कोयम्बटूर
9/4/1990
श्री रामचन्द्र मिशन न तो प्राचीन है न ही आधुनिक, क्योंकि एक अवतार जब धरती पर आता है, उसका एक विशेष प्रयोजन होता है जिसे हम लोग ‘मिशन’ कहते हैं। इस सिलसिले में ‘श्री राम’ का अवतरण दानवों के नाश के लिए हुआ था तथा ‘श्री कृष्ण’ दुष्टों को समाप्त कर एक अच्छा साम्राज्य स्थापित करने के लिए धरती पर आये थे। जब उनके अवतरण का अभिप्राय पूरा हो गया, वे धरती से विदा हो गये। मैंने भी इन बातों पर काफी विचार किया है। आरम्भ में मैं भी मूर्ति-पूजा किया करती थी। साधु-सन्तों से मैंने ‘श्री राम’ व ‘श्री कृष्ण’ के बारे में बहुत कुछ सुना और अनुभव किया, किन्तु इससे मेरी जिज्ञासा की पूर्ति नहीं हुई। अतएव, मैंने उनसे पूछा – “स्वामी जी ! मेरा यह अनुभव मेरी पूजा के फलस्वरूप है। इससे अधिक पाने के लिए मुझे क्या करना चाहिए ?” क्योंकि उनका अनुभव परिपक्व था। उन्होंने उत्तर में कहा “ये अनुभव भी बहुत उच्च है।“ साधारणतः यह भी लोगों को नहीं मिलता है। जब मेरे हृदय में प्रबल जिज्ञासा हुई, तब मैंने स्वीकार किया कि “ये स्वयं में महान् हैं।“ श्री कृष्ण की पूजा करते हुए मैने ‘उनकी’ सामीप्यता का अनुभव किया, किन्तु मुझे बार-बार इस निकटता के बारे में सोचना पड़ा। ‘श्री बाबूजी महाराज’ से मिलने के दो दिन पहले मैं अपने आँगन में बैठी थी और ऊपर आकाश की ओर देख रही थी। अचानक आकाश में एक अद्भुत प्रकाश दिखाई दिया। उस प्रकाश में एक आकृति दिखी, जो ‘श्री राम’ की थी, जिन्हें मैं देखती रही और पूजती रही। तब वह प्रकाश लुप्त हो गया। इसके पश्चात् प्रकाश पुनः दृष्टिगोचर हुआ और उस प्रकाश में ‘श्री कृष्ण’ का स्वरूप उपस्थित हुआ, किन्तु यह भी अधिक देर तक नहीं रहा। इसके पश्चात् एक दिव्य संत की आकृति आकाश में उभरी, ऊँचाई मे कुछ कम तथा दिखने में दुबले-पतले। जब मैं ‘श्री बाबूजी महाराज’ से मिली, तब मैं समझी कि उस दिन आकाश में जो आकृति मैंने देखी थी, वह ‘इन्हीं’ की थी। यह देख कर मेरा हृदय नाच उठा, मानों मैं दीर्घकाल से ‘इन्हीं’ की प्रतीक्षा कर रही थी। साथ ही मेरी आँखें बन्द हो गईं और मैं ध्यान में खो गई। आनन्द की यह स्थिति बिना किसी कमी के बनी रही। मेरे पिताजी, जो एक वकील थे, एक दिन कचहरी से आने के बाद हम लोगों से उन्होंने कहा – “एक राजयोगी श्री रामचन्द्र जी महाराज कल हमारे घर पधारने वाले हैं और लोग उन्हें 'बाबूजी' कह कर सम्बोधित करते हैं।“ यह सुन कर मेरी माताजी को कोई खुशी नहीं हुई, क्योंकि पिताजी प्रायः इस प्रकार की बातें किया करते थे। इसके बावजूद हम लोगों में उत्साह भरी एक जिज्ञासा जगी कि कल जब ‘श्री बाबूजी’ आयेंगे तो उनकी उपस्थिति कैसी होगी, इत्यादि। दूसरे दिन मेरे पिताजी एक शिक्षक श्री ईश्वर सहाय जी के घर से ‘श्री बाबूजी’ को लेकर आ गये। दरवाजे पर से ही पिता जी ऊँचे स्वर में बोल पड़े – “देखों मैं श्री बाबूजी को ले आया।