल पहला कदम है। उनके प्रति सतत् एवं विनीत समर्पण के साथ हमारे अहम् का विलयन प्रारम्भ होता है और तभी उनमें हमारी लय-अवस्था प्रारम्भ होती है।

मैं आप लोगों को यह भी बताना चाहूँगी कि लय-अवस्था और विलयन (मर्जिंग) में क्या अन्तर है? पहला, विलयन (मर्जिंग) लय–अवस्था का प्रतिफल है। दूसरा, विलयन (मर्जिंग) एक बहुत ही उच्च स्थिति प्राप्त अभ्यासी में दिव्य पुरुष द्वारा किया जाता है। तीसरा, हमारी साधना में अभ्यासियों द्वारा लय-अवस्था प्राप्त करना एक आध्यात्मिक स्थिति है अर्थात् साक्षात्कार के लक्ष्य की प्राप्ति में सभी के लिए एक पूर्व शर्त है। किन्तु दूसरी ओर विलयन (मर्जिंग) सभी लोगों के लिए नहीं है। यह प्रकृति का दुर्लभ वरदान है।

इस वरदान का आशीर्वाद केवल विशेष कार्य के लिए दिया जाता है, और वह भी तब, जब प्रकृति इसकी आवश्यकता समझती है। इन आलेखों (Dictates) के द्वारा, जो श्री बाबूजी महाराज को स्वामी विवेकानन्द और श्रीकृष्ण ने दिये थे, हम सभी जानते हैं कि श्री लालाजी महाराज, श्री बाबूजी में विलीन (मर्ज) हो गये हैं, इस बात का ध्यान रखते हुए कि श्री बाबूजी की वह दिव्य शक्ति, जो भूमा से उन्हें मिल रही है, उनके भौतिक शरीर के सामर्थ्य के अनुसार हो और उनके कार्य के लिए पर्याप्त हो। जब से सृष्टि बनी है, तब से ही आज तक विलयन (मर्जिंग) का यह केवल एक ही उदाहरण है। यह सदा याद रखें कि विलयन (मर्जिंग) सभी के लिए नहीं है। प्रकृति की पुकार पर ही ऐसा होता है, न कि किसी नियम या परिपाटी (परम्परा) के अनुसार।

मुझे लय-अवस्था का आशीर्वाद मिलने के बाद श्री बाबूजी महाराज ने मुझे लिखा – “तुम्हारी लय-अवस्था के कारण तुम्हारा सूक्ष्म शरीर तथा आत्मा सब मुझमें लय हो गया है और तुम ईश्वर के साथ ‘एकत्व’ की स्थिति में आ गई हो। अब तुम्हारे अन्तर में जो रह गया है, वह केवल मेरी याद है, जो तुमसे कार्य लेती रहेगी।” इस प्रकार मैं कह सकती हूँ कि ‘उनकी याद’ , उनका ‘सूक्ष्म रूप’ है, जो मानव समाज की उन्नति के लिए कार्य कर रहा है।

यहाँ पर मैं आप लोगों को यह साफ कर देना चाहती हैं कि शब्द ‘सूक्ष्म रूप’ को यहाँ साधारण सूक्ष्म शरीर नहीं समझ लेना चाहिए, जो मानव हृदय का अंतरतम भाग है। ईश्वर के ‘सूक्ष्म शरीर’ का वास्तविक अर्थ तभी समझा जा सकता है, जब श्री बाबूजी महाराज की कृपा से इस अनुभव का आशीर्वाद मिल जाये कि वास्तव में आप (बाबूजी) ‘सर्वव्यापी’ और ‘सर्वशक्तिमान’ हैं।

तब इस विशिष्ट व्यक्ति का निवास स्थान ऐसे अभ्यासियों एवं प्रिसेप्टर्स के अंतरतम में होता है, जिन्होंने लय-अवस्था प्राप्त कर ली है, अर्थात् उनमें (बाबूजी) ‘एकत्व’ प्राप्त कर लिया है। इसलिए श्री बाबूजी महाराज ने लय-अवस्था की प्राप्ति पर जोर दिया है। उन्होंने कहा है कि अनन्त के लक्ष्य की प्राप्ति का मार्ग केवल लय-अवस्था ही प्रशस्त कराता है।

शायद इसी सन्दर्भ में प्रिसेप्टर का कार्य करने की अनुमति देने के बाद श्री बाबूजी महाराज ने मुझे लिखा था- “उच्च स्तर का कार्य तभी हो सकता है, जब अभ्यासी की उन्नति के लिए तुम्हारा विचार उसी तीव्रता के साथ और उसी स्तर का हो, जैसा कि तुम्हारी अपनी उन्नति के लिए था”। उस हालत में तुम्हारा सूक्ष्म शरीर सभी अभ्यासियों के अन्तर में स्वतः क्रियाशील रहेगा और उनकी उन्नति शीघ्रता से होगी। ऐसा हमेशा दृढ़ता के साथ होना चाहिए।

हमारे पास इसका प्रमाण भी है। श्री बाबूजी महाराज के लिए श्री लालाजी साहब का २६ जनवरी, १६४४ का आदेश (Dictate), मैं यहाँ पुनः लिख रही हूँ- “मेरे जीवन काल में ही मेरा सूक्ष्म शरीर सभी लोगों में उपस्थित रहता था, जिससे उनकी सुरक्षा निश्चित थी और उनकी आध्यात्मिक उन्नति होती रही। मेरी महासमाधि के साथ मेरा सूक्ष्म शरीर भी मेरे साथ चला गया और वे इस आशीर्वाद से वंचित रह गये”। श्री बाबूजी ने बताया है कि सिवाय उनके (श्री बाबूजी महाराज के) कोई भी दूसरा गुरुभाई ‘उनमें’ (श्री लालाजी में) लय नहीं था।

इस बात का कहीं भी कोई जिक्र नहीं है कि उनके किसी भी गुरुभाई की लय-अवस्था श्री लालाजी में थी, हालाँकि श्री लालाजी साहब ने उन सभी शिष्यों को सच्चे शिष्य होने के सभी सामर्थ्य दे दिये थे, सिवाय लय-अवस्था के। श्री बाबूजी महाराज के लिए श्री लालाजी साहब ने साफ तौर से व्यक्त किया है कि “जब वे (श्री बाबूजी) मेरे पास (श्री लालाजी साहब के पास) आये, तो उनमें लय-अवस्था पूर्ण थी”। इस प्रमाण के साथ सभी मानव समाज के लिए उन्होंने बताया कि “जब श्री रामचन्द्र (श्री बाबूजी) केवल छ: दिन के थे, मैंने उन्हें दिव्य स्रोत से प्राणाहुति दी थी, और ‘वे’ उसे पूर्णतः पी गये”।

इसलिए यह साफ है कि बिना लय-अवस्था के अभ्यासी या प्रिसेप्टर में ऐसा कोई नहीं है, जहाँ सद्गुरु का सूक्ष्म शरीर ठहर सके, यद्यपि उनके कार्य के लिए इसकी उपस्थिति आवश्यक है। आपके हृदय में सूक्ष्म शरीर का स्पर्श, उनकी प्राणाहुति का प्रवाह इस प्रभावशाली रूप में प्रारम्भ होता है कि न तो अभ्यासी और न ही प्रिसेप्टर को इसकी चेतना रहती है कि सद्गुरु की महासमाधि हो गई है, और वह अस्तित्व में नहीं हैं। वह कभी भी अकेलापन अनुभव नहीं करता और सद्गुरु का सूक्ष्म शरीर नियंत्रक की तरह कार्य करता रहता है, इस प्रकार ईश्वरीय कार्य होता है और होता रहेगा। श्री बाबूजी महाराज ने हमेशा इस बात पर जोर दिया है कि सभी प्रिसेप्टर्स प्रेम और ईमानदारी से अभ्यासियों की उन्नति के लिए कार्य करें।

आप सभी लोग यह जानना चाहेंगे कि क्यों श्री लालाजी साहब के शिष्यों में केवल श्री बाबूजी महाराज ने लय-अवस्था प्राप्त की थी और किसी अन्य शिष्य को यह आशीर्वाद प्राप्त नहीं था। मैं आप से कह सकती हूँ, कि श्री बाबूजी महाराज ने मुझे अपनी डायरी के पन्नों के द्वारा इसका रहस्य मुझे बताया था। उन्होंने कहा था कि श्री मौलवी साहब एक सूफी सन्त और श्री लालाजी साहब के सद्गुरु ने श्री लालाजी से कहा था- “मेरे गुरु ने मुझसे गुरुदक्षिणा के लिए कहा है कि तुम्हें (श्री मौलवी साहब को) प्रकृति का कार्य पूरा करना है, जिसे पूरा करने के लिए मेरे पास आवश्यक क्षमता नहीं है।“ डायरी में यह भी लिखा था कि एक दिन श्री लालाजी साहब बचपन में जब खेल के मैदान से हाथ में हॉकीस्टिक लिये लौट रहे थे और श्री मौलवी साहब के घर के सामने से गुजर रहे थे उन्होंने (श्री मौलवी साहब ने) उन्हें (श्री लालाजी साहब को) बुलाया और कहा- “ऐ बालक! यहाँ आओ। तुम इस संसार में केवल हॉकी खेलने नहीं आये हो, बल्कि एक ऊँचे लक्ष्य के लिए आये हो”। ऐसा उन्होंने निश्चित रूप से उन्हें पहचानने के बाद कहा, कि यही बालक ‘उन्हें’ (श्री मौलवी साहब को) उनके गुरु द्वारा सौंपे गये दिव्य कार्य को पूरा करने की क्षमता रखता है। इसके बाद श्री लालाजी ने सात महीने की कड़ी साधना करके वह क्षमता प्राप्त कर ली, जिससे उनका कार्य पूरा हो सके, और कार्य पूरा होने पर प्रकृति ने उन्हें ‘आदि समर्थ सद्गुरु’ की उपाधि से विभूषित किया। उसके बाद श्री बाबूजी महाराज ने ‘उन्हें’ (श्री लालाजी साहब को) आध्यात्मिक महामानव कहा।

अब आप यह सुनने के लिए उत्सुक होंगे कि प्रकृति ने उन्हें (श्री लालाजी साहब को) कौन सा महत्त्वपूर्ण कार्य सौंपा था, जिसके पूरा होने पर उनको ऊपर दी गई उपाधि से विभूषित किया गया। यदि आप विश्वसनीय साहित्य को पढ़ेंगे, तो आप को पता चलेगा, ‘उन्होंने’ (श्री लालाजी साहब ने) श्री मौलवी साहब द्वारा सौंपा गया कार्य अपनी सात महीनों की साधना से पूरा किया। इसकी चर्चा नहीं है कि ‘उन्होंने’ (श्री लालाजी साहब ने) साक्षात्कार का लक्ष्य प्राप्त कर लिया है। सौंपा गया कार्य यह था कि ‘वे’ महाविशिष्ट व्यक्ति को, प्रकृति के कार्य के लिए, भूमा की शक्ति के साथ धरती पर अवतरित करायें, ताकि मानव समाज में भूमा के साक्षात्कार की चाह उत्पन्न हो और इस प्रकार मानव जाति जो ईश्वर का अंश है, ईश्वर के पास जा सके।

यथार्थ रूप में उनका वह महान् कार्य जिसे उन्होंने पूरा किया, श्री बाबूजी महाराज का अवतरण था, जिन्होंने यह संकल्प लिया कि सम्पूर्ण मानव जाति को भूमा तक ले जाया जा सके। श्री बाबूजी महाराज के शब्दों में ‘ईश्वर हर प्राणी के भीतर हैं, किन्तु हर प्राणी ईश्वर में नहीं है’।

अब मैं समझती हूँ कि आप लोगों को यह साफ हो गया होगा कि जब श्री लालाजी महाराज का यह लक्ष्य नहीं था कि अपने शिष्यों को लय-अवस्था का आशीर्वाद दे सकें, तो वे उनमें लय-अवस्था कैसे प्राप्त कर सकते थे? ‘उनका’ केवल यही लक्ष्य था कि विशिष्ट व्यक्ति भूमा से अवतरित हो, जो उन्होंने अपनी सात महीने की साधना से प्राप्त कर लिया और उसके बाद ‘वे’ (श्री लालाजी साहब) अपने को श्री बाबूजी महाराज में विलय (मर्ज) कर दिया।

अन्त में मैं श्री बाबूजी महाराज के चरणों में इस सेन्टर के सभी अभ्यासियों को पुष्पाहार के रूप में अर्पित करना चाहती हूँ और उनसे प्रार्थना करती हूँ कि यह पुष्पाहार दिनोदिन बढ़ता रहे और श्री बाबूजी महाराज अपनी दिव्य मुस्कान की झलक आपके अन्तर में दें।

संदेश - संत कस्तुरी
प्रेम-एक दैवी शक्ति
विजयवाड़ा
23/3/1994
मैं आप लोगों को अपने आध्यात्मिक अनुभव पर आधारित कुछ मार्ग-दर्शन कराना चाहती हूँ, जिसे यदि ठीक तरह से समझा जाये और अभ्यास किया जाये, तो आप की आध्यात्मिकता में तेजी से प्रगति होगी और उसका फल भी लाभकारी होगा। जैसा कि हमारी साधना की आवश्यकता है कि लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ‘उनमें’ (श्री बाबूजी में) प्रेम, श्रद्धा, भक्ति और तड़प के साथ समर्पण उत्पन्न हो। आज मैं बताना चाहती हूँ कि कैसे ये पूर्व शर्तें लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उत्पन्न की जायें।

साधारणतः हम ‘प्रेम’ शब्द का प्रयोग अपने परिवार तथा सामाजिक सम्बन्धों के साथ-साथ ईश्वर से निकटता के लिए भी करते हैं। किन्तु, सांसारिक वस्तुओं एवं घनिष्ट सम्बन्धों के साथ जो अपनापन होता है, वह केवल लगाव है, ‘प्रेम’ नहीं। शब्द ‘प्रेम’ केवल ईश्वर की निकटता के लिए प्रयोग किया जाता है। ‘प्रेम’ का अर्थ केवल दैवी शक्ति से जुड़ना होता है। इसलिए प्रेम और लगाव दोनों के अर्थ भिन्न हैं। प्रेम केवल ईश्वर के साथ और लगाव (अनुराग) सांसारिक वस्तुओं के साथ होता है।

अनुभव के साथ हम अध्यात्म में भिन्न-भिन्न स्तरों पर होते हैं। ‘प्रेम’ एक वरदान है और इसलिए प्राकृतिक है।

सांसारिक जीवन में जब शिशु जन्म लेता है, वह विभिन्न रिश्तों को महसूस करता है, जैसे पिता, माता, पुत्र, पुत्री, भाई, बहन, इत्यादि। यह सम्बन्ध धीरे-धीरे फैलता है और रिश्तेदारों से लगाव पैदा हो जाता । आध्यात्मिक क्षेत्र में, ईश्वर से लगाव, जिसे सही अर्थ में ‘प्रेम’ कहा गया है एक अनुपम तत्व है, अर्थात् वह कड़ी, जो केवल एक से सम्बन्धित है इसका कारण स्पष्ट है कि ईश्वर केवल एक है। उसका कोई दूसरा सम्बन्धी नहीं है। वह स्वयं बंधनमुक्त है।

जब श्री बाबूजी महाराज मुझे आध्यात्मिक यात्रा में विभिन्न स्तरों पर ले जा रहे थे, तब यह रहस्य मेरी समझ में आया कि ईश्वर केवल अपने को बेचकर ही ख़रीदा जा सकता है अर्थात् समर्पण से ही। यहाँ मैं आप लोगों को बता दूँ कि शब्द खरीद और बिक्री का प्रयोग यहाँ केवल आध्यात्मिक रूप में किया गया है और इसे व्यापारिक रूप में नहीं लेना चाहिए। आध्यात्मिकता के सन्दर्भ में अपने को बेचना रुपये से नहीं होता। ईश्वर के पास स्वयं उसका दैवी सिक्का है, जिसे आध्यात्मिक दशा के क्रम से खुलना कहते हैं। ख़रीदार ‘श्री बाबूजी महाराज’ दैवी ख़जाने से उसे चुकता करते हैं, अभ्यासी के स्वयं की बिक्री (समर्पण) के अनुसार। इसका फल यह होता है कि जब हम अपने हृदय में उनकी निकटता अनुभव करते हैं, तब यह लगता है कि हमारा हृदय ‘उनके’ सामने समर्पण की झुकी हुई अवस्था में है। यह एक दैवी वरदान है और खुशहाल दशा का अनुभव उतना ही होता है, जितना अभ्यासी अपने को श्रद्धा के साथ समर्पित करता है। यह भी पद्धति की एक खूबसूरती है कि बिना लेन-देन के अभ्यासी आगे नहीं बढ़ सकता।

जब अभ्यासी इस स्थिति से थोड़ा आगे बढ़ता है, वह अनुभव करता है कि उसका हृदय लगातार डूबी हुई दशा में है और जब कभी क्षणिक दृष्टि ‘उन्हें’ देखती है, तब लगता है कि उसका हृदय किसी की (श्री बाबूजी की) नज़रों में पिघल रहा है। समर्पण का यह पहला वरदान अभ्यासी को मिलता है। इस क्रम में कब और कैसे उनके आशीर्वाद से श्रद्धा अनजाने में ही ‘उन्हें’ समर्पित हो जाती है, पता ही नहीं चलता। इस स्थिति पर श्री बाबूजी ने मुझसे कहा कि तब समर्पण का भाव भी समाप्त हो जाता है, जो स्वतः प्राकृतिक रूप में श्रद्धा के द्वारा अभ्यासी के हृदय में चला जाता है। हमें इस सत्य को स्वीकार करना चाहिए कि इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए हमने कुछ नहीं किया सिवाय अपने ‘स्व’ के समर्पण के और इस समर्पण के पारितोषिक के रूप में उन्होंने श्रद्धा का आशीर्वाद दिया है और हमारे समर्पण को स्वीकार किया है।

दूसरा सत्य यह है कि इस दशा की प्राप्ति को भूलने के बाद मैं नहीं जानती थी कि उसके बाद क्या करना चाहिए था ? तब अचानक मैंने पाया कि श्री बाबूजी महाराज पुन: मेरे हृदय में और मेरे आस-पास उपस्थित हैं और आमंत्रण दे रहे हैं। ‘वे’ कह रहे हैं कि ‘वे’ मेरे हृदय में हैं और बाहर भी सर्वव्यापी हैं, “तब तुम मुझसे दूर क्यों हो? निकट आने का प्रयास करो।“ उसके बाद मेरी तड़प ने निष्ठापूर्वक ‘उनके’ अनुसरण करने के लिए कहा। यह प्रगति के दूसरे पड़ाव का प्रारम्भ था।

तब एक दिन मैंने पाया कि मेरे हृदय में कुछ धक्का लगा और उनसे अलग होने का अनुभव हुआ। हमारे लिए दूसरा कोई विकल्प नहीं था, सिवाय सविनय प्रार्थना के कि ‘वे’ मुझे इस अलगाव के दर्द को सहने के लिए आवश्यक शक्ति दें। हमारे हृदय में उनके साक्षात्कार की अटल दृढ़ता थी। उन्होंने मेरे साथ अपने दिव्य सम्बन्ध का भी आशीर्वाद दिया, मानो यह स्वाभाविक बन्धन कई जन्मों से था। मैं अपनी पहचान के प्रति चेतन नहीं थी कि मैं एक भक्त हूँ। हम अभ्यासियों के पास इतनी योग्यता नहीं रहती है कि हम यह समझ सकें कि हमें भक्ति का आशीर्वाद मिला है। फिर भी यह अनुभव लगातार हमारे हृदय में रहा कि हमारा हृदय किसी से जुड़ गया है। यह कैसी अनुपम स्थिति थी कि यद्यपि मैंने ‘स्व’ के समर्पण का प्रयास किया किन्तु मेरे अस्तित्व का समर्पण प्राकृतिक रूप में प्रारम्भ हुआ और बदले में ‘उनमें’ लय-अवस्था का पारितोषिक मिला।

हृदय लगातार और चुपचाप इन्तज़ार करता है उस क्षण का जब ‘वे’ अपने आलिंगन में मुझे ले लेंगे। धीरे-धीरे उनसे मिलन की चाह में मैं अपना अस्तित्व भूलने लगी। मेरा नाम क्या है ? क्या है मेरा रूप ? मैं किस परिवार से आई हूँ ? सब कुछ भूल गई। इस क्रम में श्री बाबूजी की याद, भूल की दशा पर इस प्रकार छा गई कि ईश्वर से जुड़ने का अनुभव ‘उन्हें’ समर्पित हो गया और हृदय में समर्पण का भाव व्याप्त हो गया। यह समर्पण की शुरुआत का केवल संकेत भर है।

इस आध्यात्मिक स्थिति को प्राप्त करने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि ईश्वर से योग मानव जीवन का एक हिस्सा है और जब तक कोई इस दशा को प्राप्त नहीं करता वह आध्यात्मिकता से अलग है। यह उच्चतम योग अभ्यासी में ईश्वर-प्रेम को जमा देता है और इस दशा की प्राप्ति श्री बाबूजी का आशीर्वाद है।

अब आप पूछ सकते हैं कि ‘प्रेम’ क्या है ? मैं इसे बताती हूँ। वास्तव में ईश्वर के लिए तड़प भक्ति से जुड़ जाती है, तब अन्तर में कुछ प्रवाहित होता है, जो कुछ और नहीं, बल्कि, ईश्वर का प्रेम है। सच कहा जाये तो ‘ईश्वर-प्रेम’ भी खो जाता है, पावन हो जाता है और आत्मा अपने मूल रूप में रूपान्तरित हो जाती है और परमात्मा में विलय के लिए विवश हो जाती है। शायद इसीलिए कबीर ने कहा है कि ‘प्रेम’ क्रय और विक्रय की वस्तु नहीं है और यह इस वास्तविकता को सिद्ध करता है, जिसे मैंने कहा है कि ‘प्रेम’ भौतिक सतह से परे है। यह तड़प का अनुपम अनुभव है। इसलिए आप लोगों से मेरी सलाह है कि आप खुद के समर्पण की इच्छा करें और यदि आप सच्चे हृदय से इसे करते हैं, तब अनजाने में श्री बाबूजी महाराज का आशीर्वाद अवश्य मिलता है। ‘उनसे’ मेरा नम्र निवेदन है कि वे दिव्यता का वरदान आप सभी को दें।

संदेश - संत कस्तुरी
ध्यान का सही अर्थ
विजयवाड़ा
24/3/1994
आज मैं अपनी साधना के उन कुछ बहुत ही महत्त्वपूर्ण एवं मूल पहलुओं पर चर्चा करूँगी, जिन्हें गलत ढंग से समझा गया है, जिसमें पहला है, ‘दैवी प्रकाश’। जैसा कि आप सभी लोग जानते हैं कि सहज मार्ग साधना के अन्तर्गत हम अपने हृदय में दैवी प्रकाश की कल्पना से ध्यान प्रारम्भ करते हैं। यह दैवी प्रकाश क्या है?

एक बार अपनी आध्यात्मिक साधना के बहुत ही सुखद अनुभव के बारे में मैंने श्री बाबूजी महाराज को लिखा और उनसे पूछा – “जब मेरे अंतर और बाहर में ‘आपका’ भौतिक रूप लगातार दृष्टिगोचर होता है, तब मैं क्या करूँ ?” ‘उन्होंने’ कहा कि मैं केवल दैवी प्रकाश की कल्पना से ध्यान प्रारम्भ करूँ, जैसा कि पद्धति में निर्धारित है। जब मैं ‘उनका’ रूप देखूं, तो क्या मुझे ‘उनसे’ दैवी प्रकाश लेना चाहिए ? तब, श्री बाबूजी ने मुझे लिखा, “जब तक मैं अपने रूप को देखता रहा, मुझे यह ईश्वरीय वरदान नहीं मिला और जब मैंने अपने रूप को उस दैवी प्रकाश में लय कर दिया, तब वह दैवी रूप जो सब में व्याप्त है और सर्वत्र है मेरे समक्ष आया।“ तब मुझे केवल इतना करना पड़ा कि मैं अपने रूप को भूल गई और इस प्रकार जो मुझे आध्यात्मिक खुशी मिली अथवा जो अनुभव हुआ, मैं ‘उनकी’ कृपा से उसी ध्यान में डूब गई। क्योंकि, किसी के जीवन में उत्कृष्ट दशा उत्पन्न होने के लिए तथा मानव जीवन में उच्चतम लक्ष्य प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है।

अभ्यासी को केवल अदृश्य अनन्त पर ध्यान करना चाहिए। श्री बाबूजी ने आगे कहा – “मैं सदा श्री लालाजी साहब की याद में रहता था और उन्हें देखने के बाद मैंने कभी किसी और को नहीं देखा, क्योंकि बचपन से मैंने उनकी उपस्थिति अपने हृदय में पाई है। यह हमारे ऊपर ‘उनकी’ बड़ी कृपा थी, कि ‘उन्होंने’ मुझे अपने में लय कर लिया।“

अब आप स्वयं समझ सकते हैं, अगर यह इतनी अच्छी चीज़ है, तो क्यों नहीं सद्गुरु के रूप पर हम ध्यान करें। इसका केवल यही उत्तर है कि हर किसी के लिए यह असम्भव है कि कोई अपने सद्गुरु के रूप पर ध्यान करे, क्योंकि मानव-प्रकृति ऐसी है कि हम सूक्ष्म के बजाय ठोस वस्तुओं पर आसानी से आकर्षित होते हैं, और इसी कारण, मानव जीवन का मुख्य लक्ष्य, अनन्त का साक्षात्कार, जिसके लिए हम उत्पन्न हुए हैं, अपनी दृष्टि से खो बैठते हैं। उन्होंने आगे कहा – “तुम जानती हो, मेरे गुरु ‘श्री लालाजी साहब’, जो हमारे सहज-मार्ग के आदि गुरु हैं, ने युग की आवश्यकता को पूरा करने के लिए, जो प्रकृति की इच्छा थी, अपनी प्रार्थना के द्वारा, इस धरती पर हमारा अवतरण कराया। ‘उनके’ कार्य की खूबसूरती यह थी कि ‘उन्होंने’ (श्री लालाजी साहब ने) बचपन से मेरी देख-भाल की और मेरे अस्तित्व के रहस्य को किसी के समक्ष नहीं खोला। तुम जानती हो कि यह बहुत ही आवश्यक भी था, क्योंकि कोई इस सत्य को समझ नहीं सकता था। इस रहस्य को बनाये रखने के लिए दूसरा कारण यह था, कि यदि समय से पूर्व इस दैवी प्रेरणा को उजागर कर दिया गया होता, तो सही समझ के अभाव में साधना की उत्पत्ति के बजाय घृणा और उपेक्षा उत्पन्न हो जाती।“ ‘उन्होंने’ इन पंक्तियों को सँजोने के लिए मुझे ‘आफताबे मारफत’ की याद दिलायी, जिसका अर्थ होता है ज्योति का दीप स्वत्: जल चुका है और इसके प्रेमी खुद-ब-खुद इसके पीछे दौड़ेंगे। ‘उन्होंने’ पुनः लिखा “देखो, दैवी शक्ति और शक्ति के केन्द्र भूमा पर ‘श्री लालाजी साहब’ का कितना अधिकार था। ‘उन्होंने’ भूमा की उस शक्ति को मानव जाति की आध्यात्मिक उन्नति के लिए धरती पर उतारा।“ ‘उन्होंने’ कहा कि यही कारण है कि सहज-मार्ग पद्धति के अन्तर्गत सद्गुरु के रूप पर ध्यान करने के महत्व को निर्धारित नहीं किया गया है। अभ्यासी में मूर्ति-पूजा करने के हौंसले को तोड़ा गया है। भक्ति, ईश्वर के साथ, न कि मूर्ति के साथ होनी चाहिए। ‘उन्होंने’ यह भी कहा – “सहज मार्ग पद्धति ईश्वर साक्षात्कार की बहुत प्राचीन साधना है और पूर्व में सदा रही है। यह आज फैल रहा है और भविष्य में भी ऐसा रहेगा।“

आज भी ‘उनके’ अनेकों कथन मेरी दृष्टि में आते हैं, जो हृदय को खुशी प्रदान करते हैं। ‘उनके’ इस कथन में कैसा ‘दिव्य सत्य’ एवं स्वाभाविकता है कि “जिसके साक्षात्कार की तुम इच्छा करते हो, उसे अपनी याद में रखो।“ मैंने अनुभव किया है कि एक दिन ऐसा अवश्य आता है, जब हम ‘उनकी’ उपस्थिति अनुभव करते हैं, चाहे कितना ही सूक्ष्म रूप हो। मैं यहाँ कहना चाहती हूँ कि आपका लक्ष्य जितना ही सूक्ष्म रूप में होगा, उतना ही शक्तिशाली और आकर्षक होगा।

हमारी पद्धति का दूसरा अनुपम सौन्दर्य, जो मेरे अनुभव पर आधारित है, का मैं यहाँ वर्णन करना चाहती हूँ कि चाहे किसी ने ‘उन्हें’ पहले देखा हो या नहीं, वह अपने ध्यान में ‘उनकी’ उपस्थिति अवश्य ही अनुभव करता है। मैंने कहा है कि दैवी प्रकाश पर ध्यान करने के फलस्वरूप मैंने स्वाभाविक रूप में श्री बाबूजी के सान्निध्य का अनुभव किया है। इस सम्बन्ध में मैं जोड़ना चाहती हूँ कि एक नये अभ्यासी को पहली बार पूजा कराते समय मैं अभ्यासी का एक सामान्य प्रश्न का सामना करती हूँ कि “जब मैंने ईश्वर या दिव्य प्रकाश को देखा ही नहीं, तो उसका ध्यान कैसे कर सकता हूँ ?” मैंने हमेशा उसे उत्तर दिया कि जैसा मेरे साथ हुआ, वैसा ही उसके साथ भी होगा। आरम्भ में मुझे भी कुछ कठिनाई हुई, किन्तु जब मैंने पहली पूजा कराई, उसके ध्यान का लगातार अभ्यास फलीभूत हुआ। श्री बाबूजी महाराज ने बार-बार चेताया है कि हमें दैवी प्रकाश पर ध्यान नहीं करना है, बल्कि उसे याद में रखना है। उस प्रकाश को देखने का अनुभव होने पर, हमें उसमें डूबे रहना चाहिए, ताकि प्रवाह तथा आकर्षण ‘उसकी’ याद में आत्मसात हो सके। मुझे स्वयं ऐसा अनुभव हुआ है कि एक दिन, ध्यान में, श्री बाबूजी महाराज के दिव्य रंग में मैं पूरी तरह विलय हो गयी थी। अब आप स्वयं निर्णय करें कि ध्यान के सहज अभ्यास ने मुझे दिव्य पुरुष का दर्शन करने के योग्य कैसे बनाया।

हमारी पद्धति का दूसरा आधारभूत तत्व है ‘सफाई’। आज मैं आप लोगों से यह स्पष्ट करना चाहती हूँ कि श्री बाबूजी महाराज ने सफाई करने को क्यों कहा है ? ‘सफाई’ हमारे दैनिक जीवन में बहुत ही आवश्यक है। यदि कोई विचार या क्रिया गहराई से हमारे अन्तर में प्रवेश करता है और हम स्वयं के प्रयास द्वारा उसे साफ नहीं कर पाते हैं, तो हमें 20 मिनट के लिए बैठना चाहिए। इस विचार के साथ कि ये ‘उनकी’ दिव्य शक्ति से धुल कर बाहर हो रहे हैं। यदि इसे ठीक तरह से और निष्ठापूर्वक किया जाये तो कुछ ही मिनटों में हम अनुभव करते हैं कि हमारे वे विचार धुलकर दिमाग और हृदय से बाहर हो गये हैं। इसका आध्यात्मिक महत्त्व यह है कि ये अनचाहे विचार ठोस होकर हमारे संस्कार बन जाते हैं और हमें पुनर्जन्म लेना पड़ता है।

‘सफाई’ का दूसरा महत्त्व है कि ईश्वर की याद में जो भी विचार अभी या भविष्य में हमारी प्रगति में बाधा बनते हैं, वे स्वतः धुल जाते हैं, जिससे पावन और दिव्य विचार के प्रवाह के लिए रिक्त स्थान बन जाता है।

एक बार एक अभ्यासी ने श्री बाबूजी महाराज से पूछा – “क्या वह एक दिन में दो या तीन बार अथवा एक घंटा सफ़ाई कर सकता है ?" श्री बाबूजी महाराज ने उत्तर में कहा – “यह नियम इस बात के लिए बनाया गया है कि वह ईश्वर की याद में डूबा रहे। इसके बाद वह अभ्यासी चला गया। श्री बाबूजी महाराज ने हम लोगों से कहा कि ऐसा लगता है कि वह अभ्यासी अपने पिछले जन्म में भंगी रहा होगा, क्योंकि वह सफाई की क्रिया पर अधिक जोर दे रहा था, बजाय इसके फल के। दिव्यता के लिए तड़प और ध्यान एक पूर्ण कला है। इसे प्राप्त करने के लिए किसी और चीज़ की आवश्यकता नहीं है। एक शिशु अपने माता-पिता पर तब तक निर्भर रहता है, जब तक वह स्वयं चल-फिर नहीं सकता। ‘सफाई’ की क्रिया को भी इसी प्रकार लेना चाहिए।

दैवी प्रकाश और सफाई के बारे में मैंने जो कुछ कहा, इससे आप स्वयं निर्णय ले सकते हैं कि ध्यान का अभ्यास कितना सरल और परिपूर्ण है। हम मानव जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य की इच्छा नहीं कर सकते, किन्तु, श्री बाबूजी महाराज ने विश्वास दिलाया है कि वे सभी अभ्यासियों को उस उच्चतम शिखर तक ले जायेंगे, बशर्ते ध्यान का अभ्यास निष्ठापूर्वक और भक्ति के साथ सही प्रकार से किया जाये। ईश्वर स्वयं किसी के पास नहीं आता, किन्तु, ‘उसकी’ याद, भक्ति और समर्पण की कड़ी द्वारा उसे (ईश्वर) खींचा जा सकता है। संक्षेप में यही करना है कि साधना को अपनायें और सही ढंग से अभ्यास करें। ध्यान अपने आप में सम्पूर्ण है। श्री बाबूजी महाराज ने कहा है कि “ध्यान करना नहीं है, बल्कि ध्यान में रहना है।“ अनुभव के द्वारा जब हम दिव्यता की उपस्थिति अपने अन्दर पाते हैं, तब वह समय आ जाता है कि हम अचेतन अवस्था में भी ध्यान की स्थिति में रहने लगते हैं और तभी हमारी पूर्व की सभी शिकायतें स्वतः दूर हो जाती हैं। ईश्वर अनन्त है, इसलिए उसकी उपस्थिति का अनुभव केवल हमारे अन्तर में ही स्थित नहीं रहता, बल्कि हम अपने शरीर के हर कण में उसे पाते हैं। केवल यहीं नहीं, वह दिव्य प्रकाश जिसे हम ढूँढ़ रहे थे, वह हमारे चारों ओर ज्योतिर्मय हो उठता है और हम इसका महत्व समझने लगते हैं। अब मैं निश्चिंत हूँ कि आप सभी लोग समझ गये होंगे कि श्री बाबूजी महाराज ने रूप पर ध्यान करना क्यों निर्धारित नहीं किया है, और इस बात पर जोर दिया है कि दैवी प्रकाश पर ध्यान करना चाहिए। यह केवल अभ्यासियों को कोई गलती करने से बचाने के लिए किया गया है, अर्थात् अभ्यासी मूर्ति पूजा में संलग्न न रहें।

मैं श्री बाबूजी महाराज से प्रार्थना करती हूँ कि ‘वे’ आप सभी लोगों को साधना के अभ्यास को सही ढंग से समझने और करने की योग्यता का आशीर्वाद दें।

संदेश - संत कस्तुरी
अभ्यासी के गुण
विजयवाड़ा
3/10/1994
श्री बाबूजी महाराज के कथन और उनकी रचनाओं से जो मैंने समझा है, वह है ईश्वर साक्षात्कार का हमारा लक्ष्य और ऐसा होना भी चाहिए, किन्तु आज मैं पाती हूँ कि जैसे-जैसे हम अपने लक्ष्य की ओर धीरे-धीरे बढ़ते हैं, इसका अर्थ बदलता जाता है, बल्कि बड़ा होता जाता है। इसके लिए मैं अपना वर्षों का अनुभव ‘श्री बाबूजी’ का सुनहरा निर्देश आपको बताती हूँ, जो उन्होंने समय-समय पर हमारे सामने रखा। जो बताने जा रही हूँ, उसका अर्थ यह कदापि न लगायें कि सहज-मार्ग अभ्यासियों के पास कोई लक्ष्य ही नहीं है। मैं इस बात पर ज़ोर देना चाहती हूँ कि हम अपनी साधना लक्ष्य से प्रारम्भ करते हैं, जो आदर्श है। इसकी व्याख्या करने एवं सिद्ध करने के लिए मैं अपनी प्रार्थना की प्रथम पंक्ति आप के समक्ष रखती हूँ, “हे नाथ! तू ही मनुष्य जीवन का ध्येय है”। यह केवल इस बात पर ज़ोर देता है कि ‘ईश्वर–साक्षात्कार’ प्रत्येक मानव के लिए एक प्राकृतिक लक्ष्य है। प्रार्थना में कहा गया है “हे नाथ” ! किन्तु श्री बाबूजी ने ‘नाथ’ का अर्थ नही बताया है, बल्कि इसकी पवित्रता को स्थायी रखने तथा अभ्यासियों को इस संभावना से बचाने के लिए कि वे किसी और प्रकार के बन्धन से न बँधे, बल्कि ‘वे’ चाहते हैं कि अभ्यासी केवल प्राकृतिक एवं जो सदा है की ही इच्छा रखें।

सहज मार्ग में रहकर मेरा अपना अनुभव हुआ है कि प्रारम्भ में श्री बाबूजी महाराज न तो मेरे लक्ष्य रहे हैं, और न ही ईश्वर–साक्षात्कार में लक्ष्य बनकर कभी मेरे सामने आये हैं। जब मुझे उनके दर्शन के प्रथम फल का सौभाग्य प्राप्त हुआ, हमारा अन्तर उनकी ओर आकर्षित हुआ और मैंने उन्हें हृदय के अन्तरतम भाग में समेट लिया। उसके बाद से मेरा विचार यह प्रयत्न करने लगा कि जो भी मेरे अन्तर में छिपा है, मैं उन्हें स्पर्श करूं। हमारी इस कोशिश में हमारा ध्यान और लगाव भी सतर्क रहने लगा कि कहीं यह किसी और चीज़ से बंध न जाये और इसका परिणाम यह हुआ कि मैं धीरे-धीरे अन्तर्मुखी हो गयी। तब मेरे जीवन में वह दिन आया, जब मेरा आन्तरिक ध्यान और दिव्य लगाव, ध्यान में पूरी तरह डूबने लगा और मुझे श्री बाबूजी महाराज के दर्शन हो गये। यह इतना मुग्ध करने वाला और प्रभावशाली था कि मेरे होश उड़ गये और मेरा ध्यान बाह्य अस्तित्व से हट गया। तब मुझे अनुभव हुआ कि मेरे अस्तित्व को बनाये रखने के लिए श्री बाबूजी महाराज की शक्ति प्रवाहित हो रही थी। यहाँ तक कि उन्होंने मुझे यह भी जिम्मेदारी नहीं दी कि मैं दूसरों से क्या बात करूँ और कब हँसू और कब रोऊँ ? तब भी मैं नहीं समझ सकी कि मेरा लक्ष्य, ईश्वर साक्षात्कार या श्री बाबूजी महाराज का साक्षात्कार है। मैं केवल इतना कह सकती हूँ कि उस समय से मैं स्वतः सहज मार्ग में रहने लगी, जैसा श्री बाबूजी महाराज चाहते थे। तब मैंने देखा और अनुभव किया कि श्री बाबूजी महाराज का कथन “ईश्वर के लिए प्रेम स्वतः प्राकृतिक रूप में उत्पन्न होता है, यह कोशिश से पैदा नहीं किया जा सकता। दूसरे शब्दों में प्रेम केवल ईश्वर के लिए होता है।“ सांसारिक जीवन में किसी से लगाव हो सकता है, प्रेम नहीं।

लक्ष्य के बारे में अपने विचार का एक उदाहरण यहाँ देती हूँ, एक अभ्यासी ने श्री बाबूजी महाराज से कहा- “बाबूजी ! ध्यान में मैं अपने अन्तर में आपको देखता हूँ, फिर भी मुझे कोई उन्नति होती हुई दिखाई नहीं पड़ती, क्यों ?” श्री बाबूजी महाराज ने कहा- “हो सकता है, तुम्हारी उन्नति के लिए मुझमें सामर्थ्य न हो क्योंकि मैं वृद्ध हो गया हूँ। मैंने तुम्हें यह कभी नहीं कहा कि तुम मुझे देखो। गुरु को देखना अभ्यासी का उद्देश्य नहीं है। तुम्हें देखना और अनुभव करना चाहिए कि मेरे भीतर क्या है, जिसने तुम्हें सबसे ज्यादा आकर्षित किया।“ इस प्रकार, अपने लक्ष्य को सही रूप में समझना चाहिए, सही धारणा, जो उन्नति के लिए परम आवश्यक है।

हम लोग प्रायः कहते हैं कि हम सहज मार्ग पद्धति का अनुसरण करते हैं या हम सहज मार्ग के अभ्यासी हैं। ऐसा कहने का मतलब क्या होता है ? मैं समझती हूँ कि अनुसरण करना और अभ्यासी होना ठीक तरह से नहीं समझा गया है और इसीलिए हमारा अभ्यास गलत हो जाता है। यह सत्य है कि ‘ईश्वर के लिए प्रेम’ आधार है, जो लक्ष्य की प्राप्ति के अभ्यास से हमें जोड़ता है और इसलिए हमें श्री बाबूजी महाराज द्वारा बताई गई पद्धति को एक सच्चे अभ्यासी की तरह अनुसरण करना चाहिए। हम सभी जानते हैं कि सहज-मार्ग पद्धति एक पूर्ण पद्धति है और हमें इसे सही एवं प्राकृतिक रूप में समझना चाहिए बिना कोई संशोधन के। तभी हम कह सकते हैं कि हम अभ्यासी हैं। मैं समझती हूँ कि जो हमें अनुसरण करना चाहिए वह पद्धति है और वह जो इसे अनुसरण करता है, हमारा अन्तर है, जिसे अभ्यासी कहते हैं।

आज मैं आपके सामने हूँ और 45 वर्षों की साधना के बाद जो कुछ मैं समझ सकी वह आपको बता रही हूँ। यह आपकी समझ के भीतर है। आप निश्चय रूप से अपने अनवरत अभ्यास द्वारा उस क्षेत्र में कदम रख सकते हैं, जैसा कि श्री बाबूजी ने निर्देश दिया है। किन्तु जब हम अभ्यास करते हैं, हम अपने विचारों के अनुकूल इसमें मोड़ दे देते हैं, तब यह कहा जा सकता है कि आप उस पद्धति का अनुसरण कर रहे हैं, जो आपके द्वारा निर्मित है और आपके विचारों के अनुकूल है या जैसा आप चाहते हैं।

वास्तव में अनुसरण करना और अनुसरण करने वाला (अभ्यासी) को दो प्रकार से समझा जा सकता है। पहला है बाह्य और भौतिक और दूसरा है आन्तरिक और हृदय से। आन्तरिक पहुँच के बारे में मैं बता चुकी हूँ जिसे हमने लगातार स्वाभाविक रूप में अभ्यास किया है। बाहरी और भौतिक के लिए मैं यहाँ एक घटना का उल्लेख करूंगी जो मैंने श्री बाबूजी के घर पर देखी थी।

श्री बाबूजी महाराज रात में भोजन के बाद अपने आगन में थोड़ी देर के लिए टहला करते थे। एक रात लगभग ११ बजे जब हम लोग बरामदे में बैठे थे, टहलते हुए श्री बाबूजी महाराज अचानक रुक गये और अपने पेट पर अपने हाथों को फेरने लगे। हम लोगों ने देखा कि एक अभ्यासी जो कि बाबूजी का अनुसरण करते हुए टहल रहा था, भी रुक गया और श्री बाबूजी की नकल करते हुए अपने पेट पर हाथ फेरने लगा। दूसरे दिन श्री बाबूजी महाराज जब टहलने आये तो उनके गले में एक रुमाल लपेटा हुआ था। जब वह अभ्यासी उनका साथ देने वहाँ पहुँचा, उसने देखा कि श्री बाबूजी ने गले में एक रुमाल लपेटा हुआ है। तुरंत वह अपने कमरे में गया और कपड़े का एक टुकड़ा लाया और अपने गले में उसी प्रकार लपेट लिया, जैसे श्री बाबूजी लपेटे हुए थे और श्री बाबूजी के टहलने में साथ देने लगा। कुछ देर बाद श्री बाबूजी अचानक रुक गये और उस अभ्यासी से पूछा – “भाई ! रात बहुत हो चुकी है और अब तुम्हें सोने के लिए जाना चाहिए।“ तब वह अभ्यासी अपने कमरे में चला गया। इस प्रकार, श्री बाबूजी ने बेतुका ‘अनुसरण’ का एक उदाहरण दिया। इसके बाद बाबूजी ने हँसकर मास्टर साहब (ईश्वर सहाय) से कहा - आपने देखा हमारे मिशन में कैसे अभ्यासी हैं ? यदि आपको नकल करनी है। तो इस बात की नकल करो कि सत्य का साक्षात्कार कैसे किया जाता है ? उसी क्षण मेरी समझ में आया कि वे अपनी साधना की बौद्धिक प्रशंसा चाहते थे, लक्ष्य तक की बौद्धिक पहुँच, जैसा कि उन्होंने निर्देश दिया है, ताकि हम उनकी आध्यात्मिक सम्पत्ति ग्रहण कर सकें और वह जीवन जी सकें जैसा ‘वे’ चाहते हैं, और तब हम उनके अनुयायी कहने के भागी हो सकते हैं।

यदि आप श्री बाबूजी महाराज की आत्मकथा के पन्ने उलटें अथवा उनके वार्तालाप को याद करें तो पायेंगे कि उन्होंने पूर्वनिर्धारित लक्ष्य के लिए शायद ही किसी पद्धति का अनुसरण किया था। ‘वे’ केवल यही कहते थे, “मैंने केवल श्री लालाजी साहब को देखा है, और ‘वे’ ही हमारे लिए सबकुछ थे। श्री लालाजी साहब का ‘सन्त मत’ था”। जब एक सच्चे अनुयायी की तरह मेरा हृदय श्री बाबूजी महाराज के दिव्यस्वरूप में डूब गया तब मैंने अनुभव किया और उन्होंने मुझे लिखा कि अपनी पद्धति में हम ईश्वर–साक्षात्कार की इच्छा करने लगे क्योंकि केवल दर्शन से हमारी प्यास नहीं बुझती। अनुयायी की यह निरन्तर प्यास और विकलता (बैचैनी) का ही फल है जो श्री बाबूजी को ‘सत्य-पद’ का द्वार खोलने को विवश कर देता है। उसके बाद वे सतत् प्रयास करते हैं कि अनुयायी भूमा के क्षेत्र में तैरे अर्थात् केन्द्रीय क्षेत्र में। मैं यहाँ कह सकती हूँ कि मानव प्रयास उच्च स्तरीय चेतना श्री बाबूजी के संकल्प में भूमा की शक्ति में योग के लिए समा जाती है। फलतः इसकी दिव्य विशेषता स्वतः कार्य करने लगती है। तब अनुयायी उनके संकल्प में लय हो जाता है। यहाँ पर यदि अभ्यासी पीछे मुड़कर देखना चाहे कि वह कितना आगे बढ़ चुका है, तो वह नहीं देख सकता। उसके पास इतना भी समय नहीं रहता कि वह ईश्वर–साक्षात्कार के आनन्द का उपभोग कर सके। मैं आप से ज़ोर देकर कहती हूँ कि यदि आप किसी प्रिसेप्टर को बहुत चाहते हैं तो भौतिक रूप में उसकी नकल करके अनुयायी नहीं कहे जा सकते। बल्कि आपको यह पता लगाना चाहिए कि किस प्रकार के प्रेम, भक्ति तथा समर्पण से वह प्रिसेप्टर या अभ्यासी इस गौरव तक पहुँचा है। यदि कोई इस पहुँच के मार्ग को अपनाता है तो वह सच्चा अनुयायी कहा जा सकता है। वे दिव्य विशेषतायें क्या हैं ? जिसने उसके ‘प्रियतम’ को उसकी ओर आकर्षित किया है ? जब आप अनुसरण करेंगे तथा उन गुणों को ईमानदारी और लगन के साथ अपनायेंगे तब आप वास्तव में ‘अनुयायी’ (अभ्यासी) कहलायेंगे।

मैं श्री बाबूजी महाराज से प्रार्थना करती हूँ कि ‘वे’ हम सब को प्रेम, भक्ति, शक्ति, विश्वास और इन सबसे ऊपर उनके अनुयायी बनने की समझ, जैसा वे चाहते हैं, का आशीर्वाद दें।

संदेश - संत कस्तुरी
हमारी साधना
विजयवाड़ा
3/11/1994
श्री बाबूजी महाराज ने मानव समाज को जीवन के लक्ष्य के बारे में केवल जागृत ही नहीं किया है, बल्कि सहज मार्ग पद्धति से परिचय भी कराया है, जिसके अभ्यास से हम लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। उन्होंने सदा इस बात पर ज़ोर दिया है कि ईश्वर सरल है और उसका साक्षात्कार करने के लिए सरल साधन की ही आवश्यकता है। हम सभी जानते हैं कि सहज-मार्ग से सरल और कोई साधना नहीं हो सकती, जो हर मानव हृदय को ज्योतिर्मय कर सके। अभ्यासियों के लिए केवल इतना आवश्यक है कि वे दिव्य-प्रकाश के अन्तर्गत जियें, ताकि उनकी जीवन - पद्धति सँवर सके। यह स्पष्ट है कि जो ईश्वर और ईश्वरीय प्रकाश से सम्बद्ध है, वह अनन्त से जुड़ा हुआ है। यदि अभ्यासी उनका अनुसरण करता है तो उनकी दैवीय शक्ति उसकी सम्पूर्ण जीवन-शैली को पावन बना सकती है, यदि वह अपने शरीर के कण-कण में उनकी उपस्थिति का अनुभव करे। श्री बाबूजी ने इस बात पर ज़ोर दिया है कि अभ्यासी निष्ठापूर्वक दिव्य पुरुष का कदम-ब-कदम अनुसरण करे। ऐसा लगता है कि इसे न तो सही रूप से समझा जा सका है, न ही इसका सही ढंग से अभ्यास किया जाता है। मैं आप लोगों को स्पष्ट कर देना चाहती हूँ कि इसका सही अर्थ क्या है और ‘इन्हें’ किस प्रकार अनुसरण करना चाहिए, जिससे लाभ हो सके।

कदम-ब-कदम अनुसरण करने का अर्थ लोग यह समझते हैं। जब श्री बाबूजी महाराज धीरे चलें तो हम भी धीरे चलें अथवा जब वह तेज़ चलें तो हम भी तेज़ चलें। एक बार उन्होंने टिप्पणी की “लोग मेरी भौतिक क्रियाओं की नकल कर खुश होते हैं और मेरे सांसारिक जीवन के व्यवहार को ग्रहण कर गर्व करते हैं। जीवन का भौतिक सिद्धान्त, मेरी मुद्रा का उन्नत रूप और आध्यात्मिक मूल्य, जो मैं धारण करता हूँ की उपेक्षा करते हैं। अदृश्य, मूल, अलौकिक चरित्र, जो बाह्य अस्तित्व में, शान्त रूप में वर्णित हैं और जिसका उदाहरण हमारे दैनिक जीवन में है, को ग्रहण नहीं किया जाता है। यदि ग्रहण किया गया होता तो उन्हें जीवन को उत्कृष्ट बनाने के लिए अभ्यास नहीं करना पड़ता”। अनन्त की कठिन यात्रा में इसकी नितान्त आवश्यकता है। सच कहा जाये तो उनके इस कथन में निहित प्रकरण, ‘उनके’ कदम-ब-कदम अनुसरण करने में हमें सही दिशा देता है। ‘वे’ आशा करते हैं कि अभ्यासी ‘उनके’ निकट रहें, ताकि निष्ठा से ‘उनका’ अनुसरण कर सकें, उन पर पूर्ण रूप से निर्भर रहें, ताकि ‘उन्हें’ पीछे मुड़कर देखना न पड़े, जो हमेशा उनकी नजरों में है।

श्री बाबूजी महाराज ने एक वाक्य में इसका अर्थ संक्षिप्त कर दिया है कि “बन्दे को हुज़ूर की हाज़िरी में हाज़िर रहना चाहिए”। यहाँ हाज़िर का अर्थ भौतिक नहीं, बल्कि हृदय से सम्बन्धित उपस्थिति है। इस क्रम से उनके और उनके अनुयायी के बीच की खाई जो अभ्यासी के अहम् के विचार एवं कार्य से बनी है, धीरे-धीरे पट जाती है। उसके बाद जो बचता है, वह सतत् स्मरण है। उनके साथ रहने का विचार और याद को कभी टूटने नहीं देना चाहिए। अपने जीवन के हर क्षण में उनकी उपस्थिति का अनुभव होना चाहिए। किन्तु उन्हें भौतिक रूप में देखने की इच्छा कभी नहीं होनी चाहिए। यदि उनका रूप दिखाई पड़ता है तो ठीक है, नहीं तो उन्हें देखने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। जब ‘वे’ (श्री बाबूजी) सोने जाते हों, तो यह विचार नहीं आना चाहिए कि ‘वे’ सोने जा रहे हैं, बल्कि यह सोचना चाहिए कि चारों ओर दैवीय प्राणाहुति, जो तीव्रता से प्रवाहित हो रही है, उसमें वह (अभ्यासी) साँस ले रहा है। यह ऐसा जीवन है, जो दैवी पुरुष का कदम-ब-कदम अनुसरण कर रहा है, जिसे श्री बाबूजी ने कहा है। “जीवन में जीवन ही जीवन है”। यही वास्तविक जीवन है और ऐसा जीवन जीने के लिए ही ‘वे’ अपने प्रेम का द्वार खोल देते हैं और हमसे वादा करते हैं कि ‘उनका’ अनुग्रही हाथ हमें छाया दे रहा है। अब इस स्थिति में क्या करना बाकी रह जाता है ? अभ्यासी को ऊपर उठना चाहिए तथा दृढ़ता से उनकी देख-रेख और निर्देशन में पद्धति का अनुसरण करना चाहिए ताकि अनका ‘प्रेम’ पाने के योग्य बन सके। मुझे विश्वास है कि उनके कदम-ब-कदम अनुसरण करने का मतलब क्या है ? मैंने स्पष्ट कर दिया हैं इसका अर्थ है सदा लक्ष्य के निकट रहना। मैं पुनः कहना चाहती हूँ कि इस क्रम में अभ्यासी को कोई भी अहंकारी अनुभव नहीं होना चाहिए। श्री बाबूजी महाराज ने प्रार्थना की अंतिम पंक्ति द्वारा सबको चेतावनी दी है कि “बिना तेरी सहायता तेरी प्राप्ति असम्भव है।” इसका अर्थ यह नहीं है कि केवल लक्ष्य के निकट रहने से यह समझ लेना चाहिए कि हमने लक्ष्य प्राप्त कर लिया है। इसकी प्राप्ति बिना उनकी सहायता (उनकी प्राणाहुति के रूप में) असम्भव है। उन्होंने मुझे इसे अच्छी तरह समझाया है, जब उन्होंने मुझसे कहा कि मैं उनसे अन्तरबद्ध रहूँ।

‘उनकी’ पद्धति उन्नति करने के लिए आवश्यक निर्देश देती है, जो सर्वसाधारण की समझ के भीतर है। यह उसकी प्रत्यक्ष सादगी है। स्वाभाविक जटिलताओं को सही रूप में समझने के लिए उन्होंने हमें आवश्यक सामर्थ्य का आशीर्वाद दिया है।

आज प्रातःकाल ध्यान के समय अचंभा तो देखिये। मैं प्रायः ६० मिनट तक पूजा कराती हूँ, किन्तु आज सुबह केवल ३५ मिनट तक ही पूजा कराई, क्यों और कैसे ? मैं स्वयं नहीं जानती। आप सब लोगों ने भी गौर किया होगा कि प्राणाहुति कितनी खास, विस्तृत और गहरी थी, ऐसा मानो ‘बसंतोत्सव’ अथवा ३० अप्रैल के आयोजन में होता है। कब और कैसे शब्द ‘बस’ बोला गया, मैं नहीं जानती। जब मेरी आँखें खुली, तो मुझे ऐसा लगा कि मैं पूजा करा रही थी और श्री बाबूजी महाराज मेरे सामने बैठे थे और उन्होंने कहा - बस ! सिर्फ आवाज़ सुनी, न जाने यह आवाज कहाँ से आई थी।
संदेश - संत कस्तुरी
मद्रास-सन्देश
मद्रास
30/4/1995
मुझे मेरे हिन्दी भाषण का सारांश लिखने की इसीलिये आवश्यकता हुई कि लोग अभी से इसका गलत अर्थ लगाने लगे हैं।

आज मेरे बाबूजी अर्थात् श्रीरामचन्द्र मिशन की पचासवीं वर्षगाँठ का महोत्सव बड़े ज़ोर-शोर से मनाया जा रहा है। मैं भी आज्ञा लेकर आज आप सबके सन्मुख कुछ बोलने के लिये आ गई हैं। इधर वर्षों से मेरे प्रति जो आपके आक्षेप, आक्रोश एवं इस भाव का जो आपने अपने मास्टर चारीजी को मेरे द्वारा पीड़ा पहुंचाने का रखा है, समाधान स्पष्ट कर दूँ ताकि फिर आप पूरी तरह से अपनी साधना में जुट सकें। मैंने कभी भी इनके लिये कोई अप-शब्द मुख से नहीं निकाला है एवं इनके प्रति कभी भी ज़रा सी उपेक्षा का भाव जी में नहीं आने दिया। जानते हैं क्यों? मात्र इसीलिये कि ये बाबूजी के बनाये उनके रिप्रेजेन्टेटिव एवं मिशन के प्रेसीडेंट हैं। वास्तव में बाबूजी ने इनके डिकलेयरेशन के लिये कहा ही नहीं था किन्तु जो उनका बनाया हुआ चारी का सौंदर्य था उसे भी उन्होंने (श्री बाबूजी) मुझे बताया था जिसे चारीजी तक स्वयं नहीं जान सके हैं। यही कारण है कि इनके स्नेहवश मैंने इनके प्रति वे सारे कर्तव्य खुद ही ले लिये जिन्हें मैंने आज तक जी से निभाया है। चाहे ये विदेश गये हैं। या भारत में हैं। हवाई जहाज तक में जब और जहाँ भी कठिनाई आई है, अपने बाबूजी महाराज की शक्ति से तुरन्त ही इनकी सुरक्षा का पूरा कर्तव्य निभाया है। आप सब आराम से सोते रहे और मैं सदैव जागती रही। जीने से उतरते समय पैर फिसल कर इनके पैर में फ्रैकचर हुआ उस समय भी ये बच सकते थे यदि इन्हें यह ख्याल रहता कि मेरी बहिन सदैव मेरे साथ मेरी सुरक्षा के लिये मौजूद है। आप सब लोगों ने तो खुशामद को ही लेकर इस बात का यों प्रचार किया कि मास्टर इतने ऊंचे लोक में कार्य कर रहे थे कि इन्हें होश ही नहीं रहा और ये गिर गये।

ऐसे ही प्रचार मैं बराबर ही सुनती रही हूँ किन्तु उन चारीजी को जिन्हें मेरे बाबूजी ने बनाया था उसे ख़ुद ये चारीजी भी नहीं जान पाये हैं इसका मुझे दुःख ज़रूर है। आप सब वर्षों से इस प्रचार में तो लगे रहे कि जो कुछ मिलेगा इनसे ही मिलेगा किन्तु ऐसा बनकर किसी ने भी नहीं बताया कि क्या मिलेगा। मैंने हमेशा यही कहा है कि आप लोगों के बनाये चारी को मैं नहीं मानती हूँ मैं तो अपने बाबूजी के बनाये चारीजी को ही जानती हूँ। आप लोगों ने कुर्सी पर बैठे चारीजी की ओर इशारा करते रह कर मानों इनकी एक प्रतिमा सी बना ली और खुद पुजारी (वरश्पिर) बन कर रह गये। मैंने बहुत प्रयास किया कि आप सब श्री बाबू जी के प्रति प्रेम, भक्ति एवं लय-अवस्था प्राप्त करें किन्तु आपने मेरे इस आंतरिक भाई-चारे के भाव को समझ पाने का भी प्रयास नहीं किया वरन ये चारी की विरोधी है ऐसी संज्ञा दे दी। इतना ही नहीं इधर वषो से कितने अप-शब्दों एवं आक्रोश और धमकी भरे पत्र अभ्यासियों के द्वारा मुझे मिलते रहे हैं किन्तु मैं सबको पीती रही क्योंकि मैं अपने बाबूजी के बनाये चारीजी की ममता नहीं तोड़ पाई। मुझे इनकी तरफ से भी इस बात में कोई सहारा नहीं मिला वरन आप सबका मास्टर होने के नाते इन्होंने सदैव आपकी बातों को सत्य माना। आप सबके पत्रों के आक्रोश, आक्षेप और क्रोध भरी भाषा के प्रयोग के बारे का जिक्र इनसे ( चारीजी ) भी कहा और लिखा भी और साथ ही जनरल सैक्रेटरी सार्नाडजी और जोनल सैक्रेटरी वाई. के. गुप्ता जी से भी कहा किन्तु किसी ने भी मुझे संवेदन भरे शब्दों का सहारा भी नहीं दिया। शायद यही कारण है कि सन् १९९५ के बसन्तोत्सव से मानों मेरे अंतर में एक शक्ति ज़ोर मार कर कुछ बोलने को व्यग्र हो उठी थी। इस परम-शक्ति की व्यग्रता को मैं कैसे अब तक अपनी ओर से अनदेखा करती हुई, अपने श्री बाबूजी महाराज के पावन जन्मोत्सव आने के इंतज़ार तक सहन करती रही, यह मैं स्वयं भी नहीं जान सकी हूँ। किन्तु आज अपने श्रीबाबूजी के बनाये चारीजी के वास्तविक-स्वरूप ने जब इनके प्रति मेरे ममत्व को ललकारा है तभी आज इन चारी के सन्मुख ही मेरे अंतर में मालिक श्रीबाबूजी की परम-शक्ति मुझे कुछ बोलने के लिये डायस पर ले आई है क्यों कि खुद ये भी तो मेरे भाव को नहीं समझ पाये कि “मैं उस चारी को जानती हूँ जिन्हें मेरे बाबूजी ने बनाया है, किन्तु जिस चारी को इनके शिष्यों ने बनाया है उन्हें मैं नहीं मानती हूँ किन्तु ये ( चारीजी ) मानते हैं”। इसीलिये शायद इनके प्रति जो भी कर्तव्य चाहे इनकी हर प्रकार की सुरक्षा के हों चाहे अपने श्री बाबूजी के वर्क के हों आज तक मैंने बराबर इनके साथ रहकर निभाया है। इसे न तो आप सबने ही जाना और न ये ही जान पाये हैं। आज इनके प्रति निभाये सारे कर्तव्य मैं आप सबको सौंपती हूँ आप जैसे चाहें इसे पूर्ण करें। मेरी विदाई जो आप लोगों से मैंने माँगी है उसका भी सही अर्थ आप नहीं समझ पाये और गलत अर्थ लगाने लगे। इसीलिये अपने भाषण का सारांश लिखना मेरे लिये ज़रुरी हो गया है। विदाई तो मैंने आप सबसे ही माँगी है और आपके बनाये हुये चारी जी से जो हमारे समक्ष विराजमान हैं। आप सबका रोष और इनकी पीड़ा कस्तूरी के नाम से बढ़ती जाये यह बात मुझे असहनीय हो गई। यहाँ तक कि मेरे यह कहने पर भी कि “कोई चीज़ ऐसी नहीं बनी जो आपको चोट पहुंचाये” इतना भारी आश्वासन देने की शक्ति एवं क्षमता भरी अपनी इस बहिन पर भाई चारीजी का विश्वास करना तो दूर रहो वरन् वे मुझे अपने से दूर ही समझते रहे। अब आपसी भौतिक-व्यवहारिकता की तो बात और है किन्तु अब आप सब भाईयों के लिए मेरा यह कथन स्पष्ट हो गया है कि मेरे पास पूजा के लिये आने वाले लोग यही समझ कर आयें कि आप सबको जो भी प्राणाहुति-शक्ति मिलेगी वह मेरे बाबूजी, जो अल्टीमेट रियेल्टी अर्थात् भूमा की आदि-शक्ति के प्रतीक हैं, से ही मिलेगी, और मेरे पास कुछ भी नहीं है। मैं तो पहले ही कह चुकी हूँ कि मैं तो आध्यात्मिकता को भी नहीं जानती हूँ मेरे जी को बाबूजी इतने अच्छे लग गये कि मेरा जी बाबूजी को लेकर कहाँ छुप गया और ध्यान मग्न हो गया इसका पता दिलाते हुये मेरे बाबूजी मुझे कहाँ तक ले गये हैं और कहाँ ले जायेंगे मैं नहीं जानती हूँ। आप सबसे विदा लेने के मेरे कथन का वास्तविक अर्थ यह है कि आप सब अपने विचार एवं हृदय से मुझे विदा कर दें और इसके स्थान पर अपनी आध्यात्मिक उन्नति का ही ध्यान रखें जिसके लिये आप सबने मिशन एवं मास्टर को अपनाया है।

आज अपने बाबूजी से मेरी यही प्रार्थना है कि चारीजी चिरंजीवी होकर आप सबकी आध्यात्मिक-सेवा कार्य करते रहें और श्री बाबू जी के ध्यान में रहते हुये मिशन के कार्य में सदैव कार्यरत रहें। धन्यवाद।

कस्तूरी चतुर्वेदी
संदेश - संत कस्तुरी
अपने को डुबोये रखें
विजयवाड़ा
17/3/1996
श्री बाबूजी महाराज ने कहा है कि अपने को ईश्वर की याद में डुबोये रखो, जो आध्यात्मिक प्रगति के लिए एक प्रभावकारी साधन है। पुनः जब तक अभ्यासी सही विधि ग्रहण नहीं करता, सफलता बहुत अधिक नहीं मिलती। इसकी जटिलताओं के बारे में मैं आप से बात करूँगी, ताकि आप इसे ध्यान के दैनिक अभ्यास में ग्रहण कर सकें।

‘अपने को डुबोये रखें’ के सन्दर्भ में अभ्यासी अपने 'स्व' की अवहेलना करता है और बार-बार अन्तर में स्थित ईश्वर में अपने शरीर को डुबोने का प्रयास करता है। आपको केवल यही प्रयास करना है कि आप ‘ईश्वरीय प्रकाश’ में डूबे हुए हैं, किन्तु अपने भौतिक शरीर पर ध्यान न दें। बार-बार प्रयास करें कि ‘मैं’, जो ‘उसका’ है, ईश्वरीय प्रकाश में डूबा हुआ है। ‘मैं’ अथवा ‘स्व’ का इस प्रकार, ‘उसकी’ शक्ति में डूबे रहना आपकी आध्यात्मिक प्रगति को तीव्र करेगा। यहाँ ‘मैं’ के डूबे रहने का अर्थ है कि सम्पूर्ण अस्तित्व श्री बाबूजी में लय है। डूबे रहने की स्थिति अभ्यासी के आध्यात्मिक जीवन का प्रथम पायदान है। यह अनुपम दशा, समय आने पर “अपने को भूल जाओ” की दशा में रूपान्तरित हो जाती है। श्री बाबूजी महाराज के अनुसार जब ‘मैं’ का दैवी शक्ति में डूबे रहने का विचार स्थाई हो जाता है, ध्यान सूक्ष्म शरीर में प्रारम्भ हो जाता है और ‘स्व’ के डूबे रहने का विचार इसमें पिघलने लगता है। ‘भूल की दशा’ को श्री बाबूजी महाराज ने कहा है कि “अपना नाम और रूप भी भूल जाओ।“

श्री बाबूजी महाराज ने इस बात पर जोर दिया है कि जब हम ‘मैं’ की वास्तविकता को ईश्वर में डुबोये रहते हैं, तब सभी विचार धुलकर दिमाग से बाहर आ जाते हैं। इसके बाद जब आप ध्यान के द्वारा ‘मैं’ को श्री बाबूजी से जोड़े रहते हैं, तो आपको ईश्वर की सामीप्यता की सेंक का अनुभव होता है। केवल इतना ही नहीं, डूबने के क्रम में, लक्ष्य की प्राप्ति में, जो भी बाधायें आती हैं, वे सब भी बिना सफाई के धुल जाती हैं। तब आपका हृदय एक दर्पण हो जाता है और इसमें आपके बजाय श्री बाबूजी महाराज की सूरत दिखाई देती है। उसके बाद आपको अनेकों दैवी अनुभव होते हैं। तब आप श्री बाबूजी महाराज को लिख सकते हैं कि अपने प्रियतम की सूरत आपके हृदय में है और आप जब चाहें, सिर झुका कर उन्हें देख सकते हैं।

सूक्ष्म शरीर धीरे-धीरे पिघलने लगता है और एक दिन आता है जब यह ईश्वर में पूरी तरह विलीन हो जाता है। ध्यान तथा स्मरण भी विलीन हो जाता है। इस स्थिति में मैंने अपना अनुभव श्री बाबूजी महाराज को लिखा कि ऐसा लगता है कि स्मरण और इसका दिव्य तत्व साथ-साथ चल रहे हैं। उत्तर में उन्होंने लिखा कि जब ध्यान और स्मरण ईश्वर में इतना डूब जाते हैं, तब आत्मा को मोक्ष मिल जाता है।

अब मैं देख सकती हूँ और लिख भी सकती हूँ कि जब सूक्ष्म शरीर पिघलने लगता है, तब यह श्री बाबूजी महाराज में लय हो जाता है। उसके बाद मुझे अनुभव हुआ कि मुझे पुनर्जन्म से छुटकारा मिल गया है। दूसरी ओर, जब ध्यान सूक्ष्म शरीर में होने लगता है, और सूक्ष्म रूप आत्मा में लय हो जाता है, तब इसे आत्मा के मोक्ष की दशा कहते हैं।

इस स्थिति के बाद श्री बाबूजी महाराज ने मुझसे जो कुछ कहा, उस आधार पर मुझे लगा कि आत्मा कभी नहीं पिघलती, बल्कि यह परमात्मा में लय हो जाती है और इसके बाद लगता है कि मेरे अन्तर में आत्मा नहीं है। यदि कोई इसके बारे में बोलता है, तो ऐसा लगता है कि कोई परमात्म शक्ति के बारे में बोल रहा है।

जब मैंने श्री बाबूजी महाराज को इस दशा के बारे में लिखा, तो उन्होंने सलाह दी – “यह अच्छा होता, यदि तुम अकेली रहती, और यह दिमाग़ में रहता कि किसी के लिए भी तुम्हारा विचार बुरा नहीं है, क्योंकि, इस दशा में यदि ऐसा विचार तुम्हारे दिमाग में आता है, तो किसी के दुख के कारण तुम्हें दर्द होता है।“ आज मैं कह सकती हूँ कि श्री बाबूजी महाराज के आशीर्वाद से जो भी उच्च दशा मिली है, उसके संरक्षण का प्रबन्ध भी वे कर देते हैं। अब आप ही बतायें, किसी अभ्यासी से किसी प्रकार की गलती कैसे हो सकती है, जब श्री बाबूजी महाराज उस अभ्यासी को अपने हृदय में समेट लेते हैं। मैं यह कह सकती हूँ कि ऐसी उच्च दशा में, संरक्षण के कारण, अभ्यासी दिव्य वर्षा का भागीदार हो जाता है, किन्तु सांसारिकता उस दिव्य दशा को नहीं छू सकती। इस दशा में अपने अंतर में मैंने श्री बाबूजी महाराज का विचित्र सौन्दर्य पाया और ईश्वरीय शक्ति से इसकी तुलना मेरे लिए असम्भव थी। मुझे ऐसा क्यों लगा ? यह अन्तर प्राकृतिक था, क्योंकि श्री बाबूजी महाराज सम्पूर्ण शक्ति और संकल्प के साथ, मानव जाति को अनन्त तक ले जाने के लिए आये हैं, भूमा से धरती पर उतरे हैं। जब मैंने बार-बार अपने से पूछा, क्या ‘ये’ वही श्री बाबूजी महाराज हैं, जिनसे मैं शाहजहाँपुर में मिली थी अथवा ‘वे’ दैवी पुरुष हैं, जिन्होंने मुझे अपने में लय कर लिया। तब मैं उन सभी दशाओं का सत्य समझ सकी, जो ‘उन्होंने’ मुझे प्रदान की थी। ‘वे’ चाहते थे कि मैं यह समझ सकूँ कि मुझे आगे बढ़ना है और ‘वे’ मुझे विभिन्न स्तरों पर ले भी गये, हर दशा में मुझे लय कराते हुए और साथ में दूसरे स्तरों के लिए मुझे तैयार करते हुए।

अब देखिये, कितना साधारण, किन्तु अनुपम हमारी सहज-मार्ग पद्धति की यात्रा है, जिसमें श्री बाबूजी महाराज एक साधारण अभ्यास के द्वारा, हम अभ्यासियों के अन्तर को ‘अपने’ महान् दैवी व्यक्तित्व के प्रतिबिम्ब का आशीर्वाद देते हैं। अभ्यासी को केवल अपने हृदय में ईश्वरीय प्रकाश की कल्पना का अभ्यास प्रारम्भ करना है, तथा अपने विचार को उसमें सदा डुबोये रखना है। इस साधारण अभ्यास के द्वारा ‘वे’ अभ्यासी के मन, हृदय और विचार को पावन बना देते हैं, जो आगे चलकर उसके चरित्र और जीवन को रूपान्तरित कर देते है। अभ्यासी का यह रूपान्तरण धीरे-धीरे उसमें आन्तरिक एकाग्रता को इस योग्य बना देता है कि वह उसके और ईश्वर के मिलन की एक कड़ी बन जाता है। ईश्वर से योग की दशा के आशीर्वाद के बाद, अभ्यासी के सभी कार्य श्री बाबूजी महाराज के अधीन हो जाते हैं और अभ्यासी उनके हाथों का एक साधन बन जाता है।

श्री बाबूजी महाराज का दूसरा आश्चर्यजनक कार्य जो मैंने अनुभव किया है, कि ‘वे’ यह चाहते हैं कि हर अभ्यासी को लगे कि सांसारिक दिनचर्या में व्यस्त रहते हुए, वह उच्च आध्यात्मिक स्थिति के साथ धरती पर रह रहा है।

हमारे सामने वह कैसा सुन्दर दृश्य था, जब वे मुझे सात वृत्तों के द्वार तक ले गये और दूर खड़े रह कर मुझे देखा, इस भाव से कि ‘वे’ ही अनन्त के ‘मालिक’ हैं और ‘उनके’ होने का श्रोत भूमा का केन्द्र है। अब हमारी सहज-मार्ग साधना की खूबसूरती देखिये कि अभ्यासी श्री बाबूजी महाराज में लय होने के लिए प्रयास करता है और ‘उनका’ आशीर्वाद अभ्यासी को दशा के रूप में मिलता है।

मैं नहीं जानती कि क्यों एक तड़प मेरे अंतर में सदा रहती है कि श्री बाबूजी महाराज के सभी अभ्यासी बच्चों को ‘उनका’ आशीर्वाद मिले । मुझे विश्वास है कि हमारे प्रिय भाई डॉक्टर साहब की देख-रेख से और आपके निष्ठापूर्वक प्रयास से आप लोगों को उनका आशीर्वाद अवश्य मिलेगा और श्री रामचन्द्र मिशन के योग्य अभ्यासी की भाँति आप सभी लोग चमकेंगे।

संदेश - संत कस्तुरी
निवेदन एवं समर्पण
विजयवाड़ा
18/3/1996
आज मैं अपनी साधना के उस पहलू पर बात करूँगी जिसके बारे में श्री बाबूजी महाराज ने मुझे लिखे पत्रों में और लोगों से वार्तालाप करते हुए, जोर दिया गया है। ये पहलू हैं ‘निवेदन’ और ‘आत्मसमर्पण’। ये दो साधन हैं, जिनके द्वारा हम उन्नति कर सकते हैं और लय-अवस्था तथा अनन्त के साक्षात्कार को पा सकते हैं, जो मानव जीवन का अन्तिम लक्ष्य है।

श्री बाबूजी महाराज ने हमेशा इस बात पर जोर दिया है कि ‘आत्म-निवेदन’ आपेक्षिक रूप में ‘समर्पण’ से कठिन है, किन्तु उन्होंने यह भी कहा है कि ‘आत्म-निवेदन’ समर्पण की आत्मा है। ‘उन्होंने’ केवल सिद्धान्त रूप में मुझसे ‘समर्पण’ की व्याख्या नहीं की है। यह कब और कैसे किया जाये और किस दशा और अनुभव से अभ्यासी गुज़र चुका है, जब वह ‘आत्म-निवेदन’ का प्रयास करता है, के बारे में भी कहा है।

बहुत दिनों से मैं आप लोगों से इस पहलू पर बात करना चाह रही थी, ताकि आप लोगों के अन्तर में भी वही तड़प पैदा हो। आज मैं आप लोगों से अपना अनुभव कहने से रोक नहीं पा रही हूँ। जानते हैं क्यों ? यह केवल इसलिए कि जब बच्चे को कोई अनुपम चीज मिलती हैं, वह अपने भाई-बहनों को इस बारे में कहने के लिए उत्सुक हो जाता है। शायद श्री बाबूजी महाराज भी चाहते हैं कि मैं ‘उनके’ अभ्यासी बच्चों को इसके बारे में बताऊँ।