“ हम सभी लोग बाहर की ओर दौड़ पड़े। मेरे पिताजी, श्री ईश्वर सहाय एवं श्री बाबूजी महाराज बिल्कुल साधारण भेष-भूषा में खड़े थे। ‘श्री बाबूजी महाराज’ को देखते ही मैं समझ गई कि ये वही व्यक्ति हैं, जिन्हें मैंने कल आकाश में देखा था। मैं प्रफुल्लित होकर उन्हें देखती रही। जब भी कोई विशिष्ट विभूति धरती पर अवतरित होती है, लोगों में विश्वास एवं सन्तोष का अनुभव होता है। ‘श्री बाबूजी महाराज’ के आने के पूर्व हमें भी कुछ ऐसा ही अनुभव हुआ और ‘श्री बाबूजी’ के दर्शन के पश्चात् ऐसा अनुभव हुआ कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ मानव-मात्र को मोक्ष प्रदान करने हेतु पधारे हैं। अब तक हम लोग श्री बाबूजी महाराज के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे और न ही किसी ने उनके बारे में बताया था। जब मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को प्रणाम किया, तो मेरे मुख से स्वतः निकला – “इतने दिनों की प्रतीक्षा के बाद ‘आप’ आज मिले ?” जब मैंने कहा – मैं भी आशा कर रही थी, तब वह कारण समझ में आया कि ‘श्री राम’ एवं ‘श्री कृष्ण’ के बाद ‘श्री बाबूजी’ की आकृति क्यों दृष्टिगोचर हुई थी। वे (श्री राम व श्री कृष्ण) यहाँ कुछ विशेष कार्य के लिए आये थे, दानवों का नाश, इत्यादि, किन्तु ‘श्री बाबूजी महाराज’ समस्त मानव के उद्धार के लिए आये हैं। ‘वे’ हम लोगों को कुछ देने के लिए आये हैं। उनके पधारने का उल्लास एक क्षण को भी उनसे अलग होने नहीं देता था। श्री ईश्वर सहाय ने उद्घोषणा की- “बिटिया! अम्मा सहित तुम सब लोग यहाँ बैठ जाओ।“ हम लोग बैठ गये। तब श्री ईश्वर सहाय ने कहा- “श्री बाबूजी महाराज” तुम सभी लोगों को प्राणाहुति देंगे।“ मेरी माँ कुछ आश्चर्यचकित हुईं और कहा – “पहले ये बतायें ये प्राणाहुति क्या चीज़ है ?” श्री ईश्वर सहाय ने खुलासा किया – “अम्मा ! तुम्हारी अब तक की सारी पूजायें तुम्हारे प्रयास से हुई हैं। यही बात बिटिया के साथ भी हुई है, किन्तु जब मैंने श्री बाबूजी द्वारा लाई गई सहज-मार्ग पद्धति अपनाई, तब मुझे इस प्राणाहुति का अर्थ मालूम हुआ - हम लोग ईश्वर की खोज बाह्य में करते हैं, जबकि ‘ये’ ही सब कुछ हैं और सब कुछ इनमें है। हम लोग अपने भीतर ईश्वर की खोज कदाचित् ही करते हैं, किन्तु, ‘श्री बाबूजी महाराज’ की प्राणाहुति द्वारा हमारे हृदय में दिव्य शक्ति प्रविष्ट की जाती है और उनकी सहायता से हम अनुभव करते हैं कि ईश्वर हमारे भीतर है।“ तब ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने कहा- “अपने विचार में कुछ आने से पूर्व यह निश्चित रूप में जान लो कि ईश्वर तुम्हारे भीतर है। वह तुम्हारा है। तुम्हारी सारी त्रुटियों के बावजूद वह तुमसे दूर नहीं हो सकता। वह सदा तुम्हारे भीतर है। जब तुम उसे याद करते हो तुम्हें ‘उसकी’ सारी खुशियाँ प्राप्त होती हैं। जब तुम ध्यान में बैठते हो, तुम मन में उसका विचार करते हो कि ईश्वर तुम्हारे भीतर है। जैसा कि हम सब लोग जानते हैं कि आरम्भ में ध्यान अविश्वसनीय होता है। सभी प्रकार के विचार बाधा पहुँचाते हैं, यहाँ तक कि हमारी पूर्व पूजाओं के विचार भी उत्पन्न होते हैं, किन्तु बाद में बँट जाते हैं। जब तुम यह विचार बार-बार करोगे कि ईश्वर तुम्हारे भीतर हैं, यह मन को अच्छा लगेगा, क्योंकि जब मन कुछ चाहता है, तब वही चाही हुई वस्तु मन को खुशी देती है। मन बार-बार उसी चीज को याद करता है।“ उस दिन एक प्राणाहुति देने के पश्चात् ‘श्री बाबूजी’ चले गये। तब श्री ईश्वर सहाय ने कहा – “यह अच्छा होगा कि आप लोग कल हमारे घर पधारें।