पहले मैं आपको बताऊँगी कि ‘निवेदन’ का अर्थ क्या है ? साधारणतः अभ्यासी इसे अपनी सारी सम्पत्ति (भौतिक एवं मानसिक) को भेंट करना समझते हैं। उनके लिए ‘आत्म-निवेदन’ का यही अर्थ है, किन्तु, जब श्री बाबूजी महाराज ने, दैवी अनुभव के क्रम में, मुझसे कहा कि इसका सही अर्थ क्या है, यह कितना महत्वपूर्ण है, तब मैं इसके बारे में जानकर आश्चर्यचकित रह गई। ‘आत्म-निवेदन’ का सही अर्थ है, अपने ‘स्व’ को भेंट करना, बिना किसी भौतिक-तत्व के। अपने ‘स्व’ अथवा ‘मैं’ को श्री बाबूजी महाराज को भेंट करना। तब ‘मैं’, जो भेंट किया जा चुका है, सभी सांसारिक बन्धनों से मुक्त हो जाता है। वास्तव में ‘स्व’ अथवा ‘मैं’ आत्मा से सम्बन्धित है।

अभ्यासी अपने अन्तर की विनीत भावना के लिए ईश्वर से आशीर्वाद प्राप्त करता है। श्री बाबूजी महाराज ने कहा है – “अपने लक्ष्य के लिए विनीत भाव से रहो, जो उज्ज्वल आध्यात्मिक प्रगति की कुंजी है।“ इस दशा में अपना अनुभव बताने के लिए मैं कहूँगी कि इस स्थिति में ऐसा लगता है कि मैं किसी दूसरे की हूँ अर्थात श्री बाबूजी महाराज की और धीरे-धीरे यह अनुभव, वास्तविकता में बदल गया और फिर मैं कहने लगी, “वे मेरे हैं, और मैं उनकी हूँ।“ उसके बाद दशा और मेरा दैनिक जीवन, दोनों धीरे-धीरे ‘उनके’ प्रेम की वर्षा में डूब गया और विलय हो गया, इस प्रकार कि ‘मैं’ का वास्तविक अर्थ भी मैं भूल गई और उसके बाद जो शब्द मुँह से निकले, ऐसा लगा कि वे आत्मा से निकल रहे हैं, जो स्वयं कहता है कि “मैं तुम्हारी हूँ।“ यही ‘आत्म-निवेदन’ की सही दशा है।

‘निवेदन’ का एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि हम भौतिक शरीर, अपना नाम और ‘स्व’ को भूल जाते हैं और इसके बाद हमारा अस्तित्व, जिससे सम्बद्ध रहता है, उसमें खो जाता है। उदाहरण के लिए बाबूजी महाराज को लिखा कि मुझमें सूक्ष्म और कारण शरीर की सम्बन्धता नहीं है। तब उन्होंने मुझे लिखा कि शरीर का अपना नाम और रूप होता है, किन्तु जब इसका मतलब ही दिमाग से चला गया तब मुझे सूक्ष्म और कारण शरीर की चेतना कैसे रह सकती थी। तब ‘उन्होंने’ मुझे एक दूसरी अनुपम दैवी दशा के बारे में कहा जिसे ‘भूलने की दशा’ कहते हैं, जब अभ्यासी को ‘उनके’ प्रति निवेदन के लिए पुनः आशीर्वाद दिया जाता है। इस दशा में, जैसा कि उन्होंने मुझे लिखा और मैंने भी अनुभव किया, “तुम किसी भी व्यक्ति को याद नहीं कर सकती, चाहे वह कितना ही निकट क्यों न हो, जब तक तुम्हें इसके बारे में याद न दिलायी जाये।“ जब मैंने उन्हें लिखा कि मैं उनकी दिव्य बौछार में डूबी थी और अपने होने की भी चेतना नहीं थी, तब मैं किसी को कैसे देख सकती थी। उस दशा में जब मैं किसी अभ्यासी से बात करती, तब लगता कि मेरे मुख के द्वारा ‘वो’ उसका नाम पुकार रहे हैं। मुझे इस बात का पता तब लगा, जब अभ्यासी अपना अनुभव बताता है कि उसे अच्छा लगा और मैंने उससे अच्छी तरह बात की। यह दशा ‘निवेदन’ के भाव में रहने का प्रतिफल भी हो सकता है। इसके बाद अनुभव भी समाप्त हो जाता है और ‘आत्म-निवेदन’ की आवश्यकता भी महसूस नहीं होती। ऐसा इसलिए होता है कि श्री बाबूजी महाराज ने ‘अपने’ अभ्यासी बच्चों का ‘आत्म-निवेदन’ जब स्वीकार कर लिया, उसके बाद ऐसा लगता है कि ‘आत्मा’ की भेंट लय हो रही है अथवा परमात्मा में खो गई है। तब आत्मा अपने समर्पण के पश्चात् जीवात्मा के मूल रूप में परिवर्तित हो जाती है। यह ‘समर्पण’ का प्रारम्भ है। यह स्वतः आगे बढ़ता है और अभ्यासी को परम तत्व में आत्म-तत्व के विलय का अनुभव होता है।

अब आप यह जानने के लिए उत्सुक होंगे कि ‘स्व’ का समर्पण जब हो जाता है, तब क्या होता है ? मैं कह सकती हूँ कि इसके बाद अभ्यासी डूबी हुई अवस्था में रहता है और श्री बाबूजी महाराज द्वारा उसे ‘सहज-गति’ की दशा का आशीर्वाद मिलता है। इन दशाओं का अनुभव होने के बाद अभ्यासी को अन्तर में ‘सहज-समाधि’ की दशा स्वतः अनुभव होने लगती है। श्री बाबूजी की शिक्षा का गौरव और अनुभव उसमें प्रवाहित होने लगता है और सभी अनुभव ‘उनमें’ लय हो जाते हैं।

मैं आशा करती हूँ कि आप सब लोग महसूस करते होंगे कि श्री बाबूजी महाराज के दैवी कार्य की गुणवत्ता और सौन्दर्य का वर्णन करना कितना कठिन है। देखें, कितनी शान्ति से और प्रभावकारी खूबसूरती के साथ ‘उन्होंने’ अभ्यासियों को जीवन के उज्ज्वल लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सहज मार्ग साधना का प्रबन्ध किया है। आध्यात्मिक पथ पर जैसे-जैसे अभ्यासी आगे बढ़ता है, वह क्रम से आध्यात्मिक दशा को अनुभव करता है। यदि आप उन अनुभवों को श्री बाबूजी महाराज़ को लिखना चाहें जैसा मैंने अपने मामले में पाया है, तब, यद्यपि आप अपना अनुभव लिख रहे होंगे, आप इससे अनजान रहेंगे कि आप ‘उन्हें’ अपनी दशा लिख रहे हैं या दशाओं की दशा के बारे में वर्णन कर रहे हैं।

मैं एक और बिन्दु के बारे में आपको सलाह दे रही हूँ कि श्री बाबूजी महाराज का यह वाक्य सदा याद रखें “मैंने अभ्यासियों से कहा है कि वे सदा ध्यान के भाव में रहें और यही उनका दैनिक अभ्यास होना चाहिए। ईश्वर की याद में लय रहते हुए सभी दैनिक कार्य करें।“ एक बात और याद रखें कि जब आपको अपने अंतर में अथवा चारों ओर श्री बाबूजी महाराज की उपस्थिति का अनुभव हो और प्राणाहुति के प्रवाह का भी अनुभव हो, तब आप अपने को इसमें डुबोये रखें। इसके महत्त्व के बारे में भी मैं आपको बताती हूँ।

ध्यान के भाव में रहना इतना लाभदायक है कि इस क्रम में आप केवल ध्यान में ही नहीं रहते, बल्कि सभी कुछ का सम्मिलित लाभ आपको मिलता है अर्थात् ध्यान, सतत् स्मरण और समर्पण का। वास्तव में यह अभ्यासी के सफलतापूर्वक अभ्यास के लिए श्री बाबूजी द्वारा दिया गया पुरस्कार है। इस पुरस्कार के साथ-साथ श्री बाबूजी महाराज अभ्यासी में एक परिवर्तन भी लाते हैं, जिसे ‘चोरी की क्रिया’ कहा जाता है। इस पुरस्कार, ‘चोरी की क्रिया’ के बारे में मैं बताती हूँ कि यह पुरस्कार कैसे हुआ ‘चोरी की क्रिया’ क्या है ? यह पुरस्कार है, क्योंकि श्री बाबूजी महाराज हमारे ‘आत्म-निवेदन’ और ‘समर्पण’ के फलस्वरूप हमारे अन्तर में पूरी दिव्यता के साथ उपस्थित होते हैं। ‘वे’ हमारे अन्तर से हमारा अहम् चुरा लेते हैं और हमें पता भी नहीं चलता। हमें कभी अनुभव नहीं होता कि हमारा कुछ खो गया है, इसलिए यह ‘चोरी की क्रिया’ हुई। सत्य यह है कि वे अपनी उपस्थिति हमारी चेतना में रहते हुए देते हैं और इसीलिए हमें अनुभव होता है, किन्तु, जो हम खोते हैं, वह अचेतन में होता है। इस आध्यात्मिक दशा को प्राप्त कर लेने के बाद हम अनन्त की यात्रा में पहला कदम रखते हैं।

मुझे विश्वास है कि सहज-मार्ग पद्धति में जिन आध्यात्मिक दशाओं से मैं गुज़री हूँ और जिसका दैविक आनन्द बार-बार मेरे अन्तर में अनुभव होता है, उस दिव्य-वर्षा का आनन्द आप सभी अभ्यासी भाई-बहन उठायेंगे और श्री बाबूजी महाराज उन्हें लय-अवस्था प्राप्त करने का आशीर्वाद देंगे। आप का हृदय एक दर्पण हो जायेगा, जिसमें किसी को भी साफ तौर पर पवित्रता के साथ आप देख सकते हैं। यह आप को स्वतः भाईचारे का सम्बन्ध बनाने में सहयोग देता है। श्री बाबूजी महाराज ने ठीक ही कहा है, “विश्व-बन्धुत्व हमारे मिशन का जीवन है।“ मैंने यह भी अनुभव किया है कि दैवी दशा में डूबे बिना जो भी रूपान्तरण हम में होता है, वह केवल बाहरी है। हमें हमेशा दिव्य उपस्थिति में डूबे रहने की कोशिश करनी चाहिए। यह उन सभी दशाओं को, जो आवश्यक हैं, आपको प्राप्त करने योग्य बनाता है। श्री बाबूजी ने कहा है – “अपने ध्यान के द्वारा ‘उससे’ योग करो, जो दिव्य सुगन्ध से परिपूर्ण है, तब तुम्हें उच्चतम फल निश्चय ही प्राप्त होगा।“ श्री बाबूजी ने यह भी कहा है – “प्रेम का वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। यह वास्तविकता है, जिसकी व्याख्या नहीं की जा सकती।“ श्री बाबूजी महाराज का यह कथन अभ्यासियों के लिए एक सन्देश है। ईश्वर करे आप सभी लोग ‘निवेदन’ अथवा ‘समर्पण’ के योग्य हों।

श्री बाबूजी महाराज से मेरा नम्र निवेदन है कि ‘वे’ आप लोगों को दैवी वर्षा में स्नान करायें।

संदेश - संत कस्तुरी
लक्ष्य की ओर अपना ध्यान
तिरुपति
20/3/1996
पचास वर्ष पूरा होने पर 1995 में हमने अपने श्री रामचन्द्र मिशन की स्वर्ण जयन्ती मनायी। अपनी संस्था के असीमित जीवन में यह केवल एक छोटी अवधि है। जैसा कि आप देखते हैं कि हमारे मिशन का फैलाव कितना हो गया है, कितने अभ्यासी, प्रिसेप्टर्स, सेन्टर्स और आश्रम आदि हो गये हैं। यदि आप इनके फैलाव पर ध्यान दें, तो पायेंगे कि अभ्यासियों की जीवन-शैली कितनी प्रकाशमान हुई है, विचारों में स्वच्छता आयी है, व्यवहार एवं चरित्र में सुधार हुआ है। लोग आध्यात्मिक उन्नति में लक्ष्य के निकट पहुँच रहे हैं। यदि प्रमाणात्मक एवं भौतिक विकास के साथ गुणकारी एवं नैतिक उत्थान होता है, तो हमारे मिशन की प्रसिद्धि एवं नाम और अधिक होता है। व्यवहार का सही रूप में परिवर्तन आध्यात्मिक उन्नति में सहायक होता है। मैं समझती हूँ कि यह आशा से कम है, इसलिए व्यक्तिगत सोच एवं नैतिकता में और सुधार होना चाहिए। इसलिए मैं आप लोगों का ध्यान साधना के कुछ आवश्यक पहलू की ओर दिलाना चाहती हूँ, जिस पर आप को तुरंत ध्यान देना चाहिए। हमारे सहज-मार्ग की रचनायें एवं व्यावहारिक अनुभव पर वार्तालाप इस बात पर जोर देते हैं कि आध्यात्मिक उन्नति के लिए अभ्यासियों में प्रेम की अधिकता हो। आप प्रेम को कैसे बढ़ा सकते हैं ? देखने में यह बहुत आसान है, किन्तु व्यवहार में लाना बहुत कठिन है। वास्तव में प्रेम उत्पन्न नहीं किया जा सकता, इसका विकास प्राकृतिक रूप में होता है। यह स्वतः प्रारम्भ होता है, जब कोई अपने आप को समझने का प्रयास करे और अपने अहम् का सही प्रयोग करे।

संत कबीर ने कहा है – “कबिरा यह घर प्रेम का, ख़ाला का घर नाहिं। शीश उतारे भुईं धरे, तब पाठा ये माहिं।।“

इसका अर्थ यह है कि हमारा अन्तर ईश्वर-प्रेम के रहने का स्थान है, न कि सांसारिक धन से संतोष करने का लेकिन इस प्रेम में तभी डूबे रह सकते हैं, जब आप अपने मन और हृदय को स्वयं से और अपने अहम् से छुटकारा दिला सकें। यदि आप ऐसा कर सकें तो ईश्वर-प्रेम आपके अन्तर में स्वतः पनपेगा और श्री बाबूजी महाराज अपने आपको प्रत्यक्ष कर देंगे। तब आप अहम् के अन्धकार में रहने के बजाय दिव्यता के प्रकाश में रहने लगेंगे।

श्रीबाबूजी ने कहा है कि अभ्यासी लोगों ने उनसे प्रार्थना की है कि श्री बाबूजी उन्हें याद करें। श्री बाबूजी ने कहा कि उनका अवतरण ही उन्हें याद करने के लिए हुआ है, किन्तु वे लोग ही ‘उनकी’ इच्छापूर्ति के लिए अवसर नहीं देते। ‘उनके’ कहने का मतलब था कि वे ठोसता से इतना भरे हुए हैं, कि उन्हें अनुभव नहीं होता, यद्यपि ‘वे’ (श्री बाबूजी) उन्हें सदा याद रखते हैं।

श्री बाबूजी महाराज ने बहुत साफ-साफ कहा है – “यदि आप मेरा साक्षात्कार करना चाहते हैं, तो मुझमें रहें।“ ‘उन्होंने’ इस बात पर हमेशा जोर दिया है कि सहज मार्ग जीने का एक तरीका है, न कि एक यांत्रिक पद्धति।

प्रिय भाईयों और बहनों, अभ्यास के जरिये ‘करो’ और ‘नहीं करो’ के लिए मैं कुछ संकेत देती हूँ, जिससे आपकी आध्यात्मिक उन्नति होगी और आप लक्ष्य को भी प्राप्त करेंगे। श्री बाबूजी महाराज के लिए अपना प्रेम बढ़ाइए। मैं सलाह दूंगी कि सर्वप्रथम आप अपने परिवार के सदस्यों के लिए प्रेम बढ़ायें। बड़ों के साथ नम्रता, सादगी, सहनशीलता, आज्ञापालन तथा स्नेह होना चाहिए, न कि भ्रांत धारणा, क्रोध, भय, घृणा एवं अभद्रता। अभ्यासियों के साथ आप का व्यवहार ऐसा होना चाहिए, जैसा श्री बाबूजी चाहते हैं। सहज मार्ग में अवधि के अनुसार बड़ा या छोटा किसी अभ्यासी को नहीं समझना चाहिए। प्रत्येक अभ्यासी का स्तर, उसकी भक्ति, संवेदनशीलता, जागरूकता और अपने व्यक्तित्व का निखार तथा जीवन-शैली से जाना जाता है। जब भी आपको कोई आध्यात्मिक अनुभव हो, आप दूसरों को बताइए और उनकी उन्नति में सहायक बनिये। आध्यात्मिकता में स्वयं उन्नति करें और दूसरों को भी उन्नति करने में सहयोग दें। जो अभ्यासी नहीं है, पड़ोसी और आम लोगों के साथ आपका व्यवहार ऐसा नैतिक, चारित्रिक, बिना दिखावे का प्रभावशाली एवं महत्त्वपूर्ण होना चाहिए कि आपकी पहचान एक अलग रूप में श्री रामचन्द्र मिशन के अभ्यासी की तरह हो। आप अनुभव कर सकते हैं कि आपके दैनिक जीवन में ऐसा परिवर्तन लाना कितना कठिन है। इन्हें आसान बनाने के लिए मैं सलाह देती हूँ
  1. परिवार के सदस्यों, दूसरे अभ्यासीयों एवं अन्य लोगों में दोषों को ढूँढना छोड़ दें। यदि यह आदत बनी रही और इसमें सुधार नहीं हुआ, तो यह आदत आपके हृदय पर एक छाप छोड़ देती है तथा आपकी आध्यात्मिक उन्नति नीचे की ओर गिरने लगती है। एक बार डा० के० सी० वर्धाचारी जी ने श्री बाबूजी से पूछा था – “बाबूजी, बिना भला बुरा जाँचे आप सभी लोगों को अपने मिशन में क्यों लेते रहते हैं ?” श्री बाबूजी ने कहा – “यदि सभी लोग अच्छे और परिपूर्ण हों, तो लोग मेरे पास क्यों आयेंगे ।” इसके अतिरिक्त, सभी लोगों को अनन्त तक ले जाने के लिए ही वे इस धरती पर अवतरित हुए हैं। सभी उन्हीं के द्वारा निर्मित हुए हैं। वे भेद नहीं कर सकते। वे अभ्यासी की कमियों और दोषों को नहीं देखते और उन्हें मिशन में ले लेते हैं। उनकी पद्धति रूपान्तरण के लिए है, यदि वे (अभ्यासी) आज्ञाकारी हों और सहयोग दें। इसलिए हमें दूसरों के दोष देखना और उनकी आलोचना करना छोड़ देना चाहिए। मैंने केवल अभ्यासियों को ही नहीं, प्रिसेप्टर्स को भी श्री बाबूजी से शिकायत करते देखा है। प्रिसेप्टर्स कहते हैं कि अभ्यासी उनके पास पूजा के लिए नहीं आते हैं। श्री बाबूजी महाराज ने उनसे कहा कि शिकायत करने के बजाय वे उन कारणों को जानने की कोशिश करें, जिनके कारण वे उनके पास नहीं आते। दूसरे प्रिसेप्टर्स की कौन सी विशेषता उन्हें आकर्षित करती है और अपने में सुधार लायें ताकि अभ्यासी उनकी ओर आकर्षित हों।
  2. अपना समय बर्बाद न करें, प्रत्येक क्षण अपने लक्ष्य की प्राप्ति में उपयोग करें। यद्यपि श्री बाबूजी ने ध्यान, सफ़ाई और प्रार्थना के लिए समय निर्धारित किया है, साथ ही उन्होंने सतत् स्मरण पर जोर दिया है। यह तर्कसंगत है, क्योंकि प्राणाहुति सतत् रहती है बिना समय और स्थान के। तब सतत् स्मरण के द्वारा आप उनकी याद में हमेशा रहते हैं। यह स्वयं को नियमित करने का आसान तरीका है और आपके ऐसे विचार और कार्य जो आपकी उन्नति में बाधक हैं, आप पर प्रभाव नहीं डालेंगे या स्वतः ही दूर हो जायेंगे। इसी कारण से सभी उत्सवों में आम ध्यान के उपरान्त, अभ्यासियों को व्यक्तिगत अथवा वर्गों में पूजा कराई जाती है ताकि अभ्यासी लोग दिव्य अनुग्रह की वर्षा में डूबे रहें तथा जिसके अभाव में अभ्यासी भौतिक बातों में उलझ सकते हैं और आध्यात्मिक उन्नति से वंचित रह सकते हैं। श्री बाबूजी महाराज ने प्रिसेप्टर्स लोगों को भी सलाह दी है कि वे अभ्यासियों को ऐसे वार्तालाप में लगाये रखें कि उनकी आध्यात्मिक उन्नति हो और वे अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें। सतत् स्मरण के द्वारा उनमें सतर्कता आती है, जो आध्यात्मिक अनुभवों को महसूस करने की क्षमता भी देता है। वे दिव्य स्थान में डूबे रहते हैं, अन्यथा भौतिक विचारों द्वारा उनकी उन्नति में बाधा पहुँच सकती है और इस प्रकार वे आध्यात्मिक लाभ से वंचित रह सकते हैं। अब आप लोग स्वयं अनुमान लगायें कि इन दिनों उत्सव के समय आप अपना समय किस प्रकार व्यतीत करें।
  3. बाह्य में परिवर्तन लाने के बजाय, श्री बाबूजी के एक सच्चे अनुयायी की भाँति, अच्छे विचारों की परिकल्पना करें और सही कार्य करें। संक्षेप में कहा जा सकता है कि अपने दैनिक जीवन में दिव्य गुणों को लायें। मैं श्री बाबूजी का कथन जो उन्होंने अहमदाबाद में कहा था, आप को बताती हूँ “आप जो कुछ भी करते हैं, अपने मन का कहा हुआ करते हैं, अब आप का मन वह करे जो आप चाहें।“
अतैव, भाईयों और बहनों , मैं चाहती हूँ कि आप लोग तेज़ी से आध्यात्मिक उन्नति करें और अपने जीवन तथा समाज का रूपान्तरण करें। प्रत्येक अभ्यासी की आध्यात्मिक उन्नति श्री रामचन्द्र मिशन का विकास करेगी।

संदेश - संत कस्तुरी
उनकी याद में
तिरुपति
29/3/1996
अपनी पिछली मुलाकात के बाद मैंने लिखित रूप में एक सन्देश दिया था कि अपनी साधना में, जीवन का लक्ष्य प्राप्त करने में सतत् स्मरण कितना लाभदायक है। इसी विषय के संदर्भ में मैं आपको अपना अनुभव बताना चाहूंगी कि अध्यात्म के मार्ग में, विभिन्न दशाओं के अनुभव में सतत् स्मरण एक आधार का कार्य करता है।

जब अभ्यासी ध्यान की सीमा पार कर लेता है, तब कहा जा सकता है कि सतत् स्मरण का स्तर पूरा हो गया। यह दर्शाता है कि हमारा दैनिक ध्यान, प्रार्थना, सफाई इत्यादि सब मिलकर हमारी याद को सतत् बना देते हैं। यही कारण है कि जब मैं इस दशा में थी, तब श्री बाबूजी महाराज ने मुझे लिखा था – “अब तुम्हें ध्यान में बैठने की आवश्यकता नहीं है।” तब मैंने भी अनुभव किया कि ध्यान, प्रार्थना और सफ़ाई भी कोई प्रभाव हम पर नहीं छोड़ रहे हैं और यह सत्य भी है कि ये दैनिक अभ्यास ही धीरे-धीरे हमारी याद को सतत् बना देता है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि हम ध्यान करने से अलग हो जायें अथवा उसके बाद ध्यान हमारे लिए उपयोगी नहीं है। इसका अर्थ है कि अब तक के अभ्यास के द्वारा हमने जो कुछ पाया, वह हमें दिव्यता में डुबाये रखता है। दूसरे शब्दों में मैं कह सकती हैं कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ की कृपा से अभ्यासी स्वतः सूक्ष्मावस्था में रहने लगता है। उस समय से उन्नति की गति इतनी, तीव्र हो जाती है कि दशा में परिवर्तन या ताजगी, यदि हमें न जगाये तो हमें यह ज्ञान नहीं होता कि किस दशा में, कब और कहाँ हम जागें।

सच कहा जाये, तो हमारी आध्यात्मिक दशा इसी स्थान से प्रारम्भ होती है। दूसरे शब्दों में, यह वह स्थिति है जब कोई अपनी आध्यात्मिक दशा का अनुभव, जिस दशा से वह गुजर रहा है, लिखने की क्षमता प्राप्त करता है। तब मैंने अनुभव किया कि अपनी आध्यात्मिक दशा के बारे में जो कुछ मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को लिखा, वह हमारे मन और हृदय की स्वच्छता की व्याख्या थी। यही वह स्थिति है, जब ‘मालिक’ के अवतरण का प्यार अथवा आध्यात्मिक धारा का प्रवाह होने लगता है। तब हम धर्म और लगाव के क्षेत्र को पार कर लेते हैं। श्री बाबूजी महाराज ने कहा है – “जहाँ धर्म समाप्त होता है, अध्यात्म प्रारम्भ होता है।”

शायद इसीलिए हम पाते हैं कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ का प्रेम शान्त, असीम और गहरा है, क्योंकि वह दिव्य है। इसके बाद हम अन्तर में पिघलने और डूबने का अनुभव प्राप्त करने लगते हैं। यह अनुभव हमें तब भी मिल सकता है, जब हम अपने मन को अपने हृदय से जोड़ दें, अन्यथा यह अनुभव प्राप्त नहीं होता, क्योंकि यह प्राकृतिक प्रेम के साथ अन्तर में फैलता है और लगता है कि हम श्री बाबूजी महाराज के साथ गहरे में डूबे हुए हैं। मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ के लिए ‘स्वीकृति’ शब्द का प्रयोग कभी नहीं किया, बल्कि हमारे सामने ‘उन्होंने’ जो कुछ उजागर किया, मैंने उसी प्रकार उन्हें लिखा कि मैंने ‘उन्हें’ ऐसा पाया। ‘स्वीकृति’ में मस्तिष्क का प्रयोग होता है, किन्तु यहाँ “देखा और अनुभव किया” न ही स्वीकृति है और न ही अस्वीकृति। श्री बाबूजी महाराज ने स्वयं कहा है – “वास्तविकता स्वयं बोलती है। किसी के द्वारा स्वीकृति का प्रश्न ही नहीं उठता।” इसलिए, जब और जो कुछ मैंने देखा, मैंने उन्हें लिख दिया।

इससे यह प्रकट होता है कि धर्म में केवल आसक्ति है, इसलिए, यदि कोई लक्ष्य हमारे सामने नहीं है, तो केवल धार्मिक क्रियाओं से बँधे रहते हैं और आगे कोई उन्नति नहीं कर पाते हैं। जब हम अध्यात्म में आते हैं, उन्नति का एक महत्त्वपूर्ण चिन्ह हम यह पाते हैं कि केवल अभ्यासियों के साथ ही नहीं, सभी मानव जाति के साथ, बिना जात-पाँत, बिना भेद-भाव के बन्धुत्व का अनुभव होने लगता है। यह सभी के साथ प्राकृतिक रूप में होता है। हमें इसे स्वीकृति के साथ विकसित करने की आवश्यकता नहीं पड़ती, यह स्थाई होता है। हम भी उस बन्धुत्व से अलग नहीं हो सकते।

एक और सच्चाई मैं आपके सामने रखना चाहती हैं कि हर एक विचार में ‘मालिक’ को देखना, जो धर्म के अन्तिम स्थिति में निहित है, भी अध्यात्म में पिघल जाता है और केवल सब के साथ बन्धुत्व का भाव रह जाता है।

अब वास्तविकता के सम्बन्ध में प्रश्न उठता है, जो केवल परमात्मा का क्षेत्र है और आत्मा के क्षेत्र के परे है। इसका ज्ञान मुझे तभी मिला, जब मैंने “श्री बाबूजी” को लिखा – जब मैं अपनी दशा के बारे में आप को लिखने का प्रयत्न करती हूँ, लेखनी हमारी आध्यात्मिक दशा वर्णन करने में हिचकिचाती है, बल्कि ऐसा लगता है कि मैं ‘आप’ को कुछ ‘सत्य’ के बारे में लिख रही हैं और वह सत्य केवल यही है कि ‘आप’ का असली चेहरा मेरे सामने फैला है, जिसे हमारी भौतिक एवं आन्तरिक आँखें नहीं देख सकतीं, बल्कि केवल मन की आँखें देख सकती हैं। मन स्वयं एक आँख है जो दोनों से परे हैं।

इस स्थिति में भी मैं कहूंगी कि अभ्यासी को पुनः “श्री बाबूजी महाराज” का आशीर्वाद मिलता है, जब वे हमें सतर्कता की शक्ति तुरंत दे देते हैं और इसी के सहारे अभ्यासी केवल वर्तमान नहीं, बल्कि आने वाली दशा को भी देख सकने में समर्थ होता है।

अध्यात्म के क्षेत्र में, मैंने हमेशा अनुभव किया है कि हर कदम पर आत्मा हमें जगाती है और सतर्क करती है, उस तथ्य के बारे में कि वही भौतिक रूप जिसमें वे रहते हैं, ‘श्री बाबूजी महाराज’ की कृपा से अब स्वतंत्रता के लिए परिपक्व हो गया है। दूसरे शब्दों में यह दर्शाता है कि परमात्मा से योग करने का समय अब आ गया है। मैं पुनः कह सकती हूँ कि ऐसी दशा का अनुभव करने के पश्चात् मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को लिखा – “जब भी दृष्टि अन्तर में जाती है, तो ऐसा लगता है कि अन्तर खुशी के मारे उछल रहा है।” तब ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने लिखा - “यह आत्मा के नृत्य की दशा है, जो अपनी स्वतन्त्रता का सन्देश दे रही है।”

वास्तविकता के क्षेत्र में प्रवेश करने के बाद मैंने पाया कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ का असीमित एवं अतुल्य प्यार सारी मानवता के लिए है। तब मुझे लगा कि सभी लोगों में प्रेम केवल उनसे ही मिलता है और वे सभी से प्रेम करते हैं।

संदेश - संत कस्तुरी
साक्षात्कार
विजयवाड़ा
10/3/1997
हम लोग जानते हैं कि सहज मार्ग साधना ‘श्री बाबूजी महाराज’ के आशीर्वाद के द्वारा ईश्वर से योग की एक अनुपम पद्धति है। हम लोग इस सत्य को भी जानते हैं कि यह सारी सृष्टि ईश्वर की है और वह सम्पूर्ण सृष्टि में वास करता है। फिर भी हमें उसके साक्षात्कार के लिए निष्ठा और भक्ति के साथ साधना करनी पड़ती है। आप जानते हैं क्यों ? क्या आपने कभी इस पर विचार किया है ? यह ईश्वर और उसकी सृष्टि के वासियों के बीच अलगाव के कारण है। यह अलगाव हमारे स्वयं के द्वारा निर्मित है। भौतिकता में हमारी व्यस्तता और हृदय में ‘उसकी’ उपस्थिति हमारे भूलने के कारण ईश्वर और हमारे बीच का अन्तर बढ़ता है। सहज-मार्ग पद्धति के अन्तर्गत ध्यान के द्वारा हम अपने जीवन की दिशा बदलते हैं और ईश्वर से योग पाते हैं।

मैं यहाँ ‘श्री बाबूजी महाराज’ के एक कथन को प्रस्तुत करती हूँ। “वास्तविकता यह है कि मनुष्य की आत्मा पर दर परत आवरण है।“ अब प्रश्न यह उठता है कि ये आवरण वहाँ स्वतः हैं अथवा किसी के द्वारा फैलाये गये हैं ? तब लोग यह उलाहना क्यों देते हैं कि ईश्वर ने सृष्टि की रचना की और उसमें हम लोगों को उलझा दिया। इस टिप्पणी को स्पष्ट करना है।

‘श्री बाबूजी महाराज’ के आशीर्वाद से ‘उनके’ चरणों में सहज-मार्ग पद्धति अपनाने के बाद ‘श्री बाबूजी महाराज’ के कथन के अनुसार मुझे इसका उत्तर मिल गया जो मैं आपके समक्ष स्पष्ट रूप में रखना चाहती हूँ। यह साक्षात्कार के पथ पर आपकी प्रगति में सहायक होगा। ‘श्री बाबूजी महाराज’ के कथन का स्पष्टीकरण हमारे अनुभव में तब आया, जब सहज मार्ग साधना के अभ्यास में ‘श्री बाबूजी महाराज’ की उपस्थिति मेरी दृष्टि में आई और स्वत: हमारे अंतर में समा गई। मुझे याद है कि उस समय मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को एक पत्र लिखा था कि मेरे हृदय में ‘उनकी’ उपस्थिति के अतिरिक्त कुछ नहीं है। एक और सत्य मैंने उन्हें यह भी लिखा था कि इस दशा के लिखने के समय मैं कहाँ थी, मैं नहीं जानती। सच कहा जाये तो मैंने उन्हें यह भी लिखा था कि मैं अपनी पहचान भी भूल गई हूँ। तब ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने मुझे लिखा कि मानव-आत्मा स्वतः ही अपने ऊपर आवरण रखती है ताकि वह ठोस होने से बच सके। मैं विस्तार से इसका उल्लेख करती हूँ।

मानव विचार आत्मा से शक्ति पाता है, किन्तु, इसका सम्बन्ध भौतिक संसार के साथ होने के कारण, इसकी प्रवृत्ति ठोस और अधिक ठोस होने की रहती है। यह आवरण इसलिए होता है ताकि आत्मा पर इसका प्रभाव न पड़े। आत्मा पर पड़ा यह आवरण धीरे-धीरे विचारों की ठोसता को बढ़ाता है, बजाय इसके कि विचार आत्मा से सीधा सम्बन्ध रखे, फल यह होता है कि वास्तविक ‘स्व’ जो हमारे मोक्ष का कारण है ठोस आवरण में फँस जाता है और वास्तविकता से दूर हो जाता है। जैसे-जैसे यह दूरी बढ़ती जाती है, मानव वास्तविकता से और दूर होता जाता है और उसका व्यवहार, कार्य और रहनी ईश्वरीय आशीर्वाद से वंचित रह जाता है। यह मानव में अधिक अप्राकृतिक हो जाता है और तब यह कथन सत्य हो जाता है कि “मानव दानव बन गया।“ हमारा ‘स्व’ अहम् के अन्धकार में खो जाता है और असंतुलित भटकता हुआ प्राणी बन जाता है। ऐसी दशा में लोग यह कहने लगते हैं कि “धरती पर कोई शान्ति, सुख और खुशी नहीं है।“

जीवन के ऐसे संकटकाल में आप अपना जीवन अर्थपूर्ण और उद्देश्यपूर्ण बना सकते हैं यदि आप सहज मार्ग का अनुसरण करें और भक्ति के साथ निष्ठापूर्वक ‘श्री बाबूजी महाराज’ के चरणों में आ जायें। अभ्यासी के अंतर में अपनी दिव्य शक्ति की प्राणाहुति द्वारा ‘श्री बाबूजी महाराज’ उसके प्रसुप्त दिव्य प्यास का कायाकल्प कर देते हैं, जो उसके अन्तर में तड़प को तीव्र करता है। यह तड़प ‘श्री बाबूजी महाराज’ से मिलने अथवा ‘उनसे’ योग के लिए नहीं होता, बल्कि यह हमारे अन्तर में उनकी उपस्थिति का संकेत देता है, जैसाकि इस दशा में आने के बाद मेरा पहला अनुभव था। बाद में मैंने अनुभव किया कि आंतरिक खुशी जो स्थिर हो रही थी, एक प्रकार से मेरे लिए सन्देश था कि वास्तविक ‘स्व’ अपने आवरण से मुक्त हो चुका है और यह आत्म साक्षात्कार की दशा है। केवल इतना ही नहीं, कभी-कभी मैंने पाया कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ हमारे सामने हैं और जहाँ कहीं भी देखती हूँ ‘उनकी’ उपस्थिति पाती हूँ।

मुझे एक विलक्षण अन्तर का पता चला कि तब मेरा असली नाम और कस्तूरी का रूप नहीं था। उसके बाद वहाँ जो कुछ था, एक अभ्यासी के वास्तविक रूप का वर्णन किया जा सकता था। तब ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने मुझे लिखा – “अब मैं समझ गया कि मानव प्राणी का रूप कितना पावन और वास्तविक है और वह ईश्वर के कितना निकट है।“ उन्होंने मुझे पुनः लिखा कि मैंने साक्षात्कार की दशा का जो वर्णन किया था, वह वैसा नहीं है। वह इससे आगे की स्थिति है। ‘उन्होंने’ विस्तार से बताया कि साक्षात्कार की दशा में किसी को उस दशा का अनुभव नहीं होता बल्कि शक्ति चारों ओर व्याप्त है। और सच कहा जाये तो मुझे आश्चर्य हुआ जब मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को अपने स्वप्न के बारे में लिखा कि मैंने देखा कि जब सबसे छोटे जीव को मैंने छुआ तो वह शेर की तरह गुर्राया। उन्होंने कहा कि वे मेरे अन्तर में ईश्वरीय शक्ति की दैवीय प्रेरणा देख कर बहुत खुश हैं। उन्होंने मुझे यह भी सलाह दी कि यदि मैं अभ्यासियों को उसी आध्यात्मिक दशा मे डूबकर पूजा कराऊँ तो अभ्यासियों के हृदय, मेरे हृदय में प्रवाहित ईश्वरीय शक्ति के प्रतिबिम्ब से चमक उठेंगे। उन्होंने मुझे चेताया कि ऐसी दशा में मैं ‘उनके’ रूप को देखने की आकांक्षा न रखू। ‘उन्होंने’ फिर कहा कि तभी सभी अभ्यासियों को ईश्वरीय शक्ति देने की ‘उनकी’ इच्छा पूरी होगी। मैं यहाँ कह सकती हूँ कि अन्तर में दिव्य-उपस्थिति का अनुभव अभ्यासियों में दिव्य अख़लाक़ को विकसित करता है, जिसके बिना किसी को भी ईश्वरीय क्षेत्र में प्रवेश करने की खुशी का अवसर नहीं मिल सकता।

अपनी साधना की एक अनुपम खूबसूरती का वर्णन किये बिना मैं अपने को नहीं रोक सकती, क्योंकि अपने लक्ष्य की प्राप्ति में हमारी कोशिश और तड़प हमारे दिमाग, विचार और कार्य को तीव्र कर देती हैं, हमारी आत्मा इसके सारे आवरण को हटा कर हमारे अन्तर को दोगुना प्रबलता देकर उसे अतिरंजित कर देती है।

इस दशा को प्राप्त कर लेने के बाद आप ‘श्री बाबूजी महाराज’ के इस कथन का आशय समझ सकते हैं कि ‘उनकी’ प्राणाहुति के द्वारा ईश्वर साक्षात्कार की इच्छा जो अभ्यासियों के अन्तर में प्रसुप्त अवस्था में जागृत हो जाती है और उन्हें पाने की पुकार करने लगती हैं। यहाँ मैं अपना अनुभव बता दूं कि इस दशा को प्राप्त कर लेने के बाद मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को लिखा कि मेरे शरीर का हर कण ईश्वर को पुकार रहा है। ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने उत्तर में लिखा – “तब तुम्हें इस सत्य का ज्ञान हो गया होगा कि ईश्वर कहाँ है ?” यह अनुभव मेरे पूर्व के अनुभव पर चिन्तन करने के लिए बाध्य हो गया। जब मैंने हृदय में प्रकाश की कल्पना के साथ ध्यान का अभ्यास प्रारम्भ किया था, तब, कब और कैसे मेरे ध्यान के क्रम में ‘वे’ मेरे अन्तर में प्रविष्ट हुए और मुझे 'मैं-पना' के अनुभव से मुक्त कर दिया। मैं इस रहस्य को नहीं समझ सकी, जब तक उन्होंने मुझे इसकी योग्यता प्रदान नहीं की।

अपने हृदय में केवल दिव्य प्रकाश को याद रखने से आप को आध्यात्मिकता में उतनी उन्नति नहीं होगी, जितनी कि आप अपने ‘स्व’ अथवा अपने अस्तित्व की चेतना को ‘उनकी’ याद में पूरी तरह डुबोकर रखने से। यह आपके लिए कठिन नहीं है।

आज फिर मैं आपको कहना चाहती हूँ कि यदि आपकी याद सूखी है अर्थात् प्रेमरहित है, तो वर्तमान शुभ अवसर का लाभ आपको नहीं मिल सकता है। दूसरी ओर, यदि अपने ‘स्व’ को ‘उनमें’ डूबा हुआ अनुभव करते हैं, तो ‘उनका’ अनुपम आशीर्वाद आपके लिए भाग्यशाली होगा।

यहाँ मैं एक और बात पर जोर देना चाहती हूँ कि साधारणतः अभ्यासी लोग इस बात पर चिंतन करते हैं और सोचते हैं कि उनमें कुछ त्रुटियाँ और बुरी आदतें हैं, इसीलिए वे उच्चतम लक्ष्य के अधिकारी नहीं हैं। इस विचार को रूपान्तरित करने की आवश्यकता है। बदले में एक नया दृष्टिकोण अपनाना है कि यदि आप विचार और चिंतन करना प्रारम्भ कर दें कि आप ‘उनके’ सबसे अधिक प्रिय और निकट हैं, तो आपकी सारी त्रटियाँ एवं बाधायें स्वतः पिघलकर धुल जायेंगी। यह मैं आपको अपने पूर्व अनुभव के आधार पर कह रही हूँ।

मेरे अपने बारे में डूबने की दशा इतनी तीव्र थी कि प्रायः मुझे अनुभव होता था कि मैं उनके प्रेम और स्नेह के आधार पर चल रही हूँ - न कि धरती पर । उनका प्रेम और उनके अनुराग की गहराई को कौन माप सकता है और वर्णन कर सकता है, जिसे वे इतनी उदारता और अनुग्रह के साथ हम लोगों को प्रदान करते हैं।

आत्म-साक्षात्कार की दशा का आशीर्वाद आप को कैसे मिल सकता है ? मैंने सहज-मार्ग साधना को साक्षात्कार की अनूठी विधि बताया है, क्योंकि इसकी स्थापना इस सत्य पर हुई है कि ‘ईश्वर हमारे हृदय में और चारों ओर है।‘ इस कारण जैसे - जैसे वास्तविकता का फैलाव आपके अन्तर में होता है, अन्तर सत्य को पहचान लेता है। यह ‘स्व’ के अस्तित्व के न होने का मार्ग प्रशस्त कर देता है और ‘उनकी’ उपस्थिति वास्तविकता में बदल जाती है। आप जानते हैं ऐसा क्यों होता है ? मैं बताती हूँ। यह इस सत्य के कारण होता है कि जब हम उनकी उपस्थिति की धारणा करते हैं, हमारे वास्तविक रूप का फैलाव होता है और हमारे ‘स्व’ के अहंकार का अनुभव उस ईश्वरीय शक्ति में घुल जाता है। दूसरी आश्चर्यजनक बात यह होती है कि हम अपने अन्तर में ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव उतना ही करने योग्य हो जाते हैं जितना हमारे अहम् का अनुभव ईश्वर में लय हो जाता है। ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने कहा है कि अभ्यासी में लय-अवस्था का आरम्भ तब होता है जब वह अपने ध्यान के अभ्यास द्वारा दिव्यता के सागर में डूब जाता है।

मैंने यह भी देखा है कि जब लय-अवस्था प्रारम्भ होती है, तब अहम् के 16 वृत्त कदम-दर-कदम घुलना प्रारम्भ कर देते हैं। आप इसे समझ सकते हैं यदि आप इसकी तुलना उस क्रम से करें, जब कोई व्यक्ति सागर में गिर जाता है और उसकी मृत्यु हो जाती है। सागर में मृत्यु तत्काल नहीं होती। यह स्तरों पर होता है और अन्त में मृत शरीर पानी की सतह पर तैरने लगता है। उसी प्रकार, अहम् का प्रत्येक वृत्त दिव्यता के सागर में डूबने से धुल जाता है और हमारा अस्तित्व अन्त में इसमें लय हो जाता है। उसके बाद हम अपने भौतिक शरीर के द्वारा सांसारिक कार्य करते रहते हैं, किन्तु करने वाले की पहचान समाप्त हो जाती है और तब हम कह सकते हैं कि जैसा श्री बाबूजी महाराज चाहते हैं, वैसा ही सब कुछ हमारे द्वारा हो रहा है।

मैंने यहाँ तक अनुभव किया है कि जब कोई मेरे बारे में कुछ बुरा कहता है, उसके शब्द सुनने योग्य नहीं होते। कुछ अवसरों पर यह भी होता है कि हमें भी कभी-कभी क्रोध आ जाता है, वह अपना काम करता है और चला जाता है। इस परिस्थिति में भी मैंने गौर किया है कि हमसे क्रोध में कुछ कटु शब्द सुनने के बाद भी सुनने वाला कोई प्रतिक्रिया नहीं करता अथवा इससे दुखी नहीं होता है। यह इस सत्य को प्रमाणित करता है कि ईश्वरीय-कार्य किसी को पीड़ित नहीं करता।

‘श्री बाबूजी महाराज’ का कथन कि “ईश्वर के समीप पहुँचने के बाद कुछ भी पहचानने के लिए नहीं छूटता”

भी सत्य प्रमाणित हो जाता है। यह सत्य है, क्योंकि मैंने पाया है कि हमारे व्यवहार और रहनी में ईश्वरीय-शक्ति सदा हमारे समक्ष रहती है।

यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि केवल तभी नहीं, जब मैं आप लोगों के बीच रहती हूँ, बल्कि सदा चेतन अथवा अचेतन में मैं ‘श्री बाबूजी महाराज’ से प्रार्थना करती हूँ कि ‘वे’ अपनी शक्ति से अपने अभ्यासी बच्चों की आत्मा पर पड़े सारे आवरण हटा दें और दिव्यता से चमकते हुए असली रूप को सामने ले आयें। इस दशा को प्राप्त करना ही आत्म-साक्षात्कार है। इसको प्राप्त करने के बाद अभ्यासी साक्षात्कार के सर्वोच्च दशा को तथा ‘सत्य-पद’ को प्राप्त करने की आकांक्षा कर सकता है।

संदेश - संत कस्तुरी
संतुलित स्थिति
विजयवाड़ा
11/3/1997
इस शाम मैं अपनी साधना के एक दूसरे रूप एवं उन्नत पहलू पर बात करना चाहती हूँ। मैं अपना अनुभव बताती हूँ। मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को लिखा कि मेरी दशा ऐसी थी कि यदि कोई मेरे बारे में कुछ बुरा कहता अथवा मेरे साथ कुछ बदतमीज़ी करता तो मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने उत्तर में लिखा – “यह एक बहुत अच्छी दशा है, किन्तु मैं कहूँगा कि अपमान को सहन करना बहुत सरल है, क्योंकि यह केवल अपनी रहनी को संयमित करने से होता है। इसके लिए किसी साधना की आवश्यकता नहीं पड़ती। किन्तु, इस दशा को कायम रखने में हमेशा यह भय रहता है कि हम कहीं विचलित न हो जायें। ऐसा इसलिए कि आत्म-संयम कभी भी खोया जा सकता है। अध्यात्म में यह दशा तब आती है, जब हम अपने नाम, रूप तथा सभी वस्तुओं से रहित हो जाते हैं और 'सालोक्यता' की दशा प्राप्त कर लेते हैं।“ उन्होंने आगे लिखा - एक और दशा है, जिसे अभ्यासी बड़ी कठिनाई से प्राप्त करता है। वह इस दशा को मुझसे पाने के लिए प्रतीक्षा करता है। यह दशा और कुछ नहीं, बल्कि वह स्थिति है जब कोई प्रशंसा के शब्दों को अनसुना और उपेक्षित कर दे। सहज-मार्ग पद्धति के अन्तर्गत ‘सालोक्यता’ की स्थिति में अभ्यासी तभी पहुँचता है, जब अपमान के शब्द उसे नहीं छूते। उन्होंने आगे कहा इसीलिए, मैं आशा करता हूँ कि ‘श्री लालाजी साहब’ तुम्हें ऐसी दशा का निश्चय ही आशीर्वाद देंगे कि प्रशंसा के शब्दों से तुम उन्मुक्त रहोगी, क्योंकि सहज-मार्ग पद्धति के अन्तर्गत यदि अभ्यासी ईश्वर के प्रेम में डूबा रहना सीख लेता है, तो उसे जिस गति की दशा का आशीर्वाद मिलता है, वह उसकी उन्नति में सहायक होता है। दूसरे शब्दों में मैं कह सकता हूँ कि सभी दिव्य दशाओं पर प्रभाव डालना केवल ईश्वर के हाथ में होता है और इसलिए जब शब्द तुम्हें नहीं छूते, तब यह प्रश्न ही नहीं उठता कि तुम उन शब्दों से प्रभावित हो। तब मैंने अनुभव किया कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ के प्रत्येक कथन ने, मेरे अन्तर में दिव्य गति को सही रूप में उत्पन्न किया है।

उसके बाद जब मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को लिखा – जब भी आप मुझे लिखते हैं कि मेरी आध्यात्मिक दशा का वर्णन पढ़कर आपको हृदय में बहुत खुशी होती है, तब मेरी कोशिश के बावजूद कि ऐसा न हो, इसे पढ़कर हृदय के किसी कोने में मैं कुछ खुशी का अनुभव करती हूँ, किन्तु आपके आशीर्वाद से मैं इस खुशी का वर्णन नहीं कर सकती, मैं केवल इसकी साक्षी बन सकती हूँ।

‘श्री बाबूजी महाराज’ ने उस दशा के रहस्य के बारे में मुझे बताया जब हमारे अपने अनुभव का आधार अपने आप मिटने लगता है, तब हमको खुशी होती है, किन्तु हम उस खुशी में शामिल नहीं हो सकते। हम नहीं कह सकते कि हम उस खुशी में भागीदार थे, अथवा खुशी को अनुभव कर रहे थे, बल्कि हम उस खुशी के केवल साक्षी थे।

अपनी हाल ही में प्रकाशित पुस्तक ‘कौन थे वे’ में अहम् के सोलह वृत्त घुलने की दशा के बारे में, जिसे ‘श्री बाबूजी’ ने कहा है, मैंने बहुत कुछ लिखने का प्रयास किया है। यह भी सत्य है कि अब ‘वे’ पर्दा उठाना चाहते हैं और सभी लोगों के लाभ के लिए रहस्य को प्रकट करना चाहते हैं। शायद इसीलिए, ‘उन्होनें’ मुझे आज की बात-चीत के लिए यह विषय दिया है।

‘उनके’ आशीर्वाद से आज मैं विश्वास के साथ कह सकती हैं कि माया के पाँच वृत्त विलीन होने के बाद हम अपमान के मानसिक चित्र से ऊपर उठ जाते हैं किन्त उसके बाद मान की सीमा के पार जाना तभी संभव होता है जब ‘श्री बाबूजी महाराज’ अभ्यासी को हिरण्यगर्भ की दशा के बाहर ले आते हैं। हिरण्यगर्भ ईश्वरीय शक्ति का वह केन्द्र हैं जहाँ से सृष्टि की उत्पत्ति और उसके निर्वाह की शक्ति प्रवाहित होती है किन्तु, यह शक्ति किसी प्रकार की संवेदनशीलता नहीं रखती। ऐसा केवल इसलिए होता है, क्योंकि ‘श्री बाबूजी महाराज’ अपनी शक्ति के द्वारा अभ्यासी को ‘अपने’ हृदय में ले लेते हैं और उसे उस शक्ति के परे स्थापित कर देते हैं। तब मान की उपेक्षा करने की चामत्कारिक सूक्ष्म दशा का आशीर्वाद उसे मिलता है।

जरा सोचिए, ‘श्री बाबूजी महाराज’ का उदार तथा नम्र शोध किस प्रकार संभव करता है कि अभ्यासी बिल्कुल साधारण एवं प्राकृतिक विधि से ‘उनके’ आशीर्वाद द्वारा सर्वोच्च दिव्य दशा प्राप्त करता है। मैं कह सकती हूँ कि ईश्वरीय क्षेत्र में तैरने की दशा का आशीर्वाद देने के बाद ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने हमारे समक्ष अहम् की चर्चा कभी नहीं की। उसके बाद जब मैंने पाया कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ के बारे में कोई चर्चा से हमारे मन में कोई इच्छा उत्पन्न नहीं होती तब मैं ‘श्री बाबूजी महाराज’ का कथन समझ सकी कि “बन्धन, बन्धन होता है, चाहे धागा सूत का हो अथवा रेशम का।“

सच कहा जाये तो अपनी दशा लिखते समय मैं भौचक्की रह गयी यह सोचकर कि मैं इतनी महान् विभूति को क्या लिखू। ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने मुझे लिखा – “मैं खुश हूँ कि तुम्हारी दशा मेरे बंधन से मुक्त हो गई है और अब तुम स्वतंत्र हो। तुम्हें याद होगा कि मैंने तुम्हें लिखा था कि दशा ऐसी होनी चाहिए कि धरती पर रहने का साया आकाश तक न पहुँचे और अब वह साया ईश्वरीय क्षेत्र में है।“ इस कथन कि धरती पर रहने का साया आकाश तक न पहुँचे का अर्थ यह है कि अभ्यासी में अपना अपमान सहन करने की क्षमता होनी चाहिए। उसके बाद यदि कोई प्रश्न करता है, तो वह अन्तर को प्रभावित नहीं करता, बल्कि ऐसा लगता है कि प्रश्न ऊपर जा कर टकराता है और वहाँ से जो भी उत्तर आता है, मेरी जिह्वा केवल वही कहती है।

मैंने अभ्यासियों को यह कहते हुए सुना है कि मैं स्वयं कुछ नहीं करता, जो कुछ होता है, वह ‘श्री बाबूजी महाराज’ करते हैं। मैं ‘श्री बाबूजी महाराज’ से प्रार्थना करती हूँ कि ‘वे’ ऐसे अभ्यासियों को ऐसा अनूठा आशीर्वाद दें कि जहाँ ईश्वरीय शक्ति का प्रवाह स्वतः हो। अनूठापन यह है कि जब कोई ऐसी शक्ति का अनुभव करता है, तो वह उसका वर्णन नहीं कर सकता क्योंकि उस दशा में उसकी बोलती बन्द हो जाती है। आपके अन्तर में यद्यपि सभी कार्य प्राकृतिक रूप में होते रहते हैं, किन्तु आप उसके केवल साक्षी रहते हैं। संतुलित स्थिति की यही दशा होती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ‘श्री बाबूजी महाराज’ की प्रेम भरी दृष्टि अभ्यासी पर लगी रहती है और धीरे-धीरे ‘उनकी’ नज़रों में डूब जाती है। तब हमें अनुभव होता हैं कि ‘उनकी’ सादगी और ‘उनकी’ शक्ति हमारे लिए ‘माँ’ के समान है।

एक और मुख्य बात आपको बताती हूँ। जब आप बोलते हैं, तो जब तक ‘मैं’ शारीरिक चेतना का भाव रखता है, आप प्रशंसा के शब्दों में मानसिक मनोरंजन का अनुभव करते हैं और आपके विचार भी इससे प्रभावित होते हैं, किन्तु जब शारीरिक चेतना का अनुभव ‘उनमें’ घुल जाता है, तब जो बचता है वह केवल मैं-पना रह जाता है और केवल इसी को आपकी आध्यात्मिक प्रगति की दशा का मनोरंजन मिलता है। इस स्थिति में मुझे ‘श्री बाबूजी महाराज’ को लिखना पड़ा कि यद्यपि मुझे दशा में मनोरंजन मिलता है, मैं नहीं समझ पाती हूँ कि यह मनोरंजन मेरे द्वारा है, अथवा किसी और के द्वारा। यह संकेत देता है कि इस स्थिति में केवल ‘मैं’ आत्मा की चेतना को याद दिलाता है, जब आत्मा की चेतना परामात्म तत्व में लय हो जाती है, तब ‘श्री बाबूजी महाराज’ का दिव्य व्यक्तित्व रह जाता है।

जब ‘मैं’ बोलता है, ‘श्री बाबूजी महाराज’ की चेतना का अनुभव होता है। उन्होंने कहा है कि ‘वे’ अपने प्रिय अभ्यासियों से आशा करते हैं कि वे ईश्वर को समर्पित हो जायें, चाहे जिस दशा में वे हों अथवा जैसे भी हों। उन्हें अनवरत्, निष्ठापूर्वक प्रयत्न करना चाहिए कि उनकी रहनी पूरी तरह उस दिव्य दशा में डूबी रहे।

संदेश - संत कस्तुरी
सहज-मार्ग रहनी
राजमुन्दरी
15/3/1997
हम गृहस्थ जीवन में रहते हुए ‘सहज-मार्ग साधना’ को अपनाये हुए हैं। ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने कहा है कि हमें सांसारिक जीवन में अपनी दैनिक दिनचर्या को साधना के अनुसार ही ढालते हुए रहना चाहिए। ‘उन्होंने’ अभ्यासियों से कहा है कि केवल बातें और लेखों के अनुसार ही नहीं, बल्कि व्यावहारिक रूप में कैसे वे अपने सांसारिक जीवन को रूपान्तरित कर, समाज में एक साधारण किन्तु प्रभावशाली श्रेणी में रहें और श्री रामचन्द्र मिशन के एक आदर्श अभ्यासी के रूप में दिखें। इस दिशा में आप लोगों को पहला सुझाव मैं देती हूँ कि सदा यह ध्यान रखें कि सहज-मार्ग पद्धति के अन्तर्गत हमारे ‘मालिक श्री बाबूजी महाराज’ हैं और यह उनका मिशन है कि हमें अनन्त का साक्षात्कार हो और इसका साधन ध्यान का अभ्यास है।

एक अभ्यासी होने के नाते आपको अपना हृदय, मस्तिष्क, मन और हाथ सभी कुछ अपने प्रेम और भक्ति के द्वारा ऊपर लिखे तीनों के साथ होना चाहिए। एक अभ्यासी की तरह मिशन में आने के पूर्व आपके सभी विचार और कार्य आपके मन के अनुसार थे। अब आगे ये सभी कुछ आपके हृदय, जो ईश्वरीय शक्ति - श्री बाबूजी महाराज के रहने का स्थान है, के अनुसार होना चाहिए। संक्षेप में हमारे सभी भौतिक शक्तियों के कार्य जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य - अनन्त का साक्षात्कार की प्राप्ति के लिए होना चाहिए। आप जो भी करें और सोचें, वे सब ‘उनकी याद’ में हो और उनकी खुशी के लिए हो, बजाय आपके अपनी खुशी एवं मनोरंजन के लिए। बाहरी खुशी की लहर के बजाय अपने अन्तर की खुशी की इच्छा करें, जो टिकाऊ है। अब मुझे अपनी बहनों से कुछ कहना है। जब भी आप अपनी दैनिक दिन चर्या में भोजन बनायें, ‘श्री बाबूजी महाराज’ की याद में रहें और ऐसा बनायें मानो यह भोजन आप ‘उनको’ (श्री बाबूजी को) परोस रही हैं। उसके बाद जब आप यह भोजन परिवार के सदस्यों को परोसें, वे इस भोजन को ‘श्री बाबूजी’ का प्रसाद समझें। इस पावन विचार के साथ भोजन बनाना और उसे खाना अच्छे विचार और उच्च चरित्र को मन में जमा देता है और प्रेम तथा भक्ति को बढ़ावा देता है। दूसरी ओर, परिवार के लिए भोजन बनाना यदि बोझ लगता है, जैसाकि प्रायः होता है तब आप देखेंगे कि इसके फलस्वरूप हमारा सम्बन्ध - दुख, पीड़ा, घृणा और संघर्ष से भर जाता है। इसी प्रकार मैं अपने अभ्यासी भाइयों को भी सलाह देती हूँ जो अपने जीवन के लिए कुछ काम कर धनोपार्जन करते हैं। जब वे अपने दैनिक कार्य के लिए अपने को तैयार करते हैं, वे हाय-तौबा मचाते हैं, कि जो कुछ उन्हें चाहिए, सरलता से उपलब्ध नहीं होता है। इस प्रकार, वे अपने पर केवल बोझ ही नहीं डालते, बल्कि शान्ति और पारिवारिक सम्बन्धों को भी बाधित करते हैं। यदि वे अपने दैनिक कार्य को मानवता एवं ‘श्री बाबूजी महाराज’ की सेवा समझ कर, ‘उनकी याद’ में करें तो वे न केवल अनेक समस्याओं से बचकर तनाव-मुक्त ही रहते हैं बल्कि जीवन के उच्चतम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपने को तैयार भी करते हैं।

जब भी फुर्सत में हों, आप ‘उन्हें’ याद करें। हो सकता है कि उनकी याद में 1, 2, 3, 4, 5 घंटों का अंतर हो जाये। इस अन्तर पर आप ध्यान न दे और यह अनुभव करें कि आप ‘उनसे’ कभी अलग नहीं हुए हैं। इस लगातर लगाव की कड़ी से और सब कुछ ‘उनकी’ खुशी के लिए करते हुए आप में सतत् स्मरण आ जायेगा। धीरे-धीरे आप अपने को भूलने लग जायेंगे। ‘उनकी’ याद और ‘उनका’ अनुग्रह आपके मन में उनके लिए प्रेम को जमा देगा। आप उस प्रेम और अनुग्रह में डूबे रहें। डूबे रहने का यही अनुभव अभ्यासियों में भक्ति बढ़ाता है। आप जानते हैं कि आप के लिए भक्ति का क्या अर्थ होता है ? इसका अर्थ है, ‘दिव्यता के सागर की गहराई में डूबे रहना’ और कभी बाहर न आना। यदि आप अपने विचार और शरीर के हर कण को इस प्रकार डुबोने का अभ्यास करेंगे, तभी आप भक्त कहलायेंगे। साधना के अभ्यास का वास्तविक अर्थ है लक्ष्य की प्राप्ति की तैयारी।

सच्चा भक्त वह है, जिसके पास दिखावा और पाखंड नहीं होता है, बल्कि उसके सभी विचार और कार्य वास्तविकता पर आधारित होते हैं। जब आप अपनी जीवनशैली ऊपर लिखे तरीकों में ढाल लेने में सक्षम हो जायेंगे, तब आप एक सच्चे अभ्यासी हो जायेंगे।

मैं आप को एक और बात स्पष्ट करना चाहती हूँ साधारणतः जब कोई किसी प्रिसेप्टर से तीन सिटिंग ले लेता है, वह अपने को अभ्यासी समझने लगता है, किन्तु यह एक गलत धारणा है। अब मैं मिशन की धारणाओं को स्पष्ट करती हूँ।
  1. श्री रामचन्द्र मिशन की स्थापना, आदि गुरू श्री लालाजी साहब की याद में, सहज मार्ग चलाने के लिए ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने की थी।
  2. सहज-मार्ग पद्धति क्या है ? यह वह साधना है कि जिसके अभ्यास के द्वारा हम मानव जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य - अनन्त का साक्षात्कार करने की आकांक्षा करते हैं हम सभी जानते हैं कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ का अवतरण इस संकल्प के साथ हुआ है कि ‘वे’ मानव समाज को अनन्त तक ले जायेंगे। यह संकल्प ‘उनका’ मिशन है, जिसे पूरा करने के लिए उन्होंने ‘श्री रामचन्द्र मिशन’ को एक इकाई के रूप में स्थापित किया है। जब ‘सहज-मार्ग पद्धति’ का कोई अनुयायी अपनी जीवन शैली को सतत् स्मरण और ‘उनके’ प्रेम तथा भक्ति में अर्थात् ‘उनके’ संकल्प में डुबो कर रखता है, तभी वह सही अर्थ में एक अभ्यासी बनता है। अब तक आप स्वनिर्मित विचारों में रहते आ रहे थे, किन्तु सहज मार्ग में आने पर आप ‘उनकी’ याद में रहने लगते हैं और तब 'श्री बाबूजी महाराज' का कथन कि “सहज-मार्ग पद्धति” एक जीवन शैली है आप के लिए सत्य हो जाता है। आप सही अर्थ में अभ्यासी बन जाते हैं तथा साधारण लोगों के बीच अपनी एक अलग पहचान बना लेते है।
मैं आप से पूछती हूँ, क्या आपने कभी सोचा है कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने हमें बनाने और हमारी उन्नति के लिए कितने दुख और पीड़ायें झेली हैं ? आपका उत्तर शायद ‘नहीं’ में होगा, कोई बात नहीं।

स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा है – “जब ‘श्री बाबूजी महाराज’ जैसी कोई विशिष्ट विभूति धरती पर अवतरित होती है, तो वह दूसरों के लिए पुष्प और अपने लिए काँटे ले कर आती हैं।“

मैं ‘श्री बाबूजी महाराज’ से प्रार्थना करती हूँ कि 'वे' आप सभी लोगों को इस योग्य बनायें कि आप को उनके दिव्य पुष्प की सुगन्ध का अनुभव हो और आप सब उसी में डूबे रहें। इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए आप को निष्ठापूर्वक यह आकांक्षा करनी चाहिए कि आप अपने को भूले रहें। साथ ही अपनी सांसारिक सक्रियता, अपनी त्रुटियाँ और नकारात्मक विचारों को भी भूले रहें। केवल सकारात्मक विचार और क्रियायें आपको लक्ष्य प्राप्ति के योग्य बनायेंगे।

संदेश - संत कस्तुरी
सहज-मार्ग की स्वाभाविकता
विजयवाड़ा
21/3/1998
आज मैं अपनी साधना की उस विशेषता का वर्णन करना चाहती हूँ जिसने ईश्वर–साक्षात्कार का मार्ग सहज बनाया है। हम सभी जानते हैं कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने कहा है कि सहज मार्ग ऊपर से उतरा है और इसका नाम भी ‘उन्होंने’ नहीं रखा है, इसलिए बिना किसी सन्देह के इसकी पद्धति प्राकृतिक है और ‘सहजता’ इसकी आत्मा है। हम जिस पद्धति का अनुसरण करते हैं, उसका मूल आधार ‘प्रकृति’ है, इसलिए, संभवतः यह भौतिक पाँच तत्वों से मुक्त है। इसके अतिरिक्त ‘श्री बाबूजी महाराज’ का संकल्प इसकी नींव है। उनके संकल्प के अनुसार समस्त मानव समाज को ईश्वर-साक्षात्कार कराना उनका लक्ष्य है। हमें सदा केवल यही याद रखना है कि ईश्वर सबके भीतर है और ‘उसी’ के दिव्य प्रकाश से सब का हृदय प्रकाशमान है।

हमें आँखें बन्द कर केवल बैठ जाना है और ईश्वरीय प्रकाश में डूबे रहना है। इस प्रकार के अभ्यास से हमारा हृदय और हमारे विचार पवित्र हो जाते हैं और ईश्वरीय शक्ति पर केन्द्रित हो जाते हैं। इसके अनवरत अभ्यास से निश्चय ही अभ्यासियों के हृदय में वास्तविक दशा का अनुभव होता है और उन्हें लगता है कि ईश्वर उनके हृदय में हैं इसके बाद हमारे अन्तर का अँधेरा दूर हो जाता है और साक्षात्कार की तड़प हृदय में उत्पन्न हो जाती है। इस स्थिति में अनुभव होता है कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ की दिव्य दृष्टि हमें आकर्षित कर रही है। ऐसे अनुभव के द्वारा हमें केवल लगता ही नहीं, बल्कि विश्वास हो जाता है कि सहज-मार्ग पद्धति, जो भूमा की शक्ति के प्रवाह में लय है, एक प्राकृतिक, सादगी लिये हुए, प्यारी और भावपूर्ण पद्धति है जो अभ्यासियों को अनन्त के साक्षात्कार के लक्ष्य तक पहुँचा देती है।

अभ्यासी लगातार निष्ठापूर्वक अभ्यास से जब ध्यान की गहराई में जाता है और उसमें डूब जाता है, तब वह अपने को बिल्कुल ही भूल जाता है। वह ‘श्री बाबूजी महाराज’ की दैविक प्रेरणा का अनुभव करने लगता है कि सहज-मार्ग साक्षात्कार के लिए एक प्राकृतिक पद्धति है। ऐसा अनुभव प्राप्त कर लेने के बाद मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को लिखा कि मैं एक ऐसे दिव्यता के प्राकृतिक प्रवाह में प्रवेश कर रही हूँ, जो अनन्त है। मैंने इस सत्य को भी अनुभव किया कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ की प्राणाहुति एक दिन अभ्यासियों को अनन्त में अवश्य प्रवेश देगी। उसके बाद उनके उदार अनुग्रह से मैं उस विशिष्ट विभूति का साक्षात्कार कर सकी। यह रहस्य मैं कैसे बताऊँ कि मैंने इसे कैसे प्राप्त किया।

मैं केवल इतना कह सकती हूँ कि लक्ष्य के लिए मेरी तीव्र तड़प ने अहम् के आवरण की गुत्थी को खोल दिया और उनके समक्ष मेरा समर्पण करा दिया। मैं दृढ़तापूर्वक कह सकती हूँ कि सहज-मार्ग पद्धति ही ‘श्री बाबूजी महाराज’ का साक्षात्कार करने की एकमात्र विधि है। इसके बाद दूसरा दिव्य रहस्य मेरे अनुभव में आया कि दिव्य शक्ति के प्रवाह में प्रवेश ही वास्तव में केन्द्रीय क्षेत्र में प्रवेश देता है। ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने भी मुझे लिखा था कि केन्द्रीय क्षेत्र में तैरना और केवल तैरना होता है, क्योंकि सफाई, ध्यान, प्रार्थना और प्रेम के द्वारा ‘सोलह वृत्त’ पार कर लेने के बाद प्रेम, भक्ति और अनुभव भी ‘उनमें’ लय हो जाता है। यही वह स्थिति है जब ‘श्री बाबूजी महाराज’ में लय होने की दशा का आशीर्वाद मिलता है। उसके बाद मुझे लगा कि साधना में ध्यान के द्वारा मुझे जो भी दिव्य दशायें मिली थीं, वे सब भी ‘उनमें’ लय हो गईं। तब हम कह सकते हैं कि “वास्तविक मोक्ष वह है, जिसका आशीर्वाद बिना भक्ति के मिलता है।“

‘श्री बाबूजी महाराज’ ने हिरण्य-गर्भ को माइण्ड रीज़न कहा है। इसके अनुसार कोई केवल प्रेम और भक्ति के द्वारा ही ईश्वर-साक्षात्कार कर सकता है। संत कबीर ने भी कहा है – “गुरु गोबिन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाँव ?” उन्होंने गुरु चरणों में ही अपने को समर्पित कर दिया, क्योंकि गुरु ने ही उन्हें साक्षात्कार के लिए योग्य बनाकर तैयार किया था। संत कबीर का यह पद्य सिद्ध करता है कि आध्यात्मिक साधना की पहुँच केवल ईश्वर–साक्षात्कार तक ही सीमित थी। श्री रामचन्द्र मिशन के संस्थापक ‘श्री बाबूजी महाराज’ इससे भी आगे गये और केन्द्रीय-क्षेत्र की खोज के द्वारा महान् गौरवपूर्ण क्षेत्र अनन्त (भूमा) तक पहुँचे। इसलिए ‘उन्होंने’ अभ्यासियों को पहले ईश्वर साक्षात्कार और उसके बाद अनन्त (भूमा) के साक्षात्कार का लक्ष्य दिया है। इस प्रकार, ‘उन्होंने’ मानव समाज को आध्यात्मिक युग के आगे दिव्य युग का मार्ग दिखाया है। मैं आपको याद दिलाना चाहती हूँ कि इस दिव्य संकल्प को पूरा करने के लिए ‘श्री लालाजी साहब’ ने अपनी प्रार्थना के द्वारा श्री बाबूजी महाराज को भूमा से धरती पर अवतरित कराया। मैं यह भी अनुभव करती हूँ कि हमारी पद्धति की कड़ी भूमा से जुड़ी होने के कारण अभ्यासियों को साधना करते समय भूमा के दिव्य प्रतिबिम्ब का अनुभव होता है।

जब अभ्यासी ‘श्री बाबूजी महाराज’ से प्राणाहुति पाता है, जो भूमा की शक्ति से सीधा प्रवाहित है, तब अभ्यासी का अन्तर भुमा की शक्ति की खूबसूरती से अवय ही सँवर जाता है। तब हम अनुभव करते हैं कि शायद भूमा से हमारा परिचय हो रहा है। इसका अर्थ है कि अन्तर की कोई कड़ी भूमा से जुड़ जाती है। यह कड़ी पहले हमें ईश्वर-साक्षात्कार की दशा में लय करती है और उसके बाद दिव्य दशा में लय करती है और उसके बाद दिव्य दशा में गोता लगवाकर ‘वे’ हमें अपनी गोद में ले लेते हैं, तब हमें सत्य पद का ज्ञान हो जाता है। इसके बाद ‘वे’ केन्द्रीय क्षेत्र में हमारा प्रवेश करा देते हैं, तभी ऐसा लगता है कि यह अनन्त का गौरव है। जैसा कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने कहा है कि “जीवन के परे जीवन” अथवा “एक खोई हुई पहिचान” भी दिव्य दशा सी लगती है। केवल इस सर्वोच्च दशा को प्राप्त करने के बाद अभ्यासियों के लिये सहज मार्ग बिल्कुल पारदर्शी और बहुत ही सरल हो जाता है, सदा के लिए। इस स्थिति के बाद हम अपनी पद्धति की विशेषता का वर्णन करने के योग्य हो जाते हैं। ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने कहा है – “पहले व्यावहारिक बनो, उसके बाद जब दूसरे लोगों से बात करो, तो तुम्हारी बातें उनके हृदय को प्रभावित करें।“ ‘श्री बाबूजी महाराज’ के आशीर्वाद से मैंने अनुभव किया है कि सहज-मार्ग में परिपूर्णता मिलने के बाद और सहज में लय रहते हुए जब हम प्राकृतिक दिव्य धारा में प्रवेश करते हैं, तो इसकी शक्ति अंतर में मुस्कुराती है और चमकती है। अनन्त सत्य की यही दशा है।

सहज मार्ग पद्धति में परिपूर्णता की दशा क्या है ? मैं बताती हूँ। हिन्दी में एक शब्द है ‘साधना’। इसका क्या अर्थ है ? इस शब्द का सन्धि विच्छेद करने से साध + ना = साधना होता है। साध का अर्थ होता है इच्छायें और ना का अर्थ होता है 'नहीं'। इसलिए साधना का अर्थ है इच्छाओं का न होना, जिसे हर स्तर की शक्ति प्राकृतिक रूप में आत्मसात् करती है।

यदि सेन्टर-इन-चार्ज निष्ठावान् और परिश्रमी हैं तो उसके प्रयास से सेन्टर के अभ्यासियों की उन्नति निश्चित ही होती है, किन्तु उसका परिश्रम तभी फल देता है जब अभ्यासी लोग भी निष्ठापूर्वक अपने लक्ष्य की प्राप्ति में अपनी भक्ति पूर्ण दें।

संदेश - संत कस्तुरी
अध्यात्म में प्रेम
विजयवाड़ा
30/3/1998
‘श्री बाबूजी महाराज’ ने कहा है – “अध्यात्म के मार्ग में प्रेम की वही विशेषता है, जो भोजन में नमक की।“ अपनी आध्यात्मिक उन्नति के लिए ईश्वरीय-शक्ति का फैलाव अत्यंत ही आवश्यक है, क्योंकि केवल आत्मा ही ईश्वर का साकार रूप है। इसलिए, इसके सौन्दर्य के फैलाव के लिए ईश्वरीय-शक्ति से इसका योग आवश्यक है। सहज-मार्ग के अन्तर्गत ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने अभ्यासियों को ईश्वर-साक्षात्कार का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए हम लोगों को भक्ति का मार्ग बताया है। उन्होंने हमें यह पाठ पढ़ाया है कि हमें तल्लीनता को लगातार बनाये रखना है। यह हमारे ‘मैं–पना’ के घुलने में सहायक होता है। याद के सतत् अभ्यास से हमारे हृदय एवं विचार दिव्य-प्रकाश से प्रकाशित हो जाते हैं।

ध्यान के अभ्यास से अभ्यासी अपने हृदय में ‘उनकी’ उपस्थिति अनुभव करता है। आगे चलकर यह अनुभव होता है कि ईश्वरीय शक्ति, जो हमारे हृदय में है, से हमारे हृदय को एक प्राकृतिक, सच्चा और वास्तविक सम्बन्ध हो गया है। बाद में हमारे हृदय की यह प्यास हमारे हृदय में प्रेम के रूप में खिल उठती है। हृदय में ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव धीरे-धीरे स्थाई हो जाता है और उसके बाद ईश्वर-साक्षात्कार का प्रेम तड़प में परिवर्तित हो जाता है। जब इस दशा का आशीर्वाद मिल जाता है, ‘श्री बाबूजी महाराज’ का कथन, “प्रेमी आपके सामने हो और प्रेयसी भी भीतर हो, तब प्रेमी (अभ्यासी) को बिना ‘उनसे’ मिले धीरज कैसे रह सकता है”, एक वास्तविकता बन जाता है।