“ दूसरे दिन हम सभी लोग उनके घर गये। पहली प्राणाहुति में मुझे जो आनन्द मिला, उसे मैं नहीं भूल सकती। बचपन से लगभग २० वर्षों तक (मैं छ: साल की उम्र से पूजा करती आ रही हूँ) मुझे पूजा में वह आनन्द नहीं मिला, जो पूजा मैं करती आ रही थी। जब ‘श्री बाबूजी महाराज’ द्वारा दी गई प्राणाहुति की तीन बैठकें पूरी हो गईं, तब मुझे लगा कि ‘श्री बाबूजी महाराज’ सदा हमें अपनी याद में रखते हैं।
आज यह सब कहने का हमारा तात्पर्य यह है कि कई लोग प्रश्न करते हैं कि जब संसार में अनेकों विधियाँ हैं, तो सहज मार्ग की आवश्यकता क्यों हुई ? आवश्यकता पड़ती हैं, क्योंकि वे सब विधियाँ हम सब वर्षों से करते आ रहे हैं। जब मैं मूर्ति-पूजा करती थी, तो जब भी मैं मन्दिर जाती, पूजा का विचार मेरे मन में नहीं रहता था, बल्कि उस मूल शक्ति की ओर रहता था जो उस मूर्ति में प्रवाहित है। आज मैं आप लोगों से इसलिए कह रही हूँ क्योंकि आप सभी लोग किसी न किसी प्रकार की मूर्ति पूजा करते हैं। मूर्ति-पूजा अच्छी चीज़ है, क्योंकि इससे ईश्वर की याद आती है। हमें किसने बनाया, किसने हमें इस धरती पर भेजा और हमारे भीतर कौन रहता है ? इसलिए हम किसी न किसी रूप में पूजा करते हैं, किन्तु, जब यही पूजा हम पूरी तरह समझ कर करें, तब उसके प्रतिफल की सीमा नहीं मापी जा सकती। जब मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ से कहा – “बाबूजी ! मूर्ति पूजा करते समय भी मैं मूर्ति की ओर नहीं देखती थी।“ तब ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने कहा- “बहुत अच्छा ! जब तुम मूर्ति की ओर नहीं देख रही हो, तब समय आ गया है कि मूर्ति पर पड़ा पर्दा हट गया है और उसके भीतर क्या है तुम देख रही हो। यह और भी अच्छा होगा कि तुम वास्तविकता को अपने विचार में रखो और इसे अपनी आदत बना लो, क्योंकि चिन्तन करने से तुम स्वयं को समझ सकोगी। मूर्ति ईश्वर की आकृति नहीं है। ये जितनी भी मूर्तियाँ बनाई गई हैं, ईश्वर को बिना देखे ही बनाई गई हैं। किसी ने भी ईश्वर का उस रूप में दर्शन नहीं किया है, जिस रूप में मूर्ति बनाई गई है। अतएव, बजाय किसी के द्वारा बनाई गई मूर्ति का ध्यान करने के हमारा ध्यान ईश्वर की ओर होना चाहिए जो हमारे भीतर है और हमारा है, ऐसा करना कुछ अच्छा होगा।“
यदि मानव-निर्मित मूर्तियों पर से ध्यान हटा कर, आप उस पर, जो वास्तविक और दिव्य है, पर ध्यान लगायें, तो सात दिनों के भीतर आपको भी उसी आनन्द का अनुभव होगा जो मैंने अनुभव किया है। यह अवश्य होगा, यदि आज नहीं तो कल, कल नहीं तो दूसरे दिन, किन्तु होगा अवश्य। जैसा मैंने पहले कहा है कि जब मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को अपनी आँखों से देखा, मुझे ऐसा ही अनुभव हुआ। अब वह समय आ गया है कि हम वापिस अपने घर को लौट चलें। इसका तरीका और शक्ति का प्रारम्भ हो चुका है। उस क्षण से अब तक मैंने सिर्फ उन्हें ही ध्यान में रखा है। आरम्भ में ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने कहा था - “अपने अनुभवों को एक डायरी में लिखो।“ फिर उन्होंने कहा - “इसे अपनी डायरी में मत लिखो, बल्कि पत्र द्वारा अपने अनुभवों को मुझे बताओ।“ मैंने उन्हें पत्र लिखना प्रारम्भ कर दिया। ‘वे’ यह भी चाहते थे कि ‘उनके’ पत्र और मेरे पत्र प्रकाशित हों, और ऐसा हुआ भी।
जब भी मैंने ‘श्री बाबूजी’ को पत्र लिखा ‘उन्होंने’ उत्तर दिया – “बिटिया ! मैं खुश हूँ कि तुम एक कदम आगे बढ़ गई हो और आशा है कल और भी आगे बढ़ोगी।“ आज वह समय हमारे सामने है और यह उस समय की पुकार है। हमें दिव्यता, जो हमारा हक है और हमारा है, के लिए किसी के पीछे नहीं जाना चाहिए। जब हम ईश्वर का ध्यान करते हैं, जो हमारे भीतर है, समय आ गया है कि प्राणाहुति की वर्षा हमें वास्तविकता की ओर ले जायेगी, जिससे हम अलग हुए थे। ऐसा समय कभी नहीं आया। अपनी युवावस्था से ही मैं अनेक साधु-संतों के सम्पर्क में रहीं और कई बार इनसे ज्ञानवर्धन भी हुआ, किन्तु किसी ने कभी नहीं कहा और न करके दिखाया कि ऐसा करने से तुम ऐसी हो जाओगी। आज सहज मार्ग ने मुझे ऐसा सजाया है, क्योंकि यह पूर्णतः प्राकृतिक है। जब आप इसका अभ्यास करते हैं, प्रारम्भ में आप ध्यान से जूझते हैं, किन्तु धीरे-धीरे कुछ दिन बीत जाने पर आप को वही ध्यान अच्छा लगने लगता है। जब भी समय मिलता है, आप ध्यान में बैठते हैं। यह केवल मेरा विचार नहीं है, बल्कि सामूहिक रूप में अन्य अभ्यासियों के भी विचार हैं। यह किसी भी अभ्यासी के लिए सम्भव नहीं है। कि उसे ध्यान में अच्छा नहीं लगा और उसे ध्यान में आनन्द नहीं मिला। जानते हैं क्यों? जब हम लगातार ध्यान करते हैं, हमें लगातार ईश्वर की कृपा मिलती रहती है। ध्यान से देखा जाये तो ‘वह’ जो हमें लेने आया है, ‘उसे’ मार्ग का भी पता है। मैंने कई बार लोगों को कहते सुना है - “प्राणाहुति बेकार है। जो पूजा हम पहले करते थे, वही अच्छी था। लेकिन उन्हीं लोगों से लगभग १० दिन बाद हमने यह भी सुना है, ‘बाबूजी महाराज’ पिछले १० दिनों से ध्यान नहीं लग रहा है। मन को कुछ अच्छा नहीं लगता है।“
आज ‘श्री बाबूजी महाराज’ की यह सहज-मार्ग साधना सब के लिए एक अच्छा सन्देश है। क्योंकि आज जब अपने घरेलू काम-काज में भोजन बनाते समय या बच्चों को तैयार करते समय इत्यादि अपने मन में यह विचार रखती हैं कि आप जो कुछ भी कर रही हैं, केवल अपने मालिक को खुश रखने के लिए कर रही हैं। खाना बनाते समय सदा यह विचार रखें – “मैं यह भोजन बना रही हूँ, केवल ‘उन्हें’ (मालिक को) खुश करने के लिए।“ जब हम अपना दैनिक कार्य करते हैं और मालिक को याद करते रहते हैं, जो हमारे भीतर है, तो कार्य केवल पूरा ही नहीं होता, बल्कि उसका फल भी हमें मिलता है। आपका बनाया हुआ भोजन भी स्वादिष्ट होता है। आप को यह विचार भी नहीं आयेगा कि आपका समय बेकार गया, क्योंकि आप अपने लिए कुछ नहीं करते। भोजन का स्वाद इसलिए बढ़ा, क्योंकि आपका ध्यान जो अपने भीतर ‘मालिक’ में लगा था, वह भोजन में प्रविष्ट हो गया । इसलिए कुछ भी करने के पूर्व यह विचार कर लें कि ‘मालिक’ आपके भीतर है। ऐसा करने से धीरे-धीरे यह सतत् और स्थाई हो जायेगा और आप को बार-बार विचार करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।