ईश्वर अनन्त है, ऐसा ही उसका प्रकाश भी है। इसलिए, जब हमें इस दशा का व्यावहारिक अनुभव हुआ, मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को लिखा कि मेरे शरीर का कण-कण ईश्वरीय-प्रकाश से प्रकाशित है। उसके बाद मैंने पुनः लिखा कि ध्यान में डूबने के बाद, जिस दिशा में मैं चलती हूँ, मुझे लगता है कि वह दिशा ईश्वरीय प्रकाश से प्रकाशित है। फिर ऐसा लगा कि ईश्वरीय प्रकाश का फैलाव अपना साया हमारे आगे-आगे छोड़ता जा रहा है। इसका सबसे आश्चर्यजनक पहलू यह है कि अपने घर में अपना दैनिक कार्य मैं एक साधारण लड़की की तरह करती रही। ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने मुझे लिखा कि सहज मार्ग पद्धति गृहस्थ जीवन के लिए ही है और अपना घरेलू कार्य समुचित रूप में करने के लिए ही है। हमारी दशा ऐसा करने के लिए बाध्य है, जैसा मैंने कहा है। ईश्वर हमारे हृदय में रहता है और हर हालत में वह अपनी उपस्थिति का अनुभव देता है। फिर भी हम अपना दिमाग और विचार पूरी तरह से सांसारिक कार्यों में लगाये रखते हैं और काम भी प्राकृतिक रूप में होते रहते हैं। ‘श्री बाबूजी महाराज’ का कथन है कि “हम जहाँ रहते हैं हमें उसकी चेतना नहीं रहती कि वही दशा हमारे लिए वास्तविकता बन जाती है।“ जानते हैं, ऐसा क्यों होता है ? यह केवल इसलिए कि ‘उनके’ लिए हमारे प्रेम का एक छोर ईश्वर का निर्वाह करता है और दूसरा छोर हमें सांसारिक कार्य करने के लिए सावधान करता है। इस दशा को प्राप्त कर लेने के बाद ईश्वर के लिए हमारे प्रेम की प्रथम अवस्था पूरी हो जाती है।

अब हमारे प्रेम की दूसरी अवस्था प्राकृतिक तौर पर आती है। स्मरण और ध्यान के द्वारा हम जिसका साक्षात्कार करने की आकांक्षा कर रहे थे, वह स्मरण स्वयं ही ईश्वर में इस प्रकार लय हो जाता है कि हम भूल जाते हैं कि हम अभ्यासी हैं। हम यह भी भूल जाते हैं कि हमारे पास हृदय है। ‘श्री बाबूजी महाराज’ के कथन के अनुसार अभ्यासियों में लय-अवस्था का यह प्रारम्भ है। यह दशा, ऐसी अवर्णनीय है कि आज यह लिखते हुए, जब यह दशा सामने आई, इसका वर्णन करने में मैं अपने को अयोग्य पाती हूँ। ऐसा लगता है कि जब हमारी आँखें हृदय की ओर जाती हैं, तो वहाँ कोई पहले से ही ध्यान की अवस्था में बैठा रहता है और गहराई से देखने पर हमें अनुभव होता है कि हमारा अस्तित्व भी खो रहा है। इस दशा का आशीर्वाद प्राप्त कर लेने के बाद भी यह पुनः वर्णन करने के परे है। हमारे अपने अस्तित्व का अनुभव उनमें लय हो जाता है। इसके बाद हमें अपने ‘स्व’ की चेतना नहीं रहती, क्योंकि हमारा ‘प्रेम’ अपने वास्तविक रूप में उनके चरणों में समर्पित हो जाता है।

ध्यान की स्थिति भी पूर्णत: रूपान्तरित हो जाती है और हमारा हृदय तथा उसके बाहर भी वैसा ही हो जाता है। आँखें बन्द करने और खोलने पर सिवाय दैवीय सौन्दर्य के हमारी दृष्टि में कुछ नही आता। मुझे याद है कि इस दशा के साथ मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को लिखा था, “मेरी दशा ऐसी है कि जिसको मैं देखती हूँ, वह लगता है, 'श्री बाबूजी महाराज' हैं। दूसरे शब्दों में जिस तरफ़ मुड़ती हूँ, मैं केवल ‘उनका’ ही दिव्य सौन्दर्य पाती हूँ। तब ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने मुझे लिखा – ‘मैं’ श्री लालाजी साहब का शुक्रगुज़ार हूँ क्योकि तुम्हारी लय-अवस्था भी लय हो रही है।“ यही वह दशा है जब ‘प्रेम’ की दूसरी अवस्था पूर्णता प्राप्त कर लेती है।

अब ‘प्रेम’ की अन्तिम और पूर्ण दशा आती है, जब ‘प्रेम’ की सारी दशायें ईश्वर में लय हो जाती हैं। यह ठीक वैसा है, जैसे नदी समुन्द्र में विलय हो जाने पर अपना अस्तित्व तथा पहचान खो देती है। ठीक उसी प्रकार हमारी दशा दिव्यता की ओर मुड़ जाती है और हमारी आँखें दैवीय रंग में डूब जाती हैं - आँखें फिर चाहे खुली हों अथवा बन्द। वास्तव में यह वह दशा है जब न केवल भौतिक शरीर, बल्कि शरीर का कण-कण आँखें बन जाती हैं और साक्षात्कार के लिए व्याकुल हो जाती हैं। साक्षात्कार के लिए एक ध्वनि चारों ओर गूंजने लगती है और तड़प ‘उनकी’ खोज में तीव्र हो जाती है। इस सुखद स्थिति में 'श्री बाबूजी महाराज हमें साक्षात्कार का शुभ आशीर्वाद देते हैं।

अब अपने साक्षात्कार के अनुभव के बारे में मैं बताती हूँ। क्षणिक ईश्वर–साक्षात्कार पहले प्रेम, भक्ति और भूलने की दशा को लय करता है। इस छोटे से अन्तराल में मैं अनुभव कर सकी कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने मुझे ईश्वर में एक डुबकी दी और उसके बाद मुझे सत्य पद पर बैठा दिया और केन्द्रीय क्षेत्र का द्वार खोल दिया।

मेरे लिये केवल यही विचित्र क्षण था, जब ‘उन्होंने’ अपने संकल्प में मुझे ले लिया और केन्द्रीय क्षेत्र - अनन्त के क्षेत्र में मुझे प्रवेश दे दिया। यह मझे लुका छिपी का खेल लगा क्योंकि एक क्षण को ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने मुझे यह अनुभव दिया कि ‘वे’ मेरे साथ हैं और फिर उन्होंने मुझे अपने में समेट लिया। इस प्रकार, अपने संकल्प में लय करके ‘उन्होंने’ मुझे केन्द्रीय क्षेत्र में तैराने का प्रबन्ध कर दिया।

यहाँ साफ कर दूँ कि मेरी पहचान केवल ‘उनके’ संकल्प में थी और यह केवल इसलिए कि ‘उन्होंने’ मुझ पर आरम्भ से अन्त तक शोध किया था। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि यह केवल वही समरूपता ( पहचान ) है, जो अपनी अनन्त यात्रा में विभिन्न आध्यात्मिक दशाओं तथा अनुभव का वर्णन करती है। ‘उनका’ दिव्य शोध केवल यह सिद्ध करता है कि हर प्राणी सहज मार्ग पद्धति का निष्ठापूर्वक अभ्यास करके सर्वोच्च आध्यात्मिक दशा को अपने छोटे से जीवनकाल में प्राप्त कर सकता है।

दूसरा महत्त्वपूर्ण सत्य यह है कि जैसा मैंने ऊपर लिखे गये अपने अनुभव में बताया है कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ के पास अभ्यासियों के लिए अटूट प्रेम एवं करुणा है। ‘उनका’ अमूल्य, गहरा और अन्तहीन प्यार अभ्यासियों के उच्चतम लक्ष्य प्राप्ति के लिए समर्पित है। ‘वे’ अपने अनन्त सत्य के भीतर सभी अभ्यासियों को समेटने के लिए सदा तैयार रहते हैं।

संदेश - संत कस्तुरी
जीवन और मृत्यु की आवश्यकता
विजयवाड़ा
31/3/1998
सच कहा जाये तो यह स्वाभाविक और आवश्यक है कि हम जाने कि जीवन और मृत्यु का वास्तविक अभिप्राय क्या है? क्या यह केवल खाओ, पीओ, और मौज करो है, जैसा साधारणतः समझा जाता है? मैं कहती हूँ, ऐसा बिल्कुल नहीं है। वास्तव में इसका लक्ष्य इससे ऊँचा है। ‘श्री रामचन्द्र मिशन’ के अभ्यासी होने के नाते हम सभी जानते हैं कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने हमारे जीवन का उच्चतम लक्ष्य ‘अनन्त का साक्षात्कार’ निर्धारित किया है। और मृत्यु का मतलब है पुनर्जन्म से मुक्ति अथवा सदा के लिए मृत्यु के बन्धन से मुक्त होना। हम इस सत्य को भी जानते हैं कि जीवन की घटनायें जन्म और मृत्यु केवल हमारे भौतिक शरीर से सम्बन्धित हैं, जिसका अर्थ है कि यह पाँच नाशवान् भौतिक तत्वों से जुड़ी हैं। हमारा भौतिक शरीर हमारा वास्तविक रूप नहीं है। ‘श्री बाबूजी महाराज’ प्रायः कहते हैं – “अभ्यासी लोग मुझे देखने आते हैं, किन्तु, मुझे वास्तविक रूप में देखे बिना ही चले जाते हैं।“ उनके कहने का अभिप्राय यह है कि ‘अन्तिम सत्य’ जो हमें देखना है और साक्षात्कार करना है, वह भौतिक शरीर से परे है।

श्री बाबूजी महाराज के अनुसार मानव प्राणी की वास्तविकता सांसारिक संस्कारों के अनेक आवरणों से ढकी हुई है। ‘श्री रामचन्द्र मिशन’ के अन्तर्गत बतायी गई साधना में, निष्ठापूर्वक और ईमानदारी के साथ किया गया ध्यान के अभ्यास द्वारा, ये सारे आवरण धीरे-धीरे हट जाते हैं और हमारे हृदय को उनके निकट होने का अनुभव मिलने लगता है। इसके फलस्वरूप ‘उनकी’ याद में हमारी तल्लीनता धीरे-धीरे गहरी हो जाती है और अन्त में ‘श्री बाबूजी महाराज’ में हम लय हो जाते हैं। अभ्यासियों को अपने दिव्य संकल्प के भीतर रख कर वे उन्हें ‘अन्तिम-सत्य’ तक ले जाते हैं। इस ‘अन्तिम-सत्य’ तक ‘वे’ कैसे ले जाते हैं और वह भी प्रत्येक स्तर की सूक्ष्म दशा का अनुभव कराते हुए, जो की मैंने अनुभव किया है, वो सब ‘अनन्त यात्रा’ के पाँच भागों में उल्लिखित है। संक्षेप में यदि साधना में हम अपने हृदय को इस प्रकार लय कर लें कि हमारा भौतिक आवरण घुल जाये, तब हमारी मृत्यु अमरत्व को प्राप्त कर लेती है। यह ‘स्व’ को भूलने की उच्चतम दशा है। हम अपने भौतिक अस्तित्व को इस प्रकार भूल जाते हैं कि हमारा मस्तिष्क इसे कभी याद नहीं करता और न ही इसका प्रभाव अनुभव में आता है। यह सदा के लिए मृत्यु के बन्धन को भी तोड़ देता है और आत्मा स्वतंत्र हो जाती है। जीवन का वास्तविक मतलब पूरा हो जाता है। ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने हमेशा अभ्यासियों को इस बात पर जोर देने को कहा है कि वे ध्यान में गहरी तल्लीनता और तीव्र तड़प पैदा करें ताकि भूलने की दशा प्राप्त हो सके। संत कबीर ने भी कहा है कि “ऐसा जीवन जिओ कि मृत्यु बार-बार न आये।“

मुझे आज भी याद है कि मेरे ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने मेरे लिए ऐसा क्या किया कि जब मैं अपने भौतिक शरीर को देखती हूँ तो ऐसा लगता है कि यह कोई अस्थि-पंजर चल रहा है, जिसके साथ मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। मैंने यह भी लिखा- “जब कोई मुझे ‘कस्तूरी’ कहकर बुलाता है, मैं नहीं जानती कि ‘हाँ’ कौन कहता है, मुझे इसका कुछ भी ज्ञान नहीं रहता।“ यह भूलने की दशा वास्तव में एक संकेत है कि हम मूल, अहम्-शुन्य दशा में रूपान्तरित हो गये हैं। ऐसी दशा में मृत्यु की समस्या कभी नहीं आती और समस्या का समाधान हो जाता है।

उसके बाद ‘श्री बाबूजी महाराज’ जीवन का वास्तविक अभिप्राय बताना आरम्भ करते हैं अर्थात् जीवन से स्वतन्त्रता। उनके अनुसार जीवन से स्वतन्त्रता का अर्थ है कि हम लोग अपने मूल निवास स्थान को, जहाँ से हम आये हैं, लौट जायें। जीवन का यह रहस्य खुलने लगता है और उसके लिये हमारे सामने मार्ग भी बन जाता है।

यह वास्तविकता समर्पण की दशा का प्रारम्भ है। ‘श्री बाबूजी महाराज’ का कथन है कि “समर्पण किया नहीं जाता, यह स्वतः होता है।“ इसके बाद जो भी दशा अनुभव में आती है, प्राकृतिक रूप में आती है अर्थात् समर्पण में समर्पित होने लगती है, क्योंकि जीवन की दिव्य दशा में जो कुछ होता है, सब प्राकृतिक होता है।

आज भी मुझे याद आता है कि मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को लिखा था कि ऐसा लगता है कि मेरे अहम् के सभी आवरण हट गये हैं और मैं ईश्वर का रूप हो गई हूँ। मुझे अनुभव हुआ कि यह उच्चतम दशा जो मुझे मिली है स्वयं ही ‘श्री बाबूजी महाराज’ में लय हो गई है और मैं भौंचक खड़ी हूँ।

सच कहा जाये तो वास्तविकता यह है कि आध्यात्मिक इतिहास में ऐसा कुछ नहीं है कि इस उच्चतम स्तर को कोई कैसे प्राप्त कर सकता है। अर्थात् अपने मूल-अनन्त को। यह इस बात का संकेत है कि सृष्टि के उदय काल से आज तक इस स्तर तक कोई नहीं पहुँच सका। संत कबीर ने ईश्वर साक्षात्कार करने के बाद केवल इतना कहा- “हद अनहद के बीच में रहा कबीरा सोये।“ अपने भजनों में उन्होंने कहा है कि दैवी अनुभव में उन्होनें केवल ईश्वर–साक्षात्कार का वर्णन किया है।

सहज मार्ग साधना के अभ्यास के द्वारा जब मैंने ईश्वर–साक्षात्कार का दैवी अनुभव पाया ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने मुझे ईश्वरीय शक्ति में एक डुबकी दी और मुझे ‘सत्य पद’ पर बैठा दिया तथा दैवी चेतना हममें जाग्रत कर दी। तभी हमने ‘पार्षद’ की दशा में अपने को डूबे रहने का अनुभव पाया और केन्द्रीय क्षेत्र के द्वार पर एक द्वारपाल की तरह खड़ा पाया। जब ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने मुझे अपने हृदय में ले लिया और मुझे लिखा कि “मैं खुश हूँ कि तुम केन्द्रीय क्षेत्र में प्रवेश कर गई हो। यह मेरे ‘श्री लालजी साहब’ की महान कृपा और तुम्हारे प्रति उनके ध्यान का प्रतिफल है कि तुम्हें उसमें प्रवेश करने का आशीर्वाद मिला है।“ उन्होंने” पुनः लिखा कि “इस क्षेत्र में प्रवेश करने की पूर्व दशा केवल लय-अवस्था है, जिसका वास्तविक अर्थ है। कि “न तुम खुद वहाँ हो और न खुदाई (ईश्वरीय दशा) वहाँ है।“ इसे बताने की आवश्यकता नहीं है कि यह अनुपम दिव्य दशा का आशीर्वाद हमें केवल श्री बाबूजी महाराज द्वारा ही मिलता है। ‘वे’ हमारा अहम् दूर कर देते हैं और अपने में लय अवस्था तथा अनन्त के साक्षात्कार का आशीर्वाद देते हैं। उन्होंने मुझे लिखा कि “यहाँ जीवन के मतलब का समाधान हो जाता है।“

श्री बाबूजी महाराज अपने उदार प्रेम के साथ आज भी आप लोगों को अपनी गोद में ले लेने का आतुर हैं। ‘श्री बाबूजी महाराज’ से इस अनुपम युग का लाभ आप सब उठायें ताकि जीवन और मृत्यु की समस्या का समाधान हो जाये।

संदेश - संत कस्तुरी
शताब्दी वर्ष
लखनऊ
14/11/1998
यह बिलकुल सत्य है कि शब्द ‘शताब्दी’ सुनने में कानों और ह्रदय को अच्छा लगता है, किन्तु, आज मैं इसे दैवी विभुति से जोड़ने जा रही हूँ, जिनके दिव्य ‘अवतरण’ ने इस युग को आशीर्वाद दे कर पवित्र किया है। समस्त मानव जाति की उन्नति के लिए, श्री बाबूजी महाराज द्वारा ही रामचन्द्र मिशन के संरक्षण में सहज मार्ग पद्धति की स्थापना हुई है। श्री बाबूजी महाराज ने कहा है कि अभ्यासियों का लक्ष्य ‘ईश्वर-साक्षात्कार’ के अतिरिक्त और कुछ नहीं होना चाहिए। सहज मार्ग साधना का जादू हर व्यक्ति को मोहित कर देता है। ऐसा लगता है कि श्री बाबूजी महाराज की प्राणाहुति का अनवरत प्रवाह पाने के बाद केवल मानव-हृदय ही नहीं, बल्कि यह शताब्दी वर्ष भी ईश्वरीय शक्ति में विलय हो गया है। सहज मार्ग पद्धति के रूप में ‘उनका’ विनीत भाव वास्तव में ‘उनका’ दिव्य प्रसाद और आशीर्वाद हम सब को मिला है। इस दैवी प्रसाद के फलस्वरूप उनके प्यार की अनवरत वर्षा हमारी जीवन शक्ति का एक श्रोत बन गयी है। उन्होंने सहज मार्ग साधना को भूमा की शक्ति की दिव्य धारा में डुबा दिया है और इस प्रकार साधना को अत्यंत ही सरल, सहज, प्राकृतिक और शक्तिशाली बना दिया है। ‘उनका’ आध्यात्मिक और दिव्य संकल्प कि हर व्यक्ति ईश्वर का साक्षात्कार करे, सबके लिए उनके ‘प्रेम’ का प्रमाण है। ऐसा लगता है कि विशिष्ट दिव्य विभूति युग की आत्मा में मिल गया है। सम्पूर्ण वातावरण, जो श्री बाबूजी महाराज के दिव्य प्रेम और अनुग्रह से व्याप्त हो गया है, मधुर संगीत से गुलज़ार रहेगा, ताकि हम उनके विश्व-प्रेम की बाँहों में चैन से सो सकें। कोई नहीं कह सकता कि वह श्री बाबूजी महाराज के शताब्दी वर्ष के महत्त्व की व्याख्या, बिना ‘उनकी’ प्रेरणा, सहायता, अनुग्रह और कृपा के कर सकता है। अभ्यासियों की बढ़ती हुई संख्या ने सिद्ध कर दिया है कि वर्तमान युग जो दिव्य विभूति पर अपना विचार केन्द्रित कर रहा है कि श्री बाबूजी महाराज मानव हृदय को, ध्यान के द्वारा विचारों को दिव्य विभूति पर केन्द्रित करने का पाठ पढ़ा रहे हैं। श्री बाबूजी महाराज की आध्यात्मिक दृष्टि, दिव्यता की शोभा में योग देकर हमारे विचारों को पावन बना रही है। वर्तमान युग उनके चरणों में समर्पित हो रहा है। यह शताब्दी वर्ष वास्तव में ‘उनके’ लिए हमारा बाल्य-प्रेम एवं भक्ति है। इस दिव्य अवसर पर हमें अपना हृदय उनके चरणों में समर्पित कर देना है। हम अपने भक्तिपूर्ण हृदय से उनकी ओर देख रहे हैं ताकि उनकी दृष्टि की एक झलक मिल सके, जो हमारे लिए प्रेम से ओत-प्रोत है। मुझे लगता है कि शताब्दी वर्ष के इस पावन अवसर पर ‘श्री लालाजी साहब’ का यह ‘लाडला’, जो भूमा की शक्ति समेटे हुए है, अपने बच्चों को अपनी कृपा और अनुग्रह से आच्छादित किये हुए हैं। हमारी आध्यात्मिक उन्नति बता रही है कि ‘दिव्य विभूति’ ने अभ्यासियों के आध्यात्मिक पथ पर फूल बिखेर कर, उन्हें लय-अवस्था की स्थिति प्रदान कर, सदा के लिए अन्तिम सत्य की धारा में डुबो दिया है। भूमा के क्षेत्र में अभ्यासियों को तैराना यह बताता है कि श्री बाबूजी महाराज मूल शक्ति भूमा के अनुपम गौरव हैं। उनकी दिव्य महान् शक्ति ने अभ्यासियों के अस्तित्व को दिव्यता में परिवर्तित कर, अपने कथन को प्रमाणित कर दिया है कि समरूपता अपने को पहचान नहीं सकती। शब्द ‘शताब्दी’ का अर्थ होता है सौ गुना सौन्दर्य को जोड देना। सदगुरु ‘श्री लालाजी महाराज’ ने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को आदि शक्ति का प्रेम प्रदान किया है और इस प्रकार उनके शताब्दी वर्ष को सदाबहार और अनन्त बना दिया है। सहज मार्ग के हम अभ्यासी ऐसी आन्तरिक दशा अनुभव करने लगे हैं, जो नीचे लिखा गया है। “मित्रों! वे कभी नहीं मरते, जिन्होंने समर्पित प्रेम का आनन्द उठा लिया है। हमें इस दिव्य रहस्य की जानकारी हो गयी है कि ‘उनके’ दर्शन से जीवन को जीवन मिल गया है। धन्यवाद से भरा सभी को यह सन्देश कि अध्यात्म का चिराग जल चुका है, यह पावन वर्ष सभी के लिये दिव्यता के आशीर्वाद का पुरस्कार है।" श्री बाबूजी महाराज के जन्म की शताब्दी सदा याद रखी जायेगी और श्री रामचन्द्र मिशन का गौरवशाली आध्यात्मिक ध्वज सदा लहराता रहेगा। उनकी प्राणाहुति का अनवरत प्रवाह, सदा मानव-समाज के हृदय में शान्तिपूर्वक तथा शक्तिशाली परम आनन्द के साथ बहता रहेगा।
संदेश - संत कस्तुरी
मैं कौन हूँ ?
विजयवाड़ा
15/3/1999
आज मैं अपनी साधना के एक कठिन पहलू पर बात करूँगी, वह है अहम्, जो हमारे लक्ष्य के मार्ग पर सबसे बड़ी बाधा है। सच पूछा जाये तो ‘मैं कौन हूँ ?’ न तो हमारा प्रश्न है और न ही जन-साधारण का। बल्कि, यदि हम गहराई में जायें तो यह अहम् का ही प्रश्न है। यह जानना चाहता है कि यह कौन है, क्या है और यह अस्तित्व में कैसे आया है ? संक्षेप में यह जानना चाहता है कि इसके जन्म का कारण क्या था? साधारण बात-चीत में यह मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु माना जाता है।

यह अहम् ईश्वर की सृष्टि नहीं हो सकती। इसके बारे में क्या कहा जाये जो वास्तविक नहीं है, किन्तु मुझे ‘श्री बाबूजी महाराज’ का कथन याद आया कि प्रथम पुरुष - आदि मानव, जो ‘सत्यपद’ पर बैठा हुआ था पूरी तरह अपने होने के बारे में विचारहीन और अज्ञान था। जब उत्पत्ति की शक्ति कम्पन में आई, इस शक्ति के साथ उसकी चेतना जागृत हुई और पहला प्रश्न, जो उसके सामने आया केवल यही था कि मैं कौन हूँ ? अहम् के इस अनुभव ने ‘मैं-पना के द्विभाव’ को जन्म दिया अर्थात् जब मैं-पना अस्तित्व में आया, तब यह उत्सुकता हुई कि दूसरा कौन है ? तब इसे शब्द ‘तू’ की सहायता मिली और ईश्वर के अस्तित्व के साथ रहा। यह ‘तू’ और ‘मैं’ की पहचान दो अलग-अलग हस्तियाँ बन गईं, फिर भी अहम् का जन्म अथवा अस्तित्व वहाँ नहीं था। ऐसा क्यों ? यह केवल इसलिए कि यहाँ पर केवल इतना ही अनुभव हुआ कि प्रथम मानव केवल सृष्टिकर्ता को खोज रहा था। दूसरी पीढ़ी, जिसके पास दिमाग था अस्तित्व में आया। मैं-पना का विचार उसके अपने विचार में उलझ गया। वह धीरे-धीरे ईश्वर से दूर होता चला गया और स्थिर हो गया। मैं-पना की इस स्थिर दशा ने आगे चलकर उसे अलग पहचान दी। वह ईश्वर को भूलने लगा। जब ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने हम लोगों से कहा कि हम अपने को भूल जायें और ईश्वर को याद करें, इस बदली हुई स्थिति के कारण मैं-पना ने अहम् को जन्म दिया। यही दशा अहम् के सोलहवें वृत्त में स्थित है।

चूंकि अहम् का यह प्रथम स्तर है, यह ईश्वरीय क्षेत्र के निकट है। ईश्वर के सौन्दर्य का प्रतिबिम्ब इस पर पड़ता है। जब कोई दूसरी वस्तु की ठोसता का प्रतिबिम्ब इस विचार शक्ति पर पड़ता है, यद्यपि इसका प्रभाव वहाँ नहीं रहता। जब आप अहम् के 15वें वृत्त पर दृष्टि डालें, तो आप थोड़े अन्तर के साथ इस दशा को देख सकते हैं। अन्तर केवल इतना है कि दशा किसी वस्तु से प्रभावरहित रहती है। यह अहम् के 14वें वृत्त की दशा है। यद्यपि ठोस वस्तु की नापसन्दगी बार-बार उत्पन्न होती है, किन्तु कोई उसे रोक नहीं सकता। कारण यह है कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने कहा है कि मानव में गिरावट का क्रम बहुत तीव्र होता है, जबकि उन्नति में बदलाव का क्रम बहुत धीरे है। उन्होंने यह भी कहा है कि नदी में तैरने का उदाहरण लें, कि जब तैराक धारा की विपरीत दिशा में तैरना चाहता है, तो वह सफल नहीं हो पाता, क्योंकि पानी के बहाव से पीछे धकेल दिया जाता है। उसी प्रकार मानव प्राणी भी जब अच्छे इरादे के साथ अपनी कोशिश से ईश्वरीय दशा में ऊपर उठना चाहता है, तो उसे सफलता नहीं मिलती। इसीलिए सहज-मार्ग के अन्तर्गत ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने अभ्यासियों को भौतिकता के विपरीत ईश्वर की ओर आगे बढ़ने में अनेकों सुविधायें दी हैं। उन्होंने हमें ईश्वर साक्षात्कार का लक्ष्य और हृदय में ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव दिया है।

विपरीत धारा में आने वाली बाधाओं को पार करने के लिए ‘उन्होंने’ हमारे हृदय और शरीर के कण-कण में दिव्य-प्राणाहुति उड़ेल दी है। इसका प्रमाण अहम् के तेरहवें वृत्त में देखा जा सकता है। जैसे ही हमारी दृष्टि भौतिक वस्तुओं पर पड़ती है अहम् का प्रतिबिम्ब मानव के वास्तविक वैभव पर पड़ता है। अहम् के बारहवें वृत्त में अँधेरा है, क्योंकि ईश्वर का वैभव वहाँ से दूर हो जाता है। यद्यपि इस अँधेरे में न तो ठोसता है और न ही कालिमा। यह बहुत आश्चर्यजनक है कि इस स्थान पर अहम् अपना प्रश्न कि 'मैं कौन हूँ ?' भूल जाता है और स्वयं ही इसका उत्तर हो जाता है। यह सब कुछ हो जाता है बिना ‘मैं’ को स्पर्श किये। मैंने कई बार अहम् का उत्तर इसके वास्तविक अर्थ में दिया है।

‘अ’ का अर्थ होता है ‘नहीं’, ‘ह’ का अर्थ होता है ‘हम’ और बचता है बिन्दु, जो ‘शून्य’ है; जिसका अर्थ होता है कुछ नहीं। यही वास्तविकता है। यह आदिमानव की भूल का रूप है। अहम् के नौवें, दसवें और ग्यारहवें वृत्त में भौतिक तत्वों का प्रतिबिम्ब अहम् पर पड़ता है और इसी कारण मानव प्रवृत्ति अवनति की ओर जाना प्रारम्भ करती है।

जब अहम् अपने सबसे नीचे के स्तर पर पहुँचता है, इसके वास्तविक रूप पर माया का आवरण पड़ जाता है, और इसके बाद वास्तविक रूप यद्यपि माया से दूर रहता है, किन्तु हमारे विचार, हमारी समझ और हमारी रहनी एक गलत तथा भ्रामक दिशा में चलती रहती है। जब हम निष्टापूर्वक इससे छुटकारा पाना चाहते हैं, तब ‘श्री बाबूजी महाराज’ की प्राणाहुति के प्रवाह में हम ऊपर उठते हैं और ‘उनकी’ इच्छाशक्ति हमें अहं के 15वें वृत्त में प्रवेश दे देती है, जो माया से रहित है। यहाँ मैं कह सकती हूँ कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ की इच्छाशक्ति ही हमें ऊपर उठा सकती है।

हमें विचार करना चाहिए कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ जैसी योग्य, विशिष्ट विभूति सृष्टि के आरम्भ काल से आज तक क्या धरती पर अवतरित हुई है, जो मानव को अहम् के ठोसतम रूप से सूक्ष्मतम रूप तक ले जा सके और उनकी शक्ति के संकल्प से मानव प्राणी ऊपर उठकर ईश्वर का साक्षात्कार कर सके।

‘श्री बाबूजी महाराज’ अहम् के सोलह वृत्तों को अपने नियंत्रण में रख कर हमसे कहते हैं कि अहम् से भयभीत न हो, बल्कि इनके जबड़ों से भयमुक्त रहो। वे इन सबको अपनी इच्छाशक्ति से घोलने में सक्षम हैं और इस प्रकार इससे हमारा बचाव करते हैं। वर्तमान युग को सतयुग में परिवर्तित करने का ‘उनका’ संकल्प हमारे लिए एक वास्तविकता बनकर उभरा है। हम लोगों पर उनका प्रेम भरा अनुग्रह हमारी ठोसता एवं निम्न प्रवृत्तियों को पिघला देता है और उन्हें पारस पत्थर की तरह हमारी ओर फेंक देता है। इसके फलस्वरूप, दिव्य प्राणाहुति में स्नान करने के बाद अभ्यासियों की दशा बिल्कुल अबोध बालक की तरह हो जाती है, जिसे अपने बारे में कुछ ज्ञान नहीं होता है। यही अभ्यासी की अहम् शून्य दशा है, जो ‘श्री बाबूजी महाराज’ से आशीर्वाद के रूप में मिली है। अहम् शून्य की दशा में डूबे रहने के कारण उसको ईश्वर में लय-अवस्था मिलती है और उसके बाद उसे सत्य पद पर बैठा दिया जाता है। तब कोई कह सकता है कि अहम् का कोई वास्तविक महत्त्व नहीं है। यह केवल कूड़े का भार ढोने की तरह है, यही ‘मैं कौन हूँ’ का उत्तर देता है।

मैं-पना का यह भार ढोने के बदले, आप पना को हटा दें और ‘मैं’ को ‘श्री बाबूजी महाराज’ के चरणों में समर्पित कर दें। सतत् स्मरण तथा हृदय में प्राणाहुति के प्रवाह में डूबने से आप को वास्तविकता का साथ अवश्य मिलेगा क्योंकि ‘श्री बाबूजी महाराज’ की प्रेम भरी दृष्टि हम लोगों को देख रही है और ‘उनकी’ ही कृपा से साक्षात्कार के मार्ग में सारी बाधायें दूर हो जाती हैं। अब आपके ऊपर अहम् का कोई दबाव नहीं है, क्योंकि जो कुछ है, ‘श्री बाबूजी महाराज’ के अनुग्रही हाथों में बन्द है। ‘श्री बाबूजी महाराज’ का दिव्य शोध वास्तव में अभ्यासियों के लिए एक दिव्य आशीर्वाद है।

समय के अनुसार आप ऊपर उठें, ‘उनकी’ आशा के अनुरूप। हमें इस सुनहरे अवसर का लाभ उठाना चाहिए और आप अपने को अहम् से मुक्त रखें, अहम् शून्य हो जायें, ‘श्री बाबूजी महाराज’ के साथ लय हो जायें। ‘उनके’ अवतरण के पूर्व लोग अपनी कोशिश से अहम् पर विजय पाना चाहते थे और यह किसी के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी। आज भक्ति, प्रेम और समर्पण के साथ आपके ध्यान करने से अहम् की शक्ति क्षीण होती जाती है और अन्त में ‘श्री बाबूजी महाराज’ के हाथों में पिघल जाती है।

संदेश - संत कस्तुरी
प्रेम का अर्थ
विजयवाड़ा
16/3/1999
प्रेम के द्वारा हम जीवन के उच्चतम लक्ष्य को प्राप्त कर सकते है किन्तु प्रेम का वास्तविक अर्थ हम केवल अपनी साधना से जान सकते हैं। ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने कहा है कि सांसारिक वस्तुओं से हमारा रिश्ता ‘लगाव’ कहलाता है और ‘प्रेम’ केवल ईश्वर के साथ होता है। सच कहा जाये तो 'प्रेम' और 'लगाव' दोनों मानव समाज के लिए प्रकृति के वरदान हैं।

परिवार में एक शिशु के जन्म लेने के बाद हम उसे परिवार के सदस्यों के साथ रिश्ते बताते हैं, जैसे पिता, माँ, भाई, बहन, इत्यादि और वह उसी प्रकार उन्हें सम्बोधित करता है। दूसरों के साथ शिशु के ये रिश्ते स्वाभाविक हैं और स्वतः प्रगति करते हैं - एक अपनेपन का। उसके सारे सांसारिक व्यवहार इसी पर आधारित हैं। यह महत्त्वपूर्ण है कि कोई ऐसे रिश्ते को नकार सकता है किन्तु उसका हृदय ऐसा नहीं कर सकता है। यदि कोई पुत्र अपने माता-पिता से अलग रहता है, हो सकता है कि उनमें बातचीत भी न हो, किन्तु जब कोई उस पुत्र से उसके पिता का नाम पूछता है, तो वह अवश्य बतलाता है और इंकार नहीं करता है। ऐसा केवल इसलिए कि वह प्राकृतिक रूप में इस रिश्ते पर टिका रहता है।

सांसारिक जीवन में ‘लगाव’ परिवर्तनशील होता है। जब किसी वस्तु की उपयोगिता समाप्त हो जाती है और उसका स्थान जब कोई दूसरी वस्तु ले लेती है, पहले के साथ ‘लगाव’ समाप्त हो जाता है, थोड़ी देर के लिए भले ही यह दर्दनाक हो। उपयोगिता, मूल्य और पसन्द के साथ ‘लगाव’ बदलता रहता है।

साधना के अभ्यास में, जब हम ईश्वर को अपना साध्य बनाते हैं, तो हमारा ‘प्रेम’ ईश्वर के साथ होता है, न कि साधना के साथ। सहज मार्ग के अन्तर्गत ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने हमें अनन्त के साक्षात्कार का लक्ष्य दिया है, इसलिए हमारा लगाव ध्यान के अभ्यास के साथ नहीं होता, बल्कि ईश्वर के साथ होता है। ध्यान के अभ्यास के आरम्भ में ईश्वर और अनन्त के बारे में जानकारी नहीं होने के कारण ‘श्री बाबूजी महाराज’ हमारे हृदय में और हृदय के बाहर प्रकट होते हैं। धीरे-धीरे जब हमारी प्रगति हुई कि ईश्वर, जो हमें लक्ष्य दिया गया है हमारे हृदय में ही छिपा हुआ है, एक सत्य हो जाता है। इस सूक्ष्म अनुभव के बाद हमारी अन्तर्दृष्टि, भीतर से किसी और दिशा में नहीं जाती। जब मुझे यह दशा मिली, मैं अपना भौतिक रूप तथा बाहर की वस्तुएँ भूल गई, यद्यपि उस समय ‘मैं’ भूलने की स्थिति का अर्थ नहीं समझती थी। आज ‘श्री बाबूजी महाराज’ के आशीर्वाद से मैं अपनी आध्यात्मिक दशाओं का वर्णन करने में अपने को समर्थ पा रही हूँ। जब मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को अपने भूलने की स्थिति की दशा के बारे में लिखा, उन्होंने मुझे उत्तर में लिखा – “‘श्री लालाजी साहब’ के परोपकार के लिए मैं उन्हें धन्यवाद देता हूँ, कि तुम्हारे हृदय में प्रेम का अनुभव होने लगा है।“ बाद में जब मैंने उन्हें लिखा कि अपने हृदय में ईश्वर के अतिरिक्त मैं किसी को नहीं पाती हूँ, तो उत्तर में उन्होंने लिखा कि मेरे हृदय में प्रेम की सुगन्ध फैल रही है अर्थात् ईश्वर के लिए प्रेम बढ़ गया है। उसके बाद प्रेम के वास्तविक अर्थ को मैं समझी और उपयोग कर सकी। यह मेरे हृदय में केवल खुशी बन कर नहीं आया, बल्कि यह मेरे जीवन का लक्ष्य बन गया।

जब आपको प्रेम की यह दशा प्राप्त हो जाती है, तो अहम् का अनुभव ईश्वर में लय हो जाता है और आपको वास्तविक अनुभव होने लगता है कि मानव जीवन का उच्चतम लक्ष्य ईश्वर साक्षात्कार है प्रेम के इस उच्चतम लक्ष्य को मैंने अपनी पुस्तकों में परिभाषित किया है कि परम लक्ष्य (AIM) को जोड़ देने से प्रेम बन जाता है। ऐसा अनुभव तब होता है जब हृदय में ईश्वर के लिए तीव्र प्रेम उमड़ता है। इसके बाद ही मैं जान सकी कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ हम लोगों को सदा साथ रखते हैं।

उसके बाद मुझे दूसरा अनुभव यह हुआ कि जब भी मैं ईश्वर का नाम लेती थी मैं ‘श्री बाबूजी महाराज’ को अपने सामने पाती थी और हृदय में प्राणाहुति मिलती रहती थी तथा सभी अनचाही वस्तुएँ तथा बाधायें घुल गई थी। उसके बाद अभ्यासियों को भी ऐसी सुन्दर दशा मिलती है कि ईश्वर की उपस्थिति के बदले उन्हें ‘श्री बाबूजी महाराज’ की उपस्थिति का अनुभव होने लगता है। ‘वे’ हृदय में इसलिए उपस्थित होते हैं कि अभ्यासियों को उच्चतम लक्ष्य प्राप्त करने के लिए तैयार किया जाये। प्रेम की परिपक्व दशा तब आरम्भ होती है, जब चारों ओर प्रेम के प्रवाह के साथ हमारा हृदय बोल उठता है – “कब, कहाँ और कैसे ‘वे’ हमें ले जायेंगे।“ इस दशा को प्राप्त करने के बाद मेरी दशा ऐसी हो गई थी कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ से कितनी बार सिटिंग लेने के बाद और ध्यान करने के बाद भी मुझे संतोष नहीं होता था। जब मैंने ‘उन्हें’ अपनी दशा के बारे में लिखा, तो उनका उत्तर था “तुम अध्यात्म से भरे हज़ारों समुंद्र पी जाओ, किन्तु तुम्हारे हृदय की प्यास नहीं बुझेगी और हृदय चिल्लाता रहेगा - और लाओ और लाओ।“ यह आनन्द की दशा है - जो प्रेम की वास्तविक दशा है। जब यह प्रेम स्थिर हो जाता है और इसका फैलाव हो जाता है, तब शरीर का कण-कण कहने लगता है “ईश्वर के साक्षात्कार के लिए और तेजी से बढ़ो, और तेजी से बढ़ो।“

अब ‘श्री बाबूजी महाराज’ का प्रेम देखें, जब आप इस दशा को प्राप्त कर लेते हैं, ‘वे’ तुरंत आपको अपने में लय करने के लिए आ जाते हैं। वे मुझे लिखा करते थे कि मेरी लय-अवस्था प्रगति कर रही है। संक्षेप में, मैंने केवल इस सत्य को पाया है कि वे हमें अनन्त तक ले जाने की इच्छा रखते हैं।

‘वे’ अन्तिम सत्य हैं और इसके लिए लगातार अथक परिश्रम कर रहे हैं कि हर मानव प्राणी में प्रेम की तड़प पैदा हो। आप सभी लोग ‘उनके’ दिव्य कार्य हेतु भाग्यशाली बनें और अपने जीवनकाल की छोटी अवधि में उच्चतम लक्ष्य को प्राप्त करने का अवसर पायें। इसीलिए अपने दिव्य शोध के द्वारा उन्होंने इस विधि को बहुत ही सरल बना दिया है। यही उनका मिशन है। हम सभी को इस बात के लिए तत्पर रहना चाहिए कि ‘उन्हें’ हम लोगों पर कार्य करने का अवसर मिले।

आप लक्ष्य को याद कर तथा अपने बहिर्मुखी जीवन को नियमित कर इसे प्राप्त कर सकते हैं। आप निष्ठापूर्वक ध्यान करें और अपने भीतर दिव्य प्राणाहुति में डूबकर अडिग विश्वास और भरोसा रखें कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ द्वारा साक्षात्कार का आशीर्वाद आपको अवश्य मिलेगा।

अन्त में दिव्य प्रेम के बारे में ‘श्री बाबूजी महाराज’ की ये पंक्तियाँ आपके सामने रख रही हूँ – “प्रेम का अर्थ शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता, यह ऐसी वास्तविकता है, जिसकी व्याख्या नहीं की जा सकती।“

संदेश - संत कस्तुरी
सहज मार्ग पद्धति
विजयवाड़ा
27/3/2000
आज मैं अपनी पद्धति के कुछ आधारभूत तथा अनूठे पहलू को बताना चाहूँगी। वास्तव में मैंने पाया है कि मानव समाज जीवन का वास्तविक लक्ष्य, जो अनन्त का साक्षात्कार है, भूल गया है। उसे पाने के लिए ईश्वर ने हमें ‘सहज-मार्ग पद्धति’ प्रदान की है। यह साक्षात्कार के लिए बिलकुल पवित्र एवं पूर्ण रूप से प्राकृतिक मार्ग है, क्योंकि यह प्रकृति की देन है। यह प्रकृति का रहस्य ही बना रहा, जब तक ‘श्री बाबूजी महाराज’ का अवतरण नहीं हुआ।

‘श्री बाबूजी महाराज’ ने अपनी दिव्य शक्ति द्वारा प्रकृति के इस रहस्य को खोला, संशोधित किया और उसे सरल बनाया ताकि मिशन के अभ्यासी और सारा मानव समाज इससे लाभ उठा सके। प्रकृति के कार्य और सृष्टि का लाभ मानव नहीं उठा सकता, जब तक कोई इसे पढ़े नहीं, समझे नहीं और उसके रहस्यों और जटिलताओं को खोलकर सर्वसाधारण के लिए सरल न बना दे। शायद इसीलिए ‘समर्थ सद्गुरु श्री लाला साहब’ ने अपनी साधना और प्रार्थना के द्वारा ‘श्री बाबूजी महाराज’ का अवतरण कराया है।

‘श्री बाबूजी महाराज’ ने इसे अपनी दिव्य शक्ति से संरक्षित कर दिया है और प्राणाहुति के द्वारा सभी के लिए अभ्यास करना संभव एवं सरल बना दिया है। प्राणाहुति अभ्यासी के मन को शुद्ध करती है और उसे इस योग्य बना देती है कि वह जीवन का एकमात्र उच्चतम लक्ष्य प्राप्त कर सके अर्थात् अनन्त का साक्षात्कार कर सके। सहज मार्ग पद्धति की शक्ति के द्वारा ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने अभ्यासियों को अनन्त तक ले जाने के लिए दिव्य संकल्प लिया है।

जब से मैं ‘श्री बाबूजी महाराज’ के चरणों में आयी हूँ और साधना का अभ्यास भक्ति के साथ कर रही हूँ, मैंने अनुभव किया है कि यदि ध्यान के समय हम निष्ठापूर्वक ‘श्री बाबूजी महाराज’ को याद करते हैं, तो हमारे हृदय में प्राणाहुति लगातार प्रवाहित होती रहती है और धीरे-धीरे स्थायी भी हो जाती है। उसके बाद हमें उस प्राणाहुति का, जिसे हमने अपने हृदय में पाया है, केवल फैलाव करना रह जाता है।

धीरे-धीरे जब हमारा अस्तित्व (स्व) घुल जाता है, प्राणाहुति में हम डूब जाते हैं, और हृदय में ‘उनकी’ याद से हम पावन बन जाते हैं, हृदय में ‘उनकी’ उपस्थिति का लगातार अनुभव होने लगता है। मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को लिखा कि मैंने पहले अनुभव किया कि मेरी आत्मा अंतर में नृत्य कर रही है, दूसरा मेरा अन्तर दिव्यता का भण्डार बन गया है, और तीसरा यह कि यदि हम थोड़ा सतर्क रहें तो अपना बाह्य चरित्र और अपने व्यवहार को रूपान्तरित कर सकते हैं। उस दशा में जब हम बोलते हैं तो लगता है कि मैं नहीं बोल रही हूँ, बल्कि शब्द हृदय की उसी दशा से प्रवाहित हो रहे हैं। तब हम अनुभव करते हैं कि जिह्वा से प्राकृतिक मधुरता भी प्रवाहित हो रही है, क्योंकि हमारी पद्धति पूर्णतः दैवी है।

अपने व्यवहार में यह रूपान्तरण स्वभावतः प्रगति करता है और फैलता है तथा हमारे बाह्य व्यवहार में पवित्रता लाता है। बिना प्रयास के सभी दिखावटीपन धुल जाते हैं इस दशा को प्राप्त करने के बाद मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को लिखा कि “मुझे ऐसा लगता है कि मेरे सभी बाह्य व्यवहार ‘आपके’ द्वारा केवल संचालित ही नहीं होते बल्कि ‘आप’ भी इसमें भाग ले रहे हैं।“ क्या आप जानते हैं कि इसका प्रभाव क्या पड़ता है ? यह हमारे हृदय में दिव्य आकर्षण उत्पन्न करता है, जो अपना प्रतिबिम्ब दूसरों पर ऐसा छोड़ता है कि वे पूछने लगते हैं कि हम किस पद्धति का अनुसरण और अभ्यास करते हैं।

जो अभ्यासी नहीं हैं, उन्हें ऐसे प्रश्नों के उत्तर देते समय अपनी साधना पद्धति के मुख्य पहलुओं का वर्णन करना चाहिए, जिसे मैं यहाँ संक्षेप में लिख रही हूँ।

‘श्री बाबूजी महाराज’ ने कहा है कि सहज-मार्ग पद्धति की स्थापना इस सत्य पर की गई है कि ईश्वर सबके भीतर है और सबका हृदय उसके प्रकाश से प्रकाशित है। हमें इस कल्पना के साथ ध्यान प्रारम्भ करना है कि ईश्वरीय प्रकाश हमारे भीतर है, किन्तु ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने आगाह किया है कि ईश्वरीय प्रकाश देखना हमारा लक्ष्य नहीं है, बल्कि हमारा हृदय उस दिव्य ईश्वरीय प्रकाश में डूबा रहना चाहिए और इस अनुभव के साथ हमें ईश्वर को अपने हृदय में ढूँढ़ना है। इसके लिए तड़प को तीव्र करना होगा। ताकि हमारे और ईश्वर के बीच की दूरी पाटी जा सके। दोनों के बीच का अंतर कम करने से लक्ष्य की निकटता का अनुभव होता है, जो आगे चलकर ईश्वर से सम्बन्ध उत्पन्न करता है। हमारे अन्तर में ईश्वरीय प्रकाश का फैलाव स्वतः होने लगता है। जब इस अनुभव के बारे में मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को लिखा, उन्होंने उत्तर में कहा – “यह एक संकेत है कि ‘श्री लालाजी साहब’ के आशीर्वाद से तुम्हारा हृदय ईश्वरीय प्रकाश से पूरी तरह प्रकाशित हो गया है।“ मैंने उन्हें लिखा – “मुझे लगता है कि मेरा पूरा शरीर ही दिव्य शक्ति का श्रोत बन गया है और जिस ओर मैं देखती हूँ मुझे लगता है कि ईश्वरीय प्रकाश मेरे चारों ओर विद्यमान है।“ उसके बाद मैंने पाया कि ईश्वरीय प्रकाश, ईश्वरीय शक्ति में बदल गया है। इसलिए आप देख सकते हैं कि ईश्वरीय प्रकाश हमारी पद्धति में कितना महत्त्वपूर्ण है ? इसे शब्दों में कौन वर्णित कर सकता है ?

हमारी पद्धति का दूसरा महत्त्वपूर्ण पहलू है, जिसे हम प्रायः भूल जाते हैं, वह है ‘ध्यान का अर्थ’। यह धारणा तब स्पष्ट हुई, जब कुछ अभ्यासियों ने ‘श्री बाबूजी महाराज’ से शिकायत की, कि जब वे ध्यान में बैठते हैं, वे ठीक प्रकार से ध्यान नहीं कर सकते, क्योंकि लगातार विचारों का प्रवाह बाधा पहुँचाता रहता हैं। ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने कहा – “मैंने यह कभी नही कहा है कि ध्यान करो, बल्कि मैंने कहा है कि ईश्वर तुम्हारे हृदय में है और हृदय को प्रकाशित किये हुए है” की याद में रहो। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि ‘वे’ हमसे आशा करते हैं कि हम ध्यान करने के लिए अथवा व्यायाम करने की तरह नहीं बैठे, बल्कि ईश्वर की याद में लगातार रहें। ध्यान करने के बजाय अपने को हृदय में ईश्वर की उपस्थिति से सम्बन्धित रखें। मैं अपने अनुभव से बताती हूँ कि जब आप अपना ध्यान ‘श्री बाबूजी महाराज’ के व्यक्तित्व की ओर लगाते हैं और उनमें पूरी तरह डूबे रहते हैं, आपको कोई अन्य विचार नहीं आयेगा और आप अपने हृदय में स्थित रहेंगे। केवल इतना ही नहीं, सभी अनचाही वस्तुयें घुल जायेंगी और तब आप ‘श्री बाबूजी महाराज’ को लिखेंगे कि आप का अंग-अंग ईश्वरीय प्रकाश से प्रकाशित हो गया है।

एक दूसरा प्रभाव जो हम देखते हैं कि हमने ईश्वर के बारे में सैद्धान्तिक रूप में जो कुछ सुना, पढ़ा या कहा था, वो सब हम भूल जाते हैं, क्योंकि अब हमें ईश्वर की निकटता का अनुभव होने लगा है। हमारा हृदय भी पवित्रता से भर जाता है और इस प्रकार हम आत्म-साक्षात्कार की दशा प्राप्त कर लेते हैं।

सहज-मार्ग पद्धति का एक और दूसरा रहस्य, जो ध्यान में तैरने के समय मेरे सामने आया, वह यह था, कि जब हमारी याद ईश्वर में लय हो जाती है, तब हमें केवल ईश्वर दिखता है और अन्य सभी कुछ चाहे वह हमारा 'स्व' हो अथवा सृष्टि की सारी चीजें दृश्य से ओझल हो जाती हैं। जब आप अपना शरीर छूते हैं, तो आपको ईश्वरीय स्पर्श का अनुभव होता है। जब आप बाहर देखते हैं, चारों ओर ईश्वर ही ईश्वर का अनुभव होता है।

इसके बाद ध्यान में याद भी विलय हो जाती है और उसके बाद जो बचता है, वह केवल ईश्वरीय शक्ति रहती है। साक्षात्कार की तैयारी में यही उच्चतम दशा है। जब शक्ति का प्रवाह चारों ओर स्वतः होने लगा तब ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने मुझे लिखा कि सच कहा जाये तो यही वह दशा जिसके प्राप्त होने पर प्रिसेप्टर बनने की अनुमति दी जाती है। मिशन का कार्य करने के लिए ‘श्री बाबूजी महाराज’ सीमित शक्ति के केन्द्र से प्रिसेप्टर को जोड़ देते हैं, फिर भी उन्हें ईश्वरीय शक्ति को प्राप्त करना होता है।

हमारी पद्धति की एक खूबसूरती यह भी है कि इस उच्च दशा के साथ अभ्यासी के हृदय की आध्यात्मिक दशा को पढ़ने की शक्ति में भी उसकी प्रगति हो जाती है। यह मैं अपने अनुभव के आधार पर कह रही हूँ कि जब एक खास दशा में आप की यात्रा पूरी हो रही है, आप को उसके आगे की दशा की झलक मिलने लगती है। तब आप आसानी से यह जान सकते हैं कि वर्तमान दशा और उस दशा में जिसमें आप प्रवेश करने जा रहे हैं, क्या अंतर है। ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने प्रिसेप्टर लोगों के लिए कहा है कि अभ्यासियों की दशा पढ़ने के लिए कोई खास विधि नहीं है। उन्होंने कहा है कि “जब आपका हृदय पवित्र और बिलकुल साफ़ है, तो अभ्यासी के हृदय का प्रतिबिम्ब आपके सामने होगा और उसकी प्रगति की दशा जान सकेंगे।“

इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि हमारी पद्धति परिपूर्ण और व्यावहारिक है, क्योंकि इसकी सफलता के लिए इसमें सब कुछ निहित है। उच्चतम लक्ष्य की प्राप्ति में पूरा लाभ उठाने के लिए हमें इसमें केवल तल्लीनता की आवश्यकता है। जब आप ईमानदारी के साथ निष्ठापूर्वक पद्धति का अभ्यास करते हैं तो पद्धति के ‘दस नियमों’ का अनुसरण आप स्वतः ही करने लगते हैं। तब अभ्यासी को उस शक्ति में जहाँ से यह पद्धति धरती पर आयी है, लय अवस्था का आशीर्वाद मिल जाता है। उसके बाद ‘श्री बाबूजी महाराज’ अभ्यासी को अपने संकल्प में लेकर उसे केन्द्रीय क्षेत्र में तैराते हुए अनन्त तक ले जाते हैं।

संदेश - संत कस्तुरी
हमारा प्रियतम हमारा हृदय
विजयवाड़ा
28/3/2000
जैसा कि आप सब जानते हैं कि हमारी साधना पद्धति सूक्ष्म है और हृदय पर आधारित है। हम ध्यान इस कल्पना के साथ आरम्भ करते हैं कि ईश्वर हमारे भीतर है और उसके साक्षात्कार के लिए हमारे हृदय में प्राणाहुति मिलती है। तब दुविधा क्या है ? लक्ष्य और लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साधना का कार्य दोनों हृदय में है, तब रिक्तता कहाँ है ? एक पद्य है – “दिल में दिल का प्यारा है, मगर मिलता नहीं ?” यह पद्य कुछ प्रश्न पैदा करता है, जो इस प्रकार से है -

1)हमारे हृदय में कौन रहता है ?
2)हमारा हृदय किसे प्यार से रखता है ?
3)सम्बन्ध का वह कौन सा धागा है, जो हमारे हृदय को उसके साथ जोड़े रखता है ?
4)ऊपर के पद्य में हृदय की किस गहराई में दर्द छिपा है जो सतह पर आ जाता है और क्यों ? 

मैं नहीं जानती, किन्तु जब प्रश्न उठा है, तो आस-पास में इसका उत्तर अवश्य होगा। यह हमारा प्रियतम ईश्वर है, जो हमारे हृदय में है किन्तु हृदय और ईश्वर के बीच का रिश्ता ऐसा विचित्र है कि दोनों एक साथ रहते हैं किन्तु आपस में मिलते नहीं हैं। हृदय हमेशा पुकारता रहता है - “ऐ मेरे प्रियतम, तुम हमसे मिलते क्यों नहीं ?” कारण बहुत सीधा है। यद्यपि ईश्वर हृदय में रहता है, हृदय उसे याद रखना भूल गया है। केवल याद ही ऐसी कड़ी है जो हृदय में ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव देती है और हृदय तथा ईश्वर कों बाहरी आवरण से सुरक्षित रखती है। 

ईश्वर की याद की अनुपस्थिति के कारण दोनों में अन्तर बढ़ जाता है और एक प्रकार की बाधा हमारे और वास्तविकता के बीच आ जाती है। हमारा हृदय ऐसी संकटपूर्ण स्थिति में होता है कि एक ओर वह हृदय में ईश्वर की उपस्थिति भूल नहीं सकता और विरोधाभास में उससे दूरी की भी चेतना रहती है इसलिए दर्द का अनुभव बेचैन कर देता है। मानव प्राणी के हृदय की यही तीव्र तड़प तथा कामना ने प्रकृति को स्पर्श किया और ‘श्री बाबूजी महाराज’ के अवतरण का कारण बनी, जिन्होंने मानव समाज के भाग्य को रूपान्तरित कर उसे जीवन के उच्चतम लक्ष्य को प्राप्त करने के योग्य बनाया। ‘वे’ अपनी दिव्य दृष्टि से सभी अभ्यासियों की देख-रेख करते रहते हैं।

साधना के अभ्यास में जब हम प्रगति करते हैं, हमारी याद उनकी ओर आकर्षण को बढ़ाती है और धीरे-धीरे यह हमारे हृदय में स्थित हो जाती है। जानते हैं, ऐसा क्यों ? क्यों कि अब हम ईश्वर की उपस्थिति को अपने हृदय में अनुभव करने लगे हैं, जो हमारे हृदय में है और उसमे भक्ति की पुष्टि भी करने लगे हैं। तब हमारी याद अपने ‘स्व’ को भूलने लगती है और हम स्वतः भूलने की स्थिति में रहने लगते हैं। 

‘श्री बाबूजी महाराज’ ने कहा है कि बिना भूलने की दशा प्राप्त किये अभ्यासियों के लिए दिव्यता का द्वार नहीं खुलता। भूलने की अवस्था में ही अभ्यासी ईश्वरीय क्षेत्र में प्रवेश करता है और वह वास्तविकता ढूंढने लगता है। एक और आश्चर्यजनक बात मैंने देखी है कि खोज में आन्तरिक दृष्टि प्रियतम के साक्षात्कार के लिए बेचैन हो जाती है। साक्षात्कार के लिए यह तीव्र तड़प हमारे दिमाग, हृदय और जीवन से सारी बाहरी एवं सांसारिक प्रसन्नताओं को धो देती है। ऐसा लगता है कि ईश्वरीय प्रकाश हृदय में चारों ओर फैल गया है, जिसे ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने हमें स्थिर रखने के लिए कहा था। वही ईश्वरीय प्रकाश अब हमारे शरीर के कण-कण में अनुभव होने लगता है, जैसे यह संकेत हो कि हमारा प्रियतम हमारे हृदय में है और हमारी तड़प उन तक पहुंच रही है। दिन पर दिन हमारे हृदय की दशा बदलने लगती है क्योंकि हमें पता चल गया है कि हम कितना उनके निकट हो गये हमारे सामने एक और पंक्ति आती है कि “आँख का तारा है, पर मिलता नहीं है”, अर्थात् हमारा प्रियतम हमारी आँखों में है, किन्तु हमें मिलता नहीं। यह सत्य है कि आँख स्वयं को नहीं देख सकती। किन्तु ऐसी दशा प्राप्त कर लेने के बाद यह संभव है कि हमारी आँखें स्वयं को देख सकें। आप जानते हैं क्यों ? क्योंकि यदि ईश्वर स्वयं हमारी आँखों में समा जाता है, तब हम चाहे बाहर देखें या भीतर, चारों ओर हमें केवल ईश्वरीय वैभव ही दिखाई पड़ता है। शायद ऐसी ही दशा प्राप्त करने के बाद कवि का हृदय कहता है, “मेरा प्रियतम मेरी आँखों में है और मैं देख सकता हूँ।“ ऐसी ही आध्यात्मिक दशा प्राप्त करने के बाद मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को लिखा कि ‘आपके’ साक्षात्कार से मेरे शरीर का कण-कण आँख बन गया है। इस समय, यद्यपि वास्तविक साक्षात्कार अभी नहीं है, किन्तु ‘उनके’ पास हमारी समीपता इतनी गहरी हो जाती है कि इसे लय-अवस्था की दशा कहा जा सकता है तब मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को लिखा था – “जहाँ-जहाँ मैं देखती हूँ वहाँ आपको ही पाती हूँ।“ दूसरे शब्दों में सिवाय ईश्वर के मैं कोई और चीज नहीं देख सकती। वास्तविकता यह है कि अब हम सहज-मार्ग के लक्ष्य पर पहुँच गये हैं अर्थात् अनन्त के साक्षात्कार तक। तब हमारी रहनी ईश्वरीय क्षेत्र में गहरी हो जाती है और ऐसी ही दशा का प्रतिबिम्ब ईश्वरीय प्रकाश के द्वारा हमारे शरीर के हर कण पर पड़ता है। तब हमें अन्तिम रूप में वह दशा प्राप्त हो जाती है, जब हम कहते हैं – “हमारा प्रियतम हमारे हृदय में है और हम उससे मिल भी सकते हैं।“

जब आध्यात्मिक दशा में यह सत्य हमारे सामने आता है, तब यह सत्य भी प्रकट होता है कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने हमें साक्षात्कार की दशा का आशीर्वाद दे दिया है और हम खुशी से कहते हैं – “हमारा प्रियतम हमारी आँखों के सामने है और उसे देख भी सकते हैं।“ ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि तब हमारी आँखों के सामने ईश्वरीय वैभव के अतिरिक्त कुछ नहीं होता। ऐसा प्रतीत होता है कि हमारा प्रियतम केवल हमारी आँखों के सामने ही नहीं है, बल्कि सर्वव्यापी हो गया है।

‘श्री बाबूजी महाराज’ हमारे लिए कैसा अनूठा दैवी वातावरण लाये हैं। यह हमारे लिए वास्तविकता बन गई है। ‘श्री बाबूजी महाराज’ हमें इतना प्यार करते हैं कि यदि हम एक कदम आगे बढ़ते हैं तो ‘वे’ हमें अपने हृदय में अपने संकल्प में लेने के लिए दस नहीं बल्कि सौ कदम आगे बढ़ते हैं। 
संदेश - संत कस्तुरी
प्रेम व्याख्या के परे
विजयवाड़ा
25/3/2001
‘प्रेम’ के दो अर्थ होते हैं, भौतिक और दैवी। भौतिक रूप में यह सीमित होता है, किन्तु दैवी रूप में यह अनन्त है, क्योंकि ईश्वरत्व अनन्त है। 

‘श्री बाबूजी महाराज’ ने कहा है – “प्रेम एक ऐसा सत्य है, कि इसका अर्थ न तो शब्दों में वर्णन किया जा सकता है और न मानव-मन को समझाया जा सकता है।“ फिर भी, जैसा आप सब लोग जानते हैं, कि यही एक साधन है जिससे ईश्वर और अनन्त का साक्षात्कार किया जा सकता है। ‘श्री बाबूजी महाराज’ का यह कथन सारे मानव समाज के लिए ‘उनकी’ विनीत भावना का एक प्रमाण भी है। मानव समाज के लिए ‘उनकी’ इस विनीत भावना और प्रेम की समानता अवतारों से नहीं की जा सकती। अवतारों के लिए केवल इतना कहा गया है कि वे केवल उन्हें समर्पित होते हैं, जो ‘उनसे’ प्रेम करते हैं। केवल उनके भक्त ही ‘उनका’ दर्शन कर सकते हैं। कहा जाता है कि जब भक्त दो कदम आगे बढ़ते हैं तब अवतार लोग दस कदम उनकी ओर बढ़ते हैं। दूसरी ओर, ‘श्री बाबूजी महाराज’ अपनी प्राणाहुति द्वारा अभ्यासियों को आध्यात्मिक उन्नति कराते हुए उन्हें इस योग्य बनाते हैं कि अभ्यासी दो कदम ‘उनकी’ ओर बढ़े।

  ‘श्री बाबूजी महाराज’ सहज मार्ग पद्धति लाये हैं, जिससे हम जागरूक होकर इस तथ्य को जान पाये हैं कि ईश्वर हमारे हृदय में है। ‘वे’ प्राणाहुति शक्ति को हमारे हृदय में प्रवाहित कर हमें ईश्वर के निकट होने के लिए जागरूक करते हैं तथा ईश्वर-साक्षात्कार के लिए शक्ति का हमें आशीर्वाद भी देते हैं। यह केवल ‘उनका’ अनुग्रह है जिसने सारे मानव समाज को दैवी वातावरण दिया है। यह मानव समाज के लिए ‘उनके’ प्रेम का संकेत है।

  मानव समाज के लिए ‘उनका’ रहस्य तथा ‘उनके’ प्रेम की गहराई का ज्ञान किसी को नहीं हो सकता, इसलिए कि यह किसी की मानसिक पहुँच के परे है और कोई अनन्त की झलक नहीं पा सका । अब तक मैं यही समझ सकी कि ‘उनकी’ साधना से भक्त अपने को ईश्वर के द्वार पर खड़ा पा सकता है और ईश्वर का दर्शन भी कर सकता है। किन्तु, किसी ऐसे साधन का आविष्कार नहीं किया जा सका, जिससे यह द्वार पार किया जा सके और ईश्वरीय क्षेत्र में प्रवेश किया जा सके। 

आज मैं अपने आध्यात्मिक अनुभव के आधार पर कह सकती हूँ कि ‘श्री लालाजी साहब’ की अनन्त से प्रार्थना के फलस्वरूप जब से ‘श्री बाबूजी महाराज’ का अवतरण हुआ है, ‘श्री बाबूजी महाराज’ की दिव्य शक्ति के प्रवाह से सहज मार्ग का आशीर्वाद मिला है, जो चारों ओर सृष्टि में फैल रहा है।

  जब तक ‘श्री बाबूजी महाराज’ का अवतरण नहीं हुआ था हमने केवल पढ़ा था कि भक्त ईश्वर की याद में डूबकर और भूलने की अवस्था में रहकर ईश्वर साक्षात्कार के योग्य अपने को बना सकता था, किन्तु अब ‘श्री बाबूजी महाराज’ अभ्यासियों को उच्च आध्यात्मिक दशा के लिए तैयार करते हैं।

  ‘श्री बाबूजी महाराज’ के साथ साधना के अभ्यास के समय अपने पत्र-व्यवहार का एक उदाहरण मैं दे रही हूँ। मैंने उन्हें लिखा कि मैं उन्हें बहुत याद करती हूँ, ‘उनका’ उत्तर था – “बिटिया ! यदि मेरी याद आती है तो यह लौट कर वापिस भी जाती होगी। मैं भी इन दिनों तुम्हें बहुत याद करता हूँ।“ कुछ दिनों के बाद मैंने उन्हें फिर लिखा – “जिस क्षण मैं ‘आपको’ याद करती हूँ, मुझे ऐसा लगता है कि शाहजहाँपुर में मैं आपके सामने हूँ।“ ‘उनका’ उत्तर उसी दिन आया, “बिटिया ! मैं इन दिनों अपने को मोदी नगर में पाता हूँ।“ उन दिनों मैं मोदी नगर में रहती थी। केवल इतना ही नहीं जब मैंने उन्हें अपनी दशा लिखी कि पिछले तीन दिनों से मैं कंघी नहीं कर सकी, क्योंकि जब मैं आईने के सामने खड़ी होती थी, मैं उसमें ‘उनकी’ सूरत देखती थी। उसी दिन अपने उत्तर में उन्होंने लिखा – “मैं भी तीन दिनों से दाढ़ी नहीं बना सका, क्योंकि मुझे भी आईने में तुम्हारी सूरत दिखाई देती थी।“

  अब ‘उनके’ प्रेम की पराकाष्ठा देखिये कि ‘उनका’ प्रेम अभ्यासियों को आध्यात्मिक उन्नति के लिए किस प्रकार तैयार कर रहा है, जो पहले कभी नहीं हुआ।

  आप से यह सब कहने का मेरा तात्पर्य यही है कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ हम लोगों को अपने विचारों में लय कर लेते हैं और एक माँ की तरह अपने हृदय में रख लेते हैं। यही दैवी ‘प्रेम’ है, जो सर्वोत्तम श्रेणी का है, यह हमें ‘प्रेम’ और दिव्यता के सागर में विलय कर देता है।

  इससे भी एक कदम आगे मैंने देखा है कि ईश्वर-साक्षात्कार के बाद यदि अभ्यासी सत्य पद पर पहुँचने के योग्य नहीं है, तब ‘श्री बाबूजी महाराज’ अपने संकल्प के भीतर, ईश्वरीय क्षेत्र के केन्द्र में उसे डुबकी दे कर सत्य पद पर स्थापित कर देते हैं। सत्य पद केन्द्रीय क्षेत्र का द्वार है।

  अब तक ऐसा कोई भी दैवी पुरुष धरती पर अवतरित नहीं हुआ है, जिसने समस्त मानव जाति के लिए दैवी ‘प्रेम’ को फैलाया है और उच्चतम दिव्य दशा को आशीर्वाद देकर अनन्त के श्रोत में प्रवेश दिया है। ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने कहा है कि अभ्यासियों के लिए लय अवस्था आवश्यक है, क्योंकि लय अवस्था के बिना दैवी प्रेम का रहस्य कोई नहीं जान सकता जो समस्त मानव समाज के लिए फैल रहा है। अभ्यासियों में परिपूर्णता और दृढ़ता, साधना में उसकी तल्लीनता पर निर्भर करती है। 

‘श्री बाबूजी महाराज’ की शिक्षा से मैंने यह भी सीखा है कि उनकी शिक्षा का केवल अर्थ मत समझो बल्कि उसे पढ़ो और अभ्यास में लाओ। ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने कहा है – “सांसारिक जीवन मानवी लगाव पर आधारित है।“ यह स्वाभाविक है कि ‘प्रेम’ ईश्वर से मिलता है। प्रेम के द्वारा ही भक्त उसकी शक्ति में डूबता है और प्रगति करता है। यह दैवी प्रेम अनन्त है क्योंकि ईश्वर अनन्त है। यह वह सत्य है जिसे शब्दों में वर्णित नहीं किया जा सकता। मैंने अपने एक गीत में लिखा है – “सागर की गहराई नापी जा सकती है, किन्तु ‘उनके’ दिव्य प्रेम की गहराई कदापि नहीं नापी जा सकती।“

  सहज मार्ग साधना का प्रारम्भ हृदय में ईश्वरीय लगाव से होता है और जब अभ्यासी उसमें तल्लीनता प्राप्त कर लेता है, तभी वह दैवी प्रेम के भीतर रहना प्रारम्भ करता है।
संदेश - संत कस्तुरी
सहज-मार्ग प्रार्थना
विजयवाड़ा
26/3/2001
मैं आप लोगों को अपनी प्रार्थना का अर्थ और उसका महत्व बताना चाहती हूँ। आप सभी लोग जानते हैं कि हमारी प्रार्थना ऊपर से उतरी है। इसमें चार पंक्तियाँ हैं और प्रत्येक पंक्ति ‘श्री बाबूजी महाराज’ की दिव्य शक्ति से भरपूर है। यह ‘उनकी’ कृपा है कि आज मैं इसके महत्व को बता रही हूँ, ताकि जब आप प्रार्थना करें तो भक्ति, समर्पण और इसकी सही व्याख्या साथ में हों और इसे हल्के में न लें। 

हर दशा, जिसमें इस प्रार्थना की प्रत्येक पंक्ति लिखी गई थी, मेरी दृष्टि में है और इसलिए जो कुछ भी कहा या लिखा जाये, जो दिव्य शक्ति से संरक्षित है, स्वभावत: वातावरण में फैलेगा और अभ्यासी लोग भी इससे प्राप्त समुचित अनुभव की प्रशंसा करेंगे। प्रार्थना की पहली पंक्ति हमें बताती है कि जीवन का वास्तविक लक्ष्य वही है, जो ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने हमें बताया है कि हम लगातार ईश्वर की याद में रहें। शेष पंक्तियाँ उन सहायक दशाओं का वर्णन करती हैं, जो ईश्वर–साक्षात्कार के पूर्व अभ्यासियों को मिलते हैं। इन सभी दशाओं का एक-एक कर अनुभव तब होता है जब आप ‘श्री बाबूजी महाराज’ की प्राणाहुति में डूबे रहते हैं। जैसा आप सभी लोग जानते हैं कि हमारी सहज-मार्ग पद्धति के अन्तर्गत हम ध्यान इस अनुभव के साथ आरम्भ करते हैं कि ईश्वर हमारे हृदय में है और वह हमारे हृदय को प्रकाशित किये हुए है। ‘श्री बाबूजी महाराज’ की उपस्थिति की याद का अभ्यास लक्ष्य की प्राप्ति में हमारी तड़प को तीव्र करता है और यही हमारी साधना है। तब हम प्रार्थना की पहली पंक्ति में डूबने की दशा पाते हैं, अर्थात् हे नाथ ! तू ही मनुष्य जीवन का ध्येय है। इस प्रकार ध्यान में डूबे रहने से हमारी अन्तर्दृष्टि ‘श्री बाबूजी महाराज’ में स्थिर हो जाती है। तब हम वास्तविक साधना में प्रवेश पाते हैं। 

जब हमारी अन्तर्दृष्टि ‘श्री बाबूजी महाराज’ में लय हो जाती है तब हम उस बन्धन से छुटकारा पा जाते हैं, जो प्रार्थना की दूसरी पंक्ति में है अर्थात “हमारी इच्छायें हमारी उन्नति में बाधक हैं।“ अब हम अनुभव करते हैं कि हमारा ईश्वर साक्षात्कार का संकल्प जो हमारे हृदय में कहीं निष्क्रिय था, जागृत हो जाता है और उसका फैलाव हो जाता है। यह अनुभव हमेशा रहने लगता है तथा हृदय में या बाहर कोई इच्छा नहीं रह जाती। इसके बाद अभ्यासी को उस दशा का आशीर्वाद मिलता है जो प्रार्थना की दूसरी पंक्ति में संरक्षित है। वास्तव में ये दशायें अभ्यासी को तब मिलती हैं, जब वह पूरी तरह प्रार्थना के भाव में रहता है।

  ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने कहा है – “ईश्वरीय प्रकाश में डूबे रहो।“ ऐसी कोशिश करने से मैंने अनुभव किया है कि यह दशा हृदय में बढ़ने लगती है। ईश्वरीय प्रकाश पुंज अंग-अंग को स्वतः प्रकाशित कर देता है और एक दिन आता है जब हम एक सच्ची साधक बन जाते हैं। दूसरे शब्दों में साक्षात्कार की दशा का आशीर्वाद पाने के लिए हृदय बेचैन हो जाता है।

  जैसा मैंने ऊपर कहा है कि जब अन्तर की आँख ‘श्री बाबूजी महाराज’ पर स्थिर हो जाती है, तब प्रार्थना की तीसरी पंक्ति की दशा के फलस्वरूप हमें अनुभव होता है कि ‘वे’ हमारा जीवन बन गये हैं अर्थात् “तू ही हमारा एकमात्र स्वामी और इष्ट है।“ यह दशा धीरे-धीरे अंतर में स्थिर हो जाती है और उनके प्रेम में लय होने लगती है। तब ‘श्री बाबूजी महाराज’ हमारी आत्मा से भी अधिक प्रिय हो जाते हैं और हमारा हृदय ‘उनके’ प्रति विनीत हो जाता है। यह दशा ‘श्री बाबूजी महाराज’ के इस कथन का प्रमाण है कि “सहज-मार्ग पद्धति की आत्मा बन्धुत्व का अनुभव है।“ इतनी आध्यात्मिक उन्नति के बाद अभ्यासी कह सकता है “मुझे दिव्यता का स्पर्श मिलने लगा है।“ जब अभ्यासी की अन्तर्दृष्टि ‘श्री बाबूजी महाराज’ के दिव्य सौन्दर्य पर स्थिर हो जाती है तब प्रार्थना की चौथी और अन्तिम पंक्ति की वास्तविकता भी हमारे सामने खुल जाती है कि “बिना तेरी सहायता तेरी प्राप्ति असम्भव है।“

  जब मुझे ‘श्री बाबूजी महाराज’ से साक्षात्कार की दशा का आशीर्वाद मिला था, तब यह वास्तविकता भी उजागर हुई कि हमारी पद्धति की प्रार्थना दिव्यता से संरक्षित है। प्रार्थना के सभी शब्द भूल जाने के बाद मुझे ऐसा लगा कि मेरा हृदय ‘उनके’ निवेदन की दशा में डूबा हुआ है।

  ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने मुझे लिखा कि “तुम्हें प्रार्थना करने की आवश्यकता नहीं है।“ सहज-मार्ग पद्धति के अन्तर्गत आध्यात्मिकता का प्रथम स्तर जब पूरा हो जाता है, तब यह दशा मिलती है। तब मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को लिखा था – “मुझे अनुभव होता है कि अब ‘आपकी’ कस्तूरी को इस दशा का आशीर्वाद मिल गया है कि वह सदा आपके अनुग्रह में डूबी रहे और आपके चरणों में पड़ी रहे।“ मैं यहाँ कह सकती हूँ कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ अभ्यासियों के आगे बढ़ने के मार्ग में आयी सभी बाधाओं को दूर करते हुए ऊँची दशा के लिए उनकी यात्रा में हर प्रकार सुविधा देते हैं और इस प्रकार अभ्यासियों की आध्यात्मिक यात्रा सहज हो जाती है।

  शायद इसी कारण अपनी आध्यात्मिक यात्रा में मैंने कभी थकावट अथवा बाधाओं का सामना नहीं किया। निःस्वार्थ सेवा देने के लिए ‘उनका’ निमंत्रण केवल मेरे लिए ही नहीं था, बल्कि सारे अभ्यासियों के लिए भी था और यह मानव समाज के लिए ‘उनके’ प्रेम का दूसरा संकेत है। मैंने अनुभव किया है कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ को समर्पित होने के लिए हमें कम से कम समय लेना चाहिए। यह हमारे हृदय में आध्यात्मिक दशा के प्राकृतिक प्रवाह को सहज करेगा। ‘श्री बाबूजी महाराज’ का कथन है कि अभ्यासी को ढूँढ़ने और मेरे सामने लाने में भले ही समय लगे, किन्तु, उसे आध्यात्मिक दशा का आशीर्वाद देना मेरे बाँयें हाथ का काम है अर्थात् बहुत सरल है। जब भाग्यवश आपकी पहुँच मूल श्रोत तक एक बार हो जाती है, तब सारा आध्यात्मिक ख़जाना आपका हो जाता है। 

आप सब निम्नलिखित बातों पर तनिक चिंतन करें:-
  1.क्या किसी को ‘श्री बाबूजी महाराज’ के अवतरण से पूर्व केन्द्रीय-क्षेत्र का ज्ञान था ?
  2.क्या कभी कोई ऐसे दिव्य पुरुष का अवतरण हुआ है, जिसका संकल्प सारे मानव समाज को अनन्त तक ले जाने का था ?
  3.क्या कभी किसी आध्यात्मिक महामानव का इस धरती पर अवतरण हुआ है जिसने मनुष्य को अपनी प्राणाहुति शक्ति द्वारा ज़मीन से उठाकर अनन्त तक पहुँचा दिया हो ?