दूसरा पहलू है सफ़ाई । साधारणतः लोग स्नान कर पूजा करते हैं, किन्तु ऐसे विचारों का संकेत मात्र भी नहीं मिलता कि हम क्या करें कि ‘मालिक’ खुश हो और हम ‘उसे’ पा लें। ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने कहा है “बिटिया! सफ़ाई बहुत ज़रूरी है।“ जानते हैं क्यों ? हम अपने भीतर छिपी त्रुटियों एवं बुराइयों को नहीं जानते है और इसीलिए हमें दिव्यता नहीं मिलती है। इसलिए जब हम अपनी इच्छा-शक्ति से सफाई करते हैं, सभी अशुद्धियाँ एवं त्रुटियाँ जो हमारे मन, हृदय और विचारों में थी, ‘मालिक’ की दैवी शक्ति से दूर हो जाती है, धीरे-धीरे, जैसा ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने कहा है कि आदमी आदमी बन जाता है और जब सत्संग में भाग लेता है तो वह अभ्यासी बन जाता है। यही अभ्यास है और अभ्यासी होने का सही अर्थ है। ‘श्री बाबूजी महाराज’ द्वारा प्राणाहुति प्राप्त करने के फलस्वरूप ऐसा लगता है कि ‘मालिक’ सदा हमारे समक्ष उपस्थित है। जब हम अनुभव करते हैं कि ‘वह’ हमारे समाने है, हृदय दिव्य प्राणाहुति में डूबा रहता है। यह अकेला नहीं होता, बल्कि हमारी साधना लगातार हमारे बीच रहती हैं अपने परिवार में रहते हुए तथा अपना दैनिक कार्य करते हुए अपनी साधना द्वारा जो हमें सुख मिलता है, उसकी व्याख्या नहीं की जा सकती। मुझे ऐसी आशा नहीं थी कि ऐसा होगा।
इसके बाद दिव्य प्राणाहुति है। ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने कहा है “थोड़ा आगे बढ़ने पर अभ्यासी को आगे बढ़ने का आभास होने लगता है, साथ ही दैवी कृपा भी मूल से मिलने लगती है।“ आगे चलकर हम पूर्ण रूप से दिव्यता को गले लगा लेते हैं। वह सांसारिक तत्वों से नहीं जोड़ता। ‘श्री बाबूजी महाराज’ कहते हैं – “हृदय का प्रत्येक स्थान ईश्वरीय शक्ति का केन्द्र है।“ इसका अर्थ पूर्णतया समझ में नहीं आता, किन्तु, जब आप उसका कार्य करते हैं, तब आप अनुभव करते हैं कि दिव्यता हृदय में प्रवेश कर रही है। एक प्रिसेप्टर होने के नाते हम अभ्यासी का हृदय ‘मालिक’ से जोड़ देते हैं और प्रार्थना करते हैं कि ‘उनकी’ दैवी कृपा वहाँ प्रवाहित हो। तत्काल प्राणाहुति की धारा प्रवाहित होने लगती है। अभ्यासी को आगे बढ़ने के लिए सभी आवश्यक तत्व उसके हृदय में उपस्थित हो जाते हैं और उसे आगे बढ़ने के लिए सभी कुछ प्राप्त हो जाता है। ये सभी चीजें सहज-मार्ग में निहित हैं।
एक बात और है जो इन सब चीज़ों से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। वह यह है कि हम लोगों को सदा उनकी नज़र में रहना है। श्री ईश्वर सहाय ने कहा – “सीखने के लिए अभी बहुत कुछ बाकी है।“ लेकिन यदि आप उनकी दृष्टि जब खो देते हैं, तब, कब, कैसे और किसके सहारे ‘वे’ आप तक पहुँचेंगे। यदि आप ‘श्री बाबूजी’ के साथ मेरे पत्राचार का अध्ययन करेंगे, आप ‘उन्हें’ इसका जिक्र कई बार करते देखेंगे। आप कुछ आराम का अनुभव करेंगे, क्योंकि यह आप में गति की परिपक्वता का द्योतक है। इसे आप विश्राम का अनुभव कह सकते हैं। मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को एक पत्र में लिखा – “श्री बाबूजी महाराज, जब भी मुझे ‘आपकी’ याद आती है, मुझे ऐसा लगता है, कि मैं शाहजहाँपुर में आपके समक्ष खड़ी हूँ ‘आप’ अपनी कुर्सी पर बैठे हैं और हुक्का पी रहे हैं।