‘उन्होंने’ व्यावहारिक रूप में करके दिखा दिया है कि अनन्त की शक्ति पर ‘उनका’ पूरा प्रभुत्व है। शायद यही कारण है कि ध्यान में बैठने से हमें प्राणाहुति का प्रवाह मिलता है और ‘उनमें’ लय रहकर हम अपना सांसारिक कार्य भी करते रहते हैं। हमारी सहायता के लिए 'उन्होंने' चार पंक्तियों की प्रार्थना दी है, जो दिव्य शक्ति और दिव्य दशा से संरक्षित है ‘उन्होंने’ कहा है कि हम इसमें डूबे रहें ताकि हमारा हृदय उस चीज़ की आकांक्षा कर सके, जो ‘श्री बाबूजी महाराज’ हममें उड़ेलना चाहते हैं अथवा जो हमें सिखाना चाहते हैं। 

हमारी साधना की प्रार्थना के महत्व का मूल्य कौन लगा सकता है, जब तक ‘वे’ स्वयं किसी को इस योग्यता का आशीर्वाद न दें कि वह बारी-बारी से सभी स्तरों की दशाओं को अनुभव करे। ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने कहा है – “मानव समाज के लिए मैं जो कुछ भी लाया हूँ, मेरे जीवन काल में समाप्त नहीं हो सकता। बची हुई शक्ति लोगों के लाभ के लिए वातावरण में फैला दी जायेगी।“ जब अभ्यासी सहज मार्ग के अन्तर्गत आता है और लय अवस्था में डूब कर प्रगति करता है उसे दिव्यता का अपना पूरा हिस्सा मिल जाता है। ‘श्री बाबूजी महाराज’ का यह कथन अब वास्तविकता के रूप में मेरे समक्ष आ रहा है। अन्त में, मेरे लेख और प्रवचन, जो मुझे ‘श्री बाबूजी महाराज’ से आशीर्वाद के रूप में मिले हैं, इस अनूठे सत्य के साथ, सारी दुनिया को प्रकाशित करें।
संदेश - संत कस्तुरी
हमारा मिशन
विजयवाड़ा
12/3/2002
पहले यह समझ लें कि शब्द ‘मिशन’ का अर्थ क्या है ? क्या यह एक संगठन है अथवा एक संकल्प है, जिससे जीवन का अन्तिम लक्ष्य प्राप्त किया जा सके। दूसरे विचार के सन्दर्भ में जब हम शाहजहाँपुर के ‘श्री रामचन्द्र मिशन’ को देखते हैं, तो हमें यह पता चलता है कि इसकी स्थापना दैवी संकल्प पर की गई है। हमारे मिशन का इतिहास बताता है कि यह दैवी कार्य प्रकृति की इच्छा से दिव्यात्मा ‘श्री मौलवी साहब’ को सौंपा गया था, किन्तु प्रकृति के इस कार्य को पूरा करने में अपने को असमर्थ पाकर, उन्होंने इस कार्य को अपने योग्य शिष्य ‘श्री लालाजी साहब’ को सौंप दिया। कहा जाता है कि प्रकृति किसी ऐसे व्यक्ति को धरती पर अवतरित कराती है, जो दैवी कार्य को पूरा करने के योग्य हो और वह व्यक्ति ‘श्री लालाजी साहब’ थे।

  'श्री लालाजी साहब' ने ईश्वरीय कार्य करने का संकल्प लिया और तब इस रहस्य का भी पता चला कि वह ईश्वरीय कार्य क्या था? ‘श्री लालाजी साहब’ का दैवी कार्य केवल यही था कि वे दिव्य शक्ति से भरपूर एक विशिष्ट व्यक्ति को धरती पर अवतरित करायें। दिव्य संकल्प का अभिप्राय यही था कि मानव प्राणियों में सुषुप्त दिव्य शक्ति को जागृत किया जाये और उसके बाद ईश्वर को भूले हुए तथा दिव्य मार्ग से भटके हुए मानव समाज को पुनः जाग्रत किया जाये। मानव समाज ने ईश्वर से केवल दूरी ही नहीं बना ली थी, बल्कि भौतिक फैलाव के अंधकार में अपने को समेट लिया था और भौतिक जीवन में इतना व्यस्त हो गया था कि लोगों ने ईश्वर को कभी याद ही नहीं किया। 

‘श्री लालाजी साहब’ जो दिव्य शक्ति से विभूषित थे, ने प्रार्थना की कि अनन्त से विशिष्ट व्यक्ति का अवतरण हो और उनकी प्रार्थना केवल सात महीनों की अथक साधना से सुन ली गई। शाहजहाँपुर के ‘श्री रामचन्द्र जी महाराज’ के धरती पर अवतरण से मानव समाज धन्य हो गया। दिव्य संकल्प पूरा होने पर ‘श्री लालाजी साहब’ को दिव्य युग का आध्यामिक महामानव कहा गया। 

‘श्री बाबूजी महाराज’ ने न केवल ईश्वर साक्षात्कार, बल्कि अनन्त का साक्षात्कार भी, मानव प्राणी के लिए जीवन का सर्वोत्तम लक्ष्य निर्धारित किया। आप समझ गये होंगे कि हमारे मिशन की स्थापना अन्तिम सत्य के संकल्प के साथ की गई है, इसलिए अभ्यासी लोग दिव्य-शक्ति के प्रवाह में लगातार डूबे रहते हैं। उनके हृदय में दिव्य प्राणाहुति जीवन को पवित्र एवं तेजस्वी बनाती है। मैंने हमेशा अनुभव किया है और अभ्यासियों से कहती आ रही हूँ कि ‘श्री रामचन्द्र मिशन’ एक साधारण संगठन नहीं है, बल्कि दिव्य संकल्प का साकार रूप है जो जीवन के उच्चतम लक्ष्य, अनन्त के साक्षात्कार की प्राप्ति के लिये है। ‘श्री बाबूजी महाराज’ अपनी प्राणाहुति द्वारा अभ्यासियों के हृदय को पवित्र करते हैं और साक्षात्कार के मार्ग में आयी सारी बाधाओं को दूर करते हैं और इस प्रकार हमें उन्नति करने का अवसर देते हैं। मैंने अपनी साधना में एक और बात देखी है कि जैसे-जैसे साक्षात्कार के लिए हमारी तड़प बढ़ती है, हमारा हृदय वास्तविकता के प्रेम से भरने लगता है।

  अध्यात्म के क्षेत्र में एक कहावत है – “जहाँ चाह, वहाँ राह।“ जो श्री बाबूजी महाराज के संकल्प के लिए बिल्कुल सत्य है। अनुभव और तीव्र तड़प का प्रभाव यह पड़ता है कि हमारा ध्यान बाहरी दुनिया में विचरने के बजाय हमारे हृदय की ओर मुड़ जाता है और वहाँ स्थित हो जाता है। दूसरा, साक्षात्कार के लिए हमारी तड़प सतत् स्मरण में रूपान्तरित हो जाती है, जो ईश्वर से सम्बन्ध को हमारे हृदय में स्थापित कर देती है। ईश्वर के साथ हमारा आन्तरिक सम्बन्ध हमें बहिर्मुखी से अन्तर्मुखी बना देता है, और हम ‘श्री बाबूजी महाराज’ को अपने से अधिक प्यार करने लगते हैं।

  हमारा हृदय जहाँ ईश्वर की उपस्थिति अनुभव नहीं हो रही थी, अब ईश्वर के लिए लालायित हो उठता है। दूसरे शब्दों में अहम् का अनुभव ईश्वर के प्यार और उसकी उपस्थिति में परिवर्तित हो जाता है। धीरे - धीरे समय आने पर ईश्वर के लिए प्रेम, बन्धुत्व के अनुभव में प्रगति कर जाता है और यह अभ्यासी के चरित्र में झलकने लगता है। अभ्यासी के इस व्यवहार से अभ्यासी का अहम् ईश्वर में घुलने लगता है। अब हम अपने सांसारिक कर्त्तव्य को स्वतः प्राकृतिक और सहज रूप में करने लगते हैं, बिना यह सोचे कि हम इसके कर्ता हैं। ऐसी आन्तरिक दशा प्राप्त करने के बाद हम ‘श्री बाबूजी महाराज’ के प्रति कृतज्ञता अनुभव करने लगते हैं।

  हमारे ‘श्री रामचन्द्र मिशन’ के बारे में कौन बोल सकता है ? कोई बोल सकता है तो केवल इतना ही कि यह एक दैवी संकल्प है, जिसका नाम ‘श्री रामचन्द्र जी’ के नाम पर रखा गया है, जो ‘श्री बाबूजी महाराज’ के महान् संकल्प को पूरा करता है। ‘वे’ सम्पूर्ण वातावरण, मानव मन और उनके हृदय को शुद्ध कर रहा है और मेरा विश्वास है ‘उनका’ संकल्प अवश्य ही पूरा होगा। 

इस संदर्भ में आज मेरा आप लोगों से विनम्र निवेदन है कि मिशन से जुड़ने के बाद केवल पूजा की तीन सिटिंग लेने या देने से ही हमारी ज़िम्मेदारी समाप्त नहीं हो जाती, जब तक हम अपने हृदय में तीव्र तडप पैदा करने में सफल नहीं हो जाते इस दृढ़ता के साथ कि हम जीवन के उच्चतम लक्ष्य को प्राप्त कर लेंगे। दूसरे शब्दों में जब तक यह आपका संकल्प नहीं जो जाता कि आप ईश्वर-साक्षात्कार करें, ‘उनके’ मिशन का संकल्प पूरा नहीं होगा। 

सच कहा जाये, तो सहज मार्ग के अंतर्गत दैवी यात्रा तब आरम्भ होती है, जब तक ईश्वर साक्षात्कार के लिए आप दृढ़ नहीं हो जाते हैं। संक्षेप में मैं कह सकती हूँ कि दैवी सौन्दर्य को कोई नहीं समझ सकता, जब तक वह इसमें लय नहीं हो जाता है। ‘श्री बाबूजी महाराज’ से मेरा नम्र निवेदन है कि आप लोगों के हृदय में तड़प पैदा हो और यह दृढ़ता हो कि आप अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें । उर्दू के एक शायर ने निम्नलिखित पंक्तियाँ लिखी हैं :

  “हज़ारों साल नरगिस, अपनी बे-नूरी पर रोती है, बड़ी मुश्किल से होता है, चमन में दीदा-वर पैदा।“

अर्थात् नरगिस (एक फूल) अपनी कुरूपता पर हजारों वर्षों से रो रही है और अत्यंत कठिन संघर्ष के बाद एक महान, लोक-कल्याण की भावना के साथ एक दैवी पुरुष पैदा होता है। यह वर्तमान युग ‘श्री बाबूजी महाराज’ का दैवीय युग है, जो मानव समाज को अनन्त तक ले जायेगा।
संदेश - संत कस्तुरी
सहज-मार्ग में फैलाव
विजयवाड़ा
15/3/2002
आध्यात्मिक साहित्य में ‘फैलाव की दशा’ का वर्णन मैंने कहीं नहीं पाया। ‘श्री बाबूजी महाराज’ को अपनी आध्यात्मिक दशा लिखते समय मैंने दशा के फैलाव के बारे में कई बार लिखा, किन्तु, बिना इसका अर्थ जाने।

  सत्य यह है कि हृदय की आध्यात्मिक दशा का अनुभव हमारे हृदय में ही रहता है और बाहर केवल ‘स्व’ के फैलाव का अनुभव होता है, जिसका वर्णन करना सरल है। आज इसे शब्दों में वर्णन करना ‘श्री बाबूजी महाराज’ के आशीर्वाद से संभव है। अभ्यासियों का एक साधारण प्रश्न होता है कि वे उस प्रकार का ध्यान करने में असमर्थ हैं, जैसा उनसे आशा की जाती है। इसका कारण केवल इतना है, जो मैं समझ सकती हूँ कि वे अनन्त के साक्षात्कार के लक्ष्य पर एकाग्रचित होने में असमर्थ हैं। आप जानते हैं कि ऐसा क्यों होता है ? ऐसा इसलिए होता है कि उनका ध्यान बाहरी दुनिया की ओर मुड़ जाता है और वे उसी में व्यस्त हो जाते हैं। एक अभ्यासी की भाँति आपको कोशिश करनी चाहिए कि अपना ध्यान बाहर की दुनिया से खींचकर अपने हृदय पर लक्ष्य की ओर लगायें, क्योंकि ईश्वर आप के हृदय में है। 

जब हमारी साधना का अभ्यास ईश्वरीय प्रकाश में स्थिर होने लगता है, हम ईश्वर के सामीप्य का अनुभव करने लगते हैं और यह अनुभव हमें हृदय में खुशी देता है। आप जानते हैं क्यों ? क्योंकि कहा जाता है कि ईश्वर हृदय की खुशी का साकार रूप है और ऐसी दशा प्राप्त कर लेने के बाद ऊपर लिखे कथन की सच्चाई सामने आ जाती है। इसके फलस्वरूप से आपकी सामीप्यता, सेंक के साथ आपके हृदय पर आपका ध्यान सदा के लिए स्थिर कर देता है। हमारे विचारों को जितना ईश्वरीय सेंक मिलता जाता है, हम भौतिकता से उतना ही दूर होते जाते हैं। जब मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को अपने हृदय के पिघलने के बारे में लिखा कि यह कुछ नहीं था, बल्कि उस तत्व का घुलना था जिसमें मैं-पना भी मौजूद था। पहले ध्यान करते समय यह अनुभव होता था कि ध्यान लक्ष्य पर केन्द्रित नहीं हो रहा है, अब अनुभव होता है कि ईश्वर से हृदय की सामीप्यता के कारण ध्यान नियंत्रण में रहता है और बाहरी दुनिया की ओर नहीं जाता। समय आने पर ‘श्री बाबूजी महाराज’ से ऐसी दशा का आशीर्वाद मिलता है, जो ईश्वरीय प्रकाश से हृदय के स्पर्श का अनुभव देता है। 

ऐसी दशा प्राप्त कर लेने के बाद मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को लिखा – “मुझे याद नहीं रहता कि कब सुबह हुई, कब दोपहर और कब शाम हुई अथवा आज दिन भर मैंने क्या किया ?” ‘उनका’ उत्तर था – “अब तुम पूर्ण रूप से अभ्यासी बन गई हो और अब ईश्वर की इच्छा से तुम्हारी यात्रा ईश्वरीय-क्षेत्र में आरम्भ हो गयी है।“ अभ्यासी ध्यान में जब ईश्वर का उपस्थिति अनुभव करता है, तब वह अपने को उससे अलग कैसे कर सकता है ? तब ईश्वर अभ्यासी का हाथ थामकर उसे अपने विराट क्षेत्र में यात्रा के लिए ले जाता है। ईश्वरीय क्षेत्र में यात्रा के लिए ईश्वर द्वारा ले जाने का अनुभव ही वास्तविक ‘फैलाव’ का आरम्भ है। 

अपनी साधना काल में मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को कई बार अपनी दशा के फैलाव के बारे में लिखा और यह भी लिखा कि उस ‘फैलाव’ में क्या हो रहा है। केवल आज मैं जान सकी हूँ कि ‘फैलाव’ का वास्तविक अर्थ क्या है, शायद इसलिए कि मैं इसके बारे में बोलूँ और लिखू । संक्षेप में ‘फैलाव की दशा’ तब आरम्भ होती है, जब अभ्यासी ईश्वर के सामीप्य की दशा में डूबता है अर्थात् विराट् हृदय (ईश्वर का विराट) में यात्रा करता है। 

इस स्थिति में भी बिन्दु ए, बी, सी, डी आदि जिसे ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने शोध की अवधि में मुझे लिखा था, न यहाँ है और न यहाँ से आरम्भ होती है। ईश्वर अनन्त हैं, विराट् है, इसलिए उसका क्षेत्र अथवा राज्य भी अनन्त है। अभ्यासी के ध्यान का प्रवेश और उस क्षेत्र में इसका खुलना अर्थात् सांसारिक सीमा को पार कर ईश्वरीय क्षेत्र में प्रवेश, ‘दशा का फैलाव’ है। शायद इसी कारण 'श्री बाबूजी महाराज' ने मुझे लिखा कि ‘उनके’ क्षेत्र में हमें ईश्वरीय सौन्दर्य का प्रतिबिम्ब तथा फैलाव का अनुभव होता है और तभी बिन्दु ए, बी, सी, डी आदि भी प्रारम्भ होते हैं। तब ईश्वर के ध्यान का बन्धन भी टूट जाता है, क्योंकि उस क्षेत्र में ध्यान करना संभव नहीं है। इसलिए अभ्यासी ईश्वरीय क्षेत्र में स्वतंत्रतापूर्वक यात्रा कर सकता है। वह ईश्वर के साथ सामीप्य तथा विराट् में फैलाव पाता है, क्योंकि ईश्वर विराट् और अनन्त है।

  जब हमारा ध्यान ‘स्व’ के बंधन से मुक्त हो जाता है, वह ईश्वरीय शक्ति के साथ ईश्वरीय क्षेत्र में यात्रा करता है। मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को लिखा कि मेरी दशा ऐसी थी कि जो कुछ मैं देखती थी चाहे वह मिट्टी हो अथवा मेरे आस-पास जो कुछ हो, मैं उसमें ईश्वर की उपस्थिति पाती थी, हर वस्तु में और हर स्थान पर । क्या आप जानते हैं कि मेरी स्थिति ऐसी क्यों थी ? यह इसलिए कि मेरी अन्तर्दृष्टि में केवल ईश्वरीय क्षेत्र में ईश्वर का अनुभव होता था। तब मेरी आन्तरिक दृष्टि कैसे, किसी और चीज़ को देख सकती थी। यह कहना ज़्यादा ठीक होगा कि मेरी दृष्टि में ईश्वरीय क्षेत्र समाया हुआ था। ग्रहणशीलता की इस गहरी दशा को शब्दों में क्या कहा जाये, निश्चय ही कुछ नहीं। 

मैं आशा करती हूँ कि आप दशा के फैलाव का अर्थ समझ गये होंगे और ध्यान के अभ्यास में इसे कब और कैसे अनुभव किया जाता है। फैलाव की पहली स्थिति केवल माइण्ड रीज़न तक सीमित रहती है, जिसे मैंने विराट का फैलाव कहा है। तब ईश्वरीय क्षेत्र का फैलाव आता है, जो लय अवस्था प्राप्त करने के बाद आरम्भ होता है और हम ईश्वरीय क्षेत्र की यात्रा के रूप में इसे अनुभव करते हैं। इस दशा को प्राप्त करने के बाद भौतिक तत्वों से हमारा सम्बन्ध और उनका अस्तित्व हमारे बोध और कल्पना के परे चला जाता है। मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को लिखा कि मेरी दशा ऐसी है कि मुझे लगता है कि ‘आप’ ने आपनी बिटिया को विराट की दशा में लय कर दिया है और मेरी यात्रा ईश्वरीय क्षेत्र में आरम्भ कर दी है। मेरी दशा ऐसी थी कि मैं हर स्थान पर ईश्वर को देखती थी। मैं जो कुछ देखती और छूती थी, तो वहाँ ईश्वर दिखाई पड़ता था। दूसरे शब्दों में मेरा हर अनुभव ईश्वरीय रंग में रँग गया था। तब वह क्षण आता है जब ईश्वरीय क्षेत्र के केन्द्र में प्रवेश मिलता है, जो ईश्वर के रहने का स्थान है और जिसकी आज्ञा ‘श्री बाबूजी महाराज’ से मिलती है। क्योंकि तब ‘श्री बाबूजी महाराज’ से सामीप्य का अनुभव हमारे पास होता है। वहाँ ‘वे’ ईश्वरीय केन्द्र का अनुभव प्रदान करते हैं। अब यह कहना कठिन है कि कोई ‘फैलाव’ है। हाँ, यह कहा जा सकता है कि ईश्वरीय प्रकाश की कल्पना की ग्रहणशीलता के साथ हमारा ध्यान धीरे-धीरे ईश्वर के सामीप्य का अनुभव करने लगता है और ईश्वर हमारे हृदय में स्थिर हो जाता है, किन्तु विराट रूप में, इसलिए इस दशा का फैलाव भी अनन्त में डूब जाता है। अभ्यासियों के लिए ऐसा भाग्यशाली दिन का आशीर्वाद केवल ‘श्री बाबूजी महाराज’ द्वारा ही दिया जाना संभव है। ऐसी विशिष्ट विभूति की उपस्थिति न पहले कभी हुई और न भविष्य में होगी। इस दशा का अनुभव यह होता है कि मैं जो कुछ देखती हूँ, बोलती हूँ या सुनती हूँ, ऐसा लगता है कि ये सब ईश्वर कर रहा है। संक्षेप में “मैं के स्थान पर ईश्वर” हो गया है। ईश्वरीय दशा मिल जाने के बाद फैलाव गायब हो जाता है। इसके बाद केवल केन्द्रीय क्षेत्र रह जाता है, जहाँ तैराव है, जो केवल ‘श्री बाबूजी महाराज’ द्वारा पूरा किया जा सकता है। ईश्वर अनन्त है, विराट् है, इसलिए अभ्यासियों की पहुँच केवल यहीं तक है। अन्तिम सत्य, आदिशक्ति, अनन्त है। इसका वैभव केन्द्रीय क्षेत्र है, जहाँ अभ्यासियों का तैरना तभी संभव है जब वह ‘श्री बाबूजी महाराज’ के दिव्य संकल्प में प्रवेश करता है। अनन्त की दशा बताती है कि वहाँ कोई सीमा नहीं है, किन्तु आगे - कुछ है। ‘श्री बाबूजी महाराज’ के कथन के अनुसार मैंने अनुभव किया है कि केन्द्रीय क्षेत्र में कुछ नहीं है, किन्तु हमें आगे बढ़ना है, यह समझ कर कि यहाँ – ‘श्री बाबूजी महाराज’ हैं, क्योंकि अब जो कुछ बचता है, वह केवल समरूपता है।
संदेश - संत कस्तुरी
मुक्ति
विजयवाड़ा
27/3/2003
आज तक मोक्ष के बारे में मैंने जो कुछ पढ़ा, मैं केवल यही जान पाई कि मोक्ष का अर्थ है जीवन और मृत्यु से सदा के लिए छुटकारा पाना। इसके आगे किसी भी धार्मिक अथवा आध्यात्मिक साहित्य ने इसके बारे में कुछ भी नहीं कहा, कि भक्ति के किस स्तर पर मोक्ष की दशा का वरदान मिलता है। सत्य यह है कि इस दशा के अनुभव का वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता है। हाँ, संत कबीर ने ईश्वर साक्षात्कार के बारे में कहा है, किन्तु अन्य सभी लेखक मौन हैं। ऐसा क्यों ? कारण केवल यह है कि ईश्वर के प्रेम में तल्लीनता आने पर साक्षात्कार की जिस दशा का आशीर्वाद मिलता है, साधक इसमें ही तल्लीन रहता है और इसी से सन्तुष्ट रहता है। उसके आगे कुछ पाने की कोई तड़प नहीं रहती।

सच कहा जाये तो अपनी आध्यात्मिक यात्रा में इस उच्च दशा के बारे में ‘श्री बाबूजी महाराज’ की कृपा से ही मैं कुछ लिखने का साहस कर रही हूँ। ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने अपनी पुस्तकों में तथा मुझे लिखे गये पत्रों में मोक्ष की दशा के बारे में लिखा है। अपनी साधना की अवधि में मेरा ध्यान लक्ष्य पर इस प्रकार केन्द्रित रहा कि मुझे ‘श्री बाबूजी महाराज’ की पुस्तकें पढ़ने का समय ही नहीं मिला। मैं केवल उनके पत्र बार-बार पढ़कर खुश होती थी।

आज मैं आपको ‘श्री बाबूजी महाराज’ द्वारा लिखित दो शब्दों, मोक्ष और मुक्ति, के बारे में बता रही हूँ। मोक्ष की दशा प्राप्त करने पर कुछ समय तक इसका आनन्द लेने के बाद किसी को पुनर्जन्म लेना पड़ता है। मुक्ति की दशा में आत्मा परमात्मा में लय होना चाहती है क्योंकि यही उसका मूल है। आत्मा, मानव शरीर में परमात्मा से आती है, इसलिए मुक्ति की दशा प्राप्त करने के बाद पुनर्जन्म का प्रश्न ही नहीं उठता।

जब मैंने अपनी दशा के बारे में ‘श्री बाबूजी महाराज’ को लिखा कि मुझे ऐसा लगता है कि शब्द ‘आत्मा’ मेरी दशा में कहीं भी नहीं समा सका मानो मेरी आत्मा परमात्मा में लय हो गयी है। कुछ दिनों बाद जब मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को फिर लिखा कि ब्रह्मानन्द की दशा, जो मानव प्राणी को मृत्यु के पश्चात् दी जाती है, ‘आप’ उस दशा को मेरे जीवन-काल में ही मुझे दे रहे हैं। आप जानते हैं उनका उत्तर क्या था ? “बिटिया! क्या तुम जानती हो कि मैंने अपने शोध के लिए तुम्हें क्यों चुना है ? यह केवल इस कारण कि तुम अपने जीवन काल में सारी दुनिया से कह सको कि सहज मार्ग के अन्तर्गत प्राणाहुति द्वारा अभ्यासियों को केवल ईश्वर–साक्षात्कार का आशीर्वाद ही नहीं मिलता, बल्कि इससे भी आगे उन्हें भूमा तक ले जाया जाता है। उन्होंने आगे लिखा- ‘मेरे सद्गुरु समर्थ श्री लालाजी साहब’ ने दैवी कार्य के लिए मेरा अवतरण कराया है, इसलिए मानव समाज के लाभ के लिए मैं सब कुछ छोड़ जाऊँगा। लोगों के प्रति उनका प्रेम और वर्तमान युग को सँवारने के लिए

मैंने एक संकल्प लिया है कि मानव समाज को उच्चतम दशा देकर भूमा तक ले जायेंगे।“

अब मैं मुक्ति के चार स्तरों के बारे में अपना अनुभव बताती हूँ। मुक्ति के पथ पर आध्यात्मिक यात्रा में हम चार स्तरों को पार करते हैं। ये चार स्तर हैं- सामीप्य, सालोक्य, सारूप्य, और सायुज्य| ध्यान में डूबने के क्रम में मैंने अपने हृदय में ईश्वर की सामीप्यता का अनुभव किया है। सामीप्यता की दशा यह है कि हृदय ईश्वर की सामीप्यता के अनुभव में लय रहता है। जब मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को लिखा कि मेरा हृदय ईश्वर की सामीप्यता में इस प्रकार डूबा रहता है कि ऐसा लगता है कि मैं अपने आप को भूल गई हूँ। ‘श्री बाबूजी महाराज’ का उत्तर था कि यह ‘श्री लालाजी साहब’ का अनुग्रह है। कि 'स्व' को भूलने की दशा तुममें आ गई है और तुम आध्यात्मिक यात्रा में आगे बढ़ती जाओगी। उन्होंने आगे कहा कि जब तक अभ्यासी में भूलने की दशा नहीं आ जाती आगे बढ़ने का मार्ग दिखाई नहीं देता। तब मैंने अनुभव किया कि मेरा हृदय ईश्वर-प्रेम में डूबा रहने लगा है। अपने अस्तित्व का अनुभव भी घुलने और ईश्वर में लय होने लगा है। हृदय दिव्यता से प्रकाशित हो गया है और सारा शरीर भी प्रकाशित हो गया है।

उसके बाद सालोक्यता की दशा आरम्भ होती है अर्थात् मैं कहाँ हूँ ? बार-बार ऐसा लगता है कि मैं कहीं और स्थान में थी और जब किसी ने पुकारा तो मुझे वहाँ से आना पड़ा। तब ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने मुझे लिखा, “तुम सालोक्य की दशा में रहने लगी हो अर्थात् तुम्हारी रहनी अब ईश्वरीय क्षेत्र में हो गई है। मुझे आशा है कि तुम्हें आगे की दशा का आशीर्वाद मिलेगा।“

उसके बाद मुक्ति की तीसरी दशा आती है अर्थात् सारूप्यता। जब मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को लिखा कि मैं नहीं जानती कि मुझे क्या हो गया है कि जब मैंने अपने में ही नहीं, बल्कि चारों ओर ईश्वर की उपस्थिति अनुभव की। केवल इतना ही नहीं, तीन दिन बीत गये, मैं अपने बाल में कंघी नहीं कर सकी। जब भी मैं आईने के सामने खड़ी होती हैं, मैं इसमें केवल ‘आपका’ दिव्य रूप देखती हूँ और तब मैं बिना कंघी किये बैठ जाती हूँ। उसी दिन ‘श्री बाबूजी महाराज' का उत्तर आया - “बिटिया ! मैं नहीं जानता कि मुझे क्या हो गया है कि जब भी मैं अपनी दाढ़ी बनाने बैठता हूँ, तुम्हारा चेहरा सामने आ जाता है और मैं दाढ़ी नहीं बना सकता। अच्छी प्रकार प्रगति करो, आगे बढ़ो। ईश्वर ने तुम्हें सारूप्यता की दशा प्रदान कर दी है।“ एक लम्बी अवधि के बाद यह दिव्य सत्य मेरे समक्ष उजागर हुआ कि जिसको मेरे हृदय ने प्रथम दर्शन से ही स्वीकार किया और जीवन का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए जिसके सहज-मार्ग का अभ्यास कर रही हूँ, 'श्री बाबूजी महाराज’ सम्पूर्ण ईश्वरीय शक्ति पर प्रभुत्व प्राप्त किये हुए एक दिव्य पुरुष हैं। उनके चरणों में समर्पित होकर मैं इस योग्य हो गई हूँ कि मानव समाज के लाभ के लिए मैं इस रहस्य को खोल सकूँ।

अब मुक्ति की अन्तिम और चौथी दशा आती है- सायुज्यता। ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने मुझे लिखा – “अपने को ईश्वर में डुबोये रखो।“ जिसका अर्थ है शायद मेरा सम्पूर्ण अस्तित्व ‘श्री बाबूजी महाराज’ में इस प्रकार लय हो गया है कि मैं उनमें पूरी तरह खो गई हूँ, ठीक उसी प्रकार जैसे नदी सागर में मिलने के बाद अपना अस्तित्व, अपनी पहचान सदा के लिए खो देती है। उसके बाद अनुभव केवल ईश्वरीय खुशी में इस प्रकार डूबा रहता है मानो मुक्ति की चौथी आन्तरिक दशा- सायुज्यता, हमारी अपनी दशा बन गई है। किन्तु, मैं कौन हूँ, प्रश्न का उत्तर नहीं मिल सका, क्योंकि उत्तर देने वाली 'स्वयं' उनमें लय हो गई है।

मुक्ति की चार अवस्थायें इस प्रकार हैं:
一.सामीप्य – ‘स्व’ से स्वतंत्रता।
二.सालोक्य – ‘रहने के स्थान’ से स्वतंत्रता।
三.सारूप्य – ‘रूप’ से स्वतंत्रता।
四.सायुज्य – ‘आत्मा के बन्धन’ से स्वतंत्रता।

इन चारों अवस्थाओं से गुजरने के बाद अभ्यासी की दशा स्वतंत्रता से स्वतंत्रता की हो जाती है। मैं ‘श्री बाबूजी महाराज’ से प्रार्थना करती हूँ कि ‘वे’ सभी अभ्यासियों को इन चारों दशाओं का आशीर्वाद दें।
संदेश - संत कस्तुरी
ईश्वर-साक्षात्कार
विजयवाड़ा
28/3/2003
“ईश्वर हमारे हृदय में है” यह कहकर ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने अभ्यासियों के लिए ईश्वर के साक्षात्कार को बहुत ही सरल बना दिया है। उच्चतम लक्ष्य की प्राप्ति का उत्साह बनाये रखने के लिए उन्होंने हम लोगों को एक और सुविधा दी है, जो प्राकृतिक रूप में अभ्यासियों के हृदय में ‘उनकी’ प्राणाहुति है। फलतः निष्ठा के साथ सतत् अभ्यास के द्वारा हमारा हृदय ईश्वर की निकटता अनुभव करने लगता है। धीरे-धीरे अभ्यासी बहिर्मुखी से अन्तर्मुखी हो जाता है। तब अभ्यासी अपने हृदय में लक्ष्य की समीपता का अनुभव करने लगता है और उसी में डूबा रहता है। यह अनुभव बताता है कि ईश्वर-साक्षात्कार का निमंत्रण शायद उसे मिल रहा है। यह अनुभव हमारे हृदय को जागृत कर देता है और आगे बढ़ने के लिए तड़प को तीव्र करता है। उसके बाद वह दिन आ जाता है, जब हम ‘श्री बाबूजी महाराज’ की निकटता का लगातार अनुभव करने लगते हैं।

  यह निश्चित है कि ईश्वर से लगातार सम्बन्ध के द्वारा, प्राणाहुति का प्रवाह, हमें इस योग्य बना देता है कि हमारी तड़प सांसारिक इच्छाओं से ऊपर उठ जाती है। हमारी साधना में ऐसी स्थिति आने पर अभ्यासी सही रूप में अभ्यासी बन जाता है और अपनी सांसारिक इच्छाओं से ऊपर उठ जाता है। मैंने अनुभव किया है कि यही ईश्वर से सम्बन्ध, अभ्यासी को ईश्वरीय-क्षेत्र के द्वार तक ले जाता है। इसके बाद कब और कैसे ‘श्री बाबूजी महाराज’ का संकल्प अभ्यासी को ईश्वर-साक्षात्कार की स्थिति तक ले जाता है और ईश्वरीय क्षेत्र में प्रवेश दे देता है, यह बात हमारी समझ से बाहर हो जाती है।

  इसके बाद कुछ अनुभव नहीं होता। तब हमारी सजगता भी ईश्वरीय-क्षेत्र में लय हो जाती है। जब मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को इस दशा के बारे में लिखा कि मेरा हृदय नृत्य कर रहा है और इस प्रकार दो दिन बीत गये। उन्होंने उत्तर में कहा – “ऐसा क्यों नहीं होना चाहिए, जब तुम अपने प्रियतम के क्षेत्र में प्रवेश कर गई हो अर्थात् ईश्वरीय क्षेत्र में । तुम्हारा हृदय इसमें पूरी तरह डूबा हुआ है और इसी खुशी में तुम्हारा हृदय नाच रहा है।“ उन्होंने फिर पूछा – “तुम जानती हो, ऐसा क्यों ? ऐसा इसलिए कि ‘मैं’ का अस्तित्व जो दिव्यता की खुशी अनुभव कर रहा है, स्वयं दिव्य हो गया है।“ 

सच कहा जाये तो ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने मानव समाज को ईश्वर-साक्षात्कार का केवल लक्ष्य ही नहीं दिया है, बल्कि अपनी संकल्प शक्ति के साथ इसे पूरा भी किया है जो अभ्यासियों को पहली सिटिंग से ही साक्षात्कार की इस स्थिति तक लाने में सहायक होता है। तभी अभ्यासी जीवन के उच्चतम लक्ष्य को पाने में सफल होता है। मिशन की प्रार्थना की पंक्तियों को देखें। प्रार्थना की पहली पंक्ति हमारे हृदय को जागरूक करती है कि “हे नाथ ! तू ही मनुष्य जीवन का ध्येय है।“ हमारे मिशन में सभी लोगों के लिए प्रार्थना की चार पंक्तियाँ ‘श्री बाबूजी महाराज’ की दिव्य शक्ति से संरक्षित हैं। इसलिए जब हम इन पंक्तियों को समर्पण के अनुभव के साथ पढ़ते और याद करते हैं, तब हृदय बोल उठता है – “हे ईश्वर ! तुम हमारे हो और हम तुम्हारे हैं।“ जब यह विचार आगे बढ़ता है, ईश्वर साक्षात्कार के लिए तड़प और भक्ति उसमें लय हो जाती है। जैसे-जैसे तड़प बढ़ती है, अभ्यासी और ईश्वर के बीच का अन्तर कम होता जाता है और हृदय, ईश्वर की समीपता के कारण नृत्य करने की दशा में आ जाता है। केवल इतना ही नहीं, मैंने देखा है कि हृदय की तड़प और भी तीव्र हो जाती है और साक्षात्कार के लिए यह बेचैन हो जाती है। जब मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को लिखा कि “साक्षात्कार की लम्बी प्रतीक्षा के कारण मेरा हृदय थक गया है“ किन्तु, शायद ऐसा नहीं था और अब मेरा हृदय धीरे-धीरे पिघल रहा है। साक्षात्कार की दशा मेरे हृदय में भर रही है, और ‘आप’ में लय हो रही है। ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने उत्तर में लिखा – “मैं बहुत खुश हुआ कि तुममें साक्षात्कार की दशा केवल आरम्भ ही नहीं हुई है, बल्कि तुम लगातार आगे बढ़ रही हो।“ इसीलिए मैंने व्यावहारिक रूप में यह अनुभव किया है कि प्रार्थना की पंक्तियों को हृदय में पूरी तल्लीनता के साथ ग्रहण करने से आप शीघ्रता से साक्षात्कार कर सकते हैं। 

हमारी प्रार्थना की प्रत्येक पंक्ति ईश्वरीय-शक्ति से संरक्षित है। पहली पंक्ति हमारे हृदय को ईश्वर के साक्षात्कार की दृढ़ता से भर देती है। उसके बाद उच्चतम दिव्य दशा, जो बाकी तीन पंक्तियों में निहित है स्वतः हमारे हृदय में भर जाती है। उसके बाद आगे बढ़ने का मार्ग खुल जाता है, क्योंकि ‘उनके’ दिव्य संकल्प का धागा अभ्यासी को उसमें लगातार डुबोये रखता है। यह डूबना ही अभ्यासी को ईश्वरीय शक्ति के मुख्य केन्द्र में प्रवेश देता है। 

इसे ईश्वर-साक्षात्कार कहा जाये अथवा ‘श्री बाबूजी महाराज’ का दर्शन ? उनका दिव्य प्यार और प्राणाहुति मानव-समाज को साक्षात्कार की दशा का आशीर्वाद युग-युग तक निश्चय ही देता रहेगा। दिव्य-प्रकाश से प्रकाशित सहज-मार्ग सदा के लिए अंधकार और भौतिकता दूर करता रहेगा। इस प्रकार सहज-मार्ग पद्धति मानव समाज के लिए एक अनुपम वरदान है। संत कबीर ने भी केवल इतना ही कहा है – “हद-अनहद के बीच में रहा कबीरा सोया।“ इसका अर्थ है कि अपनी साधना से उन्होंने ईश्वर–साक्षात्कार तो कर लिया, किंतु उसके आगे अनन्त (भूमा) तक नहीं जा सके। 

२८-०३-२००४ : हमारी पुकार अध्यात्म में हमारी पुकार का अर्थ क्या आप जानते हैं ?