“ इस पत्र के उन तक पहुँने के पहले ही ‘उनका’ उत्तर आ गया। उन्होंने श्री ईश्वर सहाय के द्वारा पत्र भेजा जिसमें लिखा था – “इन दिनों जब मैं तुमें याद करता हूँ, मैं अपने को तुम्हारे सामने खड़ा पाता हूँ।“ हर हालत में, हर शब्द और काम में, ‘उनकी’ दृष्टि कभी ओझल नहीं होती। यहाँ तक कि सोते हुए में भी उनकी दृष्टि लगातार हमारी त्रुटियों को दूर करती रहती है और समुचित तरीके से हमें बंधनों से छुड़ाती रहती है। यदि हम अपने आप में सुधार नहीं करते, तब भी उनकी कृपा लगातार काम करती रहती है। जब तक कि सारी बुराइयाँ दूर नहीं हो जाती। एक दिन मुझे बहुत क्रोध आया। उस क्रोध में मैं अपनी आध्यात्मिक दशा का सारा आनन्द खो बैठी। मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को पत्र लिखा श्री बाबूजी महाराज, कृपया आशीर्वाद दें कि ऐसा फिर कभी न हो, क्योंकि इसके बिना आनन्द नहीं मिल सकता। ‘श्री बाबूजी महाराज’ ने उत्तर में लिखा – “यह कोई बड़ी बात नहीं है। कभी-कभी क्रोध की आवश्यकता पड़ती है और यह ठीक भी है, किन्तु, हृदय से क्रोधित मत होना।“ ऐसा कैसे हो सकता है ? जब क्रोध की आवश्यकता होती है तो हृदय से क्रोधित कैसे न हों ? इतने वर्षों में आज यह बात मेरी समझ में आ गई। शब्द आप शक्ति के साथ बोल लेंगे, किन्तु, क्रोध हृदय में लेशमात्र भी न रहे। आज तक मैंने इतने प्यार के साथ कभी किसी को नहीं पाया। मैं आप के समक्ष वही सन्देश लाई हूँ, क्योंकि हम जानते हैं या नहीं और अनजाने में हम सब एक दूसरे से आपस में सम्बन्धित हैं। मैं सोचती हूँ - यह मेरा घर है या किसी दूसरे का घर है, किन्तु हम सब का घर केवल एक ही है और उसका स्वामी भी एक ही है। वह सब के हृदय में वास करता है। मुझे पूरा विश्वास है कि आप सब लोग इस सहज मार्ग पर विचार करेंगे, क्योंकि हम अपना काम करते हुए, बच्चों की देखभाल करते हुए, इत्यादि, यदि हम इस साधना को करें, जिससे इतनी खुशी मिलती है, तब मैं कहती हूँ, इससे अच्छी और कोई साधना नहीं है। साधारणतः हम अपनी हर पूजा को साधना कहते हैं मैं भी यह सब करती थी। रामायण पढ़ना, महाभारत पढ़ना, ईश्वर के बारे में कहानियाँ पढ़ना ये सभी साधनायें हैं। तब साधना का अर्थ क्या होता है ? मैंने ‘श्री बाबूजी महाराज’ को लिखा – “ईश्वर साक्षात्कार के अतिरिक्त जब कोई विचार मन में आता है, तो वह ठहरता नहीं है।“ तब मैं साधना का अर्थ समझी। जब कोई ईश्वर साक्षात्कार का संकल्प हृदय में कर लेता है, तो कोई अन्य विचार उसके मन में नहीं आ सकता है। साधना का यही सही अर्थ है, किन्तु यह इस प्रकार भी हो सकता है, जब आप कोई काम कर रहे होते हैं, तब आपको ऐसा लगता है कि कोई आपको याद कर रहा है। और आप अपने काम में व्यस्त है। सभी लोग जो बड़े कार्यक्रमों में, शादी-ब्याह, इत्यादि में व्यस्त रहते हैं, कहते हैं कि “सभी कार्य खुशी-खुशी सम्पन्न हो गये और ऐसा लगा कि, थकावट कभी आई ही नहीं।“
हम सभी एक परिवार हैं। जब भी संभव हो, परिवार के सभी सदस्य एक स्थान पर एकत्रित हों। जब तक यह शरीर चले, जब तक मैं आने की स्थिति में रहूँ, मेरा प्रयास केवल यही रहेगा, ‘वह’ जिसने इस शुभ सन्देश से कृपा की है, यदि आप सभी लोग वैसे ही बन जायें, जैसे ‘वह’ चाहता है, तो मेरा यहाँ आना सफल हो जायेगा और यही आपके जीवन की भी सफलता होगी।