सहज-मार्ग पद्धति का पालन तथा अनन्त की यात्रा करते हुए इन दो शब्दों के अर्थ चाहे जो कुछ हो, दैवी प्रेरणा का अनुभव, अनुपम एवं आश्चर्यजनक है। यह वही पुकार है, जिसे मेरा मुख बोलता तो है, किन्तु यह इन्द्रियग्रह्य नहीं है। यद्यपि यह अपने अन्तर से सम्बन्धित है, फिर भी यह अपना नहीं लगता। मुझे लगता है कि यद्यपि यह मेरे मुख से निकलता है, फिर भी इस शब्द का स्पर्श मेरे मुख से नहीं होता। यद्यपि यह मेरे अंतर से निकलता है, उससे सम्बन्धित है, जिसे केवल मेरे कान सुनते हैं, किन्तु उनके अर्थ, जो विचार के परे हैं, हमारे अंन्तर में प्रकट होते हैं। ऐसा इसलिए कि जब क्रिया विचार से सम्बन्धित हो जाती हैं, तब उसके अर्थ सांसारिकता से जुड़ जाते हैं। किन्तु, जब क्रिया विचार शक्ति के परे होती है, उसके अर्थ भी उच्च हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में, ‘मैं’ की भावना भौतिक शरीर से सम्बन्धित नहीं रहती और हमारे अन्तर में प्रवेश कर जाती है और तब मेरी पुकार भी अन्तर में लय हो जाती है। संभवतः इसीलिए कहा जाता है कि जब हृदय से प्रार्थना की जाती है, तब इसकी स्वीकृति अवश्य होती है। अब ‘मनस’ क्या है, जिसके साथ पुकार विचार से परे हो जाता है, जिसका सम्बन्ध हमारे भौतिक शरीर से नहीं, बल्कि अन्तर से हो जाता है। यही पुकार अन्तर का निर्देशक है। यदि सही अर्थों में हम इसका खुलासा करें, तब हम पाते हैं कि हमारा कार्यक्षेत्र, यदि हमारा विचार हमारी प्रतिष्ठा के नीचे है, अन्यायपूर्ण है, सही नहीं है, तो हमारा निष्कर्ष एवं क्रियायें भी वही सूरत अपना लेती हैं। हमारी पुकार भी उसी स्तर से जुड़ जाती है और उस क्रिया का फल भी उसी की शक्ल ले लेती है।

मैंने अनुभव किया है कि जब हमारे जीवन का आधार हमारा अन्तर होता है, हमारे विचार भी उसी साँचे में ढल जाते हैं, बहिर्मुखी और अन्तर्मुखी। यही कारण है कि जब हमारे विचार और क्रियायें पवित्र एवं उच्च स्तर के हो जाते हैं, साधना का फल भी भौतिकता से आध्यात्मिकता में परिवर्तित हो जाता है। तब वह दिन आता है, जब सतत् अन्तर्मुखी रहने से हमारे विचार ईश्वर से जुड़ जाते हैं और हमारे कर्म संस्कार के बंधन से मुक्त हो जाते हैं।

आध्यात्मिक दशा का दूसरा पहलू जो मैंने अनुभव में पाया कि आध्यात्मिक क्षेत्र में ऐसी अद्भुत दशा हिरण्यगर्भ तक रहती है। इसके बाद संस्कारों का बनना बन्द हो जाता है। यद्यपि हमारे पूर्व संस्कार किसी न किसी रूप में तथा उच्च विचारों की अनुभूति भी कहीं न कहीं उसी रूप में रहती हैं, किन्तु जब मैंने यह क्षेत्र पार कर लिया और श्री बाबूजी को अपनी दशा के बारे में लिखा, कि मैं किसी कार्य का कर्ता नहीं हूँ। तब क्या होता है ? ऐसा कब होता है ? कैसे होता है ? ऐसे प्रश्न कभी नहीं उत्पन्न होते और अब मैं भूली हुई अवस्था में रहती हूँ।

ऐसा लगता है कि मेरा बाह्य-जीवन एक स्वप्न है, किन्तु मेरी आध्यात्मिक दशा पूरी तरह ईश्वर में डूबी हुई है। तब, जानते हैं, श्री बाबूजी ने मुझे क्या लिखा ? उन्होंने लिखा- “तुम्हारा पत्र मिला। तुम्हारी दशा के बारे में पढ़कर बहुत खुश हुआ, जो यह बतलाता है कि तुम हिरण्यगर्भ को पार कर चुकी हो और ईश्वरीय क्षेत्र में प्रवेश पा गई हो। लय अवस्था का यह बहुत सुन्दर रूप है। ईश्वर तुम्हें अधिकाधिक उन्नति दे।“ श्री बाबूजी के इन वाक्यों का अर्थ अब मेरी समझ में आया। इसका अर्थ है कि जब अहम् माया के परे चला जाता है, नाम तथा रूप से छुटकारा मिल जाता है और ईश्वरीय क्षेत्र की शक्ति के प्रवाह में प्रवेश मिल जाता है, जो सृष्टि की शक्ति के परे है, तब आध्यात्मिक क्षेत्र में हमारी उन्नति होने लगती है।

सच कहा जाये तो ऐसी उच्च स्थिति पा लेने के बाद हमारी पुकार हमारी नहीं रह जाती, बल्कि अन्तर की पुकार में परिवर्तित हो जाती है और हमारी दशा एक दर्शक की भाँति रह जाती है, और यह ईश्वरीय क्षेत्र में डूब जाता है। इस स्थान पर मुझे अनुभव हुआ कि अभ्यासी की दशा जो भी हो, वह भी हमारा कथन या पुकार का आधार बन जाता है।

इसके पहले, हिरण्यगर्भ तक हमारी आध्यात्मिक यात्रा, आन्तरिक दशा, यद्यपि वहाँ कुछ रह जाता है, हमारा कार्य प्राकृतिक रूप में होने लगता है। श्री बाबूजी की महान् कृपा से हृदय क्षेत्र की यात्रा पूरी होने के बाद, हमारी पुकार का आधार तथा हमारी दशा, माया के बन्धन को पार कर लेती है। मैंने इस दशा को स्वयं अनुभव किया है कि हृदय-क्षेत्र के मुख्य केन्द्र की शक्ति, हिरण्यगर्भ में हमारा प्रवेश दे देती है। वहाँ मैंने अनुभव किया है। कि मैं सब कुछ अपनी आन्तरिक दृष्टि से देख रही हूँ। ऐसा लगा कि मेरी दशा ऐसी थी कि सभी कार्य प्राकृतिक रूप से हो रहे हैं और इसकी छाया भी हमें नहीं छू रही है। ऐसा लगा कि वह छाया भी हमसे दूर हो गई है। उसके बाद लगा कि सांसारिक छाया भी हिरण्यगर्भ में लय हो रही है। इस प्रकार हमारी आन्तरिक पुकार हिरण्यगर्भ में लय हो जाती है।

अब ईश्वरीय-क्षेत्र आता है, जो हमारे जीव (मैं) के रहने का वास्तविक स्थान है। ईश्वरीय क्षेत्र की सुगन्ध पाने के बाद, लय होने के लिए ईश्वरीय क्षेत्र में डूबने से पुकार कह उठती है – “मैं अन्तर से तुम्हें बुला रही हूँ” और मुझे अनुभव हुआ कि तड़प ने श्री बाबूजी के कदम को छू लिया। इसके बाद हमारी पुकार तथा तड़प का कोई सम्बन्ध नहीं रह जाता। ईश्वरीय क्षेत्र में लय हो जाने का अर्थ है, अहम् के सोलहों वृत्त ईश्वरीय क्षेत्र में लय हो गये। केवल व्यक्तित्व बच जाता है, मानों अपने घर में प्रवेश पा रहा हो। ईश्वरीय क्षेत्र का मुख्य केन्द्र और श्री बाबूजी के चेहरे की ओर देखें तो यह उनमें भी लय हो जाता है।

अब ऐसा लगता है कि न कोई आकृति है, न ही व्यक्तित्व, जो मैं को याद करता है। तब मेरी समझ में आया कि श्री बाबूजी का दिव्य संकल्प, दिव्य संकल्प में केवल प्रवेश देता है और ईश्वरीय क्षेत्र में आगे बढ़ाता है। तब ईश्वरीय पुकार ईश्वर के सौन्दर्य में लय हो जाता है। यह कहावत “हमारा दिव्य अब दिव्य संवाद के लिए सक्षम हो गया” सत्य हो जाता है। वास्तव में सहज-मार्ग पद्धति एक दिव्य संकल्प के रूप में है, जो ईश्वरीय शक्ति में डूबा हुआ है। सभी लोगों के लिए श्री बाबूजी का यह दिव्य संदेश है। अनन्त की ओर यात्रा करते समय यह मेरी समझ में आया कि सभी लोगों की अनन्त यात्रा के लिए सहज-मार्ग पद्धति सदा दिव्य प्रकाश से प्रकाशित करती रहेगी।

हमारी पुकार का दिव्य रहस्य कौन समझ सका है, यदि दिव्य पुरुष श्री बाबूजी महाराज की दिव्य वाणी हम लोगों को नहीं मिलती। हृदय-क्षेत्र की अपनी यात्रा पूरी कर लेने के बाद श्री बाबूजी ने हिरण्यगर्भ तथा ईश्वरीय-क्षेत्र की यात्रा भी पूरी करा दी और उसके बाद भूमा के केन्द्रीय क्षेत्र में प्रवेश दे कर तैराने की कृपा की।

उनकी दिव्य कृपा ने मुझे गोद में लेकर ईश्वरीय-क्षेत्र के सातों वृत्तों का चक्कर लगवाया तथा अनन्त (भूमा) के दिव्य रहस्यों को उद्घाटित किया। श्री बाबूजी महाराज ने मुझे अनन्त की गोद में बिठाकर ईश्वरीय दशा में लय करा दिया और इस प्रकार सदा के लिए मुझे धन्य कर दिया।

मेरी पुस्तक अनन्त-यात्रा के पाँचों भाग जीवित सन्देश हैं। समस्त मानव जाति की आध्यात्मिक उन्नति के लिए श्री बाबूजी आये हैं। मैंने अनुभव किया है कि सहज-मार्ग पद्धति उनके प्यार का प्रतीक है, और सदा के लिए है। उनके प्यार की पुकार सदा दिव्यता को हमारे अन्तर में जगाये रखेगी तथा प्राकृतिक रूप में प्रत्येक को ईश्वर में लय करा देगी। ईश्वर करे ‘हमारी पुकार’ प्रत्येक के हृदय को छु जाये और यही हमारी रचनाओं की सबसे बड़ी उपलब्धि होगी।

आज श्री बाबूजी महाराज से मेरा नम्र निवेदन है कि वे इस आनन्ददायक दशा की वर्षा सभी अभ्यासी भाई-बहनों पर करें। मैं यह भी प्रार्थना करती हूँ कि श्री बाबूजी महाराज ने भाई श्री वी पी राव, डा. पार्थसारथी, तथा डा. के कमलनाथन जैसे योग्य प्रिसेप्टर बनायें, जो अभ्यासियों में प्रेम तथा भक्ति उत्पन्न करें ताकि सभी अभ्यासी लय-अवस्था की आनन्ददायक दशा में डूब जायें।
संदेश - संत कस्तुरी
अभ्यासी का मनस
विजयवाड़ा
28/3/2004
अभ्यासी जब ध्यान करना आरम्भ करता है, हमेशा वह शिकायत करता है कि ध्यान के समय दिव्यता का कोई अनुभव नहीं होता, क्योंकि विचारों का प्रवाह उन्हें बाधित करता रहता है। इसलिए पहले हम परीक्षण करते हैं कि इन विचारों का आधार क्या है ? जब हम गहराई से सोचते हैं, तो पाते हैं कि ध्यान हमारा है, विचार जो बाधा पहुँचाते हैं, वे हमारे हैं, और विचार शक्ति भी हमारी है, तब ‘वे’ ईश्वर पर ध्यान करते समय हमारे नियंत्रण के बाहर क्यों हो जाते हैं ? हम उन्हें अपने नियंत्रण में क्यों नहीं रख सकते। और अनन्त के साक्षात्कार के लक्ष्य पर केंद्रित क्यों नहीं कर सकते ? दूसरी ओर सांसारिक जीवन में साधारणतः हम अपनी सम्पत्ति के लिए इन पर पूरा नियंत्रण रख लेते हैं।

‘श्री बाबूजी महाराज’ के आशीर्वाद से आज मैं समझ सकी कि इसका कारण आध्यात्मिक लक्ष्य पर हमारी एकाग्रता का अभाव है। सांसारिक आकर्षण का दबाव हमारा ध्यान विभिन्न दिशाओं की ओर मोड़ देता है। इस समस्या का समाधान ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने बताया है कि “जब ध्यान में तरह-तरह के विचारों का प्रवाह हमें बाधा पहुँचाते हैं, तब हम अपना ध्यान विचारों से हटाकर अपने लक्ष्य पर केन्द्रित करें, जैसा सहज मार्ग में बताया गया है।“ हमारी पद्धति बताती है कि “ईश्वर हमारे हृदय में है।“ ‘श्री बाबूजी महाराज’ का कथन कि “मैं तुम्हें कहता हूँ कि तुम इस याद में रहो कि ईश्वर तुम्हारे हृदय में है। तब तुम सही तरीके से पद्धति का अनुसरण कर सकोगे।“ इस कथन में ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने अभ्यासियों की समस्या का समाधान कर दिया है कि “तुम्हारे हृदय में ईश्वर है की याद लगातार करते रहो।“ हमारी याद न टूटे, की कोशिश बार-बार करने से हमारा ध्यान ईश्वर पर स्थिर हो जाता है। इसके बाद हम कह सकते हैं कि हम आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रवेश कर गये हैं।

जब मुख्य द्वार अर्थात् हमारे हृदय का द्वार खुल जाता है, तब हमारे विचार में तड़प और हृदय को आगे बढ़ना ही है। इसके बाद सहज मार्ग के अन्तर्गत ईश्वर साक्षात्कार के लिए हमारी यात्रा में ‘श्री बाबूजी महाराज’ की इच्छाशक्ति सहायता एवं मार्गदर्शन के लिए हमेशा साथ रहती है। इसके फलस्वरूप तरह-तरह के अनचाहे विचार जो हमारी आध्यात्मिक उन्नति में बाधक थे धीरे-धीरे कमजोर होने लगते हैं और हमारा ध्यान हृदय पर स्थिर होने लगता है।

हम देखते हैं कि ईश्वर के साथ ‘स्व’ (जीव) का सम्बन्ध कितना गहरा है कि अभ्यासी केवल ध्यान में ही नहीं, बल्कि उसके बाद भी ईश्वर का अनुभव करता है। वास्तव में अभ्यासी की तड़प इतनी तीव्र हो जाती है कि वह ईश्वरीय आकर्षण को खींचने लगता है। यही ईश्वरीय आकर्षण हमें ईश्वर और जीव में सम्बन्ध की याद दिलाता है। तब “मैं कौन हूँ” अभ्यासियों के लिए एक प्रश्न बन जाता है। पहले अभ्यासी लोग ध्यान के समय विचारों के प्रवाह की शिकायत करते थे। अब इसके बदले उन्हें अपने भौतिक शरीर की भी याद नहीं रहती, जब ध्यान हमारे हृदय में उपस्थित ईश्वर में लय हो जाता है। ‘श्री बाबूजी महाराज’ के कथन के अनुसार कि “हम भूल की स्थिति को प्राप्त करने की खुशी में डूबे रहते हैं। तब स्व का बन्धन हमारे भौतिक शरीर के साथ नहीं होता, बल्कि यह हमारे हृदय के साथ हो जाता है।“

अब ईश्वर की याद की तड़प अभ्यासी को शान्त होकर बैठने नहीं देती। ‘श्री बाबूजी महाराज’ की ओर से ध्यान का तनिक भी हटना हमें साक्षात्कार के लिए बेचैन कर देती है। हमारा हृदय इतना सावधान हो जाता है कि हम याद को नहीं भूल सकते। ‘श्री बाबूजी महाराज’ का कथन कि अंतर की ऐसी सावधानी अभ्यासी को अपनी ओर इस प्रकार खींचती है कि ईश्वरीय शक्ति जो अभ्यासी के हृदय में उपस्थित है, उनमें रहने का स्थान बना लेती है। इस दशा के आशीर्वाद से अभ्यासी का संस्कार बनना बन्द हो जाता है, क्योंकि उसकी रहनी ईश्वर से लगातार सम्बन्ध बनाये रखती है।

अभ्यासी को इस प्रकार का अनुभव हो जाने के बाद एक बात साफ हो जाती है कि ध्यान के समय उसका विचार बाहर की ओर घूमता रहता था और वह लक्ष्य पर केन्द्रित नहीं रह सकता था, क्योकि हमारा हृदय हमारा नहीं है, इसीलिए हमारी कोशिशें लक्ष्य पर केन्द्रित होने में विफल हो जाती थीं। किन्तु, उसी समय हमें एक समाधान भी मिलता है कि ईश्वर हमारे हृदय में है और इसलिए अपना ध्यान बार-बार उसपर लगाने से एक दिन आता है जब हमारी दशा ऐसी हो जाती है कि जब मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को लिखा कि “मेरा मन ध्यान में इतना लगता है कि फिर मेरे पास लौट कर नहीं आता।“ इसका अर्थ केवल यह है कि इसका वास्तविक रहने का स्थान ईश्वरीय क्षेत्र है, जिसका अर्थ है कि इस पर हमारा अधिकार केवल ईश्वर की धरोहर के रूप में है, जिसे गलती से हम अपना समझ बैठे हैं। जब उसकी चीज़ ‘मन’ उसके पास वापिस चला जाता है, तब मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को लिखा कि ‘मेरा मन कहाँ है ?’ अर्थात ‘मैं’। केवल इतना ही नहीं, मैंने आगे लिखा कि जब मेरे स्व की याद मेरे पास कभी नहीं लौटी तब मैं समझ सकी कि 'वे' कौन थे ? इसका अर्थ है कि जब स्व की याद (मेरी चेतना) मेरे पास लौट कर नहीं आई, तब मैं समझ सकी कि ‘मन’ के रहने का स्थान कहाँ है, और ‘वे’ कौन हैं, जिनके पास जाने के बाद ‘मन’ कभी नहीं लौटता। यह सत्य है कि एक सच्चे अभ्यासी की आवाज़ “मैं तुम्हारा हूँ”, वास्तविक निवेदन का संकेत है। जब ‘मन’ अपने वास्तविक स्थान पर पहुँच कर पीछे मुड़कर देखता है और पुकारता है कि “मैं तुम्हारा और केवल तुम्हारा हूँ।“ हृदय की तड़प इस बात का संकेत है कि ईश्वर ने उसे स्वीकार कर लिया है और तब ‘श्री बाबूजी महाराज’ में लय-अवस्था आरम्भ होती है। तब दशा, दशाविहीन हो जाती है। अब देखें कि जो हमारी शिकायत थी कि हम ध्यान नहीं कर सकते थे क्योंकि एकाग्रता नहीं थी और विचार के लगातार प्रवाह से व्याकुलता थी, किन्तु हृदय में ईश्वरीय दशा में डूब जाने के कारण, जिसे मैंने अपने एक गीत में लिखा है कि “यदि मैं ईश्वर को भूल जाना भी चाहूँ, तो ईश्वर से हमारा सम्बन्ध, ऐसा कभी नहीं करने देता।“ अब याद भी हमारे लिये सम्भव नहीं रहती क्योंकि ईश्वर से सम्बन्ध हमें ऐसा करने से रोकता है।

मैं ‘श्री बाबूजी महाराज’ से प्रार्थना करती हूँ कि आनन्द के सागर में सभी अभ्यासी डूबे रहें। अभ्यासी लोग मुझसे पूछते हैं कि कब और कैसे लय-अवस्था की दशा आती है, मैं आप सब लोगों को आशा और विश्वास के साथ यह बता चुकी हैं कि हम सब दृढ़ता के साथ शीघ्रता से इस दशा को पाने की आकांक्षा करें ताकि हमारी तड़प इतनी तीव्र हो जाये कि हम चिल्लाने लगे कि “मैं तुम्हारा और केवल तुम्हारा हूँ।“ तब दूसरी ओर से ईश्वर में लय अवस्था का आशीर्वाद मिल सकता है। तब अभ्यासी कहेगा “मैंने कभी-कभी देखा है कि तुमसे अलग होना मेरे लिए असम्भव है।“
संदेश - संत कस्तुरी
ईश्वर प्रेम
विजयवाड़ा
22/3/2006
मेरे प्रेम का अनुभव, जो मेरे भीतर पूर्णतः भरा है, अभ्यासियों के परम लक्ष्य का प्रतीक है। ‘श्री बाबूजी महाराज’ की कृपा से अपनी अटूट भक्ति के फलस्वरूप हम ईश्वर प्रेम का अनुभव करते हैं। ईश्वर-प्रेम सभी अभ्यासियों की जान है। इस प्यार तथा हर कदम पर सतर्क रहने के कारण हम ब्रह्माण्ड की ओर बढ़ते हैं। यही ईश्वर-प्रेम हमें स्पन्दन का अनुभव प्रदान करता है, तब हमें लगता है कि हम जीवित हैं। जब स्पन्दन का आभास नहीं रहता, श्री बाबूजी महाराज ने मुझे लिखा कि “ईश्वर में तुम्हारी लय अवस्था आरम्भ हो चुकी है।“ शायद यही कारण था कि बिना मेरे लिखे वे मेरी आध्यात्मिक दशा से अवगत रहते थे। लय अवस्था के कारण एक ऐसा दिन आता है, जब स्वयं के अस्तित्व का पता नहीं चलता और लगता है कि ईश्वर के द्वार पर हम पहुँच गये हैं। ईश्वर प्रेम के प्राप्त हो जाने के बाद यह सत्य जागरूक होता है कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ ईश्वर-प्रेम के अनन्त श्रोत हैं। श्री बाबूजी की कृपा से मैं जान पाई हूँ कि प्रेम का सम्बन्ध केवल ईश्वर से होता है। यही कारण है कि हम उसे ढूंढ़ नहीं पाते। संत कबीर ने भी कहा है – “प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय” । श्री बाबूजी महाराज के सतत् स्मरण में रहने का यह प्रतिफल है। सतत् स्मरण तथा ध्यान में डूबे रहने से हममें ईश्वर–प्रेम उत्पन्न होता है। हमारे हृदय में ‘बाबूजी महाराज’ के रहने से मेरा अन्तर उनमें लय रहता है, और हम श्री बाबूजी के प्यार में डूबे रहते हैं। ईश्वर–प्रेम में सदा डूबे रहने के फलस्वरूप मेरा अन्तर ‘परम अवधूत’ गति में खो जाता है और उसके बाद ईश्वरीय रंग में रंग जाता है। ऐसी उत्कृष्ट दशा पा जाने पर मैं ईश्वर की गोपनीयता को जान पाई कि प्रेम के रहने का स्थान ईश्वर है। कितना गहरा और घनिष्ठ सम्बन्ध हमें ईश्वर से है। इस सम्बन्ध के बारे में आप प्रश्न कर सकते हैं। तो सुनिये, यह सम्बन्ध तड़प है, श्री बाबूजी के परम प्यार के लिए अनजाने में समर्पण है। अभ्यासियों में दिव्य योग की यही दशा है। भौतिक आँखों का कर्तव्य केवल भौतिक संसार तक ही सीमित है। यही कारण है कि संस्कारों की छाया अन्तर तक नहीं पहुँच पाती है। जब हमारा समर्पण उन्हें स्वीकार हो जाता है, हम आश्चर्यचकित रह जाते हैं। अभ्यासी का भक्ति-मार्ग जब समाप्त हो जाता है, तब उसे ‘श्री बाबूजी महाराज’ की दृष्टि में स्थायी स्थान मिल जाता है। साक्षात्कार के लिए उनके दर पर विश्वास का सम्पूर्ण समर्पण हो जाता है। ‘श्री बाबूजी महाराज’ की दिव्य रचनायें हमारे समक्ष दैवी दशाओं को ताज़ा करती हैं, ताकि उनकी रचनायें सत्य का रूप ले लें। तब, संस्कार कर्मों से मुक्त होकर ईश्वरीय खूबसूरती के समक्ष पिघलने लगते हैं, फलतः शुद्ध जीवन-मोक्ष दशा हमारा रूप हो जाता है। यहाँ भक्ति की परिभाषा चुप हो जाती है। एक पवित्र दशा का विचित्र अनुभव दो परम दशाओं का मिलन मेरे समक्ष आता है। जो हमें यह सन्देश देता है कि भक्ति से ईश्वर का साक्षात्कार होता है। दूसरी ओर भक्त का कहना भी सत्य है – “बिना भक्ति तारो, तब तारिबो तुम्हारो है।“

दैवी दशा का अनुभव अपने आप में अपूर्व है। मैंने सहज-मार्ग साधना में उन्नति करते हुए ईश्वर साक्षात्कार पाया है। श्री बाबूजी महाराज ईश्वर साक्षात्कार में सहायता देते हैं। ईश्वर साक्षात्कार के बाद कुछ नहीं रह जाता है। भक्ति का कार्य पूर्ण हो जाता है, और श्री बाबूजी महाराज की कृपा से सहज-मार्ग द्वारा मानव-मात्र के कल्याण हेतु सुलभ कर देता है। यह दशा प्राप्त कर लेने के बाद बिना भक्ति मोक्ष की दशा प्रारम्भ हो जाती है। अब हम अपनी शक्ति से आगे नहीं बढ़ते हैं। श्री बाबूजी महाराज के संकल्प से हम ईश्वरीय क्षेत्र में तैरना आरम्भ कर देते हैं। हमारी प्रार्थना की अंतिम पंक्ति का रहस्य यही है कि बिना उसकी सहायता के श्री बाबूजी में लय होना असम्भव है। शायद ऐसी दशा प्राप्त कर लेने के बाद अन्तर ने प्रार्थना की इस पंक्ति को कहा होगा कि ज्ञान और भक्ति केवल साक्षी हैं। केवल वही साक्षात्कार कर चुका है, जब यह भी उनके पावन चरणों में समर्पित हो जाये इस दशा में डूब कर अपने एक गीत में मैंने लिखा है –

“सहज-मार्ग में है, मर-मर के जिए कितनी बार, लाश को अपने ही कन्धों पै ढोया कितनी बार। “

भक्तों की यह सतत् पुकार अनन्त की यात्रा की शुरुआत है। यह पुकार इस प्रकार है – “यदि बिना भक्ति आप मुझे मोक्ष प्रदान करते हैं, तो यह मोक्ष सही अर्थ में होगा।“

श्री बाबूजी महाराज द्वारा केन्द्रीय क्षेत्र में की गई खोज के कारण हमारा विवेक धन्य हो गया। हमें कैसा दैवी भाग्य मिला है। दिव्य संकल्प में डूबकर अभ्यासी एवं सारी मानव-जाति अनन्त सागर में तैरते हैं। व्यक्तित्व कहाँ रहा? श्री बाबूजी महाराज का दैवी सौन्दर्य मिलने के बाद अब समर्पण के लिए क्या रह जाता है? वे ही सब कुछ हैं। मेरी लेखनी श्री बाबूजी महाराज को समर्पित है, तभी लिखती हूँ और दशा के साथ कहती हैं – “बिना भक्ति मुझे मोक्ष दो, तभी वास्तविक मोक्ष होगा।“ मैं अपनी लेखनी को धन्य समझूँगी, दैवी दशा की तीसरी यात्रा को प्रस्तुत करने में, क्योंकि यह अनुभव आध्यात्मिक यात्रा में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने में सरल नहीं है। ईश्वर में लय अवस्था प्राप्त करने के बाद मुझे पता लगा कि दिव्यता का अनुभव हमारे समस्त में है। भूमा के गौरव में तैराकी के बाद, वे एक डुबकी के बाद पुनः निकाल लेते हैं। ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने इस दशा के बारे में कहा है। “व्यक्तित्व स्वयं को नहीं पहिचान सकता।“ जब वह अपना स्वरूप खो देता है। यह एक ऐसी एकमात्र एवं अद्भुत दशा है जो हमारे आध्यात्मिक पाठकों को पहले पता नहीं थी। यह श्री बाबूजी महाराज की एक नई पद्धति है। इस दशा को प्राप्त कर लेने के बाद अन्तिम सत्य का पता चल जाता है कि अभ्यासी उसके द्वार तक पहुँच गया है।

प्रिय बहनों एवं भाइयों ! मुझे आज पता चला ‘श्री बाबूजी महाराज’ के कथन के रहस्य के बारे में कि अभ्यासी ईश्वर के अनुराग से आगे बढ़ता है। वह ईश्वर का प्रेम पाता है। सहज मार्ग साधना का रहस्य मैंने अनुभव किया है कि “ईश्वर से योग करो और ईश्वर तुम्हारे भीतर है।“ दैवी रहस्य के बारे में मैंने उनका पूर्ण अनुभव आपके समक्ष व्यक्त किया है क्योंकि ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने अपने अनुसन्धान के सहारे इसका खुलासा कर दिया है।

प्रिय बहनों एवं भाइयों ! मेरा आध्यात्मिक अनुभव, ईश्वर प्रेम का वर्णन, जो मैंने ऊपर किया है, ‘श्री बाबूजी महाराज’ की कृपा एवं उनके संकल्प के कारण ही हुआ है।
संदेश - संत कस्तुरी
विचार शक्ति
कोयम्बटूर
18/6/2010
महान् संतों ने कहा है – “यह सृष्टि आदि विचार की ही विकृति है।“ यह सत्य है कि ‘ऐसा हो’ का ख्याल मूल विचार में ही निहित था। इसमें दिव्य शक्ति का सीधा प्रवाह था। विचार की धारा में कम्पन की उत्पत्ति हुई द्विभाव की धारना विचार शक्ति में आई और एकाकी प्रवाह बिखर कर अनेक में हो गई। एक से दो, दो से तीन, तीन से कई, अन्ततः सैकड़ों में बिखर गई। हम से चूक यह हो जाती है कि हम मूल प्राकृतिक आदि-विचार से अलग हो जाते हैं और हमारा अहम् हमें उस आदिशक्ति से निकली हर धारा का मूल प्रवर्तक बना देता है और हम विकृति की ओर मुड़ जाते हैं तथा स्वयं प्रत्येक धारा के सृष्टिकर्ता बन जाते हैं। यही कारण है कि हम भटक जाते हैं और दैवी शक्ति से विलग हो जाते हैं तथा हमारे विचारों में विकृति पैदा हो जाती है। चूंकि हम अस्तित्व से हटकर विविधता में बँट जाते हैं, हम शक्तिहीन तथा निराश हो जाते हैं तथा हमारे विचारों में विकृति पैदा हो जाती है। हम अपने विचारों में केवल अशुद्धताओं को जोड़ते जाते हैं। इस प्रकार, हम विकृतियों में पलते रहते हैं और आज वे विकृतियाँ हममें पलती रहती हैं। विकृत विचार विष है, जो मन को धीरे-धीरे दूषित करते हुए हमारे हृदय तक फैल जाता है। शनैः शनैः यह विकृतियां सम्पूर्ण सृष्टि में फैल जाती है। ‘ऐसा हो’ का विचार, चूँकि विलम्ब से आया, विकृत विचार ठोस होता गया और इसका बुरा प्रभाव समस्त सृष्टि पर पड़ा।

‘श्री बाबूजी महाराज’ आदि-विचार को पुनः लेकर आये हैं, अथवा दूसरे शब्दों में ‘ऐसा हो’ का सिद्धान्त सहज-मार्ग अभ्यास में आया है। हमारे ध्यान में ‘श्री बाबूजी महाराज’, प्राणाहुति द्वारा, हृदय में स्थित दिव्य शक्ति से हमें जोड़ देते हैं। अपने हृदय में ‘मालिक’ की उपस्थिति का विचार करने से अभ्यासी को आनन्द का अनुभव होने लगता है। दैवी शक्ति प्राप्त होने पर, जो ‘मालिक’ से लगातार प्रवाहित होती रहती है, तथा ‘मालिक’ के ध्यान में डूबे रहने से, वे सभी विषमतायें, जो स्वयं निर्मित हैं और ‘अहम’ के बीज हैं, धीरे-धीरे पिघलने लगते हैं। अनेकता से एकता पुनः वापिस आने लगती है। यह केवल ‘मालिक’ की कृपा है कि एक दिन हम आदि-धारा में प्रवेश पा जाते हैं, जो मिशन के एम्ब्लम के मध्य भाग में दर्शाया गया है। जब श्री बाबूजी महाराज हमारे विचारों को पुनः शुद्ध कर देते हैं, हमें पता चलता है कि हममें कितनी विषमतायें थीं। ध्यानावस्था में ‘मालिक’ दिव्य धारा में बहने में हमारी सहायता करते हैं, तथा अपने निवास स्थान को वापिस लौटने की इच्छा को हमारे विचारों में भर देते हैं। फलतः हमारा विचार जो ईश्वर की याद से भरा है, उनको (मालिक को) समर्पित हो जाता है। हम नहीं जानते कि क्यों और कैसे हमारा विश्वास, प्रेम और समर्पण केवल ‘श्री बाबूजी’ के प्रति हो जाता है, जो लगातार हमें दिव्य शक्ति प्रदान करते रहते हैं और स्वभावतः हम उनसे सम्बन्धित होने का अनुभव करते हैं। यह रहस्य हमारी समझ में अब आया कि हम अध्यात्म में उच्च स्तर तक केवल उन्हीं की सहायता से पहुँच सकते हैं और केवल उन्हीं से अपने को जोड़े रहने पर, जो एक विशिष्ट व्यक्ति हैं और वर्तमान में धरती पर मानव-मात्र को आध्यात्मिकता से जोड़ रहे हैं। यदि ‘श्री बाबूजी महाराज’ में एक बार लय हो जायें, तो हमारी सारी भौतिकता पिघलने लगती है। सहज मार्ग की विशेषता यही है कि दैवी सम्बन्ध से हमारे प्रत्येक कण में दिव्यता स्वयं फैलने लगती है। फलतः हमारे विचार, कर्म, वाणी, जीवन-शैली, सभी कुछ प्राकृतिक रूप में ढलने लगते हैं, तथा एक सहज एवं सम अवस्था में आ जाते हैं।

योग की कैसी विचित्रता हमारे समक्ष आती है। अहम् का वृत्त एक एक कर पिघलने लगता है। श्री बाबूजी महाराज दिव्य शक्ति को सूक्ष्म रूप में हमारे हृदय में उतारते हैं और अपने को हमारे हृदय में प्रकट कर देते हैं। तब धीरे-धीरे प्रातः का आगमन होता है और हम अपनी आत्मा को मूल जीव में लय पाते हैं। आगे बढ़ते हुए, मालिक स्वयं हमारी आत्मा को ईश्वर के ध्यान में डूबे रहने की ओर इशारा करते हैं। इस क्षेत्र में यात्रा करते हुए वह दिन आता है, जब दशा खुलकर अनजाने में हमारी आत्मा ईश्वर में लय होना प्रारम्भ कर देती है। अब हमारी आत्मा किसके साथ है ? क्योंकि अब तक आत्मा हमारे भीतर थी, और अब यह सीमा को पार कर स्वयं में लय हो गई। तब, श्री बाबूजी की कृपा से हमें यह ज्ञान हो जाता है कि दिव्यता हमारे समक्ष खुल रही है। हमारा फैलाव स्वतः ईश्वरीय क्षेत्र में हो जाता है और हमारी दशा भूलने की सीमा को पार कर लेती है। कैसा दैवी चमत्कार है, अभ्यासियों पर श्री बाबूजी की कृपा का। अब वह क्षेत्र आता है, जहाँ से हम मूल धारा से अलग हुए थे। अहम्, इसका केन्द्र तथा वह सब कुछ जो इससे सम्बन्धित है, लुप्त हो जाता है। संत कबीर ने कहा है – “अहम् चला गया, केन्द्र लुट गया”, सत्य है। हमारे समक्ष क्या दैवी साम्राज्य फैला है ? यह कैसा दैविक दृश्य है कि हम स्वयं को ईश्वर में लय हुआ अनुभव करते हैं, किन्तु हमें इसका ज्ञान नहीं रहता कि कौन किसमें लय है ? ऐसा दिव्य दृश्य किसने देखा है ? सिवाय ‘श्री बाबूजी महाराज’ के कौन स्वयं के इस महाप्रलय के दृश्य को दिखा सकता है।

‘श्री बाबूजी महाराज’ की अलौकिक सेवा एवं क्षमता सम्पूर्ण मानव-जाति के लिए उपलब्ध है। उनका मौलिक संकल्प केवल मानव-मात्र को दिव्यता का अनुभव करने के योग्य बनाना है। जब उनकी इच्छाशक्ति से मनुष्य में दिव्य कम्पन उत्पन्न होती है, तब इस कम्पन के प्रभाव से सभी प्रकार की ठोसता एवं अन्य अशुद्धतायें विचार के रूप में ऊपर आ जाती हैं। ये फेन की तरह अशुद्धतायें, विचारों की लहरों द्वारा, पुनः हृदयरूपी सागर में प्रवेश नहीं कर सकती हैं। इस प्रकार, सभी सतही अशुद्धतायें धीरे-धीरे समाप्त हो जाती हैं। और सारी व्यवस्था दिव्यता से ज्योतिर्मय हो जाती है। सद्गुरु के रूप में आयी विशिष्ट विभूति ‘श्री बाबूजी महाराज’ आने वाले समय में मानव-मात्र को प्रेरणा देते रहें तथा अपनी प्राणाहुति शक्ति द्वारा मानव-मात्र को आध्यात्मिक उन्नति में योग देते रहें। यही मेरी उनसे प्रार्थना है।